कृषक बस्तियों का विस्तार

इस इकाई का मुख्य उद्देश्य 200 ई.पू. से 300 ई. तक दक्खन और दक्षिण भारत में कृषक बस्तियों के प्रसार के बारे में चर्चा करना है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आपः

  • जीविका के उन विभिन्न प्रकारों के बारे में
  • जो दक्षिण भारत के भिन्न-भिन्न भागों में विद्यमान थे
  • कृषक बस्तियों के प्रसार के स्वरूप
  • भूमि के स्वामित्व के स्वरूप
  • कृषि से राजस्व आय और कृषक बस्तियों में संसाधनों के पुनः वितरण
  • कृषक समाज के संगठन
  • नए तत्वों के लागू होने तथा परिवर्तन शुरू होने के बारे में जान सकेंगे

प्रायद्वीपीय भारत में खेती के सबसे पराने साक्ष्य नवपाषाण यग के उत्तरार्ध में पाए जाते हैं, जो ई.पू. के दूसरे सहस्त्राब्दि का पूर्वार्द्ध है। नवपाषाण युग के लोग मोटा अनाज (मिलेट) जैसे रागी और बाजरा तथा दलहन जैसे काला चना और पशओं के खाने वाला चने की खेती करते थे। नवपाषाण यग की बस्तियों की मख्य विशेषता यह थी कि पहाड़ियों के ढलान पर सीढ़ीदार खेतों पर ही खेती की जाती थी। प्रायद्वीपीय भारत में प्रथम सहस्त्राब्दि ई.पू. के लगभग चावल पाए गए थे, जो दक्षिण में लौह युग के आरंभ होने की अवधि है। दक्खन और दक्षिण भारत में लौह युग के दौरान धान की खेती का प्रसार हुआ। ऊपरी क्षेत्रों में लौह युग के प्रारंभ की बस्तियां देखी गई हैं।

लोहे के प्रयोग से खेती की तकनीकी में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं हआ। बाद में लोहे के हल-फाल के प्रयोग से तकनीकी प्रगति हई। इस के साथ ही नदी घाटियों में बस्तियों का संकेन्द्रण भी हुआ। जताई में बैलों को काम में लाने और लोहे के हल फाल के प्रयोग के विस्तार से खेती अधिक इलाके में होने लगी और खेती की उपज में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इस वृद्धि के अनुसार, जनसंख्या में भी वृद्धि हुई। बाद में बौद्ध मठो और ब्राह्मणों जैसे धार्मिक लाभभोगियों को गांवों की भूमि दान देने की प्रथा शुरू होने से कृषक क्षेत्र में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ। उन्हें मौसम की बेहतर जानकारी थी और मौसम के बारे में पूर्व-अनुमान भी कर सकते थे। बौद्ध भिक्षुओं और ब्राह्मणों को भूमि देने के फलस्वरूप कृषक क्षेत्र में गैर-कृषक वर्ग का प्रवेश शुरू हुआ। इस प्रकार हमें दक्षिण भारत में कृषक बस्तियों के प्रसार में तीन अवस्थाओं का पता चलता है:

  • पहली अवस्थाः निम्न स्तर की प्रौद्योगिकी के साथ अपरिष्कृत खेती की प्रथम अवस्था जिसमें खेती केवल पहाड़ी ढलानों तक सीमित थी।
  • दूसरी अवस्थाः प्रौद्योगिकी में पर्याप्त वृद्धि के साथ हल द्वारा खेती और नदी घाटियों में खेती का विस्तार।
  • तीसरी अवस्थाः इसमें गैर-कृषक वर्ग का कृषक क्षेत्र में प्रवेश हुआ। इन वर्गों को . मौसम, प्रबंधकीय क्षमता और खेती के तरीकों में उपकरणों का बेहतर ज्ञान था।

आजीविका के प्रकार

आजीविका के प्रकारों का निर्धारण कई कारकों द्वारा किया जाता है। जैसे क्षेत्र विशेष की भौगोलिक अवस्थिति, क्षेत्र की प्राकृतिक अवस्था, भौतिक संस्कृति और प्रौद्योगिकी का स्तर। यद्यपि कछ क्षेत्रों में अपरिष्कृत तकनीक काफी समय तक चलती रही. परन्त कछ अन्य क्षेत्रों ने सामग्री उत्पादन और सामाजिक विकास में प्रगति की। तमिल क्षेत्र में आजीविका के प्रकारों में विविधताएं अधिक स्पष्ट दिखाई देती हैं। प्रारंभिक तमिल संगम कविताओं में तिणे (tinai) के रूप में पांच आर्थिक प्रदेशों का उल्लेख है और प्रत्येक आर्थिक प्रदेश की आजीविका का स्वरूप बिल्कुल अलग है। ये निम्नलिखित हैं:

