अशोक के साम्राज्य का विघटन

इस इकाई का अध्ययन करने के पश्चात् आप निम्न तथ्यों को जान सकेंगे:

  • साम्राज्य के विघटन के लिए अशोक के उत्तराधिकारियों का उत्तरदायित्व कहां तक था?
  • किस प्रकार अन्य राजनीतिक कारण साम्राज्य को कमजोर करने के लिए उत्तरदायी थे?
  • किस प्रकार अशोक की नीतियां साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी ठहराई जा सकती हैं?
  • आर्थिक समस्याएं जिनका सामना मौर्य साम्राज्य ने किया
  • मौर्य शासन के पतन के साथ-साथ उत्तरी एवं दक्षिणी भारत में स्थानीय राजनीति का उदय।

मौर्य शासन भारत में साम्राज्यवादी सरकार की दिशा में प्रथम प्रयोग था। चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और अशोक बहुत से जनपदों या राज्यों पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हुए थे तथा वे काफी बड़े भू-भाग पर नवीन प्रकार की शासन प्रणाली को लागू करने में सक्षम हुए थे। लेकिन 232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु के साथ मौर्यों का साम्राज्यवादी प्रभुत्व कमजोर पड़ने लगा और 180 ई.पू. में यह समाप्त हो गया। मौर्य साम्राज्य का विघटन क्यों हुआ, इस प्रश्न का उत्तर बड़ा ही उलझन भरा है और किसी एक कारक को इसके ह्रास के लिए पूर्णतः उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। मौर्य साम्राज्य के विघटन के लिए एक से अधिक कारण उत्तरदायी थे।

इस इकाई में सर्वप्रथम हमने मौर्य साम्राज्य के विघटन में अशोक के उत्तराधिकारियों के उत्तरदायित्व की समीक्षा की है। इसके बाद, हमने अशोक की नीतियों, मौर्य राज्य की आर्थिक समस्याओं और मौर्य प्रशासन के ह्रास की समीक्षा की है। अन्त में, मौर्य साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया में स्थानीय राजनीति के विकास की भूमिका का भी उल्लेख किया है।

अशोक के उत्तराधिकारी

सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि अशोक की मृत्यु 232 ई.पू. में हुई। फिर भी, अशोक की मृत्यु की आधी सदी के बाद तक मौर्य शासकों का शासन चलता रहा। अशोक के उत्तराधिकारियों के विषय में पुराणों, अबदान और जैन ग्रंथों में अलग-अलग वर्णन मिलता है। इन सभी वर्णनों पर संदेह इसलिए होता है क्योंकि इन सभी स्रोतों में विभाजित साम्राज्य की परिस्थितियों का वर्णन किया हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि अशोक की मृत्यु के बाद साम्राज्य का विभाजन उसके जीवित पुत्रों के बीच कर दिया गया था।

अशोक के उत्तराधिकारियों के विषय में जो वर्णन दिया हुआ है, उसके अनुसार उनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैंकुणाल, दशरथ, समप्रति, सलिशुका, देवबर्मन, सतधनवान, ब्रिहद्रथ। परन्तु उनके शासनकाल का ठीक से निर्धारण करना कठिन काम है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि अशोक के बाद साम्राज्य विभाजित हो गया था और उनके शासक अल्पावधि के लिए उत्तराधिकारी बने। जल्दी-जल्दी शासकों में परिवर्तन होने के कारण प्रशासन पर साम्राज्यवादी नियंत्रण कमजोर पड़ने लगा। प्रारंभिक तीन सम्राटों—चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार एवं अशोक ने प्रशासन को इस ढंग से संगठित किया था कि उस पर लगातार कठोर नियंत्रण बनाए रखने की आवश्यकता थी।

राजाओं में जल्दी-जल्दी परिवर्तन होने के कारण कोई भी ऐसा शासक नहीं हुआ जो साम्राज्य के सम्मुख उभरती समस्याओं का हल कर पाता और प्रशासन पर नियंत्रण बनाए रखता। इसको इस तथ्य के साथ भी जोड़ा जा सकता है कि वंशीय साम्राज्य शासकों की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करते हैं। लेकिन अशोक के उत्तराधिकारी अपनी योग्यता को सिद्ध करने में असफल रहे। उनमें से प्रत्येक ने बहुत थोड़े समय के लिए शासन किया, जिसके कारण न वे शासन करने की नई नीतियों का निर्धारण कर सके और न पुरानी नीतियों को बरकरार ही रख सके।

