हड़प्पा सभ्यता – Part I

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • यह जान पाएंगे कि हड़प्पा की सभ्यता की खोज कैसे की गई?
  • यह जान पाएंगे कि इसके कालक्रम का निर्धारण कैसे हुआ?
  • यह समझ सकेंगे कि ग्रामीण समुदाय किस तरह धीरे-धीरे हड़प्पा की सभ्यता में परिवर्तित हुए?
  • यह जान पाएंगे कि हड़प्पा की सभ्यता का भौगोलिक विस्तार किस प्रकार हुआ?

आपने पढ़ा है। कि किस प्रकार मानव समाज शिकारी संग्रहकर्ता से कृषि समाज की ओर अग्रसर हुआ। कृषि की शुरुआत के कारण ही मानव समाज में व्यापक परिवर्तन हुए। कृषि की शुरुआत का एक महत्वपूर्ण परिणाम था नगरों और सभ्यताओं का अभ्युदय। इस इकाई में आप एक ऐसी ही सभ्यता के उद्भव से परिचित होंगे, जिसे हड़प्पा की सभ्यता कहते हैं।

एक प्राचीन शहर की खोज

1826 में चार्ल्स मोसन नामक एक अंग्रेज पश्चिमी पंजाब (जो अब पाकिस्तान में है) में हड़प्पा नामक गाँव में आया। उसने वहाँ बहुत पुरानी बस्ती के बुर्जी और अद्भुत ऊँची-ऊंची दीवारों को देखा। उसने यह समझा कि यह शहर सिकन्दर महान् के समय का है। सन 1872 में प्रसिद्ध पातत्ववेत्ता सर अलक्जेंडर कनिंघम इस स्थान पर आया उसे आस-पास के क्षेत्रों के लोगों ने बताया कि हड़प्पा के ये ऊँचे-ऊँचे टीले हजार वर्ष पुराने शहर के अवशेष हैं। अपने राजा की दुष्टता के कारण यह शहर नष्ट हो गया था।

कनिंघम ने इस स्थान से कुछ पुरातात्विक वस्तुएँ इकट्ठी की, लेकिन वह इन वस्तुओं का काल निर्धारण न कर सका। उसने सामान्य तौर पर यह माना कि संभवतः ये वस्तएँ भारत से बाहर की हैं। इसलिए उसने गांव के लोगों के इस मत से सहमति व्यक्त की कि यह शहर लगभग एक हजार वर्ष पराना है। फिर भी 1924 में एक अन्य परातत्वविद जॉन मार्शल ने हड़प्पा के विषय में रिपोर्ट दी और एक लम्बे समय से विस्मत सभ्यता के बारे में बताया। यह सभ्यता उतनी ही प्राचीन थी जितनी मिश्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताएं। है न विचित्र बात?

आस-पास के क्षेत्रों के लोग इस शहर के अवशेषों के प्रति उदासीन थे। फिर एक और परातत्ववेत्ता भारत आया और उसने हमें बताया कि यह शहर लगभग पांच हजार वर्ष पराना है। इस संबंध में सामान्य लोगों और विद्वानों के मत इतने भिन्न क्यों थे? किसी बस्ती के काल निर्धारण के लिए इन्होंने क्या तरीके अपनाए?

हड़प्पा की सभ्यता का युग

पुरातत्ववेत्ता यह पता लगाने के लिए कि ये बस्तियां कितनी पुरानी हैं, अलग-अलग तरीके अपनाते हैं। अब हम मार्शल के उस मत की जांच करेंगे, जिसमें उन्होंने बताया है कि हड़प्पा की सभ्यता पांच हजार वर्ष पुरानी है। कनिंघम इस सभ्यता को एक हजार वर्ष पुरानी मानते हैं। मार्शल ने पता लगाया कि हड़प्पा में मिलीं मुहरें, ठप्पे, लिखित लिपि और कलाकृत्तियां उनसे बिल्कुल भिन्न थीं जिनसे विद्वान पहले से परिचित थे और जो बहुत बाद के समय की थीं। इसी प्रकार सिंध में मोहनजोदड़ो नामक स्थान से इसी प्रकार के तथ्य सामने आए हैं।

मोहनजोदड़ो में प्राचीन बस्तियां कुषाण युग से संबंधित बौद्ध बिहार के नीचे दबी हुई पाई गई। यह पाया गया है कि यदि प्राचीन काल में कोई मकान किसी कारणवश नष्ट हो जाता था तो लोग आमतौर पर उस मकान की ईंट और गारे का चबूतरा तैयार करने के लिए। प्रयोग करते थे और उस पर दूसरा मकान बनाते थे। इसलिए यदि कोई पुरातत्ववेत्ता किसी क्षेत्र की खुदाई करता है और किसी मकान के नीचे उसे दूसरे मकान के अवशेष मिलते हैं तो वह पता लगा सकता है कि नीचे वाला मकान ऊपर वाले मकान से पुराना है। इसलिए वह जितनी गहरी खुदाई करता है, कालक्रम की दृष्टि से वह उतना ही पीछे पहुँच जाता है।

इस प्रकार मार्शल यह पता लगा सका कि बौद्ध विहार के नीचे जो मक, थे वे अवश्य ही कषाणकाल से पहले के रहे होंगे। इसके बाद इस बात का भी प्रमाण मिल गया कि इन । बस्तियों में रहने वाले लोग लोहे का प्रयोग करना नहीं जानते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि ये शहर उस युग के थे जब लोगों को लोहे के बारे में जानकारी नहीं थी।