  • कुरिंजी (kurinji), पहाड़ और वन;
  • मुल्लै (mullai), चारागाह जिनमें कम ऊंची पहाड़ियां और छितरे वन थे;
  • मरूतम (marutam), उपजाऊ कृषि मैदान;
  • नेयतल (neytal), समुद्री तट; और
  • पालै (palai), शुष्क क्षेत्र। मुल्लै या कुरिंजी भूमि क्षेत्र भीषण ग्रीष्म ऋतु में शुष्क हो जाता था।

कुरिंजी क्षेत्र में वन जन-जातियां थीं, जिन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार से जाना जाता था जैसे कुरवर (kuravar), वेटर (vetar) आदि। उनका मुख्य व्यवसाय आखेट और वन उत्पादों जैसे बांस, चावल, शहद और कंद-मूल एकत्रित करना था। वे पहाड़ी ढलानों पर “काटना और जलाना’ विधि से खेती करते थे और ज्वार, बाजरा तथा दलहन पैदा करते थे। वे विभिन्न प्रकार के औज़ारों जैसे फावड़ा, दराती और लोहे की नोकयक्त कदाल का प्रयोग करते थे। ऐसे पहाड़ी इलाके वे थे, जहां मिर्च तथा मसालों की अन्य प्रजातियां काफी मात्रा में पैदा होती थीं। साहित्य में मिर्च की खेती और बागानों में सिंचाई सुविधाओं का वर्णन मिलता है।

मुल्लै (mullai) के चारागाहों पर ग्वालों का अधिकार था जो इटैयर (itayar) के नाम से जाने जाते थे। उनकी आजीविका का साधन पशपालन था। वे दध उत्पादों का विनियम करते थे। झूम कृषि भी करते थे और मोटे अनाज तथा दलहन एवं मसूर पैदा करते थे। 

मरूतम या कृषक क्षेत्र अधिकतर उपजाऊ नदी घाटियों में थे जो धान और गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त क्षेत्र थे। वे लोग जो उषवर (ushavar) कहलाते थे, जिसका अर्थ हलवाहा है, खेतों की जताई में लगे रहते थे और अपनी आवश्यकता से अधिक मात्रा में धान पैदा करते थे।

अन्य तिणों के लोग चावलों और प्रमुख खाद्यान्नों के लिए मरूतम क्षेत्रों पर निर्भर थे।

नेयतल लोग जो परतवर (paratvar) थे, मछली पकड़ने और नमक उत्पादन में लगे रहते थे। वे अपनी आजीविका उपार्जन के लिए मछली और नमक का विनियम करते थे। पल्लै क्षेत्र की ग्रीष्म ऋतु एक नियतकालिक घटना है। वहां ग्रीष्म ऋतु के दौरान पानी की दुलर्भता के कारण खेती संभव नहीं थी। इसलिए उस क्षेत्र में कुछ लोग ऐसे थे जो राहजनी, डकैती और पशुओं की चोरी करते थे। नमक के व्यापारी और अन्य वस्तुओं के व्यापारी कारवां में इस क्षेत्र से गुज़रते थे। बहुधा इसे कारवां मरवर (marava) वर्गों के लोगों द्वारा लूटे जाते थे।

उपर्युक्त चर्चा से आजीविका के निम्नलिखित प्रकार वर्गीकृत किए जा सकते हैं:

  • आखेट और वन उत्पादों का संग्रहण
  • पशुपालन
  • खेतों की जुताई
  • मछली पकड़ना और नमक बनाना
  • राहजनी

कृषक बस्तियों का प्रसार

दक्खन और दक्षिण भारत में नवपाषण युग से लौह युग तक जनसंख्या में वृद्धि एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है। यह परिवर्तन लौह युग के कई स्थानों पर दिखाई देता है। इस परिवर्तन के फलस्वरूप ऊपरी क्षेत्र (Upland Area), क्षेत्रों से उपजाऊ नदी घाटियों में बस्तियों का प्रसार हुआ और अंशतः पशुपालन से और कुछ झूम खेती से व्यवस्थित कृषि अर्थव्यवस्था अपनाई गई। इस जीवन शैली की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार थीं:

  • नदी घाटियों में बस्तियों का संकेन्द्रण;
  • कुछ स्तरों पर दस्तकारी विशेषज्ञता;
  • लोहे के औज़ारों और उपकरणों का व्यापक प्रयोग;
  • लोहे के हल-फाल की नई प्रौद्योगिकी;
  • लघु सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध; और
  • शुष्क भूमि फसलों से अधिक उपज देने वाली धान की आर्द्र भूमि फसलों में परिवर्तन।

पुरातत्व संबंधी स्थलों में ये परिवर्तन सम्पूर्ण दक्षिण भारत में यत्रतत्र दिखाई देते हैं। ये आम तौर पर महापाषाणीय स्थलों के नाम से जाने जाते हैं। आप  महापाषाण के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं। कृषक बस्तियों पर चर्चा करने से पहले हम संक्षेप में महापाषाणों के बारे में बताएंगे।

