उत्तर भारत में गुप्त काल के बाद के राज्य

इस इकाई को पढ़ने के उपरान्त आपः

  • उन राजनीतिक परिवर्तनों के विषय में जो गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद हुए,
  • उन बहुत सी उभरती राजनैतिक शक्तियों के विषय में जो क्रमिक रूप से महत्व को प्राप्त कर रही थीं,
  • थानेश्वर और कन्नौज के पुष्यभूतियों की उत्पत्ति एवं विकास के विषय में,
  • राजा हर्ष के शासन काल की कुछ घटनाओं के बारे में,
  • राजा हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था के विषय में, और
  • हर्ष की मृत्यु के बाद की उत्तर भारत की राजनैतिक परिस्थितियों के बारे में।

छठी सदी ई. में गुप्त साम्राज्य के विघटन ने क्रमशः बहुत से छोटे राज्यों के विकास के मार्ग को प्रशस्त किया। कुछ निश्चित क्षेत्रों में छोटे नये राज्यों का उदय हुआ तो कुछ उन राज्यों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया जिन्होंने गुप्त शासकों के सामन्तीय आधिपत्य को स्वीकार किया था। जैसे कि यशोधर्मन और मौखरी, हुण तथा बाद के मगध के गुप्त शासक अब नवीन राजनैतिक शक्तियां थे।

इनके अतिरिक्त पुष्यभूति, गौड़ों, वर्मनों एवं मैतृकों का काफी महत्व हो गया। इस इकाई में इन राज्यों के राजनैतिक इतिहास का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है। इसी के साथ-साथ हर्षवर्धन और पुष्यभूति परिवार के प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषता बोद्धों को प्रदान किए गए राजनैतिक संरक्षण आदि कुछ निश्चित पक्षों का भी विवरण किया गया है।

क्षेत्रीय शक्तियां

एक शक्तिशाली शक्ति के अभाव में विभिन्न क्षेत्रों में कई क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ। इन शक्तियों का प्रतिनिधित्व भिन्न-भिन्न वंशों द्वारा किया गया और इन्होंने अपने-अपने राज्यों की स्थापना की तथा ये अक्सर एक-दूसरे से युद्धरत रहते थे। इन राज्यों में से यहाँ पर हम कुछ का संक्षिप्त विवरण करेंगे।

यशोधर्मन

कुमारगुप्त-I के शासन काल में उसके एक सामन्त के रूप में बन्धुवर्मन मन्दसौर पर शासन करता था और यह पश्चिमी मालवा का एक बड़ा केन्द्र था। यह औलिकर परिवार से संबंधित था और उसने छठी सदी ई. के प्रारम्भ तक शासन किया। मध्य प्रदेश के मन्दसौर से प्राप्त दो पत्थर स्तम्भों के अभिलेखों मे से एक 532 ई. का है, जिसमें एक शक्तिशाली राजा यशोधर्मन का उल्लेख है। इनमें से एक अभिलेख यशोधर्मन की विजयों का वर्णन करता है। इस अभिलेख में वर्णन है कि उसने उन सभी क्षेत्रों को विजयी किया जिनको गुप्त शासक भी न जीत सके थे। परन्तु मिहिरकुल के अलावा किसी और पराजित राजा के नाम का उल्लेख इन अभिलेखों में नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यशोधर्मन का एक शक्ति के रूप में उदय लगभग 528 ई. में हुआ और उसका शासन 532 ई. तक जारी रहा, (मन्दसौर अभिलेख की तिथि) परन्तु उसकी शक्ति का अन्त 543 ई. में हुआ।

मौखरी

मौखरियों का वंश का एक पुराना वंश था क्योंकि इसका उल्लेख पतंजली की रचना एवं दूसरे प्रारम्भिक स्रोतों में हुआ है। मौखरियों ने राजनैतिक शक्ति को पांचवी सदी ई. के अन्त में प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया था जैसा कि हर्ष के समय के प्राप्त 554 ई. के अभिलेख से स्पष्ट है कि इसी काल में गया से यजनवर्मन के उदय का उल्लेख  है बाराबर और नागरजुनी से प्राप्त अभिलेखों में ऐसे प्रथम तीन मौखरी राजाओं का उल्लेख है जिन्होंने गया में, अपने कन्नौज उत्तराधिकारियों से लगभग 150 वर्ष पूर्व, शासन किया था।