हालांकि इन राजाओं के शासन काल की विस्तृत जानकारियों को प्राप्त करना मुश्किल है, फिर भी अशोक के बाद के काल का हमें एक ऐसा चित्र प्राप्त होता है जिसमें भारत में राजनीतिक स्थिरता और यहां तक कि एक राजनीतिक केन्द्र को प्राप्त करना असंभव था। यह कहा जा सकता है कि इन उत्तराधिकारियों ने राजनीतिक रूप से साम्राज्य को कमजोर किया जिसके कारण इस पर वे प्रशासनिक, आर्थिक और सैनिक नियंत्रण खो बैठे। साम्राज्य का विभाजन इस बात का स्पष्ट साक्ष्य है कि विघटन की प्रक्रिया का प्रारंभ अशोक की मृत्यु के तुरन्त बाद ही प्रारंभ हो गया था।

विघटन के अन्य राजनीतिक कारण

अशोक की मृत्यु के पश्चात् प्रशासनिक प्रणाली में जो अव्यवस्था उत्पन्न हुई, उसको मौर्य साम्राज्य के विघटन के लिए उत्तरदायी महत्वपूर्ण कारणों में से एक कारण बताया गया है। अशोक के उत्तराधिकारियों के सम्मुख तत्कालीन समस्या यह थी कि अशोक की धम्म नीति और सरकार में उसकी सर्वोच्चता को जारी रखा जाए या नहीं। यह सरकार को संचालित करने का एक गैर-परम्परावादी तरीका था और इस प्रकार से सरकार की कार्य-प्रणाली को चलाना भी कोई सरल कार्य न था। अशोक इसलिए सफल हुए थे क्योंकि समाज की जटिल सामाजिक समस्याओं को समझने की उसके पास एक अनोखी कल्पना शक्ति थी और उसने धम्म के सिद्धान्त के महत्व को बहुमुखी आयामों के रूप में स्वीकार किया था। यह स्पष्ट नहीं है कि अशोक के आग्रहों के बावजूद उसके उत्तराधिकारियों ने क्या धम्म को उतनी ही महत्ता दी, जितनी की अशोक ने दी।

धम्म के राजनीतिक महत्व से संबंधित एक अन्य विशेषता यह भी थी कि एक बड़ी संख्या उन राज्य अधिकारियों के अस्तित्व की थी जिनको धम्म महामात्र कहा जाता था। कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है कि अशोक के शासन के उत्तरार्ध में ये अधिकारी बड़े शक्तिशाली एवं दमनात्मक हो गए। अशोक ने स्वयं महामात्रों के नाम प्रथम अलग शिलालेख में, जो धौली और जौगद. में स्थित हैं, निर्देश दिया कि उनको दमनात्मक नहीं बल्कि न्यायशील एवं मानवीय होना चाहिए। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि अशोक का प्रशासन पर कड़ा नियंत्रण था, लेकिन यह बाद के राजाओं के विषय में नहीं कहा जा सकता।

यह कोई सरल कार्य नहीं था कि धम्म महामात्रों के साथ सीधा-सम्पर्क रखते हुए यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करेंगे बल्कि सम्पूर्ण मौर्यकालीन नौकरशाही को नियंत्रित करना जोखिम में था। मौर्य राज्य का ऐसा चरित्र था कि उसके लिए एक कठोर योग्यताओं वाले राजा की आवश्यकता थी। यह एक केंद्रीकृत व्यवस्था थी तथा जिसके लिए यह आवश्यक था कि राज्य के कर्मचारियों के साथ राजा का सीधा-सीधा सम्पर्क हो। इन कर्मचारियों के, जिसका केन्द्र-बिन्दु राजा था, सत्ता से जुड़े होने के कारण अगर कोई कमजोर राजा होता था तो सम्पूर्ण प्रशासन स्वभाविक रूप से कमजोर हो जाता। जैसे ही केन्द्र कमजोर पड़ा, उसी के साथ प्रांतों ने भी अलग होना प्रारम्भ कर दिया।

अधिकारियों को राजा स्वयं नियुक्त करता था तथा उनकी वफादारी केवल उसके प्रति होती थी। जैसे ही कमजोर राजाओं ने सत्ता संभाली और उन्होंने थोड़े-थोड़े समय के लिए प्रशासन किया उससे अधिकारियों की संख्या में लगातार बहुत अधिक वृद्धि होने लगी और इन अधिकारियों की अपने राजाओं के प्रति वफादारी थी न कि राज्य के प्रति। व्यक्तिगत वफादारी के सिद्धांत से यह खतरा था कि अधिकारीगण ताकत के आधार पर राजा का समर्थन करते थे या फिर उसका विरोध बाद के मौर्य राजाओं को लगातार इस स्थिति का सामना करना पड़ा। वास्तव में, स्थानीय शासकों और राजकुमारों को इन परम्परागत संबंधों के कारण समर्थन मिला और आसानी से सत्ता के महत्वपूर्ण केन्द्र बन गए। इस प्रकार बाद के मौर्य शासकों के अधीन प्रांतीय सरकारों ने केन्द्र के प्रभुत्व पर प्रश्न चिह्न लगाना प्रारम्भ कर दिया।