महापाषाण का शाब्दिक अर्थ बड़ा पत्थर है। इसका संबंध लोगों की वास्तविक बस्तियों से नहीं है, बल्कि कब्र के चारों ओर पत्थरों के वत्त में कब्र के स्थान से है। कछ आवासीय । स्थानों जैसे विरूक्कमपुलियर, अलाकरै आदि में ऐसे स्थल प्रकाश में आए हैं परन्तु वे बहुत कम हैं। महापाषाण की शुरुआत लगभग 1000 ई.पू. मानी जाती है। परन्तु बहुत से मामलों में इन्हें पाँचवी से पहली शताब्दी ई.प. माना जाता है। कछ स्थानों में वे इससे भी बाद के थे।

कब्र के सामान में विभिन्न वस्तुएं जैसे मानव अस्थियां, विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन, एक विशेष प्रकार का लाल और काला भांड, आकृति बने ठीकरें, लोहे के औज़ार और हथियार, मनके तथा आभषण, उपासना की वस्तएं और कई अन्य वस्तएं होती हैं। इन महापाषाणयुगीन अवशेषों से हमें दक्षिण भारत में लौह युग की कृषक बस्तियों की भौतिक संस्कृति की जानकारी मिलती है। इसके अलावा, उनसे तत्कालीन तमिल कवियों द्वारा दिए गए प्रमाणों की पुष्टि भी होती है।

तमिल क्षेत्र की बस्तियों में कृषि उत्पादन

तमिल क्षेत्र में कृषि लोहे के हल-फाल की सहायता से की जाती थी। फावड़ा, हल और दगती भी विभिन्न कषि कार्यों के लिए प्रयोग में लाए जाते थे। लोहार को लोहे के धातकर्म का ज्ञान था, और कछ स्थानों पर लोहा पिघलाने के लिए प्रयक्त भटियां भी थीं। ऐसे स्थानों से लौहचर्ण भी प्राप्त हआ है। गहरी जुताई के लिए लोहे के नोक वाला हल आवश्यक है। धान और गन्ने के लिए गहरी जताई आवश्यक है। हल के उपयोग के बारे में साहित्य और शिलालेखों में प्रमाण मिलते हैं। तमिलहम् गफा शिलालेखों में हल-फाल के व्यापारी को दाता के रूप में चित्रित किया गया है। बैलों और भैसों को हल जोतने के काम में लाया जाता था। ताकतवर पशुओं को खेतों की जुताई पर लगाने से कृषि कार्यों में अधिक कार्य-कुशलता आई।

सिंचाई-सविधाएं कभी स्थानीय किसानों द्वारा और कभी राजाओं तथा सामंतों द्वारा जटाई जाती थीं। नदी के पानी को छोटी नालियों से खेतों में ले जाया जाता था। तमिलहम में । कावेरीपट्टनम के समीप प्राचीन जलाशयों के अवशेष पाए गए। उस क्षेत्र में कम वर्षा के कारण सिंचाई महत्वपूर्ण थी। उपजाऊ मरूथम क्षेत्र में धान और गन्ना दो प्रमुख फसलें थीं। दलहनों की भी खेती होती थी। उस समय के साहित्य से पता चलता है कि लोगों को मौसम की कछ जानकारी थी जो खेती की सफलता के लिए आवश्यक है।

उषवर (IUshavar) और वेल्लालर (Vellaler) प्रमख किसान थे। उषवर का शाब्दिक अर्थ हलवाहा है और वेल्लालर का अर्थ भूमि का मालिक है। कृषि के लिए श्रमिकों का एक स्रोत हलवाहों का वर्ग है। अटियोर (Atiyor) और विनैवलार (Vinaivalar) का भी उल्लेख खेतों में काम करने वाले व्यक्तियों के रूप में किया गया है।

अटियोर का अर्थ संभवतः गुलाम है और विनैवलार का अर्थ “मज़दूरी” अर्जित करने वाला कामगार। इनके मज़दूरी की दर और दूसरी शर्तों के बारे में बहुत जानकारी प्राप्त नहीं हुई है। बड़े परिवारों के सदस्य कृषि उत्पादन के विभिन्न कार्यों में लगे हुए पाए गए हैं। केवल परिवार के श्रम के आधार पर उत्पादन आवश्यकता से अधिक नहीं हो पाता था। फिर भी, इस कठिनाई के बावजूद कृषि बस्तियों में भिन्न-भिन्न वर्ग बने रहे जैसे लोहार, बढ़ई, भाट, नृतक, जादूगर, पुजारी, भिक्षु आदि।