लोहे का प्रयोग 2000 ई. पू. के शुरू में हुआ। जब मार्शल ने अपने खोजों द्वारा प्राप्त जानकारी को प्रकाशित किया तो कुछ अन्य लेखकों को मेसोपोटामिया में ऐसी वस्तुएं मिलीं जो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की वस्तओं से मिलती-जलती थीं। मेसोपोटामिया के शहर 3000 ई. पू. के आरंभ में अस्तित्व में आए। इस प्रकार मेसोपोटामिया के प्राचीन शहरों में हड़प्पा की सभ्यता में पाई जाने वाली कोई वस्तु मिल जाती थी तो उससे यह पता चलता था कि हड़प्पा के निवासी ओर मेसोपोटामिया के निवासी समकालीन थे। इन साक्ष्यों से विद्वान यह पता लगा सके कि स्थानीय लोगों और कनिंघम के निष्कर्ष गलत थे। मार्शल द्वारा प्रतिपादित हड़प्पा के काल क्रम को रेडियो कार्बन डेटिंग जैसे काल-निर्धारण के नए . तरीकों, से और भी समर्थन मिला है। इसलिए विद्वानों ने हड़प्पा पूर्व (Pre Harappa) और हड़प्पा की संस्कृतियों के लिए निम्नलिखित कालक्रम माना है :

हड़प्पा पूर्व और हड़प्पा संस्कृति का कालानुक्रम

5500 ई. पू. से 3500 ई. पू. तक नवपाषाण युग

बलूचिस्तान और सिंधु के मैदानी भागों में स्थिति मेहरगढ़ और फीली गुलमुहम्मद जैसी बस्तियां उभरीं। यहां लोग पशु चराने के साथ-साथ थोड़ा बहुत खेती का काम भी करते थे। इस प्रकार स्थायी गांवों का उद्भव हुआ। इस युग के लोग गेहूं, जौं, खजूर, तथा कपास की खेती की जानकारी रखते थे ओर भेड़ बकरियों और मवेशियों को पालते थे। साक्ष्य के रूप में मिट्टी के मकान, मिट्टी के बर्तन, और दस्तकारी की वस्तुएं मिली हैं।

3500 ई. पू. से 2600 ई. पू. तक आरम्भिक हड़प्पा काल

इस काल में पहाड़ों और मैदानों में बहुत सी बस्तियां स्थापित हुईं। इसी समय गांव सबसे अधिक संख्या में आबाद हए। तांबा, चाक और हल का प्रयोग कर कई प्रकार के मिट्टी के अद्भुत बर्तन बनाए जाते थे जिससे कई क्षेत्रीय परम्पराओं के आरम्भ का पता चलता है। अन्न भंडार, ऊँची-ऊँची दीवारें और सदर व्यापार के प्रमाण मिले हैं। सारी सिंध घाटी में मिट्टी के बर्तनों की एकरूपता के प्रमाण मिलते हैं। इसके साथ-साथ पीपल, कुबड़े बैलों, शेषनागों, सींगदार देवता आदि के रूपांकनों के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं।

2600 ई. पू. से 1800 ई. पू. तक”पूर्ण विकसित हड़प्पा युग

बड़े शहरों का अभ्युदय, समान आकार की ईंटें, तौलने के बाट, मुहरें, और मिट्टी के बर्तन, नियोजित ढंग से बसे हुए शहर और दूर-दूर स्थानों के साथ व्यापार।

1800 ई. पू. से आगे”उत्तर-हड़प्पा युग

हड़प्पा की सभ्यता के बहुत से शहर खाली हो गए, अंतर-क्षेत्रीय विनिमय में ह्रास हुआ, लेखन कार्य और शहरी जीवन का त्याग कर दिया गया। हड़प्पा की सभ्यता के शिल्प और मिट्टी के बर्तनों की परम्परा जारी रही। पंजाब सतलुज यमुना की ग्रामीण संस्कृतियों का विभाजन और गजरात में हड़प्पा की शिल्प और मिट्टी के बर्तनों की परंपराओं का अपनाया जाना।

इसे हड़प्पा की सभ्यता क्यों कहा जाता है?

हडप्पा की खोज के बाद से अब तक लगभग एक हजार बस्तियों की खोज की जा चकी है जिनकी विशेषताएं हड़प्पा से मिलती हैं। विद्वानों ने इसे “सिंध घाटी की सभ्यता” का नाम दिया क्योंकि शुरू में बहुत सी बस्तियां सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं। पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” ही कहना पसंद करते हैं। ऐसा इसलिए है कि पुरातत्व-विज्ञान में यह परिपाटी है कि जब किसी प्राचीन संस्कृति का वर्णन किया जाता है तो उस स्थान के आधुनिक नाम पर उस संस्कृति का नाम रखा जाता है,

जहां से उसके अस्तित्व का पता चला है। हमें यह मालूम नहीं है कि वे लोग अपने को क्या कहते थे क्योंकि हम उनकी लिखाई नहीं पढ़ पाये हैं। इसलिए हम आधुनिक स्थान हड़प्पा को आधार मानकर उन्हें हड़प्पावासी कहते हैं। क्योंकि इसी स्थान पर इस विस्मृत सभ्यता का प्रमाण सबसे पहले मिला था।

