मगध साम्राज्य का विस्तार

इस इकाई में हम संक्षेप में मगध साम्राज्य के राज्य-क्षेत्र के विस्तार की चर्चा करने जा रहे हैं। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि मगध एक “साम्राज्य” के रूप में क्यों और कैसे विकसित हुआ।

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • मगध और उसके आस-पास के क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को पहचान सकेंगे और इसके सामरिक महत्व को समझ सकेंगे।
  • उन स्रोतों का उल्लेख कर सकेंगे, जिनकी सहायता इतिहासकार इस काल के इतिहास-लेखन के लिए लेते हैं।
  • मौर्य शासन पूर्व मगध के दो शताब्दियों के राजनीतिक इतिहास का संक्षेप में वर्णन कर सकेंगे।
  • इतिहास के आरंभिक कालों के संदर्भ में “साम्राज्य” की धारणा को समझ सकेंगे।
  • मौर्य शासन की स्थापना में सहायक प्रमुख घटनाओं को रेखांकित कर सकेंगे।
  • चंद्रगुप्त और बिंदुसार जैसे आरंभिक मौर्य शासकों और उनके राज्य-विस्तार संबंधी कार्यकलापों की जानकारी दे सकेंगे।
  • अशोक मौर्य के राज्यारोहण और राज्याभिषेक के संदर्भ को स्पष्ट कर सकेंगे और कलिंग युद्ध का महत्व बता सकेंगे।
  • यह जान सकेंगे कि अशोक की मृत्यु के समय मगध “माम्राज्य’ की सीमाएं क्या थीं।

आप जनपद और महाजनपद से परिचित हो चुके हैं। इनकी जानकारी हमें आरंभिक वौद्ध और जैन ग्रंथों में मिलती है। ये जनपद और महाजनपद विंध्य के उत्तर में स्थित थे। इनका काल ई.पू. प्रथम सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध में पड़ता है। इस इकाई में हम एक महत्वपूर्ण महाजनपद मगध के विकास पर विस्तार मे चर्चा करने जा रहे हैं। पिछले दो सौ वर्षों से इतिहासकारों का ध्यान मगध की ओर जाता रहा है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह जाने-माने मौर्य साम्राज्य का केन्द्र-बिन्दु था।

इस इकाई में हम केवल मौर्य शासकों द्वारा मगध के क्षेत्रीय विस्तार पर प्रकाश नहीं डाल रहे हैं बल्कि आधुनिक काल से पहले की “साम्राज्य’ संबंधी धारणा पर भी विचार कर रहे हैं। यह विचार हम दो स्तरों पर करेंगे-(i) “साम्राज्य’ शब्द के अनेक अर्थ, जिसमें केवल विशाल क्षेत्रीय विस्तार ही शामिल नहीं है, और (ii) राज्य तथा साम्राज्य संबंधी आरंभिक भारतीय धारणा।

इन बिंदुओं पर विचार करने से विभिन्न विद्वानों द्वारा मगध साम्राज्य (खासकर मौर्य शासकों के अधीन) की प्रकृति के विश्लेषण को समझने में मदद मिलेगी।

इस इकाई में पाँचवीं शताब्दी ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई.पू. के बीच हुई राजनीतिक गतिविधियों का भी अवलोकन किया जाएगा।

छठी शताब्दी ई.पू. से ही मगध राज्य का विस्तार शुरू हो गया था, हालांकि नंदों और मौर्यों के अधीन इसमें तेजी आई। विभिन्न भागों में अशोक के अभिलेखों की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि सुदूर पूरब और दक्षिण के क्षेत्रों को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप का अधिकांश भाग मगध संप्रभुता के अधीन था। मगध के क्षेत्रीय विस्तार पर विस्तार से चर्चा करने के बाद हम इस तथ्य पर भी विचार करेंगे कि मगध साम्राज्य की बनावट और संरचना में इतनी विविधता थी और इसका फैलाव इतना व्यापक था कि प्रत्यक्षतः राजनीतिक नियंत्रण रखना संभवतः बहुत कठिन था। इससे शायद यह समझने में सहायता मिलेगी कि क्यों अशोक ने समाज में व्याप्त तनाव को कम करने के लिए “धम्म” का सहारा लिया।

मगध की भौगोलिक स्थिति

हमने मगध की चर्चा सोलह महाजनपदों के एक महत्वपूर्ण महाजनपद के रूप में की थी।

ये महाजनपद गंगा घाटी के बड़े भू-भाग में फैले हुए थे; कुछ इसके उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम में भी स्थित थे। हालांकि चार में से तीन महत्वपूर्ण राज्य (कोशल, वज्जि गणराज्य और मगध) मध्य गंगा घाटी में स्थित थे, चौथा शक्तिशाली राज्य अवंती पश्चिमी मालवा में था। मगध के पूरब में अंग, उत्तर में वज्जि गणराज्य, पश्चिम में काशी और सुदूर पश्चिम में कोशल राज्य था।