दक्खन में बस्तियां

सातवाहन काल (पहली सदी ई.पू. से तीसरी सदी ई. तक) के दौरान नदी के मैदानों, समुद्र तटों और पठारी भाग के दक्खन में बस्तियों की संख्या में समग्र वृद्धि हुई। गोदावरी घाटी में सबसे अधिक बस्तियां थीं। सातवाहन बस्तियों की भौतिक संस्कृति में दक्खन के महापाषाणकालीन बस्तियों की अपेक्षा कुछ सुधार दिखाई देते थे। हल-फाल, दराती, फावड़ा, कल्हाड़ी और तीर के नोक सहित औजार और उपकरण थे। कदाल में निरंतर कछ न कुछ सुधार होता रहा परन्तु यह उचित ढंग से सकोटर था। करीमनगर और वारंगल के क्षेत्रों में कच्चा लोहा उपलब्ध था। इन क्षेत्रों में लोहे की खदाई से यह पता चलता है कि महापाषाण युग में भी इसका प्रचलन था।

सातवाहन काल में दक्खन में सोने की खदानों के प्रमाण मिलते हैं। इन विकास कार्यों से पता चलता है कि इन क्षेत्रों में धातकर्म उन्नत अवस्था में था।

तालाबों और कुंओं के रूप में सिंचाई सुविधाओं की उन्हें जानकारी थी। पानी उठाने के लिए रहटों का प्रयोग किया जाता था। तालाबों और कंओं की खुदाई प्रशंसनीय कार्य समझा जाता था। कुछ शासकों की तालाब निर्माताओं के रूप में शिलालेखों में प्रशंसा की गई है। धनी लोग तालाब और कुएं बनवाते थे।

दक्खन के लोगों को धान रोपाई का ज्ञान था। ईसवी सदी की पहली दो शताब्दियों में कृष्णा और गोदावरी नदियों के मैदानों में प्रमुख चावल उत्पादक क्षेत्र थे। काली मिट्टी वाली भूमि में कपास की खेती की जाती थी और आंध का कपास विदेशों में भी प्रसिद्ध था। समद्रतटीय क्षेत्रों के विकास में नारियल की पैदावार का बहुत बड़ा योगदान रहा। दक्खन के विभिन्न भागों में आम के वृक्षों और इमारती लकड़ी के अन्य वृक्षों के रोपण के बारे में भी सुना जाता है।

दक्खन में श्रमिकों का स्रोत, मज़दरी पर श्रमिक और गलाम थे। The Periplus of the Erythraean Sea में वर्णन है कि गुलामों को अरब से लाया जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि समाज में स्पष्ट अंतर और वर्ग भेद था। तमिल क्षेत्र में “उच्च” और “निम्न” वर्ग के बीच अंतर था। “उच्च वर्ग” में शासक और सामंत तथा वेल्लाल और वेलीर वर्ग आते थे, जो भमि के मालिक थे। ‘निम्न” वर्ग में साधारण किसान, भाट और नतक तथा कामगार आदि थे। दक्खन के उन क्षेत्रों में यह अंतर और अधिक निश्चित रूप से उभरा, जहां स्थानीय विकास कार्यों और उत्तर के आदर्शों तथा विचारधारा का सम्मिलन पहले हुआ था।

स्वामित्व का अधिकार

सम्पदा और सम्पत्ति के आधार पर सामाजिक अंतर के फलस्वरूप स्वामित्व के आधार की समस्या उत्पन्न होती है। सुदूर दक्षिण में हमने देखा है कि वहां कुछ वेल्लाल वर्ग थे जो ज़मीन के मालिक थे। इससे प्रतीत होता है कि दूसरों की जमीन में मज़दूरी पर काम करने की अपेक्षा स्वयं भूमि का मालिक होना अच्छा समझते थे। कभी-कभी सामंत अपने सैनिकों और भाटों को ऊर (Ur) बस्तियां दे देते थे। इसके परिणामस्वरूप जिस व्यक्ति को जमीन दी गई थी, उसे उन ऊर (Ur) बस्तियों से आय संग्रह करने का अधिकार मिल जाता था।

आम तौर पर खेतों का सामूहिक स्वामित्व होता था और सामंतों के करों का भुगतान करने के बाद उत्पाद का उपयोग भी सामूहिक रूप से होता था। दक्खन में भूमि स्वामित्व का स्वरूप अधिक स्पष्ट है। वहां गहपति (Gahapati) परिवार थे, जो भूमि के स्वामी और व्यापारी, दोनों होते थे। एक शिलालेख के अनुसार पश्चिमी दक्खन के नाहापन क्षत्रपा शासक का दामाद उशावदत्ता ने ब्राहमण से ज़मीन का एक प्लाट खरीदा और उसे बौद्ध संघ को दान में दे दिया। इससे यह स्पष्ट है कि भूमि का स्वामित्व व्यक्तिगत भी होता था। इस कार्य में स्वामी को 40,000 कहापन (Kahapana) सिक्के मिले। सातवाहन राजाओं ने भूमि और यहां तक कि गांव भी धार्मिक लाभभोगियों को दान में दिए। साधारण भक्तों ने बाद में इस 200 ई.पू.से 300 ई. तक