पूर्ववर्ती इतिहास

जब हम “हड़प्पा की सभ्यता’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमारा तात्पर्य असंख्य शहरों, कस्बों और गांवों से होता है जो 3000 ई. पू. में पूर्णतः विकसित हो चुके थे। एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र के अंतर्गत इन शहरों और गांवों में आपसी संबंध थे। इन भौगोलिक स्थानों के अंतर्गत मोटे तौर पर आज का राजस्थान, पंजाब, गुजरात, पाकिस्तान और कुछ आसपास के क्षेत्र आते हैं। यदि हम हड़प्पा की सभ्यता के उद्भव से इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों द्वारा छोड़े गए अवशेषों का अध्ययन करते हैं तो हमें शहरों के उद्भव की जानकारी मिल सकती है।

विद्वानों का विचार है कि मानवजाति के अतीत में एक ऐसा समय था जब शहरों का अस्तित्व नहीं था और लोग छोटे-छोटे गांवों में रहते थे। अब प्रश्न यह उठता है कि हड़प्पावासियों के पूर्वज कस्बों और शहरों के उद्भव से पहले क्या किया करते थे। ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे पता चलता है कि हड़प्पावासियों के पूर्वज गांवों और छोटे-छोटे कस्बों में रहा करते थे। उनमें से घूम-फिरकर पशु चराने का काम करते थे और कुछ व्यापार के कार्य में लगे हुए थे। हड़प्पा की सभ्यता से कृषक और अर्ध यायावर समुदायों के एक लम्बे समय से चले आ रहे विकास के चरमोत्कर्ष का पता चलता है। अब हम हड़प्पा की सभ्यता के पूर्ववर्ती इतिहास की समीक्षा करेंगे। सबसे पहले हम हड़प्पा की सभ्यता के भौगोलिक क्षेत्र की भौगोलिक विशेषताओं को समझने का प्रयास करेंगे।

भौगोलिक विशेषताएं

आज के पाकिस्तान और उत्तर पश्चिम भारत के क्षेत्र “हड़प्पा की सभ्यता” के प्रमुख क्षेत्र थे। इन क्षेत्रों में मौसम सखा रहता है और वर्षा बहत कम होती है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर है। पंजाब और सिंधु के क्षेत्र में सिंधु नदी के कछारी मैदानों की प्रधानता है। इसी प्रकार बलूचिस्तान के क्षेत्र की एक विशेषता है उसकी दर्गम चट्टानी पहाड़ियां। उत्तर पूर्वी बलूचिस्तान में घाटियों की तलहटी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां खेती होती होगी। इस क्षेत्र में पशुचारी तथा खानाबदोश जातियां भी रहती आई हैं। ये पशुचारी खानाबदोश जातियां अपने पशुओं के लिए चारे की खोज में ऊंचे स्थानों से निचले स्थानों पर आती जाती रहती थीं। वह सीमांत क्षेत्र जो सिंध के मैदान में जा मिलता है, पूर्वी ईरान के पठार का ही विस्तारण है।

इन पहाड़ी क्षेत्रों में खैबर, गोमाल, बोलन जैसे कई दरें बन गए हैं। खानाबदोशों, व्यापारियों, योद्धाओं और विभिन्न लोगों के लिए ये आने-जाने के मार्ग बन गए थे। एक तरफ बलूचिस्तान के ऊपरी भागों के लोगों और सिंध नदी के मैदानों में बसे लोगों और दूसरी तरफ ईरान में रहने वाले लोगों के बीच अन्तरसम्बन्ध इस भौगोलिक विशेषता से जुड़ा प्रतीत होता है। हड़प्पा की सभ्यता की जलवायु और पहाड़, नदियां आदि तथा ईरान और ईराकी सीमांत प्रदेश की जलवायु और प्राकृतिक दृश्य में समानता होने के कारण। विद्वानों ने यह अनुमान लगाया कि इन क्षेत्रों में कृषक समुदायों का अभ्युदय मोटे तौर पर एक ही काल में हुआ होगा। ईरान और ईराक में खेतीबाड़ी का आरम्भ लगभग 8000 ई. पू. में हुआ है। अब हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि सिंधु के आस-पास के क्षेत्रों में कृषि की शुरुआत के विषय में प्रमाण मिले हैं।

कृषि की शुरुआत और बसे हुए गांव

कृषक समुदायों के उद्भव का सबसे प्राचीन प्रमाण मेहरगढ़ नामक स्थान से मिलता है जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में बोलन दर के निकट स्थित है।  यह स्थान अस्थायी शिविर के रूप में स्थापित हुआ तथा पांचवीं सहस्त्राब्दी ई. पू. में । आबाद गांव बन गया। इस स्थान पर लोग गेंहू, जौ और खजूर पैदा करते थे और भेड़-बकरियों और मवेशी पालते थे।

मेहरगढ़ उस स्थान पर स्थित है जहां सिंधु नदी के कछारी मैदान और भारत-ईरान सीमांत प्रदेश के ऊँचे-नीचे पहाड़ी पठार मिलते हैं। मेहरगढ़ के लोग कच्चे मकानों में रहते थे। कछ मकानों में पांच-छह कमरे होते थे। तीसरी सहस्त्राब्दी ई. प. के मध्य में बहत से छोटे और बड़े गांव सिंध नदी के आस-पास बलचिस्तान और अफगानिस्तान के क्षेत्र में बस गए थे। इनमें से कछ मशहर हैं : बलचिस्तान में कीली गल मोहम्मद और अफगानिस्तान में मुंडीगक। सिंधु नदी के बाढ़ वाले मैदानों में हड़प्पा के पास जलीलपुर जैसे गांव बस गए थे। इन किसानों ने सिंध नदी के अत्यधिक उपजाऊ मैदानों का उपयोग करना सीख लिया था, इसलिए गांवों के आकार और उनकी संख्या एकाएक बढ़ गई।