यद्यपि कोई भी इस अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सकता कि मौर्य राज्य के नियंत्रण को समाप्त करने के लिए कोई जन विद्रोह हुआ, परन्तु यह बात मज़बूती के साथ कही जा सकती है कि मौर्य नौकरशाही का सामाजिक आधार काफी दबाव एवं तनाव में था जिसकी परिणति एक असक्षम प्रशासन के रूप में हुई, जो सामान्यतः सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में असफल रहा। इसी के साथ-साथ प्रारंभिक तीन मौर्य सम्राटों ने भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध सूचना प्राप्त करने के लिए एक जटिल गुप्तचर व्यवस्था का संचालन सफलतापूर्वक किया परन्तु बाद के मौर्य राजाओं के शासन काल मे यह व्यवस्था धराशायी हो गई। इस प्रकार, राजाओं के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं था जिससे कि साम्राज्य की आम जनता के विचारों का अनुमान लगाया जा सके या भ्रष्ट अधिकारियों पर नियंत्रण किया जा सके क्योंकि केंद्रीत सत्ता में कमजोर शासकों के आने पर इस प्रकार की गतिविधियां स्वाभाविक थीं।

मौर्य राजाओं ने सचेत रूप से सेना के नियंत्रण को कमजोर किया और इसको कुछ विद्वानों ने मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख राजनीतिक कारण बताया है। यह माना जाता है कि अशोक ने इस विषय में सचेत रूप से निर्णय लिया और हम इसके संदर्भ में आगे वर्णन करेंगे। इस स्थिति में हमारे लिए मुख्य रूप से इस बयान पर बल देना आवश्यक है कि मगध साम्राज्य के पतन का संतोषप्रद उत्तर इन बयानों के आधार पर नहीं दिया जा सकता कि उत्तराधिकारी कमजोर थे या सेना निष्क्रिय हो गई थी या जन-विद्रोह हुए। वास्तव में इनमें से प्रत्येक एक विशेष स्वरूप वाली मौर्य साम्राज्य की नौकरशाही प्रणाली से जुड़ा था और जब इसमें टूटन प्रारम्भ हुई तो सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था संकट में पड़ गई।

अशोक और उसकी नीतियां

बहुत से विद्वानों का मानना है कि अशोक के राजनीतिक निर्णयों या इन निर्णयों के प्रभावों के कारण मौर्य साम्राज्य का विघटन हुआ। कुल मिलाकर इन विद्वानों के तर्कों का आधार अशोक की धार्मिक नीति के दोषों में निहित है। सामान्यतः इन तर्कों की दो धाराएं हैं :

  • प्रथम इनमें कुछ वे विद्वान हैं जो यह तर्क देते हैं कि पुश्यमित्र शुंग, जिसने अंतिम मौर्य राजा को मारा था, ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है, जोकि अशोक की बौद्ध धर्म के समर्थन की नीति तथा उसके उत्तराधिकारियों की जैन धर्म के समर्थन की नीति के खिलाफ थी। यह भी तर्क दिया जाता है कि मौर्यों के बाद दक्खन पर राज्य करने वाले सातवाहनों को ब्राह्मण कहा गया है। यह विद्वान अशोक के शासन काल में उसके द्वारा किए गए कार्यों की एक ऐसी सूची प्रस्तुत करते हैं जिसके कारण ब्राह्मण अशोक के विराधी हो गए। उदाहरणार्थ, अशोक ने पशुओं की बलि पर प्रतिबंध लगा दिया, परन्तु ब्राह्मणों ने विशेषकर इसका प्रतिरोध किया क्योंकि यह कार्य किसी एक शूद्र राजा के द्वारा किया गया था (पुराणों में मौर्य राजाओं को शूद्रों की सूची में वर्णित किया गया है)। आगे घे तर्क देते हैं कि धम्म के विशेष अधिकारियों “धम्म महामात्रों” जिनकी नियुक्ति अशोक ने की थी, ने ब्राह्मणों की गरिमा को नष्ट किया। इन अधिकारियों ने ब्राह्मणों को परम्परागत दण्ड देने के कानूनों और स्मृतियों में दिए गए नियमों को लागू करने से रोका।