प्रथा का अनुकरण किया। उस काल के शिलालेखों से पता चलता है कि व्यक्तिगत स्वामित्व में थोड़ी-थोड़ी ज़मीन होती थी।

राजस्व और अधिशेष वसूली

आय का मख्य स्रोत भमि राजस्व है। राज्य द्वारा भ-राजस्व की वसली एक संगठित तंत्र के माध्यम से की जाती थी। इस भाग में हम भ-राजस्व और इसकी वसली के बारे में चर्चा करेंगे।

कृषि से राजस्व

तमिल साहित्य में सामंतों द्वारा प्राप्त अंशदान का उल्लेख इरै (irai) और तिरै (tirai), दो किस्मों के रूप में किया गया है। इरै अधिक नियमित अंशदान और तिरै, शुल्क-प्रतीत होता है। दुर्भाग्यवश हमारे पास तत्कालीन अभिलेखों से राजस्व वसूली की दर और तरीके के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। राजस्व वसूली के लिए शासकों के भद्र और नम्र व्यवहार करने की हिदायत दी जाती थी।  इससे यह प्रतीत होता है कि किसानों से अपना हिस्सा लेने में प्राधिकारियों द्वारा जोर-जबरदस्ती और ज़्यादतियां की जाती थीं।

सातवाहनों के शासनकाल में दक्खन में राजस्व प्रणाली संभवतः अधिक नियमित थी, परन्तु इस संबंध में भी अधिक स्पष्ट ब्यौरे नहीं हैं। हम करों के कछ नामों जैसे कर, देय, मेय, भाग के बारे में सुनते हैं। इन शब्दों के असली महत्व या राज्य द्वारा वसूली गई राजस्व की राशि के बारे में कुछ मालम नहीं है। बौद्ध संघों और ब्राह्मणों को ग्रामदान में दान किए गए गाँवों का राजस्व भी शामिल था। ऐसे मामलों में कुछ छूटों का उल्लेख है। ये छूट निम्नलिखित थीं:

  • किसी प्रकार का शुल्क वसूली के लिए राजा के सैनिकों के प्रवेश के विरुद्ध;
  • गांव से किसी भी वस्तु को अपने अधिकार में लेने के लिए शाही अधिकारियों के विरुद्ध।

इनसे यह स्पष्ट होता है किः

  • साधारणतया जब सैनिक गांव में आते थे तो उन्हें ग्रामवासियों को धन या वस्तु देनी पड़ती थी; अथवा
  • सैनिकों को राजस्व वसूली का अधिकार मिला हुआ था।

ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्र गोलमिक (Gaulmika) के अधीन थे, जो एक छोटी सैन्य इकाई का प्रभारी था। जब बौद्ध मठों अथवा ब्राह्मणों को भूमि दी जाती थी तो राज्य को यह गारंटी देनी पड़ती थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात सैनिक उनके अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

तमिल क्षेत्र में संसाधनों का अर्जन और वितरण के तरीके

उन लोगों तक संसाधन कैसे पहुंचे, जिन्हें उनकी आवश्यकता थी? दक्खन में सुगठित राज्य प्रणाली के अधीन नियम और प्रथाओं के अनुसार विनियोजन के तरीके विनियमित किए गए थे। आपने पढ़ा है कि सदर दक्षिण में अभी नियमित राज्य प्रणाली विकसित होनी थी, इसलिए वहां संसाधनों के वितरण की कोई सुनियोजित प्रणाली नहीं थी।

तमिल क्षेत्र में कृषक बस्तियों में संसाधन वितरण के कई तरीके विद्यमान थे। यहां हम उपहार द्वारा पुनर्वितरण के महत्वपूर्ण तरीकों का वर्णन करेंगे। उपहार संभवतः संसाधन परिचालन का सबसे अधिक आम तरीका था। प्रत्येक उत्पादनकर्ता अपने उत्पादन का कछ भाग उन व्यक्तियों को दे देता था, जो कार्य करते थे। बढ़िया भोजन अथवा वस्तु का उपहार पुनर्वितरण का साधारण रूप था। लूट-पाट और छापों से पहले और बाद में योद्धाओं को दावतें दी जाती थीं। गरीब गायक और नर्तकियां, जो सामंतों की प्रशंसा में गाते और नाचते थे, भरपेट भोजन और पहनने के वस्त्रों की चार में एक दरबार से दूसरे दरबार में भटकते रहते थे।