इन किसानों ने सिंधु  नदी के मैदानों का धीरे-धीरे उपयोग करना और सिंध नदी की बाढ़ पर नियंत्रण करना सीख लिया था। इस प्रकार प्रति एकड़ भूमि पर खेती करने से प्रचुर मात्रा में उपज होती . थी। इस कारण सिंधु, राजस्थान, बलूचिस्तान और अन्य क्षेत्रों में भी बस्तियों का काफी विस्तार हुआ। उन्होंने अपने लिए उपयोगी पत्थरों की खदानों और अन्य खदानों का उपयोग करना सीख लिया था। इस काल में अस्थायी बस्तियों में पशचारी खानाबदोश समुदायों के मौजूद होने के संकेत मिलते हैं। कृषकों के इन खानाबदोश समूहों से संपर्क ने कृषकों को अन्य क्षेत्रों के संसाधनों का उपयोग करने में सहायता दी क्योंकि पशुचारी खानाबदोशों के बारे में यह माना जाता है कि जिन क्षेत्रों से वे गुजरते हैं वे वहां व्यापारिक गतिविधियों में लग जाते हैं। इन सभी कारणों से छोटे-छोटे कस्बों का विकास हआ। सिंध नदी के आस-पास के क्षेत्रों की सभ्यता में पाई गई कछ समानताओं के कारण इस नए। विकास के काल को “आरम्भिक हड़प्पा काल” कहते हैं।

आरम्भिक हड़प्पा काल

अब हम हड़प्पा सभ्यता के अभ्युदय के कुछ समय पहले की कुछ बस्तियों की समीक्षा करेंगे। बहुत से विद्वानों ने इसे आरम्भिक “हड़प्पा काल” कहा है क्योंकि उनका विश्वास है कि यह हड़प्पा की सभ्यता का निर्माण-युग था जिसमें सांस्कृतिक एकता की कुछ प्रवृत्तियों के प्रमाण भी मिले हैं।

दक्षिणी अफगानिस्तान

दक्षिणी अफगानिस्तान में मुंडीगक नामक स्थान है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह स्थान व्यापारिक मार्ग पर स्थित रहा होगा। सिंधु सभ्यता के आरम्भिक काल में इस स्थान के निवासी शिल्पकृतियों का प्रयोग करते थे जिनसे एक ओर ईरान के कुछ नगरों और दूसरी ओर बलूचिस्तान के कुछ नगरों के साथ संबंधों का पता चलता है।

खानाबदोश लोगों के कुछ समूहों द्वारा पड़ाव डालने की धीमी शुरुआत से यह स्थान एक घनी आबादी वाला नगर हो गया। इस बात के प्रमाण हैं कि यहां ऊँची दीवार होती थी जिसमें धूप में सखाई गई ईंटों के वर्गाकार बुर्ज थे। एक विशाल भवन जिसमें खंभों की कतारें थीं महल के रूप में पहचाना गया है। दूसरा विशाल भवन मंदिर जैसा प्रतीत होता है। इसी स्थान पर मिट्टी के बर्तनों की अनेक किस्में भी मिली हैं। वे लोग प्राकृतिक सजावट के रूप में चिड़ियों, लम्बे सींग वाले जंगली बकरे, बैल और पीपल के पेड़ों को चित्रित करते थे। पक्की मिट्टी की बनी हुई स्त्रियों की छोटी छोटी मूर्तियां भी मिली हैं जो बलूचिस्तान की बस्तियों में पाई गई मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं। वे कांसे की मूठदार कुल्हाड़ियों और बसलों का प्रयोग करते थे। सेलखड़ी और लाजवर्द जैसे अल्प अमूल्य पत्थरों से ईरान और मध्य एशिया के साथ अनेक संबंधों का पता चलता है क्योंकि ये पत्थर स्थानीय रूप से उपलब्ध नहीं थे।

क्वेटा घाटी

मुंडीगक के दक्षिण पूर्व की ओर क्वेटा घाटी है। दंब सादात नामक स्थान में बड़े-बड़े ईंटों के घर पाए गए हैं जिनका संबंध तीसरी सहस्त्राब्दी ई. पू. के आरम्भ से है। कई प्रकार के चित्रकारी किए हए मिट्टी के बर्तन भी पाए गए हैं जो मंडीगक में पाए गए मिटटी के बर्तनों जैसे ही हैं ये लोग पक्की मिट्टी की मोहरों और तांबे की वस्तुओं का भी प्रयोग करते थे। इन खोजों से उस समय के समदायों की सम्पन्नता का संकेत मिलता है जिन्होंने अपनी खाद्य समस्या सलझा ली थी और दूर के क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध स्थापित कर लिए थे। इसी प्रकार आस-पास के क्षेत्रों से भी विशिष्ट कला और मिट्टी के बर्तनों की परंपरा के बारे में जानकारी मिली है।

राना धुंदई नामक स्थान में लोग बारीकी से बने हुए तथा चित्रकारी किए हए मिट्टी के बर्तन प्रयोग करते थे। इन पर काले कबड़े बैलों के चित्र बने होते थे। इन मिट्टी के बर्तनों तथा क्वेटा घाटी में पाए गए मिट्टी के बर्तनों में सुस्पष्ट समानताएं पाई गई। एक अन्य स्थान पेरिआनों घंदाई जिसकी खुदाई की गई है, में भी एक विशिष्ट प्रकार की स्त्रियों की छोटी-छोटी मूर्तियां पाई गई हैं।