स्पष्टतः, उपरोक्त दिए गए तर्कों के समर्थन में साक्ष्य नहीं हैं। इनके समर्थन में सतही स्तर पर जो वर्णन मिले हैं, उनके विरुद्ध सवाल उठाये जा सकते हैं। अशोक के शिलालेखों से इस प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं, जिनके अनुसार अशोक ने धम्म महामात्रों को ऐसे निर्देश दिए थे जिससे कि वे ब्राह्मणों एवं श्रामणों, दोनों का सम्मान करें। परन्तु यह संभव है कि बाद के वर्षों में ये अधिकारीगण आम जनता के बीच अलोकप्रिय हो गए हों। बौद्ध ग्रंथों में दी गई कथाओं के आधार पर भी इसका अनुमान किया जा सकता है। धम्म की स्थापना के लिए इन अधिकारियों की नियुक्ति की गई, जिसके कारण राजा के द्वारा उनको विशेष प्रकार के अधिकारों से वशीभूत किया गया और इसलिए जनता में कुल मिलाकर इनको भय की दृष्टि से देखा गया। जैसे ही उन्होंने कड़ा नियंत्रण करना प्रारम्भ किया, अशोक का जन-मानस के साथ सीधा सम्पर्क अवरुद्ध हो गया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ये अधिकारी विशेषकर ब्राह्मणों के शत्रु हो गए। यह तर्क कि अशोक की नीति के कारण ब्राह्मणों के हितों को क्षति पहुंची तथा पुश्यमित्र शुंग ने ब्राह्मणों के खिलाफ विद्रोह भड़काया, को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। वास्तव में पुश्यमित्र शुंग की कार्यवाही कमजोर राजा के . विरुद्ध उचित समय पर राजमहल में रचा गया सत्ता परिवर्तन का विद्रोह था।

  • दूसरी श्रेणी के विद्वानों का मत है कि अशोक ने जिन शान्ति की नीतियों का प्रारम्भ किया वे मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थी क्योंकि इन्होंने साम्राज्य की शक्ति को कम कर दिया। अशोक की अहिंसा की नीति पर जोर देते हुए इसके चारों ओर तर्कों को गढ़ा गया है। अशोक की इस विशेष । अहिंसावादी नीति का हानिकारक प्रभाव सैन्य दृष्टिकोण से देखा गया जिसका प्रभाव सेना को कमजोर करने में हुआ। इस तर्क को आगे जारी रखते हुए यह भी कहा जाता है कि इसी कारणवश अशोक के उत्तराधिकारियों के अधीन मौर्य सेना ग्रीक हमलों का सामना करने में असफल रही। यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि राजा की अहिंसात्मक नीति का परिणाम यह भी हुआ कि वह विशेषकर उन राज्यों के अधिकारियों पर नियंत्रण को बनाए न रख सका, जो दमनकारी हो गए थे और जिनपर नियंत्रण करना आवश्यक था। दिव्यवदान से बौद्ध कथाओं को उद्धृत करते हुए यह तर्क इस बात को सामने रखता है कि प्रांतों में विद्रोह होने लगे थे।

अशोक का उपरोक्त चित्रण सत्य से बहुत दूर है। अशोक के शासन काल में ब्राह्मणवाद विरोधी मत को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए एक कारण मान लिया गया है। अशोक के अति शान्तिवाद को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि उसमें शासन करने की शक्ति एवं दृढ़ता का अभाव था। परन्तु हमारी इन तर्कों से असहमति है। यह सही है कि अशोक अहिंसा को धम्म के लिए अनिवार्य समझता था लेकिन फिर भी उसने इस संदर्भ में उस दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। खाने के लिए पशुओं का वध करना और बलि देने को वह पसन्द नहीं करता था, परन्तु फिर भी शाही नीति के रूप में इसको पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया और खाने के लिए पशुओं का वध जारी रहा, यद्यपि इसमें कमी निश्चित रूप से आयी। शासन एवं न्यायिक स्तर पर अपराधी को मृत्यु दण्ड देने की प्रथा को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, किन्तु यह जारी थी। सेना को निष्क्रिय कर दिया गया था। इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है न ही किसी शिलालेख से इस संदर्भ में कोई जानकारी मिलती है। अगर इस संदर्भ में कोई प्रमाण मिलता है तो वह है कलिंग राज्य पर अशोक का सैनिक आक्रमण।

क्या अशोक ने कलिंग नरेश को स्वतंत्र राजा के रूप में इसलिए पुनः पदस्थ किया क्योंकि वह एक अत्यधिक शान्तिवादी था परन्तु एक व्यवहार कुशल शासक के रूप में ऐसा किया जिससे कलिंग-राज्य पर मगध की सर्वोच्चता स्थापित हो गयी। इसके अतिरिक्त अन्य ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि अशोक ने साम्राज्य के अपने नियंत्रण को दृढ़ता के साथ स्थापित किया। उदाहरणार्थ, उसने । आदिवासियों को चेतावनी देते हुए स्पष्ट किया कि उसके साम्राज्य में रहने वाली जनजातियों का अनाचरण वह एक सीमा के बाहर बर्दास्त नहीं करेगा। अशोक ने इन सभी कार्यों को इसलिए किया जिससे कि साम्राज्य को सुरक्षित रखा जा सके।