ये प्रथम तीन राजा यजनवर्मन, सरदुलावर्मन और अनन्तवर्मन थे। इनमें से कुछ राजाओं ने केवल सामन्त की उपाधि धारण की जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वे गुप्त शासकों के अधीन सामन्तीय राजाओं की भांति शासन कर रहे थे।

असिरगढ से प्राप्त तांबे की मोहर. पर हमें 1) हरिवर्मन, 2) आदित्यवर्मन, 3) ईश्वरवर्मन, 4) ईश्नवर्मन, और 5) सर्ववर्मन के नामों का उल्लेख मिलता है। ये राजा उत्तर प्रदेश के कन्नौज नगर पर शासन कर रहे थे। प्रथम तीन राजाओं ने महाराज की उपाधि को धारण किया तो ईश्नवर्मन ने स्वयं को महाराजाधिराज कहा है।

यह संभवतः ईश्नवर्मन ही था जिसने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। प्रारंभिक मौखरी शासकों ने उत्तरगुप्त शासकों के साथ पारिवारिक संबंधों को कायम किया। परन्तु ईश्नवर्मन ने जब अपने स्वतंत्र राज्य की घोषणा की तो उत्तर-गुप्तों एवं मौखियों के बीच संबंध बिगड़ गये क्योंकि अपसाड़ अभिलेख से सूचना मिलती है कि मगध के उत्तर-गुप्त वंश के चौथे शासक कुमारगुप्त ने ईश्नवर्मन पर विजय हासिल की। परन्तु ऐसा लगता है कि वंश का शासन जारी रहा।

ईश्नवर्मन के द्वितीय पुत्र सर्ववर्मन ने उत्तर-गुप्त वंश के शासक दामोदर गुप्त को पराजित कर मौखरियों के खोये हुए सम्मान को पुनः स्थापित किया। मौखरी वंश का अन्तिम शासक ग्रहवर्मन था जिसने थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन की पुत्री और प्रसिद्ध शासक हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री के साथ विवाह किया। मालवा के शासक देवगुप्त ने कन्नौज पर आक्रमण किया और ग्रहवर्मन की हत्या करके मौखरी राज्य का अन्त कर. दिया। मौखरियों ने आधुनिक उत्तर प्रदेश और मगध के कुछ हिस्सों पर शासन किया। परन्तु उन्होंने जो अनगिनत युद्ध किये उनमें, उनकी विजयों एवं पराजयों के कारण उनके राज्य की सीमाओं में परिवर्तन होते रहे ।

उत्तर गुप्त शासक

जिन शासकों ने छठी सदी ई. के मध्य से 675 ई. तक मगध में शासन किया उनको मगध गुप्तों या उत्तरगुप्त शासकों के नाम से जाना जाता है। परन्तु उसकी हमें कोई जानकारी नहीं है कि उनके प्रारम्भिक साम्राज्यवादी गुप्त शासकों के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध थे।

गया से प्राप्त अपसाड़ अभिलेख में आठ उत्तर-गुप्त शासकों के नाम इस प्रकार से हैं

  1. कृष्णगुप्त
  2. हर्ष गुप्त
  3. जीवितगुप्त
  4. कुमारगुप्त
  5. दामोदरगुप्त
  6. महासेनगुप्त
  7. माधवगुप्त, और
  8. आदित्यसेन

उत्तर गुप्त राजाओं ने अपने अन्य समकालीन शासक परिवारों के साथ वैवाहिक संबंध कायम किये। उदाहरण के लिये हर्षगुप्त ने अपनी बहन का विवाह एक मौखरी राजा के साथ किया। इस पूरे काल में उत्तर गुप्त शासकों को अपने समकालीन किसी न किसी राजा के साथ संघर्ष करना पड़ा, उसके पुत्र जीवितगुप्त ने नेपाल के लिच्छिवियों एवं बंगाल के गौड़ राजाओं के विरुद्ध युद्ध किया, और जीवितगुप्त के उत्तराधिकारी राजा कुमारगुप्त ने मौखरी राजा ईश्नवर्मन को पराजित किया।

