मौर्य युग के अंत से लगभग सन् 300 ई. तक उत्तर पश्चिमी एवं उत्तर भारत

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप को निम्नलिखित विषयों की जानकारी होगी

  • मौर्य युग के अंत से लगभग सन् 300 ई. तक की राजनीतिक गतिविधियाँ।
  • विभिन्न प्रकार के विदेशी तत्वों का भारतीय समाज पर प्रभाव और उनका समावेश।
  • मध्य एशियाई संपर्क का तकनीकी, धर्म तथा कला के क्षेत्र में प्रभाव तथा उस युग के भौतिक अवशेष।

आपने प्रथम भारतीय साम्राज्य की, जो मौर्य साम्राज्य के नाम से जाना जाता है, स्थापना और सुसंगठित होने के विषय में जानकारी प्राप्त की। राजनैतिक विस्तार, राजतंत्र तथा अशोक की धम्म की नीति के विषय में आपने विस्तृत रूप से जाना। आपको याद होगा कि पुश्यमित्र शुंग ने लगभग 180 ईस्वी पूर्व में आखिरी मौर्य सम्राट का निश्चित रूप से पतन कर दिया। 

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इसलिए महत्वपूर्ण है कि उस युग में मध्य एशिया से सांस्कृतिक-संबंध स्थापित हए और विदेशी तत्वों का भारतीय समाज में समावेश हआ। इस युग में उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत में अनेक राजनैतिक क्षेत्र उभर कर सामने आये। इस इकाई में हम शुंग, शक, भारतीय-यूनानी तथा पार्थियन जैसे अन्य महत्वपूर्ण वंशों का अध्ययन करेंगे। साथ ही साथ व्यापार, कला, धर्म तथा शिल्प विज्ञान के क्षेत्र में सांस्कृतिक संबंधों पर भी विचार करेंगे।

स्रोत

इस युग के राजनैतिक इतिहास की जानकारी के लिए विभिन्न प्रकार के स्रोतों की छान-बीन आवश्यक है। कुछ क्षेत्रों में शासकों और राजवंशों के बारे में पौराणिक विवरण अत्यंत उपयोगी है। पौराणिक विवरण के साथ-साथ कुछ विषयों के लिए शिलालेख भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत हैं

मौर्यों की पराजय के तुरन्त बाद के समय के लिये, गार्गी संहिता, पंतजलि के महाभाव्य, दिव्यावदान कालिदास के मालविकाग्निमित्र तथा बाण के हर्ष चरित आदि ग्रंथों में कछ जानकारी तो अवश्य मिलती है, पर वह बिखरी हुई है। शुग इतिहास से संबंधित प्रमाण भी हमें अयोध्या, विदिशा तथा भारूत के शिलालेखों में मिलते हैं।

मौर्यों के बाद के युग में राजनैतिक सत्ता किसी परिवार विशेष के हाथ में नहीं रह गयी। इस यग में राजनैतिक सत्ता के दो रूप सामने आते हैं। पहले का संबंध उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से है जहां एक वंश के शासकों का स्थान दूसरे वंश ने लिया- पहले यूनानी मूल के शासक, उसके बाद शक या पार्थियन मल के शासक तथा उसके बाद यहचि मल के शासकों ने सत्ता सम्हाली। इसके साथ, इसी युग में उत्तर भारत में हमें सत्ता का दसरा रूप मिलता है, जिसमें स्थानीय स्तर पर सत्ता । छोटे-छोटे परिवारों के हाथ में आयी।

कुछ स्थानों पर हमें गण संघ भी मिलते हैं जो एक विस्तृत क्षेत्र में बंटे हए थे। इन राज परिवारों का संकेत उन सिक्कों से मिलता है, जो उन्होंने ढाले। यह सिक्के बहत महत्वपूर्ण स्रोत हैं क्योंकि उन पर शासकों के नाम अंकित हैं। इन सिक्कों तथा अन्य स्रोतों की मदद से हमें इस यग के राजनैतिक इतिहास को समझने में सहायता मिलती है। पश्चिमी एशिया के अनेक भागों से तथा विशेष कर मध्य एशिया से सांस्कृतिक आदान-प्रदान इस युग में एक आम बात थी। इस संदर्भ में, उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के लिये, कुछ अन्य प्रकार के स्रोत भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैसे कि, समकालीन सिक्कों के साथ-साथ, इस यग में खरोष्ठी लिपि में लिखे गये अनेक लेख गान्धार क्षेत्र में मिलते हैं, तथा मध्य एशिया में भी अनके खरोष्ठी दस्तावेज प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा उत्तर-पश्चिम भारत तथा वहां के शासकों के बारे में थोड़ा बहुत हवाला यूनानी और लैटिन स्रोतों में भी मिलता है।

बौद्ध स्रोतों में भी इस युग से संबंधित जानकारी मिलती है, जैसे कि पाली में लिखित मिलिन्द पण्ह (मिलिन्द के प्रश्न) में यवन राजा मेनन्दर तथा बौद्ध धर्म का विवरण है। चीनी ऐतिहासिक वतान्तों में, मध्य एशिया, बैक्ट्रिया तथा उत्तर-पश्चिम भारत की समकालीन घटनाओं के हवाले मिलते हैं। जैसे कि यह चि या कशाण वंश का प्रारंभिक इतिहास जानने के लिये हमें चीन के प्रारंभिक तथा बाद के वंशों से संबंधित वृतान्तों पर निर्भर रहना होगा।