इस प्रकार, निष्कर्ष यह निकलता है कि अहिंसा की नीति ने मौर्य सेना एवं प्रशासन व्यवस्था को किसी भी प्रकार से कमजोर नहीं किया। इस सब के बावजूद पुश्यमित्र शुंग मौर्य सेना का सेनापति था और अशोक के शासन काल की आधी शताब्दी के बाद उसने यूनानियों को मगध के अन्दर प्रवेश करने से रोका था। प्रो. रोमिला थापर के अनुसार, शान्तिवादी नीति के एक पीढ़ी तक जारी रहते हुए भी न तो साम्राज्य को कमजोर किया जा सकता था और न ही विघटित। “साम्राज्यों के विघटन के लिए केवल युद्धों एवं भू-भाग की प्राप्ति को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। बल्कि इसके कारणों की खोज भली भांति ढंग से दूसरे क्षेत्रों में की जानी चाहिये।”

आर्थिक समस्याएं

डी.डी. कौशाम्बी का कहना है कि मौर्यों ने गंभीर आर्थिक संकट का सामना किया जिसके कारण मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया। कौशाम्बी के द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क दो प्रकार के हैं और उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य अर्थव्यवस्था में वित्तीय बाधाएं निहित थीं। (क) विभिन्न वस्तुओं पर कर बढ़ाने के लिए सरकार ने अनेक उपाय किए (ख) इस काल के पंच मार्ड सिक्के इस बात का प्रमाण है कि मुद्रा की गुणवत्ता में गिरावट आयी। उनका अन्तिम तर्क उनके द्वारा इस काल के सिक्कों पर किए गए सांख्यिकी विश्लेषण पर आधारित है।

कौशाम्बी के मगध साम्राज्य में निर्णायक परिवर्तन तथा इन परिवर्तनों में मौर्य साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण होने के विचार को स्वीकार किया गया है। उनके विचारों को निम्न प्रकार से वर्णन किया गया है :

  • ऐसा माना जाता है कि राज्य का धातु पदार्थों पर एकाधिकार धीरे-धीरे समाप्त हो गया। कृषि कार्यों के लिए लोहे की मांग इतनी अधिक बढ़ गई कि उसकी पूर्ति अकेले मगध के द्वारा न की जा सकी। वास्तव में दक्कन में लोहे के स्रोतों को खोजने और विकसित करने के लिए प्रयास किए गए। लोहा प्राप्त करने के कुछ स्थल आन्ध्र एवं मैसूर में पाए गए। मगध राज्य के लिए इन स्थलों से लोहा प्राप्त करना काफी खर्चीला काम था। इससे संबंधित और भी समस्याएं थीं। जैसे कि इन खदानों को स्थानीय सरदारों के आक्रमण से भी सुरक्षित रखना पड़ता था।
  • दूसरी बात जिस पर जोर दिया गया है, वह यह है कि कृषि उत्पादन में विस्तार, जंगल की लकड़ी के अधिक प्रयोग तथा निर्वणीकरण ने बाढ़ तथा सूखे की स्थिति पैदा की। मौर्यकाल में उत्तरी बंगाल में भयंकर सूखे के प्रमाण मिले हैं। इस प्रकार कई कारणों से राजस्व की कमी आई। सूखे के दौरान राज्य से व्यापक स्तर पर सहायता की अपेक्षा की जाती थी।

केन्द्रीकृत प्रशासन में पर्याप्त मात्रा में राजस्व न उपलब्ध होने की समस्या के कारण दूसरे प्रकार की अन्य गम्भीर मुश्किलें पैदा हो जाती थीं। राजस्व की मात्रा को बढ़ाने के लिए अर्थशास्त्र में सुझाया गया है कि कलाकारों और वेश्याओं आदि पर भी कर लगाये जाने चाहिए। सरकारी खजाने में अधिक धन की आवश्यकता के फलस्वरूप उन सभी वस्तुओं पर कर लगाने की प्रवृत्ति को बढावा मिला, जिन पर कर लगाया जा सकता था और मुद्रा और अवमूल्यन से मुद्रा-स्फीति को बढावा मिला। अर्थशास्त्र में जो आपातस्थिति में लागू किए जाने वाले उपाय वर्णित हैं उनको उपरोक्त दिए गए संदर्भ में समझा जाना  चाहिए।

दूसरे, पंच मार्ड सिक्कों में चांदी की मात्रा को कम करके उनका जो अवमूल्यन किया गया वह इस बात का प्रमाण है कि उत्तर-मौर्य काल के शासकों के समय में खाली होते सरकारी खजाने की आवश्यकता की पूर्ति करता था। खर्च में भी वृद्धि हुई। अशोक के द्वारा जन कार्यों के लिए खर्च की गई धनराशि से भी स्पष्ट होता है। राज्य को जो अतिरिक्त धन मिलता था वह भी उसकी एवं उसके अधिकारियों यात्राओं पर खर्च हो जाता था। राज्य ने वित्तीय व्यवस्था पर नियंत्रण के लिए जो प्रारंभिक कठोर उपाय किए थे, वे अशोक के शासन काल में परिवर्तित होने प्रारंभ हो गए।