अगले गुप्त राजा कुमारगुप्त के पुत्र दामोदरगुप्त को मौखरी नरेश सर्ववर्मन ने पराजित कर उसका बध कर दिया और मगध का एक भाग खोना पड़ा। दामोदरगुप्त के उत्तराधिकारियों को कुछ समय के लिये मौखरियों के कारण मालवा की ओर पीछे हटना पड़ा परन्तु पुनः मगध पर अपनी सर्वोच्चता को स्थापित किया। उत्तरगुप्त वंश का सबसे शक्तिशाली शासक आदित्यसेन था। वह 672 ई. में मगध में शासन कर रहा था तथा उसकी इस तिथि का उल्लेख उसके एक अभिलेख में भी हुआ है।

उत्तर-गुप्त शासकों का शासन हर्षवर्धन के साम्राज्य तक बना रहा और आदित्यसेन ने अश्वमेध यज्ञ कर के अपने सिंहासनारोहण की शक्ति का प्रदर्शन किया। अपसाढ़ अभिलेख के अनुसार, उसके साम्राज्य में मगध, अंग एवं बंगाल के प्रदेश शामिल थे। यह संभव है कि उसके अपने राज्य में पूर्व उत्तर-प्रदेश को भी सम्मिलित कर लिया हो। वह एक परम भागवत था और उसने विष्णु के एक मंदिर का निर्माण कराया।

उत्तर गुप्त शासकों का अन्त उस समय हो गया जबकि बंगाल के गौड़ शासकों की शक्ति का प्रसार पश्चिम की ओर हुआ। लेकिन गौड़ों को कन्नौज के शासक यशोवर्मन के हाथों पराजित होना पड़ा।

इन उपरोक्त उल्लेखित वंशीय शक्तियों के अतिरिक्त उत्तर-गुप्त काल में दूसरी कई अन्य महत्वपूर्ण निम्नलिखित शक्तियों का भी उदय हुआ-

  • गुजरात में स्थित वल्लभी के मैतृक
  • राजपूताना और गुजरात के गुर्जर
  • बंगाल में गौड़
  • कामरूप (असम) में वर्मन
  • उड़ीसा में मान और सैलोदभव।

वल्लभी के मैतृक प्रारम्भ में साम्राज्यवादी गुप्त शासकों के अधीन शासन करते थे और धीरे-धीरे उन्होंने अपनी सर्वोच्चता को स्थापित किया। गुर्जर राज्य का संस्थापक हरिचन्द्र था जिसके तीन उत्तराधिकारियों ने 640 ई. तक शासन किया। गौड़ शासन के अंतर्गत उत्तर और उत्तर-पश्चिम बंगाल के प्रदेश थे और इन पर सातवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में एक स्वतंत्र शासक के रूप में शशांक ने शासन किया जो हर्षवर्धन का समकालीन एवं शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी था। प्रयागप्रशस्ति, जिसमें गुप्त शासक स्कन्दगुप्त की उपलब्धियों का वर्णन है, में असम के दो राज्यों कामरूप एवं दवाक का उल्लेख हुआ है। चौथी सदी ई. के मध्य से कामरूप उत्तर-पूर्वी-क्षेत्र का राजनैतिक रूप से एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हो गया था।

इस तिथि के लगभग आस-पास, पुष्यवर्धन ने संभवतः असम में प्रथम ऐतिहासिक राजवंश की स्थापना की। इस वंश ने बारह पीढ़ियों तक भास्करवर्मन के समय तक शासन किया। भास्करवर्मन कन्नौज के शासक हर्षवर्धन का समकालीन एवं सहयोगी था और उसने सातवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्द्ध में शासन किया था।

यद्यपि इस बात के प्रमाण हैं कि उड़ीसा के कुछ स्थानीय शासकों ने गुप्त शासन के अन्तिम वर्षों में साम्राज्यवादी गुप्त शासकों के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था, परन्तु छठी सदी ई. के उत्तरार्द्ध में उड़ीसा में दो स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। इनमें से एक मान राज्य था जो बालासौर से पुरी जिले तक फैला हुआ था और दूसरा कोन्गौड़ का शैलोदभव राज्य था। जिसकी सीमायें चिलका झील से गंजाम जिले की महेन्द्रगिरि पहाड़ियों तक फैली हुई थी। दोनों राज्यों की शक्ति का ह्रास बंगाल में शशांक राजा और कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की शक्ति में वृद्धि हो जाने के कारण हुआ। 