मध्य और दक्षिणी बलूचिस्तान

मध्य और दक्षिणी बलूचिस्तान में अंजीरा तोगाऊ, निंदोवाड़ी और बालाकोट जैसी बस्तियां हमें आरम्भिक हड़प्पा सभ्यता के समाजों की जानकारी देती हैं। घाटी की व्यवस्था के अनुसार गांव और उपनगर विकसित हुए। बालाकोट में विशाल इमारतों के अवशेष पाए गए हैं। इस क्षेत्र की कई बस्तियों से फारस की खाड़ी से सम्पर्क का पता चलता है। बालाकोट में जो लोग सबसे पहले बसे उसी प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे जिस प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग बलचिस्तान के समकालीन गांवों के लोग करते थे किंत कछ समय पश्चात् उन्होंने सिंधु नदी के कछारी मैदानों में प्रयुक्त किए जाने वाले मिट्टी के बर्तनों के समान ही मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया था।

हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि सम्पूर्ण बलूचिस्तान प्रांत के लोग एक ही प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार उन पर एक ओर पारस की खाड़ी के नगरों का तथा दसरी ओर सिंध घाटी के नगरों के प्रभावों का पता चलता है। वे अपने मिट्टी के बर्तनों पर कुबड़े बैल और पीपल के चिन्हों का प्रयोग करते थे जो विकसित हड़प्पा काल में भी जारी रहा।

सिंधु क्षेत्र

चौथी सहस्त्राब्दी ई. पू. के मध्य तक सिंधु के कछारी मैदान परिवर्तन का केन्द्र बिंदु बन गए। सिंधु नदी और छग्गर-हाकरा नदियों के किनारों पर बहुत सी छोटी और बड़ी बस्तियां बस गईं। यह क्षेत्र हड़प्पा की सभ्यता का मुख्य क्षेत्र बन गया। इस चर्चा में हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार इन घटनाओं से हड़प्पा की सभ्यता की अनेक विशेषताओं का पता चला।

1. आमरी

सिंधु घाटी के निचले मैदानों के समान सिंधु प्रांत के विकास का पता चलता है। आमरी में मिले मकानों के अवशेषों से पता चलता है कि लोग पत्थर और मिटटी की ईंटों के मकानों में रहते थे। उन्होंने अनाज को रखने के लिए अनाज के कोठार (अन्नागार) भी बनाए थे।

वे मिट्टी के बर्तनों पर भारतीय कुबड़े बैलों जैसे जानवरों के चित्र बनाते थे। यह चित्र (चिन्ह) पूर्ण विकसित हड़प्पा काल में बहुत लोकप्रिय था। वे चाक पर बने मिट्टी के बर्तनों का भी प्रयोग करते थे। थारो और कोहत्रास बथी जैसे स्थानों से भी ऐसी ही वस्तएं पाई गईं। यहां पर हड़प्पा की सभ्यता के शुरू होने से पहले ही उन्होंने अपनी बस्तियों की किलेबंदी कर ली थी।

 प्रारम्भिक हड़प्पा सभ्यता के मिट्टी के बर्तन : कोट बीजी

 

2. कोट बीजी

मोहनजोदड़ो के सामने सिंधु नदी के बाएं किनारे पर कोट दीजी नामक स्थान है। आरंभिक हड़प्पा काल में यहां के निवासियों ने अपनी बस्ती के चारों ओर अति विशाल सुरक्षात्मक दीवार बना ली थी। उनकी सबसे बढ़िया खोज मिट्टी के बर्तन हैं। वे चाक पर बने मिटटी के बर्तनों का प्रयोग करते थे जिन पर गहरे भूरे रंग की साधारण धारियों की सजावट होती थी। इस प्रकार के मिट्टी के बर्तन राजस्थान में कालिबंगन और बलूचिस्तान में मेहरगढ़ जैसे दूर-दराज के स्थानों में बसे पूर्व हड़प्पा काल के निवासियों के बताए जाते हैं। कोट दीजी मिट्टी के बर्तनों की किस्में सिंधु नदी के आस-पास के सम्पूर्ण भू-भाग में पाई गई हैं जहां पर हड़प्पा के पूर्व-शहरी और शहरी अवस्था से संबंधित बस्तियों के बारे में जानकारी मिली है। मिट्टी के बर्तनों का समान रूप से सजावट की इस प्रवृत्ति से यह संकेत मिलता है कि सिंधु नदी के मैदानी भागों में रहने वाले लोगों के बीच घनिष्ठ संबंध थे। इससे हड़प्पा की सभ्यता में संस्कृतियों के मूल की प्रक्रिया का भी पूर्वाभास मिलता है।

मिट्टी के बर्तनों के अनेक डिजाइन शहरी अवस्था तक शेष रहे। उसी समय के अन्य मिट्टी के र्बन मुंडीगक में बने हुए मिट्टी के बर्तनों के समान थे। इससे आरंभिक हड़प्पा के स्थानों में विस्तृत आपसी संबंधों का पता चलता है। पुरातत्ववेत्ताओं ने मोहनजोदड़ो में इस मैदान की आधुनिक स्तर के 39 फट नीचे तक खुदाई करके अधिभोग निक्षेप का पता लगाया है। इस प्रकार चान्हदड़ो नामक स्थान पर आरंभिक हड़प्पा के मकानों का पता चला है। मोहनजोदड़ो में शरू के स्तर तक खदाई नहीं हो पाई है परंत अनेक पुरातत्ववेत्ताओं का यह विश्वास है कि उनके रहन-सहन के ढंग से आरंभिक हड़प्पा की संस्कृति की जानकारी मिलती है जो संभवतः कोट दीजी की संस्कृति से मेल खाती है।