शुंग

शुंग एक ब्राह्मण परिवार था जिसका संबंध शायद पश्चिम भारत के उज्जैन क्षेत्र से था, जहाँ मौर्य राजाओं के समय में राज्य अधिकारी थे। ‘शुंग वंश का संस्थापक पश्चमित्र था। आम तौर पर समझा जाता है, उसने 180 वर्ष ई.पू. में अंतिम मौर्या राजा ब्रिहद्रथ को मार डाला। संस्कृत लेखक बाण जो कन्नौज के राजा हर्षवर्धन का राज्य कवि था, इस घटना की पष्टि करता है। ऐस प्रतीत होता है कि पश्यमित्र ब्राह्मणवाद का समर्थक था और उसने अश्वमेघ या अश्व-बलि भी करवाया।

अश्व-बलि एक वैदिक धर्मविधि थी जिसे राजसी गौरव का प्रतीक समझा जाता था। धनदेव के अयोध्या शिला लेख से मालम होता है कि पश्यमित्र ने दो बार अश्व-बलि की थी। इससे न केवल इस बात का संकेत मिलता है कि पश्यमित्र का अधिपत्य एक बड़े क्षेत्र पर था, बल्कि उसके राज्य में प्रचलित ब्राह्मण रूढ़िवादिता के बारे में भी जानकारी मिलती है। बौद्धिक स्रोतों के अनुसार उसने बौद्ध धर्म के अनुयायियों पर अत्याचार किये।

दिव्यावदान की बौद्धिक परंपरा इस बात की पष्टि करती है कि पश्यमित्र ने बौद्ध मठ तथा धर्म स्थानों का विनाश किया, विशेषकर जिनका निर्माण अशोक ने करवाया था। 

पुराणों के अनसार पश्यमित्र ने 36 वर्ष तक शासन किया और उसके बाद उसका पत्र अग्निमित्र शासक बना। उसके शासन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। ऐसा लगता है कि मलदे काफी प्रभावशाली शासक था। उसके शासन काल ने शंग वंश का विघटन शुरू किया। कछ इतिहासकारों के अनुसार अयोध्या में मिले सिक्कों से मूलदेव का राजा होना सिद्ध होता है।  अयोध्या के शिला लेखों में उसे कौशल का स्वामी कहा गया है। वह स्वतंत्र कौशल प्रदेश का शासक था। जल्दी ही, शंग शासकों का राज्य मगध तथा मध्य भारत के क्षेत्र तक ही सीमित रह । गया।

देवभूति, शुंग वंश का चौथा और अंतिम शासक था। यदि हर्ष चरित्र के लेखक बाण के वृत्तान्त पर विश्वास किया जाए, तो वह अपने ब्राह्मण मंत्री वासुदेव के षड्यंत्र का शिकार हो गया। इस प्रकार शंग शासकों का सिलसिला ईसा के 75 वर्ष पूर्व खत्म हो गया। हालाँकि वासदे ने शासकों की एक नयी कड़ी शुरू की जो कौरव कहलाये, जो चार पीढ़ियों तक कायम रही।

भारतीय-यूनानी

ईसा के लगभग 200 वर्ष पूर्व, भारतीय उप-महाद्वीप की उत्तर-पश्चिम सीमा के पार काफी सरगर्मी थी। यूनानियों ने जो बेक्ट्रिया में राज्य करते थे। सबसे पहले हिन्द कश को पार किया। यह क्षेत्र ऑक्सस नदी के दक्षिण में उत्तरी अफगानिस्तान से ढका हुआ था। सिकन्दर के उत्तर-पश्चिम भारत के हमले के बाद भी यनान और भारत के बीच कोई विशेष निकटता स्थापित नहीं हुई। दो अलग प्रकार की संस्कृति का मिश्रण ईसा की दो शताब्दी पूर्व के युग में नजर आता है। यह सांस्कृतिक मिश्रण उस समय हआ जब बेक्ट्रिया के यनानी शासक उत्तर-पश्चिम भारत तक पहुँच गये और भारतीय यूनानी के नाम से जाने गये।

ईरान में अकेमेनिद राज्य के विलय तथा सिकन्दर की मृत्यु के बाद, ईरान तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों पर सिकन्दर के सेनापतियों का अधिकार हो गया। धीरे-धीरे बेक्ट्रिया के यूनानी शासक जो मलतः सेल्यसिड और पारिथया के अरासासिड शासकों के अधीन थे, वे अब स्वशासन का दावा करने लगे। यूनानी शासकों को स्काईथियन जनजाति से गंभीर खतरे का सामना करना पड़ा। चीन की दीवार के निर्माण के बाद स्काईथियन चीन की ओर तो न बढ़ सके पर उन्होंने यनानियों और पारथिस पर हमले किये। स्काईथियन जनजाति के दबाव से, बेक्ट्रियन यूनानियों को भारत की ओर आना पड़ा।

