धर्म के क्षेत्र में परिवर्तन (भारत 200 ई. पू. से 300 ई. तक)

मौर्यकाल के बाद भारत में विभिन्न धर्मों के विकास पर संक्षेप में चर्चा करना इस इकाई का उद्देश्य है।

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • इस काल में बौद्ध और जैन धर्म में होने वाले परिवर्तनों को पहचान सकेंगे।
  • ब्राह्मण धर्म के स्वरूप को रेखांकित कर सकेंगे।
  • शैव और वैष्णव धर्म से जुड़े धार्मिक संप्रदायों के विकास को निरूपित कर सकेंगे।
  • इन धर्मों द्वारा अपनाये गये नये विचारों का उल्लेख कर सकेंगे।

आपने बौद्ध और जैन धर्म के उत्थान और 200 ई.प. तक के उनके कार्यकलापों का अध्ययन किया है। इस इकाई में हम 200 ई.पू. से 300 ई. के बीच विभिन्न धर्मों की परिस्थिति और विकास पर विचार विमर्श करेंगे। मौर्यकाल के बाद राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन आया शुंग, सतवाहन, भारतीय यूनानी शक्ति, शक-पार्थियन शासक और उत्तर-पश्चिम में कुषाण राजाओं का प्रभुत्व स्थापित हआ। इन शक्तियों के उदय ने भी धर्म की धारा को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए अशोक के समय जहां वो धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त था, वहां शुगों के समय यह सम्मान, ब्राह्मण-धर्म को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार बौद्ध धर्म की उदार सामाजिक दृष्टि के कारण विदेशियों को भारतीय समाज में शामिल करना अपेक्षाकृत सरल हो गया और इस प्रक्रिया में सामाजिक आत्मसातीकरण शुरू हुआ। बौद्ध धर्म की उदार सामाजिक दृष्टि और आत्मसातीकरण की प्रक्रिया के कारण भारतीय-यूनानी शासकों ने इस धर्म को समर्थन दिया।

हम यह बात पहले ही जान चके हैं कि व्यापारी समदाय के अधिकांश लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। अत: इस काल में हुए व्यापारिक और वाणिज्यिक विकास के कारण भी बौद्ध धर्म के विकास में सहायता मिली। हालांकि, व्यापारियों का संबंध व्यापार से ही होता था, पर जहां वे जाते थे । कौन-कौन से परिवर्तन हए। इस काल में कट्टरपंथी, ब्राह्मण धर्म में भी परिवर्तन आये और शैव तथा वैष्णव धर्म से जुड़े कई समुदायों का उदय हुआ।

इस प्रकार, मौर्य काल के बाद धर्म में निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए :

  • मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद बौद्ध धर्म को शंगों की दश्मनी का सामना करना पड़ा पर धीरे-धीरे इसके (बौद्ध धर्म) कई केन्द्र स्थापित हो गये और यह धर्म पड़ोसी देशों में फैलने लगा।
  • विचारधारा संबंधी और धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण में अंतर होने के कारण बौद्ध धर्म अलग-अलग समूहों में बंटना शुरू हो गया। इनमें प्रमुख हैं : महायान और हीनयान।
  • जैन धर्म का भी फैलाव हुआ और इसका अपना संगठन था, पर यह बौद्ध धर्म के सामने नही फैल सका। जैन धर्म में भी विभाजन हुआ और इसके मतावलम्बी श्वेताम्बर और दिगम्बर कहलाए।
  • ब्राह्मण धर्म बौद्ध और जैन जैसे अनिरीश्वरवादी धर्मों से काफी अलग था। इस काल में वैष्णव और शैव संप्रदाय के रूप में इसकी लोकप्रियता बढ़ी।
  • कट्टरपंथी और गैर कट्टरपंथी दोनों प्रकार के धर्मों ने देश के बाहर और भीतर के विचारों को आत्मसात किया। मनुष्य पर देवत्वारोपण, मूर्ति पूजा जैसे कई एक से तत्व कट्टरपंथी और गैर कट्टरपंथी धर्मों में शामिल किये गये।

बौद्ध धर्म

शंग-कण्व शासन काल में बौद्ध धर्म के विकास को हलका सा धक्का लगा। इसका कारण यह था कि मौर्यों के पतन के बाद मगध के शंग और कण्व शासक ब्राह्मण धर्म में आस्था रखते थे। प्रमख बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में पष्पमित्र शंग को बौद्ध धर्म का कट्टर शत्र बताया गया है। इस ग्रंथ में यह भी बताया गया है कि उसने पाटलिपुत्र में स्थित कुकुट अर्मा बौद्ध विहार को नष्ट करने की कोशिश की थी। इस स्रोत के अनुसार प्रत्येक बौद्ध पूजारी का सर काटकर लाने पर 100 दीनार इनाम स्वरूप दिया जाता था।