3. मेहरगढ़

इससे पहले भी हम मेहरगढ़ स्थल के बारे में बता चुके हैं। हड़प्पा के शहरीकरण के पूर्ववर्ती काल में मेहरगढ़ के लोगों ने एक संपन्न उपनगर बसाया था। वे पत्थरों की कई प्रकार की मालाएं बनाते थे। वे एक कीमती पत्थर लाजवर्द मणि का प्रयोग करते थे जो केवल मध्य एशिया के बदख्शां क्षेत्र में पाया जाता है। बहुत सी मोहरों और ठप्पों का भी पता चला है। आपसी लेन-देन में प्राधिकार के चिन्ह रूप में इन मोहरों का प्रयोग होता था।

मेहरगढ़ की मोहरों का प्रयोग संभवतः व्यापारियों द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों को भेजे जाने वाले माल की गुणवत्ता की गारंटी देने के लिए किया जाता था। मिट्टी के बर्तनों के डिजाइन, मिट्टी की बनी मूर्तियों, तांबे ओर पत्थर की वस्तओं से पता चलता है कि इन लोगों का ईरान के निकटवर्ती नगरों के साथ घनिष्ठ संबंध था। मेहरगढ़ के लोगों द्वारा प्रयोग किए गए अधिकतर मिट्टी के बर्तन दम्ब सादात और क्वेटा घाटी की बस्तियों में प्रयुक्त किए जाने वाले बर्तनों से मिलते थे। इसके अतिरिक्त मिट्टी की बनी स्त्रियों की बहुत सी मूर्तियां भी मिली हैं। वे जोब घाटी में पाई गई मूर्तियों से बहुत कुछ मिलती जुलती हैं। इन समानताओं से उस क्षेत्र में रहने वाले समुदायों के बीच निकट आपसी संबंधों का पता चलता है।

4.रहमान

ढेरी यदि हम सिंधु नदी के उत्तर की ओर चलें तो हमें कुछ और बस्तियां मिलेंगी जिनसे हमें यह पता चलता है कि आरंभिक हड़प्पा काल में लोग किस प्रकार रहते थे। रहमान ढेरी नामक स्थान पर आरंभिक सिंधु उपनगर की खुदाई की गई है। यह उपनगर आयताकार था और इसमें घर, सड़कें, गलियां नियोजित ढंग से बने हुए थे। इस उपनगर की सुरक्षा के लिए एक विशाल दीवार थी यहां भी फीरोजी और नीलम के मनके मिले हैं। इससे उनके मध्य एशिया के साथ संबंधों का पला चलता है।

बर्तनों के टकड़ों पर पाए गए असंख्य भित्ति चित्र हड़प्पालिपि के पूर्वसूचक हो सकते हैं। इस क्षेत्र में मिट्टी के बर्तनों की स्वतंत्र परंपरा धीरे-धीरे बदल गई और कोट दीजी के मिट्टी के बर्तनों के समान मिट्टी के बर्तनों ने स्थान ले लिया। पत्थर, तांबे और कांसे से बनी मोहरे और औजार भी मिले हैं।

5. तरकाई किला

बन्न क्षेत्र के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में तरकाई किले की किलेबंदी का प्रमाण भी मिला है। पुरातत्वविदों ने खाद्यान्नों के बहुत सारे नमूने खोज निकाले हैं जिनमें गेहं और जौं, मूंग-मसूर की दालें और देसी मटर के नमूने शामिल हैं। फसल काटने के औजारों का भी पता चला है। उसी क्षेत्र में लीवान नामक स्थान पर पत्थर के औजार बनाने के एक बहुत बड़े कारखाने का पता चला है। हड़प्पा के निवासी और उनके पूर्वज लोहे और तांबे के। बारे में बिल्कल भी जानकारी नहीं रखते थे। अतः अधिकतर लोग पत्थर से बने औजारों का प्रयोग करते थे। इसलिए कुछ स्थानों पर जहां अच्छी श्रेणी का पत्थर उपलब्ध था, बड़ी संख्या में औजार बनाए जाते थे और उसके बाद उन औजारों को दूर-दूर के नगरों और गांवों में भेजा जाता था। लीवान में लोग पत्थर के कल्हाड़े, हथौड़े, चक्कियाँ आदि बनाते थे।

इस काम के लिए वे निकटवर्ती क्षेत्रों से भी उपयुक्त चट्टानी पत्थर मंगाते थे। नीलम और मिट्टी की बनी मूर्तियों के पाए जाने से मध्य एशिया के साथ संबंधों का पता चलता है। सरायखोला नामक स्थान पर जो पश्चिमी पंजाब के उत्तरी किनारे पर स्थित है एक अन्य आरंभिक हड़प्पा बस्ती का पता चला है। यहां पर भी लोग कोट दीजी जैसे मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे।

लीवन में पाए गए रंगे हुए मिट्टी के बर्तन जिन पर पीपल के पत्तों तथा बैलों के सिर की आकृतियां बनी

 

पंजाब और बहावलपुर :