ये हमले मौर्य शासन के अंतिम चरण में शुरू हो चुके थे और अशोक के उत्तराधिकारियों में उनसे सामना करने की क्षमता नहीं थी। ईसा के 150-200 वर्ष पूर्व की अवधि में उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत के एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया था। अपने सैनिक अभियानों में वे गंगा के मैदान तथा देश के अन्य भागों में दर तक पहुँच गये थे, जैसे पांचाल, साकेत तथा पाटलीपत्र।

भारतीय यूनानी शासकों में मेनान्दर या मिलिन्द बहत मशहर हुआ। उसके शासन काल में मारतीय-यूनानी राज्य की सीमायें स्वात घाटी से शुरू होकर पंजाब में रावी नदी तक पहुँच गयी थी। उसने अपनी राजधानी पंजाब में साकला (आधनिक स्यालकोट) में बनायी। बौद्ध भिक्ष और दार्शनिक नागसेन के द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के कारण भी मेनान्दर याद किया जाता है। मेनान्दर ने नागसेन से बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक प्रश्न किये जिनका उल्लेख मिलिन्द-पन्ह या “मिलिन्द के प्रश्न नामक पुस्तक में है।

समकालीन सिक्कों की एक बड़ी संख्या से कम से कम 30 भारतीय यूनानी शासकों के नाम मालूम हो जाते हैं। उत्तर में काबल तथा दिल्ली के निकट मथुरा में मेनान्दर के सिक्के प्राप्त हुए हैं। भारतीय यूनानियों का इतिहास मुख्यतः इन्हीं सिक्कों की सहायता से लिखा गया है। इन सिक्कों पर यनानी भाषा में अनश्रतियाँ अंकित है, बाद में खरोश्टी तथा ब्रह्मी लिपि भी मिलती है। इन प्रमाणों को समझने की कहीं-कहीं कठिनाई होती है, क्योंकि कुछ राजाओं के नाम एक से थे। इसलिए एक शासन के समय के सिक्कों को दूसरे से अलग करना आसान नहीं है। सिक्के, विशेषकर चाँदी के सिक्कों के ढालने की भारतीय यूनानी तकनीक कारीगरी का अच्छा उदाहरण है। इसका प्रभाव इस यग के कछ स्थानीय शासकों द्वारा जारी किये हुए सिक्कों पर पड़ा और एक बड़े क्षेत्र में उनका प्रचलन हुआ। ये इस युग के बढ़ते हुये व्यापार संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

भारतीय यूनानियों की भूमिका, सांस्कृतिक संबंधों के संदर्भ में इसलिए भी महत्वपूर्ण समझी जाती है कि उन्होंने उत्तर-पश्चिम भारत में हेलेनिस्टिक कला से परिचय कराया, जिसने बाद में गंधार कला शैली का रूप लिया।

शक

शकों को स्काईथियन के नाम से भी जाना ता है। कुछ स्रोत स्काईथियन और पारथियन दोनों का हवाला एक साथ देते हैं, तथा उन्हें शक पहलवा कहते हैं। यहाँ तक कि शासकों के नाम से भी कभी-कभी शक और पहलवा में अंतर करना अत्यन्त कठिन है। फिर भी, उत्तर, उत्तर-पश्चिम, और पश्चिम भारत में कुछ शक राज परिवारों की वास्तविकता को स्थापित किया जा चका है। शकों का बोलन दर्रे के रास्ते से भारत में आना शरू हआ और ऐसा समझा जाता है कि वे पहले सिंधु के निचले क्षेत्र में आबाद हुए। शकों की विभिन्न शाखाओं से संबंधित सिक्के और अन्य स्रोत उपलब्ध हैं। ऐसा समझा गया है कि उनकी एक शाखा अफगानिस्तान में बसी तथा दूसरी पंजाब में और तक्षिला उसकी राजधानी थी। एक अन्य शाखा ने मथुरा में राज्य किया। चौथी शाखा पश्चिम तथा मध्य-भारत में आबाद हुई, जहाँ शकों ने चौथी शताब्दी तक शासन किया।

शक बेक्ट्रिया में यूनानी आधिपत्य को खत्म करने में सफल हुए। वे मूलतः मध्य एशिया के खानाबदोश थे जिन्हें एक अन्य मध्य एशियाई जनजाति य-ची ने बेक्ट्रिया की सीमा पर स्थित अपने आवास से उखाड़ फेंका। फलस्वरूप शक भी यूनानियों के पीछे-पीछे भारत में आ गये। धीरे-धीरे स्थानीय शासकों को हटाकर शकों ने उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत पर अधिकार कर लिया। भारत में शक-इतिहास को जानने के लिए विभिन्न प्रकार के स्रोत हैं। शकों का हवाला, यूनानी, यूनानी-रोमन, तथा चीनी वृत्तान्तों में भी मिलता है। शिलालेखीय तथा मुद्रा संबंधी स्रोत भी उपयोगी है। इस संबंध में सबसे पहली जानकारी एक ग्रंथ के रूप में महाभाष्य से मिलती है। पराणों और महाकाव्यों में भी कम्बोज और यवनों के साथ-साथ शकों के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है।