थानेश्वर और कन्नौज के पुष्यभूति

हमें बहुत से स्रोतों से पुष्यभूति वंश के उदय की सूचना मिलती है और जिसने पहले तो हरियाणा प्रदेश के थानेश्वर में तथा बाद में उत्तर-प्रदेश के कन्नौज से शासन किया। इन स्रोतों के अन्तर्गत बाणभट्ट द्वारा रचित हर्ष चरित, हुवेन-त्सांग के संस्मरण, कुछ अभिलेख एवं सिक्के आदि आते हैं। बाणभट्ट हमें सूचित करता है कि थानेश्वर में इस वंश का संस्थापक राजा पुष्यभूति था और इसी कारणवश इस परिवार को पुष्यभूति वंश के नाम से जाना जाता है। यद्यपि हर्ष के अभिलेखों में उसका कोई उल्लेख नहीं हुआ है। बांसखेड़ा और मधुवन से प्राप्त प्लेटों एवं शाही मोहरों में प्रारम्भिक पांच शासकों के नामों का उल्लेख है जिनमें से प्रथम तीन को महाराज की उपाधि दी गई है।

इससे स्पष्ट है कि वे सार्वभौमिक राजा नहीं थे। चौथे राजा प्रभाकरवर्धन के लिए महाराजाधिराज की उपाधि का प्रयोग किया गया है जिससे हमें एक स्वतंत्र राजा की सूचना मिलती है और उसने अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह गृहवर्धन के साथ करके मौखरियों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये।

इस समय में (604 ई. के लगभग) थानेश्वर को पश्चिम की ओर से हूणों से खतरा हुआ। बाणभट्ट ने प्रभाकरवर्मन को “हूण नामक हिरन के लिये शेर” कह कर वर्णित किया है। उसके अनुसार राज्यवर्धन के अधीन एक सेना हूणों को पराजित करने के लिये भेजी गई परन्तु उसके पिता के अचानक बीमार हो जाने के कारण वह वापस लौट आया। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के कारण परिवार ने कुछ समय के लिये समस्या का समाधान किया। मालवा के राजा ने गृहवर्मन की हत्या कर दी और राज्यश्री को बन्दी बनाकर ले गया।

ऐसा प्रतीत होता है कि मालवा एवं गौड़ राजाओं ने एक संघ बनाया और इससे थानेश्वर को भी खतरा उत्पन्न हो गया। राज्यवर्धन ने मालवा को पराजित कर दिया परन्तु गौड़ नरेश शशांक ने धोखे से उसका वध कर दया। अब यह हर्ष का उत्तरदायित्व था कि वह बदला ले और इसी बीच उसने एक मजबूत साम्राज्य की थापना कर ली।

हर्षवर्धन

हर्ष 606 ई. के लगभग थानेश्वर के राजसिंहासन पर बैठा और तुरन्त गौड़ों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिये प्रस्थान किया। उसने भास्करवर्मन के साथ समझौता किया जो प्रज्ञयोतिशा (असम) का राजा था और गौड़ नरेश शशांक दोनों का शत्रु था। हमें इसकी कोई सूचना नहीं है कि शशांक के साथ हर्ष का युद्ध हुआ या नहीं परन्तु उसने अपनी बहन राज्यश्री को बचाने में सफलता प्राप्त की और थानेश्वर तथा कन्नौज दोनों राज्यों का विलय कर दिया गया एवं हर्ष ने अब कन्नौज से शासन करना प्रारम्भ कर दिया।

वास्तव में, द्वेन-त्सांग द्वारा दिये गये विवरण में हर्ष और उसके पूर्ववर्तियों को कन्नौज के शासक बताया गया है। बाण और द्वेन-त्सांग दोनों ने हर्ष के द्वारा दूसरे राजाओं को पराजित करने के लिये की गई प्रतिज्ञा का उल्लेख किया है। इसी के साथ-साथ उसने पश्चिम में वल्लभी और गुर्जर, दक्खन में चालुक्य और पूर्व में मगध एवं गौड़ राजाओं को पराजित किया