रोमिला थापर ने इस पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार सिक्कों का अवमूल्यन होना अनिवार्यतः इस बात की ओर संकेत नहीं करता है कि अर्थव्यवस्था पर किसी प्रकार का दबाव था। यह कहना बहुत कठिन है कि कब और कहां सिक्कों का अवमूल्यन हुआ। सकारात्मक रूप में तर्क प्रस्तुत करती हुई वह बताती हैं कि भौतिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस समय में भारतीय उपमहाद्वीप के बहुत से भागों की अर्थव्यवस्था में वास्तव में सुधार हुआ था। उपरोक्त कथन की पुष्टि बेहतर किस्म के पदार्थों के उपयोग, जो कि तकनीकी विकास की ओर इशारा करते हैं, से होता है।

इस प्रकार, उनके अनुसार सिक्कों का अवमूल्यन भौतिक जीवन के स्तर में गिरावट के कारण नहीं हुआ था, बल्कि यह राजनीतिक अव्यवस्था का परिणाम था जो गंगा घाटी में व्याप्त थी और जिसके कारण व्यापारी वर्ग में धन को संग्रहित करने की प्रवृत्ति बढी, जिससे सिक्कों का अवमूल्यन हुआ। इस प्रकार वह निष्कर्ष निकालती हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही आर्थिक सम्पन्नता भी व्याप्त थी।”

स्थानीय राजनीति का विकास

मौर्यों के राजनीतिक पतन के साथ-साथ अगर देश का भौतिक एवं तकनीकी विकास अवरुद्ध नहीं हुआ था तो यह कहा जा सकता है कि मौर्य-काल के बाद नवीन शक्ति के साथ बहुत सी स्थानीय राजनीतिक व्यवस्थाओं या राज्यों के उद्भव के लिए मजबूत भौतिक आधार मौजूद था। मौर्य राजा वास्तव में “साम्राज्य’ के प्रमुख व महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर शासन करते थे, जिनका मुख्य केन्द्र मगध था। इसकी अधिक संभावना है कि मौर्यों ने दूर-दराज के क्षेत्रों पर शासन करने वाले राज्यपालों एवं अधिकारियों को स्थानीय लोगों में से चुना हो। कभी-कभी ये अधिकारीगण बड़े शक्तिशाली हो जाते थे और राजाओं के प्रतिनिधियों पर अंकुश लगाने का काम करते थे। जैसा कि पहले भी उद्धत किया गया है कि साम्राज्यवादी व्यवस्था को जारी रखने के लिए इन अधिकारियों की राजनीतिक वफादारी बड़ी निर्णायक होती थी। राजा में परिवर्तन का अर्थ था कि इन वफादारियों का पुनर्निर्धारण होना। यदि ऐसा अक्सर हो, जैसा कि अशोक के बाद के समय में हुआ भी तो व्यवस्था में मूलभूत कमजोरियाँ आ जाती और अंततः यह व्यवस्था असफल हो जाती।

अशोक के बाद आधा दर्जन राजाओं ने शासन किया परन्तु उन्होंने अपनी शासन करने की प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं किया और वही नीति अपनाई जो पहले तीन मौर्य सम्राटों ने अपनाई थी। यह भी कहा जाता है कि इनमें से कुछ राजाओं ने लगभग साथ-साथ साम्राज्य के बहुत से भागों पर शासन किया। इससे स्पष्ट है कि मौर्यों के शासन काल में ही साम्राज्य का विघटन हो गया था।

बड़े राज्य

मौर्य साम्राज्य के विघटन के फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में कई राज्यों का उदय हुआ। मौर्यों के तुरन्त बाद पुश्यमित्र शुंग ने शुंग वंश की स्थापना की और मौर्य साम्राज्य के केवल एक भाग पर ही नियंत्रण रखने में शुंग सफल हुए थे। शुंग परिवार के पास मौर्यों के शासन काल में पूर्वी मालवा में विदिशा के पड़ोसी राज्य उज्जैन, जोकि पश्चिम मालवा में स्थित था, का शासन था। शुंगों ने सत्ता प्राप्त करने के बाद वैदिक प्रणाली और बलि को पुनः प्रारम्भ करने का प्रयास किया क्योंकि ग्रीक आक्रमणकारियों का सामना करने और उनके प्रथम राजा के द्वारा सत्ता हथिया कर उसको मजबूत करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था।