भारत में पहला शक राजा मॉएस या मोगा जिसने गांधार में राज्य की स्थापना की। मॉएस के बारे में सिक्कों की श्रृंखला तथा अभिलेखों से भी जानकारी प्राप्त होती है जिनमें से एक अभिलेख कालांकित भी है। एक कालांकित ताँबे की पट्टी जो तक्षिला में प्राप्त हयी है, इस बात की पष्टि करती है कि बुद्ध की एक प्रतिमा मॉएस के समय में स्तूप में स्थापित की गयी। मॉएस के बाद, आजेए ने शासन किया। वह उत्तर भारत के अंतिम यूनानी राजा, हिषास ट्रेटस पर हमला करने में सफल हुआ।

शकों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अपना शासन स्थापित किया, पर केवल पश्चिम भारत में ही चार शताब्दियों तक उनकी शक्ति कायम रही। पश्चिमी भारत का सबसे प्रसिद्ध शक शासक था, रुद्रामण प्रथम (130-152 ई.)। उसके राज्य की सीमायें सिंध, कच्छ, गजरात, राजस्थान, कोणकन, नर्मदा घाटी, मालवा, काठियावाड़ तथा पश्चिमी दक्खन तक फैली हई थी। रुद्रामण की सैनिक उपलब्धि, उसके राज्य की विशाल सीमायें तथा उसके अनेक व्यक्तिगत गुणों का उल्लेख जनागढ़ के मशहर शिलालेखों में किया गया।

यह 150 ई. में लिखे गये तथा इनमें यह भी उल्लेख किया गया है कि उसके अधिकारी ने काठियावाड़ में सुदर्शन झील पर मौर्यों द्वारा बनवाये हए बाँध की मरम्मत करवायी। इस झील के पानी से मौर्य काल से ही सिंचाई की जाती थी। यह विस्तृत शिलालेख पहला बड़ा शिलालेख है जो संस्कृत में लिखा गया। यह बात साफ है कि । रुद्रामण ने संस्कृत को बढ़ावा दिया। यदा-कदा प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी, रुद्रामण की मृत्यु के बाद शकों ने उस क्षेत्र में चौथी शताब्दी तक शासन किया।

पारथियन तथा शकों ने शासन की सत्रप व्यवस्था को अपनाया जो ईरान की अकेमेनिड और सेल्यसिद्र व्यवस्था के अनुरूप थी। इसके अनुसार राज्य का विभाजन प्रान्तों में किया जाता था, जिनके शासन का कार्यभार सैनिक गवर्नरों के सपर्द था। इनको महाशत्रप (वरिष्ठ सत्रप) कहा जाता था। छोटे दर्जे के गवर्नर सत्रप कहलाते थे। यह गवर्नर स्वयं अपने शिलालेख खुदवाते और सिक्के जारी करते थे। यह इस बात की ओर ध्यान दिलाता है कि गवर्नर अपनी भूमिका निभाने में स्वतंत्र थे, जैसा कि इस यग के प्रशासनिक ढांचे में आम तौर पर नहीं देखा गया। शक राजा राजाधिराज’ (राजाओं का राजा) तथा महाराजा (महान राजा) जैसी पदवी भी ग्रहण कर लेते थे। यह उन्होंने यूनानी परंपरा से लिया।

पारथियन

हम पहले चर्चा कर चके हैं कि प्राचीन भारत के संस्कृत ग्रंथों में शक-पहलवा शब्द शक तथा पारथियन दोनों को साथ-साथ संबोधित करता है। शक तथा पारथियन दोनों ने एक समय में उत्तर-पश्चिम भारत के विभिन्न भागों में शासन किया। पारथियन मूलतः ईरान के रहने वाले थे। ऐसा समझा जाता है कि वे भारत तथा ईरान के सरहदी क्षेत्र में तथा उत्तर-पश्चिम भारत में पारथियन शासकों के प्रतिनिधि बनकर आये। सीस्तान केशकों के पारथियन से निकट संपर्क थे। इसलिए हमें भारतीय शकों में मल स्काईथियन तथा ईरानी पारथियन का मेल नजर आता है।

गाँडोफेयस सबसे प्रमुख पारथियन राजा हुआ। उसका राज्य काबुल से पंजाब तक फैला हुआ था, और संभवतः उसमें पारथियन साम्राज्य के कुछ ईरानी क्षेत्र भी शामिल थे। अलग-अलग समय पर जारी हए सिक्के इस बात की पष्टि करते हैं वह आधीनता की स्थिति से उठकर एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसका नाम सेंट थामस से भी जुड़ा हुआ है। एक परंपरा के अनुसार सेंट थामस इजराईल से यात्रा करके गाँडोफायस के दरबार में आये, और भारत आकर उन्होंने ईसाई धर्म का प्रचार किया। पारथियनों के समय के चाँदी के सिक्कों की कमी स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। यह भारतीय पारथियन साम्राज्य की साधारण आर्थिक स्थिति को प्रमाणित करता है। कुछ विद्वानों का विचार है, कि ऐसा भी हो सकता है पहले के शासकों-भारतीय यूनानी तथा शक-द्वारा बड़ी मात्रा में जारी किए हुए चाँदी के सिक्कों को पारथियनों ने बड़े मूल्य के सिक्कों के लिए इस्तेमाल किया। साथ ही साथ कम मूल्य के सिक्के भी जारी किये गये होंगे जिसमें कीमती धातु की थोड़ी-सी मात्रा ही मिलायी गयी।