मगध वर्तमान बिहार राज्य के पटना, गया, नालंदा और शाहाबाद के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। भौगोलिक दृष्टि से मगध जहां स्थित था, वहां की मिट्टी जलोढ़ और उपजाऊ थी। विशेष बात यह है कि मगध की आरंभिक राजधानी राजगृह, नदी से दूर दक्षिण क्षेत्र में स्थित थी। इसका कारण संभवतः इसकी सामरिक भौगोलिक स्थिति हो सकती है; दूसरी बात यह कि इस इलाके में लौह खनिज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। इसके अतिरिक्त यहां तांबा भी सुलभ था और इसके आस-पास दक्षिण बिहार के जंगल भी थे। इन्हीं सब कारणों से मगध के शासकों ने गंगा घाटी के उपजाऊ क्षेत्र को छोड़कर अपोक्षाकृत वीरान इलाका चुना। बाद में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र हो गई, जिसका मूल नाम पाटलिग्राम था। यह गंगा, गंडक, सोन और पुनपुन जैसी नदियों के मुहाने पर बसा था। मौर्यों ने पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाया।

इससे उत्तरपथ पर मगध का पूर्ण नियंत्रण हो गया। यह पथ गंगा के उत्तर में था और हिमालय की तलहटी तक जाता था। मगध ने विभिन्न राज्यों से सम्पर्क स्थापित करने में नदी-मार्ग का उपयोग किया और भारी सामान लाने ले जाने के लिए सुगम यातायात उपलब्ध हो सका। इस प्रकार, अपने समकालीन शक्तिशाली राज्यों की अपेक्षा मगध को कुछ प्राकृतिक लाभ प्राप्त हुए । मगध के दक्षिण पश्चिम में अवंती, इसके उत्तर-पश्चिम में कोशल और इसके उत्तर में वज्जि गणराज्य छठी शताब्दी ई.पू. में मगध के समान ही शक्तिशाली थे।

हाल के शोधों से यह स्पष्ट है कि लोहे की सुलभ प्राप्ति ने दो राज्यों-मगध और अवंती के विकास में भरपूर योगदान दिया। इससे न केवल हथियार बनाने में सहायता मिली, बल्कि कृषि के औजार भी बनाने में सुविधा हुई। इससे कृषि अर्थव्यवस्था का विकास हुआ, अधिशेष उत्पादन हुआ और राज्य को कर के रूप में यह अधिशेष प्राप्त हुआ। इससे उन्हें अपने क्षेत्रीय आधार के विस्तार और विकास में सहायता मिली। यह ध्यान देने योग्य बात है कि कुछ समय तक अवंती मगध के लिए सबसे बड़ा खतरा था और पूर्वी मध्य प्रदेश में स्थित लोहे की खाने भी उसकी पहुंच से दूर नहीं थीं।

स्रोतों पर एक नजर

आरम्भिक बौद्ध और जैन साहित्य में मध्य गंगा के मैदान, जहां मगध स्थित था, की घटनाओं और परम्पराओं का काफी उल्लेख किया गया है। बौद्ध परम्परा का कुछ साहित्य त्रिपिटकों और जातकों में संगृहीत है। जैन परम्परा के दो.ग्रंथ-अकरना सूत्र और सूत्र क्रितना-अन्य ग्रन्थों से पुराने माने जाते हैं हालांकि ये सभी ग्रंथ छठी शताब्दी ई.पू. के बाद विभिन्न चरणों में लिखे और संगृहीत किए गए हैं। जैन और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ आरंभिक राजनीतिक गतिविधियों को बाद में संगृहीत हुये ब्राह्मण ग्रन्थों (जैसे “पुराण’) से अधिक प्रामाणिक रूप में और सीधे तौर पर प्रस्तुत करते हैं। पुराणों में गुप्तकाल तक के शाही राजवंशों का इतिहास प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। महावंस और दीपवंस प्रमुख परवर्ती बौद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ हैं, जिनका संग्रहण श्रीलंका में हुआ। ये ग्रंथ अशोक के शासनकाल के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त, दीव्यावदान, भारत के बाहर तिब्बत और चीनी बौद्ध स्रोतों में सुरक्षित एक महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ हैं। परन्तु इन स्रोतों का उपयोग काफी सावधानी से करना चाहिए क्योंकि उनकी रचना भारत से बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार के संदर्भ में हुई थी।