यह हो सकता है कि इन शासको ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म का विरोध किया हो, पर इसका मतलब यह नहीं है कि बौद्ध धर्म के सामाजिक समर्थन में भी भारी कमी आयी। वस्तुतः मध्य । भारत में भारहत स्तप का निर्माण शगों के शासन काल में ही हआ था। इसी काल में सांची स्तुप का आकार बढ़ाकर दुगना कर दिया गया, प्रवेश द्वार (तोरण) और चाहरदीवारी भी बनायी गयी। दिव्यावदान में तथ्यों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया है, पर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मौर्य काल के दौरान प्राप्त राज्य संरक्षण शंग और कण्व काल में बौद्ध धर्म को उपलब्ध नहीं था!

विस्तार और संरक्षण

200 ई.पू. से 300 ई. के बीच भारत के सभी हिस्सों में बौद्ध धर्म का विस्तार हमें देखने को मिलता है। उत्तर पश्चिमी भारत में बौद्ध धर्म का जबरदस्त प्रभाव था। भारत पर आक्रमण करने वाले बहुत से विदेशी शासकों जैसे भारतीय-यूनानी और कुषाण, ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की ओर आकर्षित होने वाले भारतीय-यूनानी राजाओं में मिनेन्द्र प्रमुख है। उसने बौद्ध धर्म अपना लिया था। बौद्ध ग्रंथों में उसका उल्लेख साकल के राजा मिलिन्द के रूप में हआ है। इसमें उसके धर्म परिवर्तन से जड़ी एक कहानी भी उल्लिखित है। इस ग्रंथ का नाम ‘मिलिन्द पन्ह’ (मिलिन्द के प्रश्न) है, जो संवाद के रूप में लिखा गया है। इसमें मिनेन्द्र और बौद्ध पुजारी नागसेन के बीच की बातचीत संकलित है।

बहुत से कषाण राजाओं ने बौद्ध धर्म अपनाया। उदाहरण के लिए कजल कदाफिसेस और कनिष्क बौद्ध धर्म के अनयायी थे। कनिष्क के शासन काल में बौद्ध धर्म अपनी प्रतिष्ठा के उत्कर्ष पर विराजमान हुआ। इसी के शासनकाल में बौद्ध पूजारी पार्व की सलाह पर चौथा बौद्ध सम्मेलन आयोजित किया गया। हालांकि इस बात के बारे में कुछ विवाद है कि ठीक-ठीक यह सम्मेलन कहां संपन्न हआ था पर समकालीन विद्वानों के उद्धरणों के साक्ष्य के आधार पर यह आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया है कि यह सम्मेलन कश्मीर में आयोजित किया गया था वमित्र इस सम्मेलन का अध्यक्ष था। इसमें धर्मग्रथों के कछ कठिन अध्यायों पर विचार-विमर्श हआ। यह विचार-विमर्श भाष्य के रूप में संकलित है जिसे ‘विभाषा शास्त्र’ के रूप में जाना जाता है। इसी सम्मेलन में बौद्ध धर्म हीनयान और महायन में विभाजित हुआ।

कनिष्क ने देश के विभिन्न भागों में बौद्ध धर्म के प्रसार को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए पेशावर में उसने एक स्तप और बिहार का निर्माण करवाया, जो बौद्ध धर्म के विद्या और संकृति-केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। इसके अतिरिक्त इस काल में भारत के बौद्ध पजारी/साधुओं ने बुद्ध के संदेशों को मध्य एशिया और चीन तक पहुंचाया।

ढक्खन में सातवाहन राजाओं और पश्चिमी भारत के क्षत्रप राजाओं ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया। बहुत से स्तूपों का निर्माण किया गया और अनुदानों द्वारा उस का प्रबंध किया गया। उदाहरण के लिए सतवाहन राजा पलमयी के शासन काल में अमरावती स्तूप को बड़ा बनाया गया और संगमरमर के नक्काशीदार टुकड़ों से उसे सजाया गया।

पश्चिमी तट के किनारे पश्चिमी घाटों में सतवाहनों और क्षत्रपों ने कई गुफाएं बनवाई। इन गफाओं का उपयोग विहारों के रूप में और बौद्ध पुजारियों के निवास-स्थान के रूप में होता था। यह गुफाएं पत्थरों को काट कर बनायी जाती थी। ऐसी गुफाएं नासिक,कार्ले, भज, गन्नार, कन्हेरी आदि जगहों पर पायी गयी हैं।