एबडागासेस, गाँडोफायस के तुरन्त बाद, उसका उत्तराधिकारी बना। जैसा कि दोनों के सामूहिक रूप से जारी किए हुए सिक्कों से जान पड़ता है, उसने कुछ समय तक अपने चाचा की अधिनस्थता में शासन किया। ऐसे बहत से सिक्के हैं जिन पर मॉडोफायस और उसके भतीजे एडागासेस दोनों का नाम अंकित है। तक्षिला में सिरकप के पास खदाई में मिले अनेक छोटे सिक्कों से पारथियन राज्य के अंत के बारे में मालूम होता है। समय के साथ-साथ पारथियन भारतीय समाज में घुलमिल गये।

कुषाण

अब हम कषाण नाम के एक अन्य वंश की चर्चा करेंगे, जिसने उत्तर-पश्चिम भारत के बाहरी क्षेत्र पर पार्थियनों के बाद राज्य करना शुरू किया और धीरे-धीरे उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों में फैल गया। कुषाण यूहचिए थे, वे तोचारियन के नाम से भी जाने जाते हैं। उनका संबंध यहची . जनजाति के पांच कबीलों में से एक से था। यह खानाबदोश लोग थे, जो मूलतः उत्तर मध्य-एशिया के स्टेपीज़ (घास के मैदान वाले क्षेत्र) के रहने वाले थे और चीन के पड़ोस में बसे हुये थे। इन्होंने पार्थियनों को गांधार तथा शकों को बेक्ट्रिया क्षेत्र से उखाड़ फेंका। कुषाणों ने अपने राज्य को पहले भारत की सरहद के दूसरी ओर के क्षेत्र में मजबूत किया।

धीरे-धीरे उनका आधिपत्य भारत में बढ़ने लगा और उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र को सिंध घाटी के निचले भाग तथा गंगा के अधिकतर मैदानी भाग बनारस तक बढ़ा लिया। कुषाणों का साम्राज्य केवल एक शताब्दी से कछ अधिक समय तक ही कायम रहा, पर उनके भारतीय समाज में समावेश तथा संस्कृति में योगदान का भारतीय मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। शक तथा पल्लव की भाँति, महाकाव्य, पुराण तथा दसरे साहित्यिक स्रोतों में उनकी चर्चा की गयी है। कषाणों के महत्व का एक विशेष कारण यह भी है कि उनका साम्राज्य पश्चिमी एशिया, चीन, भारत, मध्य एशिया तथा भूमध्य सागरीय सभ्यताओं का मिलन-स्थल बना।

सिक्के, शिलालेख तथा अन्य स्रोत दो कषाण वंशों के बारे में जानकारी देते हैं। पहला वंश कुजुला कदाफिसेस से शुरू हुआ। उसने पांच यहू ची जन-जातियों को मिलाया और भारत में प्रवेश करने में सफल होकर काबल और काश्मीर में अपने राज्य की स्थापना की। कंजला कदाफिसेस ने तांबे के अनेक प्रकार के सिक्के जारी किए, एक प्रकार के सिक्कों पर रोमन-शैली में परुष की अर्ध प्रतिमा मिलती है। विमा कदाफिसेस कजला कदाफिसेस का उत्तराधिकारी बना। उसने नये प्रकार के सिक्के जारी किए। भारतीय शासकों द्वारा नियत रूप से सोने के सिक्के जारी करने की प्रथा उसी के समय से शुरू हुई। उसने किसी हद तक सोने के सिक्के ढालने की रोमन प्रणाली अपनायी, जो धातु के वज़न पर निर्भर थी और यह व्यवस्था थोड़े संशोधन के बाद गुप्त काल तक जारी रही। यह स्पष्ट है कि विमा द्वारा जारी किये हये सोने तथा ताम्बे के सिक्के उसके रोमन जगत से घनिष्ठ संपर्क की ओर संकेत करते हैं।

कनिष्क प्रथम कदाफिसेस शासकों का उत्तराधिकारी था। वह कुषाण शासकों में सबसे अधिक मशहूर है, इसका विशेष कारण था उसका बौद्ध धर्म से लगाव। पहले दो कदाफिसेस राजाओं से कनिष्क का क्या संबंध था, इसका रहस्य अभी तक बना हुआ है। पर यह बात स्पष्ट है कि वह भी मध्य एशियाई मूल का था, चाहे उसका पहले दो शासकों से कोई सीधा संबंध न हो। कनिष्क प्रथम के समय में कुषाण शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उसका युग उत्तर भारत में सांस्कृतिक उन्नति तथा विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से संबंध रखने वाले लोगों के समन्वय का युग था।