  • वल्लभी के मैतृक शासक गुजरात प्रदेश के सौराष्ट्र क्षेत्र में एक मजबूत शक्ति के रूप में उभर चुके थे। वल्लभी की साधारणतः पहिचान काठियावाड़ में भावनगर से 18 मील दूरी पर स्थित वला से की गई है। हमें वल्लभी के पांच राजाओं के नाम मिलते हैं जो हर्ष के समकालीन थे। द्वेन-त्सांग ने अपने वृतान्त में वल्लभी नरेश ध्रुवसेन-II बालादित्य का उल्लेख किया है। यह हर्षवर्धन का दामाद था और उसने हर्षवर्धन द्वारा बुलायी गयी प्रयाग में धार्मिक सभा में भी भाग लिया। इससे यह आभास मिलता है कि हर्ष की शत्रुता, बल्लभियों के साथ वैवाहिक संबंध कायम करने के बाद समाप्त हो गई। हमें गुर्जर राजाओं के अभिलेखों से सूचना प्राप्त होती है कि उनके राजा दद्दा द्वितीय ने बल्लभियों का समर्थन किया। वल्लभी हर्षवर्धन के शासन काल में भी शक्तिशाली शासक बने रहे।
  • बाण के विवरण में हमें मालूम होता है कि गुर्जर शासकों की वर्धन वंश के प्रति शत्रुता थी। इसी काल में गुजरात के भड़ौंच क्षेत्र के नन्दिपुरी स्थान पर गुर्जर शासकों का एक परिवार शासन कर रहा था। इनका शासन सम्भवतः हर्ष के काल में भी जारी रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि गुर्जर शासकों ने, हर्ष के विरुद्ध अपनी सुरक्षा के लिये, कर्नाटक में बादमी के चालुक्य शासकों के सामान्तीय आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था क्योंकि अईहोले अभिलेख के अनुसार लाट, मालवा और गुर्जर शासक चालुक्य नरेश पुलकेशिन-II के सामन्त थे।
  • पुलकेशिन-II की अईहोले प्रशस्ति के अनुसार, जो अईहोले के एक मन्दिर की दीवार पर स्थित है, पुलकेशिन-II ने हर्षवर्धन के विरुद्ध सैनिक सफलता प्राप्त की।
  • ह्येन-त्सांग के विवरण के अनुसार यद्यपि हर्षवर्धन ने कई राज्यों के विरुद्ध विजय प्राप्त की परन्तु वह पुलकेशिन-II को पराजित न कर सका। पुलकेशिन-II कर्नाटक में बादमी का चालुक्य नरेश था। यह युद्ध किस स्थान पर हुआ इसकी विस्तृत जानकारी हमारे पास नहीं है, परन्तु इतना स्पष्ट है कि हर्षवर्धन पुलकेशिन-II के विरुद्ध सफलता प्राप्त न कर सका।
  • हर्ष अपने पूर्वी अभियान में सफल रहा। एक चीनी विवरण के अनुसार हर्ष 641 ई. में मगध का सम्राट था। हमने पहले भी बताया था कि हर्ष का असम के राजा भास्करवर्मन के साथ गठजोड़ था और इसीलिए यह संभव है कि उन दोनों ने संयुक्त रूप से बंगाल एवं पूर्वी भारत के अन्य भागों में सैनिक अभियान चलाया हो।
  • हर्ष के चीन के साथ कूटनीतिक संबंध थे और उसके समकालीन चीनी सम्राट ती-आंग ने उसके दरबार में अपने तीन दूत मण्डलों को भेजा था। अन्तिम प्रतिनिधि मण्डल वांग-ह्वेन-त्से के नेतृत्व में 647 ई. में भारत आया उस समय तक हर्षवर्धन जीवित नहीं रहा था। हर्ष ने स्वयं भी एक ब्राह्मण को 641 ई. में चीन भेजा था।

हर्ष ने 41 वर्ष तक शासन किया और ऐसा अनुमान है कि 647 ई. के आस-पास उसकी मृत्यु हो गयी। हर्ष के अधीन भी वहीं प्रशासनिक व्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ जारी थी जो व्यवस्था गुप्त शासकों के दौरान प्रचलित थी। वेन-त्सांग के विवरण के अनुसार, हर्ष अपने सम्पूर्ण राज्य का भ्रमण करता था। राजा ही . सर्वोच्च अधिकारी था और उसकी सहायता उसके मंत्रियों एवं विभिन्न श्रेणी के अधिकारियों द्वारा की जाती थी।