विदेशी स्रोतों से प्राप्त सूचनाएं अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक और लगभग समकालीन हैं। इनमें यूनानी और लैटिन के “क्लासिकल ग्रंथों’ से प्राप्त सूचनाएं उल्लेखनीय हैं। यह उन लोगों का लिखा यात्रावृतांत है, जिन्होंने उस समय भारत का भ्रमण किया। इनमें मेगस्थनीज काफी चर्चित और जाना-पहचाना नाम है, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भारत आया था और वह राजा के दरबार में भी गया था। मेगस्थनीज का वृतांत हमें प्रथम शताब्दी ई.पू. के स्ट्रैबो और डेपोडोरस तथा द्वितीय शताब्दी ई.पू. के एरियन के यूनानी ग्रंथों के द्वारा मिलता है। छठी शताब्दी ई.पू. से चौथी शताब्दी ई.पू. तक उत्तर-पश्चिमी भारत विदेशी शासकों के अधीन था। अतः अकेमेमी (ईरानी) शासन और बाद में सिकन्दर के आक्रमण के विषय में जानकारी हमें फारसी अभिलेखों और डेपोडोरस की रचना जैसे यूनानी स्रोतों से मिलती है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र की खोज.1905 ई. में हुई। यह मौर्य काल से संबंधित महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। हाल ही में, अर्थशास्त्र के लेखन-काल के संबंध में नए विचार सामने आए हैं, जिनके अनुसार इस ग्रंथ का लेखन पूर्ण रूप से मौर्य काल में नहीं हुआ था। सांख्यिकीय गणना के आधार पर यह मान्यता सामने आई है कि अर्थशाला के कुछ अध्यायों का लेखन काल ईसा बाद की प्रथम दो शताब्दियों में हुआ होगा। इसके बावजूद कई अन्य विद्वान इस ग्रन्थ के अधिकांश हिस्से को मौर्य काल का लेखन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि मूल ग्रन्थ चंद्रगुप्त के मंत्री, कौटिल्य द्वारा लिखा गया था; बाद के वर्षों में अन्य विद्वानों ने इसकी टिप्पणी लिखी और सम्पादन किया।

अभिलेख और सिक्के मौर्य काल की जानकारी के अन्य महत्वपूर्ण स्रोत हैं, जो प्राचीन भारत में मौर्य काल की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं। हालांकि इस काल के सिक्कों पर राजा का नाम अंकित नहीं है और उन्हें पंच मार्ड सिक्के कहा जाता है क्योंकि उन पर कई प्रकार के चिह्न अंकित होते थे। हालांकि इस प्रकार पंच मार्ड सिक्के लगभग पांचवीं शताब्दी ई.पू. से ही मिलने लगते हैं, परन्तु मौर्य काल के पंच मार्ड सिक्के इस दृष्टि से महत्वपूर्ण थे कि वे शायद एक केन्द्रीय प्राधिकरण द्वारा जारी किए जाते थे क्योंकि उनके चिह्नों में एकरूपता है। सिक्कों के अलावा अन्य अभिलेखीय सामग्री, खासकर अशोक मौर्य के शासन के संदर्भ में . महत्वपूर्ण सूचनाएं देते हैं और यह अपने आप में एक विशेष बात है। अशोक के चौदह वृहत शिलालेख, सात लघु शिलालेख, सात स्तम्भ लेख और अन्य अभिलेख पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के महत्वपूर्ण नगरों और व्यापार मार्गों पर पाए जाते हैं। ये अभिलेख अशोक के शासन के अंतिम चरण में मौर्य साम्राज्य के विस्तार के साक्षात प्रमाण हैं।

हाल के वर्षों में, पुरातात्विक जानकारी एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में सामने आई है और इससे गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के महत्वपूर्ण तथ्य सामने आए हैं।  हम जानते हैं कि उत्तरी काली पालिश किए बर्तनों के काल के पुरातात्विक साक्ष्य उस समय से सम्बद्ध है जब शहरों और नगरों का उदय हुआ। पुरातात्विक साक्ष्य इस तथ्य को सामने लाते हैं कि मौर्य काल में लोगों के भौतिक जीवन में और भी परिवर्तन आए। पुरातत्व की सहायता से ही हम यह भी जान पाते हैं कि भौतिक संस्कृति के कई तत्व गंगा घाटी से बाहर फैलने लगे और वे मौर्य शासन से संबंधित माने जाने लगे।

 मौर्यों से पहले मगध का राजनीतिक इतिहास

ई.पू. छठी-पांचवीं शताब्दी के दौरान बिम्बिसार के नेतृत्व में मगध मध्य गंगा के मैदान के प्रमुख दावेदार के रूप में तेजी से उभरा। बिम्बिसार बुद्ध का समकालीन था। बिम्बिसार मगध का प्रथम महत्वपूर्ण शासक माना जाता है। राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उसने कोशल के राजघराने से वैवाहिक संबंध स्थापित किया। इस शादी में उसे काशी का एक जिला दहेज के रूप में मिला। गांधार के राज्य के साथ उसका

संबंध सौहार्दपूर्ण था। इन कूटनीतिक संबंधों को मगध की शक्ति का प्रतीक माना जा सकता है। मगध के उत्तर में अंग राज्य था, जिसकी राजधानी चम्पा एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र थी। चम्पा एक महत्वपूर्ण नदी-बंदरगाह था। कहा जाता है कि बिम्बिसार के आधिपत्य में 80,000 गांव थे। परम्परागत सूत्रों से पता चलता है कि अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार को बंदी बना लिया था और वह (बिम्बिसार) भूख से । तड़प-तड़प कर मर गया था। ऐसा माना जाता है कि यह घटना ई.पू. 492 के आसपास घटी होगी।