ऐसा समझा जाता है कि कनिष्क प्रथम सन् 78 से 144 ई. के बीच या शायद उसके बाद सिहांसन पर बैठा। आम तौर पर सन् 78 ई. से शुरू होने वाले युग को शक युग समझा गया है और सन् 78 ई. में ही संभवतः कनिष्क भी गद्दी पर बैठा। अपनी चरम सीमा पर कषाण साम्राज्य मध्य प्रदेश में सांची तक तथा उत्तर प्रदेश में वाराणसी तक फैल गया था। पुरुषपर के बाद जो आजकल के पेशावर के निकट था मथुरा दूसरा प्रधान नगर था। पुरुषपुर में कनिष्क ने एक बहुत बड़े स्तूप और मठ का निर्माण किया।

कनिष्क बौद्ध धर्म का महान् समर्थक तो था ही, उसका बौद्ध धर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। बौद्ध धर्म के दर्शन और सिद्धांत पर विचार करने के लिये उसकी छत्र छाया में चौथी बौद्ध सभा का आयोजन हुआ। बौद्ध के महायान स्वरूप से संबंधित धर्म सिद्धांतों को इस सभा में अन्तिम रूप दिया गया। धर्म प्रचार पर भी जोर दिया गया। फलस्वरूप बौद्ध भिक्षओं ने उस यग में मध्य एशिया और चीन की यात्रा करना शुरू किया। कनिष्क ने कला तथा संस्कृत साहित्य को भी बढ़ावा दिया।

कनिष्क के उत्तराधिकारियों ने एक शताब्दी से अधिक की अवधि तक राज किया, पर कषाण राज्य धीरे-धीरे कमजोर होता गया। कछ शासकों ने वासदेव जैसे भारतीय नाम भी रखे। तीसरी शताब्दी के मध्य में अफगानिस्तान तथा सिंध नदी के पश्चिमी क्षेत्र में फैला कषाण साम्राज्य ईरान के सासानियन शासकों ने हथिया लिया। उन्होंने पेशावर और तक्षिला पर कब्जा कर लिया जिसका परिणाम यह हुआ कि कुषाण इन शासकों के अधीन हो गये।

उत्तर भारत की स्थानीय शक्तियाँ

अभी तक हमने उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत के प्रमुख वंशों की ऐतिहासिक रूपरेखा पर विचार किया जिन्होंने ईसा के 200 वर्ष पूर्व से सन 300 ई. तक शासन किया। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इन महाशक्तियों के साथ ही इसी यग में अनेक स्थानीय राज्य वंश और शक्तियां थीं जिन्होंने देश के कई कोनों में अलग-अलग समय पर शासन किया। यहां पर इनकी संक्षिप्त रूप में चर्चा की जायेगी।

हम कन्व या कन्वयान का हवाला पहले ही दे चके हैं। शंगों के बाद वासदेव ने कन्वों के राज्य की बनियाद रखी। उनकी शक्ति शायद मगध तक ही सीमित थी और थोड़े समय तक ही कायम रही। प्राणों में शासकों की उस शृखला की चर्चा की गयी है। ऐसा समझा जाता है कि इस वंश के शासकों ने कछ सिक्के भी जारी किये।

पश्चिम की ओर गंगा-यमना के मैदान के ऊपरी भाग में अनेक स्थानीय वंशों ने शासन किया जिनका नाम हमें उनके द्वारा जारी किये सिक्को से मालूम होता है। इस तरह के सिक्कों के प्रमाण इस बात की पुष्टि करते हैं कि अयोध्या, कौसाम्बी, मथा तथा पांचाल जैसे छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य लगभग एक ही यग में मौजूद थे। पंजाब पर जो पष्यमित्र के समय में शायद शंग राज्य का हिस्सा था, उसके उत्तराधिकारियों का कब्जा हो गया। यूनानियों ने रावी नदी तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। बाद के शंग शासकों की कमजोरी का फायदा उठाकर, तथा अपनी आर्थिक समृद्धि के बल पर रावी तथा यमुना के बीच रहने वाली क्षेत्रीय जनजातियाँ अपनी स्वतंत्रता का दावा करने लगीं। इनमें से कुछ के नाम इस प्रकार थे :

  • औछुम्बर जिन्होंने रावी और व्यास के बीच के ऊपरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
  • कुनिन्द, जिन्होंने शिवलिक पहाड़ी शृंखला के नीचे, व्यास तथा यमुना के ऊपरी भाग के बीच के क्षेत्र पर राज्य किया।
  • त्रीगर्त ने रावी और सतलज के बीच के मैदान पर राज्य किया।
  • यौध्येय प्रसिद्ध यौद्धा थे और उनका राज्य क्षेत्र सतलज और यमुना के बीच तथा पूर्वी राजस्थान के कुछ भागों में फैला हुआ था।
  • अर्जुन्य, मालवा तथा सिबि जनजातियों का राज्य क्षेत्र राजस्थान के विभिन्न. भागों में फैला हुआ था।