मधुबन से प्राप्त तांबे की प्लेट मे कई अधिकारियों का उल्लेख हुआ है जैसे कि उपरिका (प्रांतीय गवर्नर), सेनापति (सेनाध्यक्ष), दूतक (सूचना देने वाला), आदि। हर्ष के अभिलेखों, बाण की हर्ष चरित और वेनत्सांग के विवरण से यह स्पष्ट है कि साम्राज्य और प्रशासन का स्थायित्व सहयोगियों एवं सामन्तों (सामन्त और महासामन्त) के समर्थन पर निर्भर करता था। ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारियों को वेतन का नकद भुगतान नहीं किया जाता था। इसके अलावा, उनको, उनकी सेवा के लिये, भूमि प्रदान की जाती थी। यह भी लगता है कि इस समय कानून और व्यवस्था की स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि वेन-त्सांग को भी डाकुओं के द्वारा लूटा गया था।

बांसखेड़ा, नालन्दा और सेनापति के अभिलेखों में उल्लेख है कि हर्षवर्धन शिव का पुजारी था। परन्तु बाद में उसने बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया और कन्नौज में एक बौद्ध सभा का आयोजन किया। इस सभा में महायान के सिद्धान्त का बड़ी ही सूक्ष्मता के साथ प्रचार किया गया। वेन-त्सांग के अनुसार, इस सभा में 18 राजाओं और तीन हजार भिक्षुओं ने भाग लिया तथा यह सभा 18 दिन तक चली। हर्ष के शासन काल के दौरान दूसरी सभा पांच वर्ष के बाद प्रयाग में की गई। हर्ष ने अपने शासन के बाद 30 वर्षों में 6 बार इस प्रकार बौद्ध सभाओं का आयोजन किया। इन पांच वर्षों के अन्तराल में वह अपने खजाने में जितना भी धन एकत्रित करता था उसको वह इन समारोहों के अवसर पर दान में बांट देता था। इस काल में शिक्षा एवं विद्वानों को भी संरक्षण प्रदान किया गया। नालन्दा विश्वविद्यालय में एक हजार से भी अधिक विद्यार्थी थे। हर्ष ने इस विश्वविद्यालय को 100 गांव दान में दिये थे।

उत्तर-हर्ष काल में उत्तर भारत की राजनैतिक दशा

हर्षवर्धन ने जिस साम्राज्य की स्थापना की थी उसका ढांचा काफी ढीला-ढ़ाला था और उसकी मृत्यु के बाद यह ढांचा भी समाप्त हो गया।

हर्ष की मृत्यु के तुरन्त बाद जो घटनाक्रम घटित हुआ उसका विस्तार के साथ विवरण चीनी सम्राट द्वारा नियुक्त किये गये राजदूत बांग-वेन-त्से द्वारा किया गया है। जैसे ही उसने भारत की सीमाओं में प्रवेश किया वैसे उसके पास हर्ष की मृत्यु का समाचार पहुंचा। वह हमें बताता है कि चीनी राजदूत का भारत में प्रवेश रोकने के लिये अर्जुन (ती-नो-फी-ती) ने सेना को भेजा। बांग-द्वेन-त्से किसी प्रकार से बच गया और अर्जुन से लड़ने के लिये वह तिब्बत से एक हजार तथा सात हजार नेपाल के सैनिक अपने साथ लेकर वापस आया।

अर्जुन और सेना को पराजित कर दिया गया और उसको पकड़ लिया गया। बाद में अर्जुन की रानी संघर्ष करती रही और उसको भी हरा दिया गया। वांग अर्जुन को अपने साथ चीन ले गया तथा अपने राजा के समक्ष उसको उपस्थित किया। परन्तु कुछ विद्वानों ने इस विवरण की वैधता को चुनौती दी है।

उत्तर हर्ष वंश

उत्तर हर्ष काल के शासकों में राजा भास्करवर्मन के विषय में उसको निधानपूर अभिलेख में उल्लेख है कि उसका शासन बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के करनुसुवर्ना एवं उसके आस-पास के स्थानों पर था। इसी की भांति उपसाढ़ अभिलेख में उल्लेख है कि आदित्यसेन का शासन मगध पर था। काश्मीर में दुर्लभवर्धन ने कारकोटा नाम के वंश का शासन स्थापित किया। उसके पौत्र चन्द्रपिद काश्मीर में अरबों के प्रवेश को रोका। इसी वंश के एक दूसरे राजा ललितादित्य मुक्तापिद ने कन्नौज पर आक्रमण किया और यशोवर्मन को हरा दिया। चीनी वृतान्तों से स्पष्ट है कि मुक्तापिद ने राज्य पर अपना अधिकार नहीं किया बल्कि उसके साथ समझौता करके उसको अपना सहयोगी बना लिया।