इस काल में तमिल देश में भी बौद्ध धर्म के अस्तित्व के संकेत मिले हैं। तमिल देश के आरम्भिक गफा अभिलेखों में बौद्धों के कछ स्थानों पर बसे होने का उल्लेख मिला है। इस अभिलेख में आम भक्तों द्वारा दी गयी अनदान-राशि का भी जिक्र है।

महायन बौद्ध धर्म का उदय

महायान शाखा के विकास के कारण बौद्ध धर्म संपूर्ण भारत और सीमा पार विदेशों में लोकप्रिय धर्म के रूप में विकसित हआ। विभिन्न मलों और संस्कतियों से जड़े हए लोगों की धार्मिक भावुकता ने क्रमशः बुद्ध को भगवान के रूप में परिवर्तित कर दिया। ईस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में बुद्ध की मूर्ति की स्थापना और पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। इस प्रकार महायान बौद्ध धर्म के आगमन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

महायान बौद्ध धर्म का उद्भव प्रथम शताब्दी ई.पू. में आंध्र प्रदेश में हुआ था। कनिष्क के समय में इसे मान्यता मिली और इसके बाद प्रथम और द्वितीय शताब्दी ई. के दौरान यह परे दक्षिण । भारत में फैल गया। कट्टरपंथी बौद्ध धर्म के कारण आरंभ में महायान ज्यादा आगे नहीं बढ़ सका। पर नागार्जुन के आने के बाद इस शाखा ने लोकप्रियता प्राप्त करनी शुरू की। नागार्जुन महायान शाखा के प्रमुख प्रवर्तक थे। हालांकि महायान बौद्ध धर्म का उद्भव ई.प. प्रथम शताब्दी में ही हो बका था पर बौद्ध संघ का हीनयान और महायान में अंतिम रूप से विभाजन कनिष्क प्रथम के शासन काल में हआ। यह विभाजन इस दौरान कश्मीर में हए चौथे बौद्ध सम्मेलन में उभरकर सामने आया।

हीनयान और महायान का शाब्दिक अर्थ है ‘छोटी सवारी’ और ‘बड़ी सवारी’ इस प्रकार की शब्दावली हीनयान पर महायान की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए गढी गयी थी। पर मख्य अन्तर महायान के मत में निहित है। यह मत पहले पहल बौद्ध मतावलम्बी महासधिका द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इसके अनसार सभी मनष्य बौद्धत्व की प्राप्ति की आकांक्षा रख सकते हैं और विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर बोधिसत्व की प्राप्ति कर सकते हैं। परमिताओं अर्थात् प्रतिभापूर्ण कार्यों से बोधिसत्व की प्राप्ति होती है। महायान के अन्य सिद्धांत इस प्रकार है : शून्यता या शून्य या वस्तुओं की याथार्थता में विश्वास, मंत्रों में विश्वास, असंख्य बद्धों और बोधिसत्वों में विश्वास और देवी देवताओं की पूजा का चलन। हीनयान के मतावलम्बियों के अनुसार इनमें उनके विश्वास और चलन बुद्ध द्वारा प्रतिपादित नहीं किए गये। उनका यह भी सोचना था कि बौद्धत्व के आदर्श की प्राप्ति का द्वार सभी लोगों के लिए खोलना व्यावहारिक नहीं है।

विभिन्न संप्रदाय

देश के विभिन्न भागों में बौद्ध धर्म के फैलाव के कारण अनेक सम्प्रदाय सामने आये। उदाहरण के लिए, थेरवादियों के कार्यकलापों का केन्द्र कोसाम्बी था, मथुरा, सारवस्तीवादियों का केन्द्र था, नामिक और कन्हरी में भद्र यनिका सम्प्रदाय का अस्तित्व था। आरम्भ में इन सम्प्रदायों के उदभव के पीछे सैद्धांतिक मतभेद प्रमख नहीं थे। वस्ततः इनके उद्भव और विकास का मल कारण इस देश की भौगोलिक विभिन्नता में निहित है। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर विभिन्न समुदायों के दृष्टिकोण का भी इन सम्प्रदायों पर असर पड़ा होगा। इन सम्प्रदायों के उदय का एक कारण यह भी लगता है कि उस समय विभिन्न मठाधीशों के बीच संपर्क का कोई सुलभ माध्यम उपलब्ध नहीं था। सतवाहनों के शासन काल में धान्यकटक (अमरावती) प्रदेश महायान इन सम्प्रदायों के कारण भी बौद्ध धर्म के स्वरूप में कछ परिवर्तन आया। इनमें से कछ का उल्लेख नीचे किया जा रहा है :