उड़ीसा में कलिंग एक अन्य क्षेत्र था जो अब महत्वपूर्ण हो गया। आपको याद होगा कि अशोक ने कलिंग के स्थानीय शासक से कलिंग दसरी बार जीता, पर हमें स्थानीय शासन का नाम नहीं मालूम है। मौर्य काल के बाद के दिनों में स्थानीय शासकों की एक कड़ी सामने आती है जो महामेवाह्न के नाम से जानी गयी। उनका संबंध प्राचीन चेड़ी वंश से था। खारवेल, इस श्रृंखला का तीसरा शासक था। इसकी पष्टि भवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ियों पर उसके द्वारा खदयाये हये शिला लेखों से होती है। इन लेखों में उसके राज्य के तेरहवें साल तक का वार्षिक वृत्तान्त है। इनके अनुसार खारवेल एक महान राजा था जिसने उत्तर, पश्चिम तथा दक्षिण भारत में सैनिक विजय प्राप्त की। उसने अपनी प्रजा के लिये अनके जनोपयोगी कार्य किये तथा जैन धर्म का अनुयायी होने के नाते उसने जैन मुनियों को आश्रय देने के लिए उदयगिरि पहाड़ियों में अनेक गफायें भी खुदवायीं।

मध्य एशिया तथा उत्तर भारत के सम्पर्क का महत्व

विदेशी शासकों के उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर राजनैतिक अधिकार के अंतर्गत नवीन सांस्कृतिक तत्वों का भारतीय समाज की धारा में समावेश अन्तर्निहित था। मध्य एशिया से सम्पर्क ने व्यापार, टेक्नालॉजी, कला आदि क्षेत्रों को प्रभावित किया जिसकी चर्चा हम अलग-अलग करेंगे।

व्यापार और तकनीकी

विदेशियों के भारत में प्रवेश से मध्य एशिया और भारत के बीच स्थायी रूप से व्यापार सम्बन्ध स्थापित हुये। अफगानिस्तान से व्यापार तो पहले से हो रहा था, पर अब मध्य एशिया के साथ सम्पर्क ने व्यापार के नये रास्ते खोले। इनमें से एक रास्ता प्राचीन सिल्क रूट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विभिन्न देश तथा मूल के व्यापारियों ने व्यापार केन्द्र तथा बस्तियां स्थापित की जहाँ से दे कारोबार चलाते थे। ऐसे कछ केन्द्र थे कशगर, यारकन्द, खोतान, मीरन, आदि। व्यापार को न केवल भारतीयों ने, बल्कि बौद्ध प्रचारकों ने भी बढ़ावा दिया। व्यापार की उन्नति से यातायात बेहतर हुआ। कुषाणों का सिल्क रूट पर नियंत्रण था।

यह मार्ग चीन से शुरू होकर, मध्य एशिया, अफगानिस्तान तथा पश्चिमी एशिया से गजरता था और इस मार्ग के द्वारा व्यापार कुषाणों की आमदनी का एक बड़ा स्रोत था। वे व्यापारियों पर चुंगी कर लगाते थे। भारत को मध्य एशिया के अलताई पर्वत से काफी मात्रा में सोना प्राप्त हआ। सोने की प्राप्ति रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार से हुयी होगी। यह बात ध्यान देने योग्य है कि, कषाण शासकों ने बड़े पैमाने पर सोने के सिक्के जारी किये।

शक तथा कषाणों ने यद्ध विद्या तथा अश्वारोही सेना में अनेक नवीन तरीकों को शामिल किया। घड़सवारी काफी लोकप्रिय हो गयी। उन्होंने घोड़े की लगाम और जीन को प्रचलित किया। उनका प्रयोग हमें समकालीन बौद्ध मतियों में साफ नजर आता है। अफगानिस्तान के बेगरम क्षेत्र में । खदाई में मिली टेराकोटा (पक्की मिट्टी) की अनेक मर्तियों पर घड़सवारी के खेल का चित्रण इस यग में घड़सवारी के बढ़ते हए शौक का प्रमाण है। मध्य एशिया से सैनिकों के प्रयोग के लिये। टोपी, हेलमेट (टोप) तथा बूट (जूता) भी भारत में आए। युद्ध के यह नवीन यंत्र उत्तर-पश्चिम भारत में प्रचलित हुये।

भौतिक अवशेष

मूर्ति, बरतन तथा सिक्के हमें नवीन तकनीक के प्रभाव की स्पष्ट जानकारी देते हैं। शक-कुषाण यग में गह निर्माण की कला में प्रगति हयी। उत्तर भारत में की गयी खदाई में इमारतों के अनेक अवशेष प्राप्त हुये। इनसे छत तथा फर्श दोनों ही में पक्की ईंटों के प्रयोग का पता चलता है। ईंट के बने हये कएं भी इस यग में प्रचलित थे। इस यग के बरतन, लाल मिट्टी के बनते थे। कछ पर पालिश भी की जाती थी, बनावट में कुछ औसत दर्जे के और कछ उत्तम और सुन्दर थे। प्राप्त हये बरतनों में पानी छिड़कने के तथा टोटीदार बरतन प्रमख है।

मध्य एशिया में प्राप्त कषाण अवशेषों में भी लाल रंग की वस्तएं मिलती हैं। कुछ कक्षाण सिक्कों का आकार रोमन सिक्कों से प्रभावित लगता है। कषाण सिक्कों की अपनी मौलिकता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, पर इसमें संदेह नहीं कि अनेक सिक्कों में भारतीय यूनानी शैली का रूपांतर दिखायी देता है।