कभी-कभी दावत के अलावा उपहार की वस्तुओं में आयातित बढ़िया शराब, रेशमी वस्त्र तथा स्वर्ण आभूषण भी दिए जाते थे। ब्राह्मण पुजारियों और योद्धाओं को बहुधा अपनी सेवाओं के उपलक्ष्य में गांव और पशु उपहार में मिलते थे। प्राचीन तमिल क्षेत्र में ब्राहमणों को गांव दान में देने से ब्राहमण बस्तियों का आविर्भाव हुआ। समृद्ध और शक्तिशाली व्यक्तियों के तीन वर्गों द्वारा उपहार के माध्यम से पुनर्वितरण कार्य किया जाता था। ये तीन वर्ग थे कृषक बस्तियों के राजा वेंतर (Vendar), छोटे सामंत वेलीर (Velir) और समृद्धशाली कृषक परिवार वेल्लालर (Vellalar)।

वसूली में ज्यादतियां

उपहारों के वितरण को संभव बनाने के लिए यह आवश्यक था कि केन्द्र में संसाधन एकत्र किए जाते थे। यह केन्द्र मखिया का निवास स्थान होता था। केन्द्र से उपहारों का वितरण, पनर्वितरण की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। संसाधनों को एकत्र करने के लिए बहुधा कृषक क्षेत्र की लूट-पाट की जाती थी। अनाज और पशु लूटे जाते थे। लूट में जिस वस्तु को वे नहीं ले जा सकते थे, उसे वे नष्ट कर देते थे। किसानों की बस्तियों को जला दिया जाता था, शत्रुओं की फसलों को नष्ट कर दिया जाता था और समृद्ध बागानों को बंजर भूमि में बदल दिया जाता था; उन लुटेरों के दुष्कार्यों में से कुछ ये थे। पहाड़ी क्षेत्रों और चारागाहों के मारवर (marava) लड़ाकू को सामंतों द्वारा बस्तियां लूटने के काम में लाया जाता था। ‘धार्मिक अनुष्ठान के लिए उपहार और पारिश्रमिक स्वरूप ब्राह्मण पुजारियों को दिया जाता 200 ई.पू. से 300 ई. तक था। किसानों की असरक्षित दर्दशा और जिस प्रकार उन्हें आतंकित किया जाता था और उनका शोषण होता था, इसका प्रमाण संगम साहित्य के कई गीतों में मिलता है।

गरीबों और किसानों पर की गई इन सभी ज्यादतियों के बावजद, यद्ध को प्रभावशाली उत्साहपूर्वक मनाया जाता था। इसे एक प्रथा का रूप दिया गया था। युद्ध पूजा का प्रचार उन योद्धाओं के साहस की प्रशंसा से किया जाता था, जिनका स्मारक पत्थर उपासना की वस्तु या पूजा की वस्तु बनाए गए थे। पण (Pana) गायक सामंतों और उसके सैनिकों के वीरोचित गणगान करते थे। संसाधन की कमी के कारण लट का माल हथियाना जरूरी था। कभी-कभी ज़्यादतियों के फलस्वरूत संसाधन नष्ट हो जाते थे। सामंत के स्तर पर पुनर्वितरण या तंत्र अपने आप में परस्पर विरोधी था।

सामाजिक संगठन

इस भाग में हम तमिलहम् और दक्खन के क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक समूहों और प्रथाओं के बारे में पढ़ेंगे। आइए सबसे पहले तमिल क्षेत्र के बारे में चर्चा करें।

तमिल समाज

प्राचीन तमिलहम में समाज का स्वरूप मूलतः आदिवासी था। उसमें नातेदारी संगठन, गणचिन्ह पूजा और जनजाति पूजा एवं प्रथाएं विद्यमान थीं। सभी तिौं या आर्थिक क्षेत्रों में जनजाति रीति-रिवाज़ विद्यमान थे, परन्तु प्रमुखतया कृषि क्षेत्रों में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगे। इन क्षेत्रों में सामाजिक संगठन जटिल हो रहे थे। यह धीरे-धीरे पराने नातेदारी संबंधों के टूटने और वैदिक वर्ण अपनाने के कारण हो रहा था। सामाजिक वर्ग भेद या विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच असमानताएं उभर रहीं थीं और “उच्च” और “निम्न” के बीच बहुत अंतर हो गया। भूमिधारी वेल्लालर और वेल्लाल किसान कृषक बस्तियों में मूल उत्पादक वर्ग बन गए थे।

दस्तकारी विशेषज्ञता कृषि उत्पादन की केवल प्रारंभिक और पूरक थी। हम लोहारों (कोल्लन) और बढ़ई (तच्चन) के बारे में सुनते हैं। विस्तृत परिवार उनकी उत्पादन इकाई थी। बुनाई उनका अन्य व्यवसाय था।