हर्ष की मृत्यु के 75 वर्ष बाद यशोवर्मन ने कन्नौज में शक्ति प्राप्त की थी। उसने गौड़ राजाओं को पराजित किया और मगध को जीत लिया। यशोवर्मन एक महान योद्धा होने के साथ-साथ विद्वानों को भी खूब संरक्षण प्रदान करता था उसके दरबार में वाक्पति एवं भावभूति जैसे विद्वान थे। वाक्पति ने प्राकृत में मालतिमाधव, महावीरचरित, और उत्तर-रामचरित की रचना की।

यद्यपि इन राजवंशों का शासन काफी कम समय तक रहा, परन्तु हमको यह याद रखना चाहिए कि इस काल में, भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रों में राज्य व्यवस्था में स्थायित्व आना प्रारम्भ हो गया था। इस समय कोई अखिल भारतीय साम्राज्य तो था नहीं, परन्तु वे क्षेत्रीय राजनैतिक ढांचों के प्रारम्भ होने का प्रतिनिधित्व करती थी। कश्मीर घाटी में, जिसके विषय में हम ऊपर लिख चुके हैं, कि प्रथम बार एक स्थानीय राज्य । व्यवस्था कार्य कर रही थी। बंगाल में आठवीं सदी के मध्य में पाल शक्ति का उदय हुआ और कई सदियों तक इनका शासन वहां पर जारी रहा। यह इस प्रदेश के राजनैतिक इतिहास में एक नये युग का प्रारम्भ था।

इसी प्रकार से, पश्चिम भारत में जिसके अन्तर्गत गुजरात एवं राजस्थान आता है, गुर्जर-प्रतिहार गुहिला, चाहमान तथा दूसरे राजवंशों के रूप में उदय हुआ और इन राजवंशों के रूप में उदय हुआ और इन राजवंशों के अंतर्गत राजपूतों की विभिन्न उप-जातियां थीं और इन्होंने पश्चिमी भारत की राजनीति पर कई शताब्दियों तक अपना अधिकार कायम रखा। इससे साफ है कि गुप्तों की शक्ति के पतन एवं हर्ष के साम्राज्य की समाप्ति का अर्थ यह नहीं होता कि भारत में राजनैतिक अराजकता का युग प्रारम्भ हो गया था। इन साम्राज्यों की समाप्ति के बाद, क्षेत्रीय शक्तियों ने स्वयं को सुदृढ़ किया और आने वाले युग के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

सारांश

उत्तर-गुप्त काल में बहुत से राज्य अस्तित्व में आये। ये राज्य इतने बड़े नहीं थे जितना गुप्त राज्य। इन राजवंशों का भाग्य समय के साथ-साथ बदलता रहता था जिन्होंने इन राज्यों में शासन किया। हर्ष जैसे राजा ने सम्पूर्ण उत्तरी भारत को अपने अधीन करने में सफलता प्राप्त की परन्तु उनका राज्य थोड़े समय के लिए ही बना रह सका। इसी के साथ-साथ हम देखते हैं कि बहुत से क्षेत्रों में कई नयी राजनैतिक शक्तियों का उदय हुआ जो कई सदियों तक बनी रहीं। इस काल में कई क्षेत्रीय राज्यों के प्रारम्भ को खोजा जा सकता है।

यद्यपि इन शाही परिवारों का शासन काफी कम समय के लिये बना रहा परन्तु इस काल के भारत उपमहाद्वीप में क्षेत्रीय स्तर पर स्थायी राज्य व्यवस्थाओं का प्रारम्भ हुआ। ये अखिल भारतीय स्तर के राज्य नहीं थे, परन्तु ये स्थानीय राज्य व्यवसायों के प्रारम्भ का प्रतिनिधित्व करते थे और भारत के आगामी काल के  इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान किया।

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