  • पहले जबकि बद्ध को एक शिक्षक या उपदेशक के रूप में स्वीकार किया जाता था वहीं महायान में भगवान के रूप में उनकी पजा की जाने लगी। इसके कारण बद्ध की उपासना की पद्धति में परिवर्तन आया मसलन, पहले की वास्तुकला में बद्ध का प्रतिनिधत्व पैर के निशान. उजला हाथी और एक फल के माध्यम से होता था, पर नये लोग बद्ध की प्रतिमा बनाकर उन्हें पूजने लगे।
  • बोधिसत्व की अवधारणा में भी परिवर्तन आया। उदाहरण के लिए, एक सम्प्रदाय मानता था कि बोधिसत्व बद्ध के एक अवतार हैं, ज क दसग सम्प्रदाय मानता था कि सभी की भलाई के लिए निस्वार्थ व्यक्तिगत सेवा ही बोधिसत्व है।
  • अब लगातार पनर्जन्म का विचार सदढ़ होता गया। इस बात पर बल दिया गया कि लगातार जन्म लेने से क्ति प्रतिभा हासिल कर सकता है।
  • कुछ खास धर्मांनष्ठ विधि अपनाकर प्रतिभा का हस्तांतरण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को किया जा सकता है।

विभिन्न केन्द्र

पहले से स्थापित धार्मिक और तीर्थ स्थल इस काल में भी लोकप्रिय केन्द्र बने रहे। इसके अतिरिक्त इस काल में निम्नलिखित तीर्थस्थल उभर कर सामने आये :

  • शुंगु काल और उसके बाद भरहुत, बोधगया और सांची प्रमख तीर्थस्थल बने रहे।
  • कुषाणों के अधीनपुरुषपुर बौद्ध संस्कृति के एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा। इसके बावजूद इस क्षेत्र में तक्षशिला सर्वप्रमख केंद्र बना रहा। दरअसल संपूर्ण गांधार क्षेत्र (इसमें पुरुषपर और तक्षशिला शामिल थे) में बौद्ध धर्म इस हद तक प्रमखता प्राप्त कर चुका था कि गांधार कला के नाम से एक कला विशेष का भी यहां विकास हआ।
  • मथुरा भी बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र था और यहां भी गांधार की तरह एक कला विशेष का विकास हआ। मथा में बनाई गयीं बोधिसत्व की मूर्तियां काफी दूर-दूर तक ले जायी गयीं। इस काल में पश्चिमी दक्खन नासिक. कन्हेरी और कालें में अनेक गफाएं बनायी गयी जिनका उपयोग विहार और बौद्ध पजारियों के निवास स्थान के रूप में होता था।
  • पूर्वी दक्खन के अमरावती और नागार्जुन कोंडा में बौद्ध कला फली-फली। पूरे भारत में नागार्जन कोंडा का महाचैत्य बौद्धों का प्रमख तीर्थस्थल था।
  • इनमें से कछ शिक्षा संस्थानों के रूप में भी विकसित हए। उदाहरण स्वरूप. तक्षशिलाह, मथरा, बनारस और नालन्दा बौद्ध शिक्षा के प्रमख केंद्र के रूप में सामने आये। तशिला के अध्ययन केन्द्र में देश के विभिन्न भागों से विद्यार्थी पढ़ने जाते थे। यहां मानविकी, विज्ञान हस्तकला, युद्धकला, विधि और औषधि संबंधी उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी।

जैन धर्म

बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म का विस्तार धीमी गति से हुआ। इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म के समान जैन धर्म को ज्यादा राज्य संरक्षण भी प्राप्त नहीं हुआ। इन समस्याओं के बावजद जैन पजारी सक्रिय थे और उन्होंने जैन धर्म को फैलाने के लिए काफी यात्राएं की। ईस्वी सन की प्रथम शताब्दियों में इन्होंने भारत में अपनी स्थिति सदढ़ कर ली। पर बौद्ध धर्म के समान जैन धर्म के मतावलम्बियों ने उसके सिद्धांतों को भारत से बाहर फैलाने की कोशिश नहीं की।

विस्तार और संरक्षण

कुछ राजाओं ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया इन राजाओं में कलिंग के राजा खारवेल का नाम सर्वप्रथम है। वह और उसकी रानी न केवल जैन धर्म के सिद्धांतों का पालन करते थे बल्कि उन्होंने उदयगिरी पहाड़ियों में जैन साधुओं के रहने के लिए कछ गफाएं भी बनवायीं।