ग्रामवासियों की धार्मिक पूजाएं और उपासना प्रथाएं पुराने आदिवासी धार्मिक अनुष्ठानों के अनुसार थी जिनसे धार्मिक अनुष्ठान वर्गों का होना आवश्यक था जैसे वेलन वेटुबन आदि। वे अध्यात्मिक तत्वों और उनके प्रबंध की देखभाल करते थे। परन्तु समाज “पुजारी प्रधान” नहीं था। वहां पर्याप्त अधिशेष था, जिसके फलस्वरूप व्यापारी वर्ग समृद्धिशाली । वे जिस वस्तु का व्यापार करते थे, उसके नाम से जाने जाते थे। इस प्रकार हम उमणन (नमक का व्यापारी), कलवाणिकन (अनाज का व्यापारी), अरूवैवाणिकन (वस्त्रों का व्यापारी) पोन्वाणिकन (स्वर्ण व्यापारी) आदि के बारे में सुनते हैं। बाद में ये व्यापारी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आ गए। उस समय तक वर्ण व्यवस्था का सुदूर दक्षिण में काफी प्रभाव हो गया था।

तमिल व्याकरण की प्राचीनतम उपलब्ध कृति तोलकप्पियम में यह वर्णन मिलता है कि तमिल समाज चार वर्गों में बंटा हुआ था। इस कृति के अनुसार, व्यापारी वैश्य वर्ग के थे। दूर दक्षिण में, विशेष कर मदुरै और तिरुनेलवेल्लि क्षेत्रों में पांड्य देश में इन व्यापार कुछ असनातनी धार्मिक वर्गों से जुड़ा हुआ पाया गया है। उन्हें इस क्षेत्र के प्रारंभिक शिलालेखों में जैन और बौद्ध धर्म तपस्वियों के गफा निवासदाता के रूप में वर्णित किया गया है। असनातनी सम्प्रदाय के योगियों की उपस्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि उस क्षेत्र में उनके कुछ अनुयायी थे।

यह स्वाभाविक है कि प्रमुख वर्गों ने मरुतम के कृषक क्षेत्रों में अपने केन्द्र इस कारण से स्थापित किए कि केवल वहां ही गैर-उत्पादनकर्ता वर्गों को आजीविका के लिए आवश्यक अधिशेष संसाधन उपलब्ध थे। कृषि क्षेत्र मरूतम के सामंतों ने यह दावा करना शुरू किया कि वे सूर्यवंश या चन्द्रवंश के वंशज हैं, जैसा कि उत्तर भारत के क्षत्रिय हैं।

सामंत कृषक बस्तियों में किसानों का शोषण करते थे और समीपवर्ती क्षेत्रों के मरवा वर्गों की सहायता से अधिशेष वसूल करते थे। वे बहुधा गांवों को लूटते थे। संगम कविताओं में नायकों के यद्ध और यद्धोचित गणों का वर्णन है। पाण गायकों और विरालि नतकों के कार्य नायकों और उनकी वीरता का बखान करना था। इस प्रकार, हम देखते हैं कि प्राचीन तमिलहम् के कृषक मरूतम क्षेत्र में समाज में प्राचीन जनजाति प्रथाओं और वैदिक आदशों तथा सिद्धांतों का सम्मिश्रण है।

दक्खन में समाज

दक्खन मे सभी तीनों धार्मिक व्यवस्थाओं अर्थात् सनातन धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म के काफी अन्यायी थे।

सातवाहन शासकों ने वैदिक कर्मकांड को प्रश्रय दिया। उदाहरण के लिए, सातवाहन परिवार की रानी, नागनिका कई वैदिक धार्मिक अनुष्ठान करती थी और वैदिक राज्यों में उल्लिखित उपहार देती थी। जैन धर्म के उस क्षेत्र में कुछ अनुयायी थे और इस अवधि में दिगम्बर । सम्प्रदाय के कुछ प्रसिद्ध उपदेशक भी हए। कोडकंडाचार्य, मूल संघ के संस्थापक, जो दक्षिण में लोकप्रिय हुए, इसी क्षेत्र में रहते थे। बौद्ध धर्म लोकप्रिय आंदोलन के रूप में फैला और इस धर्म में बहुत बड़ी संख्या में इसके अनुयायी बने। इनमें अधिकांश व्यापारी और दस्तकार थे। बौध धर्म के महायान सम्प्रदाय ने भी काफी लोकप्रियता प्राप्त की।

शासक वर्ग; धनी व्यक्तियों और कामगारों ने विहारों और स्पूतों को उदारतापूर्वक दान दिया। महायान मत के भाष्याकार आचार्य नागार्जुन के दक्षिण में बहुत ख्याति अर्जित की। कुछ विदेशी तत्वों जैसे यवनों, शकों और पल्लवों ने भी या तो वैदिक धर्म या फिर बौद्ध धर्म अपनाया। इस प्रकार इस काल में समाज में विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों का सम्मिश्रण देखा गया है। विदेशी वंशों के शासक अपने शिलालेखों में प्राकृत का प्रयोग करते थे और बाद में संस्कृत का प्रयोग करने लगे तथा यहां तक कि भारतीय नाम और परिवार भी ग्रहण किए।