पश्चिमी पंजाब में हड़प्पा प्रसिद्ध है। एक खुदाई के दौरान शहरीकरण की अवस्था से पहले की बस्तियों की खोज की गई है। दुर्भाग्यवश अभी तक उनकी खुदाई नहीं हुई है। यहां पाए गए मिट्टी के बर्तन कोट दीजी के बर्तनों के समान हैं। विद्वानों का विचार है कि ये बस्तियां हड़प्पा में ‘आरंभिक हड़प्पा काल’ में रही होंगी। बहावलपुर क्षेत्र में हाकरा नदी की सखी तलहटी में आरम्भिक हड़प्पा काल के लगभग 40 स्थानों का पता लगाया गया है। कोट दीजी में पाए गए मिट्टी के बर्तनों से यहां पर भी आरभिक हड़प्पा सभ्यता का पता चलता है।

इन स्थानों का बस्ती के स्वरूप के तुलनात्मक विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि आरंभिक हड़प्पा काल में कई प्रकार के मकान बन गए थे। जबकि कई स्थानों में तो साधारण गांव ही थे और उनमें से कुछ स्थानों में विशिष्ट औद्योगिक कार्य हो रहे थे। इसलिए हम देखते हैं कि अधिकतर स्थानों का औसत आकार लगभग पांच से छह एकड़ था गमनवाला 27.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। इसका अर्थ यह हआ कि गमनवाला कालीबंगन के हड़प्पा उपनगर से बड़ा था। इन उपनगरों में कृषि कार्यों के अतिरिक्त अवश्य ही प्रशासनिक और औद्योगिक होते होंगे।

कालीबंगन

उत्तरी राजस्थान के कालीबंगन स्थान पर आंरभिक हड़प्पा काल के प्रमाण मिले हैं। यहां पर लोग कच्ची ईंटों के मकानों में रहते थे। इन कच्ची ईंटों का मानक आकार होता था। वे बस्ती के चारों तरफ चार दीवारी भी बनाते थे। उन लोगों द्वारा प्रयक्त मिट्टी के बर्तनों । का आकार और डिजाइन दूसरे क्षेत्रों में प्रयुक्त मिट्टी के बर्तनों के आकार और डिजाइन से अलग था। फिर भी मिट्टी के कुछ बर्तन कोट दीजी में पाए गए मिट्टी के बर्तनों से मिलते थे। बलि स्तंभ जैसे मिट्टी के बर्तनों के कुछ नमूनों का प्रयोग शहरी चरण के दौरान जारी रहा। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण खोज थी जते हुए खेत का तल।

इससे सिद्ध होता है कि उस समय भी किसान हल के बारे में पहले से ही जानते थे। पुराने हालात में किसान केवल बीज छितराकर बो सकते थे या खेतों की खुदाई के लिए फावड़े, कदाली का प्रयोग करते थे। हल से कोई भी व्यक्ति बहुत कम मेहनत से अधिक गहरी खुदाई कर सकता है। इसलिए इसे खेती का उन्नत औजार समझा जाता है जिसमें खाद्य उत्पादन को बढ़ाने की ‘शक्ति है।

 

 

                     प्रारम्भिक सिंधु सभ्यता के मिट्टी के बर्तन-कालीबंगन

घग्गर नदी, जो भारत में है सूखी तलहटी में आरंभिक हड़प्पा की अनेक बस्तियाँ पाई गई हैं। ये बस्तियां उन जलमार्गों के पास पाई गई हैं जो अब विलुप्त हो गए हैं। सोथी बाड़ा और सीसवाल जैसी बस्तियों में जो मिट्टी के बर्तनों की शैलियां प्रचलित थीं। वह कालीबंगन केमिट्टी के बर्तनों की शैलियों से मिलती जुलती थी ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान में खेतड़ी की तांबे की खानों का उपयोग आरंभिक हड़प्पा काल में ही शुरू हो गया होगा। हमने आरंभिक काल में सिंधु क्षेत्रों और उसके आस-पास रहने वाले विभिन्न कृषक समुदायों की सांस्कृतिक परंपराओं में पाई गई समानताओं का उल्लेख किया है।

बलूचिस्तान, सिंधु, पंजाब और राजस्थान में आरंभ में छोटी-छोटी कृषक बस्तियां थीं, इसके पश्चात इन क्षेत्रों में अनेक प्रकार की क्षेत्रीय परंपराओं का अभ्यदय हआ है। किंत एक ही प्रकार के मिट्टी के बर्तन, सींग वाले देवता के चित्रण और मिट्टी की मातृदेवियों की मूर्तियों से पता चलता है कि एकीकरण की परंपरा शुरू हो चुकी थी। बलूचिस्तान के लोगों ने पारस की खाड़ी और मध्य एशिया के नगरों के साथ पहले ही व्यापारिक संबंध बना लिए थे। इस प्रकार आरंभिक हड़प्पा काल से हड़प्पा की सभ्यता की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।

हमने लगभग तीन हजार वर्षों में हुई घटनाओं को पढ़ा है। इस काल के दौरान किसानों ने सिंध नदी के कछारी मैदानों में बस्तियां बसाई। ये समुदाय तांबे, कांसे और पत्थर के । औजारों का प्रयोग करते थे। श्रम से अधिक उत्पादकता प्राप्त करने के लिए वे हल और पहिए वाली गाड़ी का प्रयोग करते थे। ईरान में भेड़-बकरियां पालने का प्रचलन था तो इसके विपरीत सिंधु घाटी के लोग गाय, भैंस आदि पशु पालते थे। इससे उन्हें यातायात और खेती के लिए पशु शक्ति का प्रयोग करने के लिए बेहतर अवसर मिल गये थे। इसी दौरान मिट्टी के बर्तनों को बनाने की परंपरा में धीरे-धीरे एकरूपता आई। कोट दीजी में जो विशेष प्रकार के मिट्टी के बर्तन सबसे पहले पाए गए थे।