शुंगों के बाद कन्वों के वंश ने थोड़े समय के लिए शासन किया। इसी समय में ग्रीक आक्रमणकारी देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में अपना शासन स्थापित करने में सफल रहे। उनके शासन को शकों के द्वारा ही समाप्त किया जा सका, जो सिंध नदी के किनारे बस गए थे। पार्थियन या पल्लव आक्रमणकारी भी उत्तर-पश्चिम भारत की ओर आए। लेकिन सबसे सफल विदेशी आक्रमणकारी कुषाण थे, जिन्होंने कुषाण साम्राज्य की स्थापना की।

गंगा घाटी राजस्थान, पूर्वी भारत तथा दक्कन में अनेक नए स्थानीय शासक परिवारों ने इस काल में राजनीतिक सत्ता प्राप्त की। यह स्पष्ट है कि मौर्य काल के दौरान अधिकतम ग्रामीण बस्तियां गंगा घाटी में बसीं। असम के पर्वतीय क्षेत्रों एवं बंगाल के मैदानी क्षेत्रों में बस्तियां स्थापित नहीं हुई थीं। इसी के समान, देश के दक्षिणी एवं दक्षिण-पूर्वी भाग मगध साम्राज्य के सम्पर्क में आ चुके थे, लेकिन व्यापक स्तर पर कृषि अर्थव्यवस्था अभी अस्तित्व में नहीं आई थी। मौर्य शासन के पतन के पश्चात् बहुत से स्थानीय शासक विदर्भ, पूर्वी दक्खन, कर्नाटक तथा पश्चिम महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में शासन करने लगे। धीरे-धीरे सातवाहन परिवार ने दक्कन में स्थानीय केन्द्रों के समायोजन द्वारा एक साम्राज्य की स्थापना की।

जिस समय प्रारंभिक सातवाहन स्वयं को स्थापित कर रहे थे, उसी समय उड़ीसा के महानदी क्षेत्र में खरावेला ने एक शक्तिशाली शासक के रूप में अपने को स्थापित किया। उसके शासनकाल के एक शिलालेख में जो भुवनेश्वर के पास उदयगिरि की पहाड़ी में हाथी गुम्फा के गुफा में पाया गया है वह यह दावा करता है कि वह कलिंग के महामेघवाहन परिवार, जो कि प्राचीन चेदी परिवार की एक शाखा था का तीसरा शासक था।

कहा जाता है कि उसने मगध, सातवाहन और पाण्डया देशों पर सफलतापूर्वक आक्रमण किए। वह जैन धर्म का पक्का समर्थक था।

धुर दक्षिणी क्षेत्र में तीन राज्य, मौर्य काल से ही महत्वपूर्ण बने रहे। उनमें प्रथम चेर थे जिनका नियंत्रण. मालाबार क्षेत्र पर था, दूसरे चोल थे जो दक्षिण-पूर्वी समुद्र के किनारे एवं कावेरी नदी की घाटी में फैले हुए थे और तीसरे पाण्डया थे जिनके अधिकार क्षेत्र दक्षिणी प्रायद्वीप का छोर था। इस काल के संगम साहित्य से उन तीनों राज्यों के समाज, पर्यावरण संबंधी राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के विषयों में जानकारी प्राप्त होती है। 

उपरोक्त पंक्तियों में विदेशी एवं स्वदेशी राज्यों के राजनीतिक स्वरूप एवं भौगोलिक क्षेत्रों का विवेचना किया गया है। ये राज्य मौर्य काल के बाद अलग-अलग समय में शक्तिशाली बने रहे। 200 ई.पू. तथा 300 ईसवी के दौरान उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में पहले यूनानी तथा बाद में शक, पार्थियन तथा कुषाण प्रमुख शक्तियां थीं। दक्कन में सातवाहनों को शासन सबसे स्थायी तथा व्यापक था। किन्तु इसी काल में इन प्रमुख शक्तियों के अतिरिक्त अनेक छोटे राज्य तथा गण-संघ थे जो जनपदों पर शासन कर रहे थे। यदि हम इन पर अपनी दृष्टि नहीं डालते हैं तो इस काल की राजनीतिक स्थिति स्पष्ट नहीं हो सकती है।

स्थानीय राज्य

इस काल में विकसित होती कृषि अर्थव्यवस्था के कारण या कुछ क्षेत्रों में व्यापारिक गतिविधियों के कारण शक्तिशाली कबीलों के अधीन स्थानीय या उपक्षेत्रीय राज्यों का उद्भव हुआ। बहुत से भारतीय साहित्यिक स्रोतों जैसे कि पुराण आदि नागा, गर्दाभील और आभीर आदिवासी जातियों का नाम है। इस काल में राजाओं का इन पर शासन था। उत्तर-मौर्य काल के चार नागा राजाओं, सात गर्दाभील राजाओं, तेरह पुश्यमित्र राजाओं और दस आभीर राजाओं की सूची उपलब्ध है।