आंतरिक समस्याओं और गद्दी पर अजातशत्रु के बैठने से मगध के निर्यात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। नये मगध के राजा ने आक्रामक नीति अपनाई और अपने राज्य क्षेत्र का विस्तार किया। उसने काशी पर अधिकार कर लिया और अपने मामा, कोशल के नरेश से सौहार्द का संबंध समाप्त कर उन पर आक्रमण कर दिया। गंगा के दक्षिण तक फैला हुआ वज्जि गणराज्य अजातशत्रु के आक्रमण का अगला निशाना बना। वज्जि संघ के साथ युद्ध का सिलसिला लगभग सोलह वर्षों तक चलता रहा। अंत में अजातशत्रु वहां आंतरिक कलह पैदा कर धोखे से उसे पराजित करने में सफल हुआ। अपने शक्तिशाली शत्रु अवंती पर आक्रमण की पूरी तैयारी अजातशत्रु ने कर ली थी परन्तु आक्रमण किन्हीं कारणों से सम्पन्न न हो सका। फिर भी, उसके शासनकाल में काशी और वैशाली (वज्जि महाजनपद की राजधानी) मगध के अधीन आ चुके थे। इस प्रकार मगध गांगेय प्रदेश में सबसे शक्तिशाली राज्य माना जाने लगा।

यह माना जाता है कि अजातशत्रु ने 492 से 460 ई.पू. तक राज्य किया। उदयन (460-444 ई.पू.) उसका उत्तराधिकारी था। उदयन के राज्यकाल में मगध का क्षेत्र हिमालय के उत्तर से लेकर छोटा नागपुर की पहाड़ियों के दक्षिण तक फैला हुआ था। यह कहा जाता है कि उसने गंगा और सोन के मुहाने पर एक किला बनवाया था। उदयन के शासन काल में राज्य क्षेत्र काफी विस्तृत था, परन्तु वह इन पर कुशल शासन करने में असक्षम था। उदयन के बाद चार शासक एक के बाद एक गद्दी पर बैठे, परन्तु वे अयोग्य सिद्ध हुए। ऐसा माना जाता है कि अंतिम राजा को मगध की जनता ने राज सिंहासन से उतार दिया। 413 ई.पू. में बनारस के राज्यपाल शिशुनाग को राजा नियुक्त किया गया। शिशुनाग वंश ने थोड़े समय तक राज्य किया और महापद्मनन्द ने राज्य पर अधिकार कर नंद वंश की शुरुआत की।

326 ई.पू. में उत्तरी-पश्चिमी भारत पर सिकन्दर के समय मगध और लगभग सम्पूर्ण गंगा के मैदान में नन्द वंश का शासन था। यहीं से भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक काल शुरू होता है। इस कारण नन्दों को कभी कभी भारत का प्रथम साम्राज्य-निर्माता कहा जाता है। उन्हें केवल मगध का राज्य विरासत में मिला था और उसके बाद उन्होंने उसकी सीमा का और विस्तार किया।

परवर्ती पूराण ग्रंथों में महापदमनन्द का उल्लेख क्षत्रियों के विनाशकर्ता के रूप में हुआ है। यह भी कहा गया है कि उसने समकालीन सभी राजघरानों से शक्ति छीन ली। यूनानी ग्रन्थ नंद साम्राज्य की शक्ति का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि नंदों के पास विशाल सेना थी, जिसमें 20,000 घुड़सवार, 2,00,000 पैदल सैनिक, 2,000 रथ और 3,000 हाथी थे। इस बात के भी संकेत मिले हैं कि नंदों के संबध दक्कन और दक्षिण भारत से भी थे। राजा खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में इस बात का संकेत है कि कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) के कुछ हिस्सों पर नंद वंश का अधिकार था। राजा खारवेल का शासन काल प्रथम शताब्दी ई.पू. के मध्य में था।

दक्षिण कर्नाटक प्रदेश के कुछ बाद के अभिलेखों से भी पता चलता है कि नंद वंश के नेतृत्व में दक्कन के कुछ हिस्से पर मगध का अधिकार था। अधिकांश इतिहासकारों का यह मानना है कि महापद्मनंद के शासन काल के अंतिम चरण में मगध साम्राज्य के विस्तार और सुदृढ़ीकरण का पहला चरण समाप्त हो गया। सिकन्दर के आक्रमण का हवाला देते हुए यूनानी ग्रंथ उल्लेख करते हैं कि इस समय उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र छोटे-छोटे राज्य वंशों के बीच विभक्त था। यह भी स्पष्ट है कि मगध राज्य और यूनानी विजेता के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ।