कुषाण काल में जैन धर्म मथुरा में लोकप्रिय था। मथुरा केन्द्र में तीर्थंकरों की मूर्तियों तथा जैनियों की अन्य पूज्य वस्तुओं का निर्माण होता था। तमिल देश में तमिल राजाओं ने कुछ गफाएं जैनियों को अर्पित की। अथियन नेट्मन अंजी ने दक्षिण आर्कोट जिले के जवाई नामक स्थान पर कुछ गुफाएं जैनियों को अर्पित की। सित्रनवसल (जिला पुडुकोट्टइ) में आम लोगों ने जैन साधुओं को गुफा अर्पित की। इससे इस प्रदेश में लोगों के जैन धर्म के प्रचार के लिए जैन साधओं ने सेवा दल संगठित किया। आरम्भ में इन सेवा दलों का ‘ उद्देश्य अकाल और भखमरी से पीड़ित जैन साधुओं को सहायता और संरक्षण प्रदान करना था। पर धीरे-धीरे यह राहत सेवा-दल धार्मिक सेवा-दल में परिणत हो गया और जैन धर्म का प्रचार इसका उद्देश्य हो गया।

इस प्रकार के राहत सेवा दल पहले पहल मौर्य काल में गठिन हा थे। परम्परा से प्राप्त जानकारी के अनुसार भद्रवाह जो चंद्रगप्त मौर्य का समकालीन था ने जैनों को संरक्षण प्रदान करने के लिए दक्षिण की यात्रा की। वह राजा चंद्रगुप्त मौर्य के साथ दक्षिण की ओर गया और उसने कर्नाटक के श्रावण बेलगोला नामक स्थान पर एक केन्द्र की स्थापना की। इसी स्थान से जैन मिल देश और आंध्र क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों में फैले। 

एक श्वेताम्बर परम्परा के विवरण से पता चलता है कि खारवेल के शासन काल में जैन माध मगध से पूर्वी आंध्र तट की ओर जाकर बस गये थे। भुवनेश्वर के निकट उदयगिरी पहाड़ियों पर हाथीगम्फा गुफा में मिले एक अभिलेख से भी इस बात की पुष्टि होती है।

एक अन्य परम्परा से पता चलता है कि जैन मथग में जाकर बस गये। मथग में कंकाली टीला का खंडहर और अनेक समर्पणात्मक अभिलेख इस बात का प्रमाण है कि पहली दूसरी शताब्दियों में यहां जैन धर्म का अस्तित्व था।

कालकाचार्य की कहानी से पता चलता है कि पहली-दुसरी शताब्दियों में जैन मालवा की ओर गये थे। जूनागढ़ अभिलेख इस बात का प्रमाण है कि इस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में जैन धर्म गुजरात तक फैल चुका था।

विभिन्न सम्प्रदाय

ई.प. दूसरी शताब्दी से ही श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों का जिक्र मिलता है। जिन्होंने मारे वस्त्रों का त्याग कर नंगा रहने का व्रत लिया वें दिगम्बर कहलाए और जिन्होंने सफेद कपड़े पहने उन्हें श्वेताम्बर कहा गया। इन दोनों सम्प्रदायों का सैद्धान्तिक मतभेद बहुत ज्यादा नहीं था। यह मतभेद इस काल में भी कायम रहा।

प्रथम शताब्दी ई. के आस पास यापानीय नामक एक अन्य जैन सम्प्रदाय का उदय हआ। इसकी स्थापना संभवतः एक श्वेताम्बर साध ने कल्याणगढ़ में की थी। इस साध का नाम कलस था। इस सम्रदाय की उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि इसके अनुसार स्त्रियां भी मोक्ष प्राप्त कर सकती थी और यह कि कैवल्यों को भोजन थोड़ा-थोड़ा करके करना चाहिए।

कुल मिलाकर जैन धर्म अपने मूल सिद्धांतों से बंधा रहा और इसके अनयायी कमोवेश एकनिष्ठ बने रहे।

विभिन्न केन्द्र

जैनियों के विभिन्न केंद्रों में राजगृह या राजगीर पहली और दूसरी शताब्दी ई. में एक महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में उभरा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बज्रमनि का नाम इस स्थान से जुड़ा हआ है।

मथुरा एक अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र था। मथरा में प्राप्त वास्तशिल्प और उन पर उकेरे गये समर्पणात्मक अभिलेख से प्रमाणित होता है कि व्यापारी वर्ग ने यहां जैन धर्म को काफी संरक्षण प्रदान किया था। कई शताब्दियों तक यह जैन धर्म का प्रमुख केंद्र बना रहा। बाद में एक अन्य स्रोत से पता चला कि इस काल में उज्जैन भी एक महत्वपूर्ण केन्द्र था।

ईसा बाद की आरम्भिक शताब्दियों में उत्तर पश्चिम में भी जैन धर्म विकसित हआ। तक्षशिला में सिरकप नामक स्थान पर बौद्ध केन्द्र के साथ-साथ जैन केन्द्र भी स्थापित हआ। यहां जैनियों की विशाल बस्ती थी। इसी प्रकार पश्चिमी घाट के भड़ौच और सोपारा बड़े केन्द्र थे और यहां पुजारियों का आना जाना लगा रहता था।