गर्दभीलों की उत्पत्ति संभवतः एक बड़ी भील नामक जनजाति से हुई जो संभवतः केन्द्रीय तथा पश्चिम भारत के वनों में रहते थे। कुछ अभीर संभवतः अहीर नाम की जाति में परिवर्तित हो गए जिनमें से कुछ चरवाहों के रूप में जाने जाते हैं। इन सबके अतिरिक्त भी हम अन्य कई ऐसे कबीलों के बारे में, जिनमें इस काल में परिवर्तन हुए उनके द्वारा अपने नाम पर जारी किए गए सिक्कों के माध्यम से या महाजनपदों के नाम से जानते हैं। यौद्वेय, जोकि पानिनि के समय में भी प्रसिद्ध एवं कुशल योद्धा थे और ऐसा कहा जाता है कि उनका पश्चिम भारत के शक नरेश रुद्रदमन ने दमन किया था। उनका अधिकार क्षेत्र सतलज एवं यमुना नदी के मध्य में स्थित था। इसी प्रकार मथुरा के पूर्वी-दक्षिणी भू-भाग पर शुंग शासन के अंतिम वर्षों में अर्जुनायन नाम के कबीले ने ।  एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली थी।

पंजाब में रावी और व्यास के मध्य के भू-भाग पर अधिकार करने वालों को ऑदम्बर कहा गया है। ऐसा कहा जाता है कि कुणिन्दों ने भी शिवालिक पहाडियों की तलहटी में व्यास एवं यमुना के मध्य के भू-भाग पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस काल में दूसरे कबीलाई । गणराज्य सिबि, मालवा, त्रिगर्त आदि थे। ये जनपद उत्तरी एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के भू-भाग पर फैले हुए थे तथा इसी काल में स्वतंत्र राज्य जैसे कि अयोध्या, कोशाम्बी, मथुरा और अहिछत्र, जोकि किसी काल में मौर्यों के अधीन थे ने अपनी शक्ति को पुनर्स्थापित किया दक्कन के छोटे-छोटे स्थानीय राजाओं तथा राज परिवारों, जिन पर सातवाहनों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया, के विषय में जानकारी मुख्यतः सिक्कों से मिलती है।

महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र से प्राप्त प्रमाणों से हमें कुछ परिवारों जैसे महारती, क्रुरू तथा अनार्द के विषय में जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त, इस काल में दक्कन में अनेक स्थानीय सरदार, जिन्होंने सिक्के जारी किए, अस्तित्व में आए। हम यह भी जानते हैं कि धुर दक्षिण प्रदेश के तीन राज्यों चेरा, चोल, पाण्डया के राजा कम विकसित क्षेत्रों के छोटे सरदारों के साथ लगातार युद्धों में उलझे रहते थे। उदाहरण के लिए वेलिर सरदार इसलिए प्रसिद्ध थे क्योंकि दक्षिण-पूर्वी समुद्र के किनारे से रोम के साथ होने वाले व्यापार केन्द्रों पर उनका नियंत्रण था।

इस प्रकार उत्तर-मौर्य काल में बहुत से शासकीय वंशों ने साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयास किए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमें एक ने दूसरे के विरुद्ध अपना दावा प्रस्तुत किया। उप-क्षेत्रीय शक्ति को भी पूर्णतः दबाया नहीं जा सका। जलं एक ओर, मौर्यों के राजनीतिक पतन ने एक ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें स्थानीय शक्तियों का उद्भव संभव हो सका, वहां दूसरी ओर मौर्यों के शासन काल की आर्थिक सम्पन्नता बिना किसी क्षति के जारी रही। इस प्रकार मौर्यों के मगध साम्राज्य में संसाधनों को नियंत्रित एवं संगठित करने का संकट था न कि इनकी कमी का।

सारांश

हमने इस इकाई में उन सभी कारणों का विश्लेषण किया जिनसे मौर्य साम्राज्य का पतन एवं उसी के साथसाथ स्थानीय राजनीतिक व्यवस्थाओं का उत्थान हुआ। अशोक के उत्तराधिकारी साम्राज्य की उस अखण्डता को बनाए रखने में असफल रहे जो उन्हें अशोक से विरासत में प्राप्त हुई थी। अशोक के बाद साम्राज्य के बंटवारे एवं शीघ्र-शीघ्र शासकों के परिवर्तन ने निःसंदेह साम्राज्य के आधार को कमजोर किया। परन्तु अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मौर्य साम्राज्य व्यवस्था में अंतर्निहित विरोधाभासों ने इस संकट को और अधिक गहरा किया। उच्च स्तरीय केंद्रीकृत नौकरशाही की निष्ठा राजा के प्रति थी न कि राज्य के प्रति जिसके कारण प्रशासन का आधार पूर्णतः व्यक्तिवादी हो गया। राजा के परिवर्तन का तात्पर्य अधिकारियों में भी परिवर्तन होना था जिसका अशोक के बाद में प्रशासन पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा।

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