आरंभिक हड़प्पा काल में वे बलूचिस्तान, पंजाब और राजस्थान के समस्त क्षेत्रों में भी पाए गए। मिट्टी की मातृदेवियों की मूर्तियां और सींगदार देवता के रूपांकन कोट दीजी और कालीबंगन में भी पाए गए। कुछ । समदायों ने अपने घरों के चारों ओर ऊँची-ऊंची दीवारें बना ली थीं। इन दीवारों के निर्माण के पीछे क्या प्रयोजन रहा होगा, यह हमें मालूम नहीं है। हो सकता है कि ये दीवारें दूसरे समुदायों से सुरक्षित रहने के लिए बनाई गई हों अथवा बाढ़ से बचने के लिए बनाई  गई हों। ये सभी घटनाएं फारस की खाड़ी और मेसोपोटामिया की समकालीन बस्तियों के साथ अधिक व्यापक संबंधों के संदर्भ में घटित हो रही थीं।

हड़प्पा की सभ्यता का अभ्युदय

प्रौद्योगिकीय और वैचारिक एकीकरण की इन प्रक्रियाओं की पृष्ठभूमि में हड़प्पा की सभ्यता का अभ्युदय हुआ। इस सभ्यता की उत्पत्ति से संबंधित प्रक्रियाएं अस्पष्ट हैं क्योंकि उनकी लिपि का अध्ययन नहीं किया गया है और अनेक बस्तियों की खुदाई की जाने की जरूरत है। ऊपर कुछ सामान्य प्रक्रियाओं की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। उन्नत और सिंधु घाटी के उर्वर मैदानों में खेती करने तथा उन्नत प्रौद्योगिकी के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी हुई होगी। इससे अतिरेक खाद्यान की संभावनाएं पैदा हुई। इसके कारण जनसंख्या में भी वृद्धि हुई। इसके साथ-साथ समाज के धनी वर्ग बहुमूल्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दूर-दराज के समुदायों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करते थे। अतिरेक खाद्यान्नों से गैर-कषि कार्य करने के अवसर मिले।

गांव का पुरोहित सम्पूर्ण क्षेत्र में फैले हए पुरोहित-कुल का अंग बन सकता था। इसी प्रकार की प्रक्रियाएं धातु विज्ञानियों, कुम्हारों और शिल्पियों के संबंध में भी सामने आई। गांवों में अनाज रखने के चबूतरे बड़े-बड़े कोठारों में बदल गए।

कई कृषक समूहों और पशुचारों यायावर समुदायों का एक दूसरे के साथ निकट संपर्क होने से उनके बीच तनाव तथा परस्पर-विरोध उत्पन्न हो सकता था। कृषक एक समुदाय के रूप में स्थापित होने के पश्चात् अन्य कम खुशहाल समूहों को अपनी ओर आकृष्ट कर सकते थे।

पशुचारी यायावर जातियों के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे व्यापार और लूटपाट के कार्य में लगी थीं। अपनी आर्थिक दशा के अनुसार वे इन गतिविधियों में सम्मिलित होते थे। कृषक समुदाय में अधिक उपजाऊ भूमि को हथियाने के लिए संघर्ष होता था। संभवतः यही कारण है कि कुछ समुदायों ने अपने चारों ओर सुरक्षा के लिए दीवार बना ली थी। हम जानते हैं कि हड़प्पा की सभ्यता के अभ्यदय के समय कोट दीजी और कालीबंगन जैसी कई बस्तियां आग से नष्ट हो गयी थी हमें इसका कारण मालूम नहीं है। फिर भी यह तथ्य अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है कि सिंधु क्षेत्र में विभिन्न प्रतियोगी समुदायों में लोगों के एक वर्ग ने दूसरों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।

इससे विकसित हड़प्पा काल’ के आरंभ का संकेत मिला। हड़प्पा सभ्यता एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में फैली हुई थी। इस कारण विकसित हड़प्पा काल के आरंभ होने की कोई एक तिथि नहीं हो सकती। यह संभव है कि विकास के केंद्र के रूप में इस शहर का कई सौ वर्षों की समयावधि में अभ्युदय हुआ होगा। परंतु यह शहर अस्तित्व में आया और यही कारण है कि इस शहर का अगले सात-आठ सौ वर्षों के लिए पूरे उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर प्रभुत्व रहा।

सारांश

भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए हड़प्पा की सभ्यता की खोज का विशेष महत्व है। यह खोज भारतीय इतिहास को और पीछे ले गई तथा यह बात सामने आई कि हड़प्पा की। सभ्यता मिश्र और मेसोपोटामिया जैसी विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं के समकालीन थी। हड़प्पा की सभ्यता की खोज का मुख्य श्रेय पुरातात्विक स्रोतों को जाता है।

इस इकाई में आपने उस प्रक्रिया के बारे में जिसके द्वारा इस सभ्यता की खोज हुई, जिन अवस्थाओं से आरंभिक हड़प्पा की सभ्यता गुजरी इन अवस्थाओं के ब्यौरे, इसके क्रमिक विकास और अनेक क्षेत्रों में इसके विस्तार के बारे में पढ़ा। आगे आप हड़प्पा के लोगों के समाज और अर्थव्यवस्था से संबंधित कई अन्य पक्षों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

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