ड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरी और खंडगिरि पहाड़ियाँ मौर्यों के समय से ही जैन धर्म का केंद्र थीं और ये खारवेल के शासन के बाद भी समृद्ध रहीं। तमिल देश में, मदुरई और सित्तनवसल महत्वपूर्ण केन्द्र माने जा सकते हैं। ई.पू. दूसरी शताब्दी और उसके बाद इन जगहों पर विशाल जैन बस्तियां थी।

ब्राहमणवाद/धर्म

इस बात की चर्चा की जा चकी है कि इस काल में ब्राहमण धर्म को कई राजाओं का समर्थन प्राप्त था। समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि अनेक राजा कछ वैदिक अनुष्ठानों का पालन करते थे। उदाहरण के तौर पर पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया था। सतवाहन राजवंश के सतकर्णी प्रथम ने अश्वमेघ, राजसूय और कछ अन्य बलियों का आयोजन किया था। यह भी कहा जाता है कि चोल और तमिल देश के पांडय राजाओं ने भी बलियों का आयोजन किया था।

नये तत्वों का समावेश

इस काल में ब्राह्मण धर्म में भी कई नये परिवर्तन हुए और यहीं से हम तथाकथित पुराणपंथी हिन्दू धर्म को आकार ग्रहण करते हुए देखते हैं। इसमें बलि के स्थान पर देवी और देवताओं की पूजा को स्थान दिया गया। उदाहरण के लिए, सर्वोच्च ईश्वर की अवधारणा ने बल प्राप्त किया, विष्ण या शिव सर्वोच्च ईश्वर थे। विष्ण और शिव में से किसे सर्वोच्च ईश्वर माना जाए इस आधार पर दो नये संप्रदाय शैव और वैष्णव सामने आये।

हालांकि दोनों संप्रदाय यह विश्वास रखते थे कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है पर ईश्वर की सर्वोच्चता को लेकर उनमें गंभीर मतभेद था। इसी समय त्रिदेव की । संकल्पना भी सामने आयी। ब्राहमण परंपरा के सभी ईश्वर अब तीन प्रमख ईश्वरों में समा गये। ब्रहमा को सृष्टिकर्ता, विष्ण को पालनकर्ता और शिव को संहारक माना गया। हालांकि इन ईश्वरों का उल्लेख वैदिक काल में भी मिलता है, पर इस काल में आकर उन्हें महत्व और प्रमुखता प्राप्त हुई। शिव और विष्णु के भक्तों की संख्या तेजी से बढ़ी पर ब्रह्मा के अनुयायियों को इतनी बड़ी तादाद में आकर्षित नहीं किया।

इस काल में होने वाले महत्वपूर्ण परिवर्तन निम्नलिखित हैं।

  • शुद्ध अनुष्ठान से भक्ति की ओर प्रयाण और
  • ब्राह्मण धर्म द्वारा स्थानीय परंपराओं का आत्मसातीकरण। 

उदाहरण के लिए, वैष्णव धर्म में वैदिक विष्णु की तरह अनेक तत्व आत्मसात कर लिए गए और ज्ञानी नारायण, वासदेव और बलराम को भगवान का रूप माना जाने लगा। महाकाव्य के नायक सम और कृष्ण को इसमें शामिल किया गया और ब्राह्मण धर्म के देवताओं में उन्हें प्रमुख स्थान प्राप्त हआ। संगम साहित्य में उल्लिखित तमिल देवताओं को ब्राहमण धर्म में शामिल कर लिया गया। इसी प्रकार ब्राह्मण धर्म में उत्तर भारत के कछ स्थानीय देवताओं को भी शामिल कर लिया गया।

अन्य देवता

अनेक प्रकार के देवताओं की पूजा की जाती थी। उनमें ब्रहमा, अग्नि, सर्य और इन्द्र लोकप्रिय थे। चार संरक्षक देवताओं (दिकपाल) यम, वरुण, कुवेर और वासव की भी पूजा की जाती थी। इनके अतिरिक्त :

  • हाथी, घोड़ा और गाय जैसे पशओं की पूजा होती थी,
  • देश के बहुत से हिस्सों में सर्प पूजा प्रचलित थी।
  • कई प्रकार के पेड़ों और पेड़ पर रहने वाली प्रेतात्माओं की भी पजा की जाती थी।