321 ई.पू. में नंद वंश का पतन हो गया। इस दौरान नौ नंद राजाओं ने शासन किया और यह कहा जाता है कि अपने शासन के अंतिम दिनों में वे काफी अलोकप्रिय हो गए थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने इस स्थिति का फायदा उठाया और मगध के सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। इन सभी परिवर्तनों के बावजूद मगध गंगा घाटी का सर्वशक्तिमान राज्य बना रहा। मगध की भौगोलिक स्थिति उसकी सफलता के कारणों में प्रमुख है। इसके अतिरिक्त लोहा उन्हें सहज सुलभ था और प्रमुख स्थल और जल व्यापार मार्ग पर उनका नियंत्रण था। इस इकाई के अगले भाग में हम “साम्राज्य’ के रूप में मगध का मूल्यांकन करने के साथ-साथ मौर्य शासन की भी चर्चा करेंगे।

“साम्राज्य” की धारणा

मौर्य साम्राज्य पर विचार करने से पूर्व आइए, समझ लें कि “साम्राज्य” का अर्थ क्या है। यह जानकारी आवश्यक है, क्योंकि अक्सर हम मनमाने ढंग से सभी प्रकार के (छोटे या बड़े) राज्यों को साम्राज्य कह बैठते हैं। इसके अलावा, हम कभी-कभी यह भी सोचने लगते हैं कि प्राचीन, मध्ययुगीन और आधुनिक साम्राज्य अपनी प्रकृति में समान थे। यह स्पष्ट है कि आधुनिक युग में ब्रिटिश साम्राज्य की प्रकृति या मध्यकाल के केन्द्रीय एशियाई मंगोल साम्राज्य की प्रकृति और मौर्य साम्राज्य की प्रकृति में एकरूपता नहीं हो सकती है। इतिहास के विभिन्न कालों में विकसित साम्राज्यों में महत्वपूर्ण अंतर हैं। अतः प्राचीन काल के साम्राज्य का अध्ययन करने से पूर्व साम्राज्य के अनिवार्य तत्वों को समझना आवश्यक है।

 “साम्राज्य” संबंधी आधुनिक दृष्टिकोण

आम तौर पर यह समझा जाता है कि “साम्राज्य’ एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें एक केन्द्रीय सत्ता का अधिकार विषमजातीय संस्कृति वाले विशाल भू-भाग पर होता है। इस परिभाषा के अनुसार केन्द्रीय सत्ता किसी राजा या राजा के प्रतिनिधि या किसी राजनीतिक संस्था के हाथ में होती है जो विभिन्न राज्य क्षेत्रों को एक साथ बांधकर नियंत्रित रखता है; यह “इम्पेरियल’ लैटिन शब्द “इम्पेरियम’ से बना है। यह केन्द्र में शक्ति के सापेक्ष केन्द्रीयकरण की ओर इशारा करता है। केन्द्र राज्य-क्षेत्र में शामिल इकाइयों पर नियंत्रण रखता है, क्रमशः जिनकी समान राजनीतिक पहचान बन जाती है। साधारणतया प्राचीन काल के इतिहास में रोमन साम्राज्य को मानक माना जाता है जिससे सभी प्राचीनकालीन साम्राज्यों, जिसमें मौर्य साम्राज्य भी शामिल है, की तुलना की जाती है।

इस परिभाषा को उन राज्य-राष्ट्रों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, जिनमें से कुछ ने आधुनिक युग में बृहद् साम्राज्यों का निर्माण किया। आरंभिक साम्राज्यों में केन्द्रीय शक्ति का आधार राजा का आकर्षक व्यक्तित्व और उसका शौर्य था। इसके अतिरिक्त, परम्परा से प्राप्त मान्यताएं भी राजा की शक्ति को मज़बूत बनाती थीं।

यह आम धारणा है कि मौर्यों का मगध साम्राज्य एक केंद्रीकृत नौकरशाही साम्राज्य था। इस प्रकार के साम्राज्य विश्व के दूसरे भागों में भी विद्यमान थे।

केंद्रीकृत नौकरशाही साम्राज्य आम तौर पर सैन्य बल और व्यक्तिगत पराक्रम की सहायता से निर्मित होते हैं। इस प्रकार के साम्राज्य के निर्माण के पीछे अक्सर लोगों का असंतोष, विक्षोभ और विरोध होता था। साम्राज्य के संस्थापक लोगों को शांति और व्यवस्था का आश्वासन देते थे। इस प्रकार के साम्राज्य के दुश्मनों की संख्या पर्याप्त होती थी, क्योंकि साम्राज्य की स्थापना में कुछ लोगों को बलपूर्वक हटाया जाता था और । परम्परा से आ रही कुछ मान्यताएं टूटती थीं। नये राज्य-क्षेत्रों में विस्तारनीति के कारण दुश्मनी पैदा होती थी। इसलिए शासक वैवाहिक और कूटनीतिक गतिविधियों की सहायता से अपने मित्र बनाते थे।

राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ऐसे साम्राज्य एकीकृत केंद्रीकृत राज्य तंत्र विकसित करते थे, जिसमें निर्णय के एकाधिकार पर बल दिया जाता था। इसके कारण पुरानी परम्परागत या स्थानीय कवीलाई सत्ता समाप्त हो गई और उसका स्थान केंद्रीकृत राज्य तंत्र ने ले लिया। प्रायः ऐसा माना जाता है कि इन साम्राज्यों की सफलता में भौगोलिक-राजनीतिक कारकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस प्रकार के साम्राज्यों के निर्माण में आर्थिक संसाधनों को प्राप्त करके उपयोग में लाना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त, मानव शक्ति की बहुलता भी साम्राज्य निर्माण में सहायक सिद्ध होती है।

ये साम्राज्य सक्रिय राजनीतिक समर्थन के लिए आम तौर पर शहरी, आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यावसायिक समुदायों पर निर्भर होते थे और किसानों तथा शहरी निम्न वर्ग में इन्हें निष्क्रिय रूप में समर्थन मिलता था। प्रशासनिक निकायों के कुशल संचालन के लिए उच्च वर्ग से अधिकारियों का चयन होता था। इस प्रकार, प्रशासन शोषण का एक प्रमुख जरिया बन जाता था। दूसरे शब्दों में, आरंभिक साम्राज्यों में, सामाजिक असमानता अपनी चरम सीमा पर थी, जिसमें विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग और क्षेत्र दूसरों द्वारा उत्पादित संसाधनों पर अपना अधिकार जमाए रखता था।

चक्रवर्ती क्षेत्र संबंधी भारतीय धारणा

मौर्यों के अधीन मगध साम्राज्य या दूसरे शब्दों में प्राचीन भारत के किसी भी अन्य “साम्राज्य’ को समझने लिय संस्कृत में सम्राट को “चक्रवर्ती” और उसके राज्य क्षेत्र को “चक्रवर्ती क्षेत्र’ कहा गया है। हालांकि आरंभिक ब्राह्मण ग्रन्थों में राजा द्वारा सम्पन्न “अश्वमेध” और “राजसूय’ जैसे बलि-यज्ञों की चर्चा है, परन्तु “चक्रवर्ती क्षेत्र’ की स्पष्ट चर्चा अर्थशास्त्र में की गई है। इसके अनुसार, “चक्रवर्ती क्षेत्र” में उत्तर से लेकर दक्षिण तक हिमालय से लेकर समुद्र तक (हिन्द महासागर) और हजार योजन का भू-भाग शामिल होता था। . इस बात में कोई सन्देह नहीं कि चक्रवर्ती परम्परागत विचारों का ही प्रतिबिंबन था, जिसमें भारतीय राजा के प्रभाव-क्षेत्र की चर्चा की गई थी परन्तु शायद अशोक के अलावा कोई भी इस आदर्श की प्राप्ति में सफल नहीं हुआ।

दूसरी तरफ, साहित्यिक और पुरालेखीय स्रोतों में हमेशा बढ़ा-चढ़ाकर सार्वभौमिक विजय की महत्वकांक्षा का ज़िक्र होता रहा है। प्रायः इतिहासकार इन आदर्श कथनों को राजाओं द्वारा प्राप्त वास्तविक विशाल राज्यक्षेत्रीय अधिकार से जोड़कर देखने लगते हैं; इससे भ्रम पैदा होता है क्योंकि आदर्श को ही यथार्थ समझ लिया जाता है।

अर्थशास्त्र और बहुत से दूसरे ग्रंथों में ऐसे विभिन्न अंगों की चर्चा की गई है जिनको मिलाकर एक राष्ट्र बनता है। अर्थशास्त्र में सात अंगों की चर्चा की गई है। राजा राष्ट्र का सर्वाधिक शक्तिशाली अंग था। प्राचीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर लिखे गए ग्रन्थों में राज्य के सात तत्वों की चर्चा की गई है। इन्हें सप्तांग कहा जाता है। ये हैं-मंत्री, मित्र, कर, सेना, दुर्ग, भूमि या देश । अर्थशास्त्र में शत्रु को आठवां तत्व माना गया है। अर्थशास्त्र का लेखक कौटिल्य राजा को राज्य का शक्तिशाली अंग बताता हुआ कहता है कि राजा में कुछ विशेष गुण होने चाहिए। आगे हम इस बात का अध्ययन करेंगे कि राजा कैसे अपने राज्य और प्रशासन की व्यवस्था करता था।

ऊपर राज्य और साम्राज्य संबंधी जो बातें कही गई हैं, उनके आधार पर कुछ समय तक इतिहासकारों में .. यह मत कायम रहा कि मौर्यों का राज्य एक निरंकुश राज्य था, जिसमें राजा साम्राज्य के सभी हिस्सों पर केंद्रीकृत प्रशासन के माध्यम से नियंत्रण रखता था। अब इस मत पर प्रश्न-चिह्न लग गया है। इन विचारों की समीक्षा हम आगे करेंगे। हां, एक बात स्पष्ट रूप में कही जा सकती है कि मगध साम्राज्य ने गण समूह जैसे अन्य राजनीतिक संगठनों पर राजतंत्र की वर्चम्वता को स्थापित किया।