राज्य तंत्र

शक तथा कुषाण दोनों ही ने उस धारणा पर बल दिया कि राजत्व का ईश्वर से सीधा सम्बन्ध है। कषाण राजा ईश्वर के पत्र कहे जाते थे, यह शायद चीन का प्रभाव था। कभी ऐसा भी हुआ कि उन्होंने रोमन पदवी सीजर को भी एक भारतीय रूप देकर ग्रहण किया। राजा अपने प्रभुत्व को शक्तिशाली रूप में प्रदर्शित करने के लिए ऐसा करता था। कानून बनाने वाले ब्राह्मण मन की रचनाओं में भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये गये हैं।

शकों ने शासन की सत्रप व्यवस्था अपनायी। राज्य सत्रपों में विभाजित था। यह भी प्रमाण मिलता है कि प्रशासन अधीनस्थ शासकों द्वारा चलाया जाता था। भारतीय-यूनानी शासन काल में नगर तथा अन्य छोटी इकाइयों के प्रशासन का कार्य मेरी दर्ख जैसे अधिकारियों की सहायता से किया जाता था। शिला लेखीय तथा मद्रा संबंधित स्रोतों से अनेक क्षात्रप और महाश्रात्रप के नामों की प्रणाली में युगल शासकों की प्रथा को भी शामिल कर लिया। अर्थात् छोटे और बड़े पद के दो राजा साथ-साथ एक राज्य का शासन करें। जैसे पिता और पुत्र का एक साथ राज्य करना। संभवतः यूनानियों द्वारा सैनिक गवर्नर नियुक्त करने की प्रथा शुरू की गयी। इन गवर्नरों को सत्रातेगों की पदवी दी जाती थी। उनकी भमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी क्योंकि उन्हें स्थानीय जनता के बीच राजा के प्रभुत्व को बनाये रखना था तथा उत्तर-पश्चिम की ओर से आक्रमण को रोकना था।

धर्म और कला

इस इकाई में पहले ही चर्चा हो चुकी है कि मेनान्दर तथा कनिष्क जैसे कुछ शासकों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। कई शासक विष्णु तथा अन्य कई शिव के उपासक थे। हमारे पास कुषाण शासक वासदेव का उदाहरण है, जिसका नाम कृष्ण के अनेक नामों में से एक है तथा जिसकी विष्णु के अवतार के रूप में पूजा की जाती थी। कई कुषाण शासक विष्णु और बुद्ध दोनों की पूजा करते थे, उनकी प्रतिमा अनेक कषाण सिक्कों पर अंकित है। हम इस निष्कर्ष पर पहंच सकते हैं कि सांस्कृतिक समावेश की इस प्रक्रिया के फलस्वरूप विदेशी शासकों ने भारतीय विचारधारा तथा उपासना के तरीकों को अपनाया। उन शासकों ने भारतीय कला तथा साहित्य को भी प्रोत्साहित किया।

इस बात के प्रमाण मौजद हैं कि विदेशी तथा भारतीय संगतराश. राजगीर तथा कारीगरों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। यूनानी तथा रोमन शैली में निपुण कारीगरी का भारतीय शिल्पियों तथा कारीगरों से सम्पर्क स्थापित किया। इसी सम्पर्क और आदान-प्रदान के फलस्वरूप, गांधार की बद्ध मर्तियों की शैली ने जन्म लिया। यह उस क्षेत्र में मौजूद अनेक सांस्कृतिक धाराओं के समन्वय का प्रतिकात्मक उदाहरण है। गांधार कला का प्रभाव मथुरा तक पहुँचा। जहां हमें इस युग की अनेक सुन्दर मुर्तियां तथा अन्य कलाकृतियां भी मिलती है। 

सारांश

यूनानी, शक, पार्थियन तथा कुषाण सभी का समय के साथ-साथ भारतीय समाज में विलय हो गया। वे भारत में योद्धा के रूप में आये, उस लिये उनमें से अधिकतर भारतीय समाज में योद्धा वर्ग या क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित हो गए। ब्राह्मण कानून लागू करके उन्हें अपनाने की समस्या ब्राह्मणों ने इस प्रकार सुलझाई कि उन्हें क्षत्रियों के उस वर्ग में रखा गया जो अपने कर्तव्य का पालन करने में असफल रहे। इस प्रकार विदेशियों की एक बड़ी संख्या को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में स्थान दे दिया गया जिसके बिना भारतीय सामाजिक व्यवस्था अधरी रह जाती। उस इकाई के दौरान हमने मौर्य काल के बाद से सन् 300 ई. तक की मुख्य राजनैतिक धाराओं का अनुमान लगाया।

उत्तर भारत में राजनैतिक शक्ति अधिकांश उन्हीं लोगों के हाथ में थी जो मूलतः मध्य एशिया के थे और उत्तर पश्चिमी सरहद से भारत में आये। फलस्वरूप अनेक देशों के बीच न केवल व्यापार और यातायात मार्ग स्थापित हये, बल्कि इतने बड़े पैमाने पर आबादी तथा विचार धारा के आवागमन का सांस्कृतिक ढांचों पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।

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