शैव संप्रदाय

शैव संप्रदाय का जन्म वैदिक काल से भी पहले माना जा सकता है यह धर्म सन ईस्वी की आरंभिक शताब्दियों में भारत के लगभग सभी भागों में लोकप्रिय हो गया। शिव इस संप्रदाय के देवता थे और उनकी पूजा लिंग रूप में की जाती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि पजा करने की यह पद्धति सन ईस्वी के आरंभिक वर्षों में लोकप्रिय हई। मनुष्य रूप में भी शिव की पूजा होती थी कुछ साहित्यिक ग्रंथों में इस प्रकार का वर्णन मिलता है।

इस काल में शैव संप्रदाय को कछ हद तक राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हआ। कषाण राजाओं में बेमा कदाफिसेस शिव का परम भक्त था। उसके सिक्कों में एक तरफ त्रिशलधारी शिव की छवि अंकित होती थी हालांकि कनिष्क बौद्ध था, पर उसके कछ खास प्रकार के सिक्कों पर भी शिव की छवि अंकित है। दक्खन में शिव की पूजा काफी पहले से प्रचलित थी। प्राकृत ग्रंथ सतवाहन राजा हल की पुस्तक गाथा सप्तशती और पूर्वी आंध्र प्रदेश से प्राप्त अति पुरातन पत्थर का बना लिंग शिव पूजा के अस्तित्व के द्योतक हैं।

तमिल देश में शैव धर्म की जड़ काफी मजबूत थी। तमिल संगम ग्रंथों में शिव को सबसे बड़ा भगवान (ममुड मुडलेयन) माना गया है। संगम ग्रंथों में शिव की विस्तार से चर्चा की गयी है। उदाहरण के लिए, शिव अपने बाल को सर पर बांध कर रखते थे, बाघ की खाल पहनते थे, आदि। उनका उल्लेख संहारक देवता के रूप में हुआ है जिन्होंने स्वर्ग के तीन शहरों। (त्रिपुरंतक) को नष्ट कर दिया था।

शैव धर्म में शिव के अतिरिक्त कई अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती थी। शिव की पत्नी पार्वती का इनमें प्रमुख स्थान था और उन्हें ‘शक्ति’ का प्रतीक माना जाता था। ऐसी धारणा प्रचलित हो गयी थी कि पार्वती से ही सभी शक्तियाँ उदभव होती हैं। वे स्कन्द और गणेश की माता भी थी। पार्वती का एक प्रचंड रूप दर्गा भी है और इस रूप में भी उनकी आराधना होती थी। सतवाहन राज्य में पार्वती के दूसरे रूप गौरी की पूजा होती थी।

इस काल में स्कन्द-पूजा लोकप्रिय हुई। उसे शिव का पुत्र माना जाता था। उसे देवताओं की शक्तियों के नेता के रूप में देखा जाता था। इसे कार्तिकेय और कमार के नाम से भी जाना जाता था। तमिल देश में उसकी पूजा मरुण रूप में होती थी। संगम ग्रंथ में उनके गणों और उनके मंदिरों का उल्लेख था।

इस काल में गणेश का महत्व अपेक्षाकृत कम था। वह स्कन्द के बड़े भाई थे। वह गणों (शिव के अतिकेयों) के नेता थे और उन्हें विनायक के नाम से भी जाना जाता था।

शैव संप्रदायों में पशपत संप्रदाय सर्वाधिक लोकप्रिय था। द्वितीय शताब्दी ई. में कभी गजरात में भाकलिसा ने इस संप्रदाय की शरुआत की और पशपत संप्रदाय के सन्यासी देश के विभिन्न भागों में फैल गये। शिव की पूजा पशुपति के रूप में की लाने लगी। कापलिक और कालमुख संप्रदायों का उदय काफी बाद में हुआ। इन सभी संप्रदायों ने शिव को सर्वोच्च ईश्वर माना।

वैष्णव संप्रदाय

वैष्णव संप्रदाय ब्राहमण धर्म का एक प्रमख संप्रदाय है जिसके अनयायी भारत के सभी हिस्सों में फैले हुए थे। इस संप्रदाय के प्रमुख देवता विष्ण थे ब्राह्मण धर्म में उनका उल्लेख संरक्षक के रूप में हुआ है। आरंभिक काल में वैष्णव संप्रदाय भागवत धर्म के रूप में जाना जाता था जिसका विकास वैदिक पंथ वासुदेव-कृष्ण से हुआ।

भागवत धर्म का मल उपनिषदों में निहित है। इसका उदय मथुरा के आस-पास हुआ। इसमें हरि को सर्वोच्च ईश्वर माना गया और बलि तथा अनुष्ठानों को कम से कम महत्व दिया गया। विष्ण के प्रति भक्ति को सर्वोच्च कर्त्तव्य माना गया। कुछ समय तक यह मथरा तक ही सीमित रहा। ईस्वी सन् के आरंभ में समूचे भारत में इसका फैलाव शुरू हुआ। वासुदेव की आराधना को पुष्ट करने वाले अभिलेख महाराष्ट्र, राजपताना, और मध्य भारत में मिलते हैं।