मौर्य शासन का उद्भव

डी.डी. कौशाम्बी का यह मानना है कि सिकन्दर के उत्तर, पश्चिम पर आक्रमण का तात्कालिक और अप्रत्याशित परिणाम यह हुआ कि इसने सम्पूर्ण देश पर मौर्यों की विजय का रास्ता प्रशस्त कर दिया। उनका तर्क है कि इससे पंजाब के गणराज्य कमजोर हो गए और चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में मगध की सेना को पूरे पंजाब पर विजय हासिल करने में किसी विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। गंगा घाटी के अधिकांश भाग पर मगध का पहले से ही अधिकार था। प्राचीन ग्रंथ इस बात का हवाला देते हैं कि चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था और उसने सिकन्दर को मगध पर आक्रमण करने की सलाह दी थी, जो उस समय अलोकप्रिय नंदों के अधीन था। हालांकि इस तथ्य की जांच करना कठिन कार्य है, परन्तु भारतीय और अन्य “क्लासिकल स्रोत” इस बात का हवाला देते हैं कि सिकंदर के वापस जाने से एक रिक्तता का माहौल कायम हो गया और इसके बाद चन्द्रगुप्त के लिए यूनानी दुर्गों पर अधिकार जमाना कठिन कार्य नहीं रहा।

इसके बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि चन्द्रगुप्त ने यह कार्य गद्दी प्राप्त करने के बाद किया या उससे पहले ही उसने इन इलाकों पर अधिकार जमा लिया था। कुछ विद्वान उसके राज्यारोहण का वर्ष 324 ई.पू. मानते हैं परन्तु अव 321 ई.पू. का समय सर्वमान्य है।

भारतीय परम्परागत स्रोत इस बात का हवाला देते हैं कि चन्द्रगुप्त ने कौटिल्य ब्राह्मण, जो चाणक्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता था, की सहायता से मगध का राज सिंहासन प्राप्त किया था। छठी शताब्दी ई. में लिखे नाटक में भी यह कहा गया है कि 25 वर्ष की आयु में जिस समय चन्द्रगुप्त ने नंद वंश को अपदस्थ किया था, उस समय चन्द्रगुप्त एक कमज़ोर शासक था और वास्तविक सत्ता चाणक्य के हाथ में थी। अर्थशास्त्र के लेखक चाणक्य के बारे में बताया जाता है कि वह न केवल युद्ध के राजनीतिक सिद्वांतों का ज्ञाता था बल्कि वह साम्राज्य को ध्वस्त होने से बचाने के लिए उपयुक्त राज्य और समाज के गठन के विषय में भी अच्छी जानकारी रखता था।

हालांकि चंद्रगुप्त के शासन के आरंभिक वर्षों के बहुत कम तथ्य प्रकाश में आए हैं, परन्तु अधिकांश इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि मौर्य परिवार का संबंध किसी निम्न जाति या कवीले से था। कुछ तथ्य इस बात का संकेत करते हैं कि चन्द्रगुप्त अंतिम नंद राजा और निम्न जाति की स्त्री मुरा का पुत्र था, इसी से उस परिवार का नाम मौर्य पड़ गया। वौद्ध स्रोतों के अनुसार वह पिप्लिवन के मोरिया वंश के परिवार का सदस्य था। इन स्रोतों के अनुसार वह चन्द्रगुप्त का संबंध उस शाक्य कवीले से था, जिसमें वुद्ध का जन्म हुआ था। इस कथन के अनुसार मौर्य नाम उसी कवीले के नाम से उभृत हुआ है। अप्रत्यक्ष रूप से इसका अर्थ यह है कि चन्द्रगुप्त एक पुराने सरदार का वंशज था और इस प्रकार उसका संबंध किसी न किसी प्रकार क्षत्रिय कुल से था। पुराणों में नंद वंश और मौर्य राजवंश में कोई संबंध नहीं बताया गया है, परन्तु वे भी मौर्यों को शूद्र का दर्जा देते हैं। हालांकि ब्राह्मण ग्रंथों की यह समझ उस आरंभिक मगध के समाज पर आधारित थी, जिसमें अनैतिकता का बोलबाला था और जाति संकर मिश्रित थी।

“क्लासिकल ग्रंथों” में भी अंतिम नंद राजा और चंद्रगुप्त (सैंड्राकोटस के रूप में) का उल्लेख है, परन्तु वे इन दोनों राज्य वंशों में किसी संबंध की बात नहीं करते। यह भी कहा गया है कि चन्द्रगुप्त के नाम में “गुप्त” लगा होना और अशोक ” द्वारा अपनी बेटी की शादी विदिशा के व्यापारी से करना, इस तथ्य को पुष्ट करता है कि मौर्यों का संबंध वैश्य जाति से था।