समाज का चार वर्गों में विभाजन का सिद्धांत दक्खन में सर्वविदित था। लोगों को उनके व्यवसाय के अनुसार संबोधित करने की प्रथा लोक प्रचलित थी। हलक (हलवाहा), गोलिक (गड़रिया), वर्धकी (बढ़ई), कोलिक (बुनकर) तिलपिसक (तेली) और कमार (धातुकर्मी) कुछ ऐसे ही व्यावसायिक स्तर थे। जाति अनुशासन बहुत ही लचीले थे। यह विदेशी तत्वों के साथ सम्मिश्रण के कारण हुआ। संयुक्त परिवार प्रणाली समाज की सामान्य विशेषता थी। सामाजिक जीवन में पुरुष का प्रभुत्व स्पष्टतः प्रमाणित था।

नए तत्व और सामाजिक परिवर्तन

दक्खन में पहली शताब्दी ई. के दौरान कृषिक व्यवस्था में कुछ नए तत्व पहली बार दिखाई दिए। सातवाहन और क्षत्रपा शासकों ने धार्मिक लाभार्थियों जैसे बौध भिक्षुओं और ब्राह्मणों को भूमि-खंड और यहां तक कि पूरे-पूरे गांव दान में दिए। भूमि के साथ-साथ, गांव से राजस्व वसूल करने के अधिकार तथा खदानों पर अधिकार जैसे कुछ आर्थिक विशेषाधिकार भी अनुदानग्राहियों को हस्तांतरित किए गए। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमि दान में किसानों पर कछ वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार भी शामिल थे।

शाही अनुदान से ग्रामवासी प्रशासनिक अधिकारियों और सैनिकों को ग्रामों में उनके दौरे के समय दिए जाने वाले अनिवार्य भुगतान से मुक्त किए गए। व्यक्तियों को दिए गए पिछले कई अनुदान अस्थायी थे। परन्तु अब उन्हें स्थायी बनाने की पृवत्ति उभरने लगी थी।

शासकों द्वारा धार्मिक लाभार्थियों को स्वीकृत विशेषाधिकार और छूट तथा भूमि पर स्थायी अधिकार ने अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति प्रदान की। कृषि क्षेत्र में ये नए विकास कार्यों से भूमि व्यवस्था तथा अर्थव्यवस्था में गंभीर और दूरगामी परिवर्तन आए।

पहला, धार्मिक लाभार्थियों को नई आर्थिक और प्रशासनिक विशेषाधिकार सहित जो गांव मिले थे, उन गांवों में वे शक्तिशाली प्राधिकारी बन गए और वे उन पर अध्यात्मिक नियंत्रण भी रखते थे।

दूसरा, भिक्षुओं और पुजारियों को गांव देने से गैर-काश्तकार भूमि स्वामियों की एक श्रेणी बनी। बौद्ध भिक्ष और ब्राहमण पुजारी स्वयं खेती नहीं करते थे। उन्हें अपनी भमि पर काम करने के लिए अन्य लोगों को लगाना पड़ता था। इस प्रकार असली खेतिहर भमि और उसके उत्पाद से पृथक हो गया। तीसरा, इस किस्म का निजी स्वामित्व पहले समाप्त किया गया। वनों, चारागाहों, मत्स्य क्षेत्रों और जलाशयों पर सामूहिक अधिकार था। चौथा, लाभार्थियों का अधिकार न केवल भूमि पर ही था, बल्कि उन किसानों पर भी था जो खेती में काम करते थे। इसके फलस्वरूप किसानों के अधिकार क्षीण हो गए और वे दास बन गए। दक्खन में विद्यमान ये परिवर्तन अनुवर्ती शताब्दियों में अन्यत्र भी प्रचलित हुए। अंत में, भूमि देने की प्रथा से अन्य विशेषताओं के साथ-साथ ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनी जिसे कुछ विद्वानों ने “भारतीय सामंतवाद” की संज्ञा दी है।

सारांश

इस इकाई में हमने प्रायद्वीपीय भारत के कृषि बस्तियों और कृषक समाज के कई पहलुओं पर चर्चा की है। इस इकाई में आपने निम्नलिखित के बारे में पढ़ा है:

  • तमिल क्षेत्र के विभिन्न उपक्षेत्रों के आर्थिक कार्यकलाप
  • कृषि बस्तियों का प्रसार
  • भूमि के स्वामित्व की समस्या
  • संसाधनों का संग्रहण और वितरण
  • तमिल क्षेत्र और दक्खन में सामाजिक संगठन की मुख्य विशेषताएं
  • वे नए परिवर्तन जो ईस्वी सदी की शुरू की शताब्दियों में कृषि व्यवस्था में लागू किए गए थे और इन तत्वों द्वारा लाए गए परिवर्तन।

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