भागवत संप्रदाय के केंद्रीय व्यक्तित्व वासुदेव को ब्राहमण धर्म में प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ।  आरंभ में वे धर्म और इंद्र के समान माने जाते थे। द्वितीय शताब्दी ई. के सतवाहन राजा . गौतमीपुत्र सातकर्णी की तुलना महाभारत के नायकों बलराम, केशव, अर्जुन, और भीमसेन-के साथ की गयी है।

द्वितीय शताब्दी ई. पू. तक आते-आते विष्णु और नारायण एक दूसरे में समाहित हो गये और उनकी पजा एक देवता के रूप में होने लगी। इस प्रकार के सम्मिश्रण से संभवतः ब्राहमण धर्म को बौद्ध धर्म के प्रसार पर नियंत्रण रखने में विधा हुई होगी। वासदेव और अन्य व्यक्तित्वों को लेकर चलने वाला भागवत संप्रदाय भी वैष्णव धर्म का एक हिस्सा था।

डिमेट्स और मिनेन्द्र जैसा राजा बौद्ध धर्म के अन्यायी थे पर कुछ भारतीय-यूनानी राजाओं ने भागवत धर्म को भी अपनाया। उदाहरण के लिए, बेसनगर स्तम्भ अभिलेख से हमें पता चलता है कि तक्षशिला का देलियोडोरस (जो शंग शासक के दरबार में भारतीय-यनानी राजा प्रैटियालसिड़ का राजदत था) भागवत संप्रदाय का अनयायी था उसने वासदेव के सम्मान में भोपाल के निकट बेसनगर (विदिश) में शिव के प्रतीक चिन्ह गरुड़ का शीर्ष लगवा कर एक स्तम्भ निर्मित करवाया था।

तमिल देश में विष्ण की पजा बहत लोकप्रिय थी। तमिल ग्रंथों में उनके विभिन्न कार्यकलाप और विशेषताओं की चर्चा है। इन ग्रंथों में कृष्ण को विष्णु का रूप कहा गया है। राम और बलराम भी उनके ही अवतार थे।

वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख देवता विष्णु के कई अवतारों की चर्चा की गयी थी। इसलिए विष्णु की पूजा अवतारों के रूप में की जाती थी। कृष्ण,राम और बलराम विष्णु के सर्वप्रथम सम्माननीय अवतार थे लेकिन इनके अतिरिक्त नरसिंह और वराह जैसे अवतारों की भी पूजा की जाती थी।

इसके अतिरिक्त विष्णु की सवारी गरुड़ और उनके हथियार चक्र को भी श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। उनके प्रतीक चिन्ह गरुड़ की भी पूजा की जाती थी और गरुड़ के शीर्ष वाले अनेक स्तम्भों का निर्माण कराया गया था। ये स्थान वैष्णवों के लिए पवित्र स्थल थे।

विष्णु की पत्नी लक्ष्मी की भी पूजा की जाती थी। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में वैष्णव धर्म से संबंधित विभिन्न प्रकार के विचारों का समावेश किया गया है। भागवत गीता में वैष्णव धर्म के प्रमख विचार कर्म के सिद्धांत को इसी काल में महाभारत में शामिल किया गया। इस सिद्धांत के अनसार प्रत्येक व्यक्ति को धर्मग्रंथों द्वारा स्थापित मानवीय कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। बिना फल की कामना करते हुए कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति  है ।

सारांश

आप अध्ययन कर चुके हैं कि छठी शताब्दी ई.पू. के आसपास ब्राह्मण धर्म की रूढ़िवादिता के खिलाफ बौद्ध धर्म, जैन धर्म और अन्य अनिश्रवादी संप्रदायों का उदय हुआ। पर दसरी शताब्दी ई.प. तक इन अनिश्वरवादी आंदोलनों में अनेक परिवर्तन आये और इनका स्वरूप काफी जटिल हो गया। हालांकि कछ धर्मों को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था, पर धर्म के फैलाव में पुजारियों और प्रचारकों ने विशेष योगदान दिया।

इस काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुद्धार हुआ, जिसने कई अन्य धर्मों के कुछ विचारों को आत्मसात कर लिया। देवी-देवताओं की संख्या बढ़ी। पहले के कई प्रमुख देवी-देवताओं का महत्व समाप्त हो गया और नये देवी-देवता प्रमख हो उठे। ब्राहमण धर्म में कई संप्रदायों का उदय हुआ, वैष्णव और शैव इनमें प्रमुख हैं। वस्तुतः ब्राह्मण धर्म में विभिन्न संप्रदायों का यह उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी।

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