हालांकि मौर्यों की जाति के संबंध में स्थिति अस्पष्ट है, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि इस राजवंश के अधिकांश महत्वपूर्ण राजाओं ने अपने जीवन के अंतिम प्रहर में असनातनिय धर्मों को ही अपनाया। दूसरी तरफ इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि चंद्रगुप्त के परामर्शदाता और प्रेरक शक्ति के रूप में ब्राह्मण कौटिल्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि चाणक्य ने चंद्रगुप्त को राजा नियुक्त किया था। ऐसा कहा जा सकता है कि मौर्यों ने उस समाज में सत्ता प्राप्त की, जो कभी भी रूढ़िवादी नहीं था। उत्तर-पश्चिम में विदेशियों के साथ काफी सम्पर्क बना रहा। रूढ़िवादी ब्राह्मण परम्परा में मगध को हमेशा नीची दृष्टि से देखा गया है। मगध बुद्ध और महावीर के विचारों से भी काफी प्रभावित था। इस प्रकार, एक सामाजिक और राजनीतिक अव्यवस्था के बीच चंद्रगुप्त मगध का सिंहासन प्राप्त करने में सफल हुआ।

आरंभिक मौर्य-चंद्रगुप्त और बिन्दुसार

बहुत से इतिहासकार मौर्य राज्य के क्षेत्रीय विस्तार के कारण ही उसे साम्राज्य का दर्जा देते हैं। इनके विचार से साम्राज्य निर्माण में चंद्रगुप्त की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी क्योंकि उसने उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में विदेशी आक्रमणकारियों की बाढ़ को रोका और पश्चिमी तथा दक्षिणी भारत में स्थानीय राजाओं को कुचल दिया। इन सैनिक कार्रवाइयों का ठीक-ठीक और सीधा ब्यौरा कहीं नहीं मिलता है। अतः केवल मगध के परवर्ती शासकों से संबंधित स्रोतों में उसकी विजयों संबंधी यत्र-तत्र बिखरी सूचनाओं पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

भारतीय और “क्लासिकल स्रोत” इस बात का हवाला देते हैं कि चंद्रगुप्त ने नंद वंश के अंतिम राजा को अपदस्थ कर राजधानी पाटलिपुत्र पर अधिकार जमाया और 321 ई.पू. में मगध के राज सिंहासन पर बैठा। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, चंद्रगुप्त के राजनीतिक उत्थान का संबंध उत्तर-पश्चिम में सिकन्दर के आक्रमण से भी था। 325 ई.पू. से 323 ई.पू. का काल इस दृष्टि से निर्णायक था क्योंकि सिकन्दर के आक्रमण के बाद उत्तर-पश्चिम में नियुक्त उसके सारे सेनापतियों का या तो कल हो चुका था या वे वापस लौट गए थे।

चन्द्रगुप्त ने इस स्थिति का फायदा उठाया और इन इलाकों पर अधिकार जमा लिया। यहाँ, इस बात को लेकर विवाद है कि चंद्रगुप्त ने पहले नंदों को उखाड़ फेंका या पहले विदेशियों को हराया। कुछ भी हो, यह कार्य 321 ई.पू. तक सम्पन्न हो चुका था और राज्य के सुदृढ़ीकरण का रास्ता प्रशस्त हो गया था। सैनिक विजय की दृष्टि से चंद्रगुप्त मौर्य की पहली उपलब्धि 305 ई.पू. के आसपास सेल्यूकस निकेटर से युद्ध करना था। सेल्यूकस सिंधु नदी के पश्चिमी प्रदेश पर राज्य करता था। 303 ई.पू. में अंततः लम्बे युद्ध के बाद चंद्रगुप्त की विजय हुई और यूनानी दूत के साथ एक संधि हुई। इस संधि के मुताबिक चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी दिए, बदले में सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु का पश्चिमी इलाका दे दिया।

एक वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुआ। सेल्यूकस का राजदूत मेगस्थनीज कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, क्योंकि इस प्रकार सिंधु एवं गंगा का मैदान चंद्रगुप्त के नियंत्रण में आ गए और मौर्य साम्राज्य की सीमाएं निर्धारित हो गयीं।

अधिकांश विद्धानों का यह मानना है कि चंद्रगुप्त ने केवल उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र और गंगा के मैदान पर ही अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित किया था बल्कि पश्चिमी भारत और दक्कन के क्षेत्रों पर भी उसका नियंत्रण था। केवल आधुनिक केरल, तमिलनाडु और भारत के उत्तर-पश्चिमी इलाके उसके राज्य-क्षेत्र में शामिल नहीं थे। परन्तु इन विजय-अभियानों का विस्तृत ब्यौरा अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। यूनानी लेखकों ने अपने ग्रंथों में .. केवल इस बात का संकेत किया है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने 6,00,000 की अपनी विशाल सेना की सहायता से पूरे भारत को रौंद डाला था। दूसरी शताब्दी ई. के मध्य के रुद्रदमन के जूनागढ़ शिला अभिलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने सुदूर पश्चिम में सौराष्ट्र या कठियावाड़ पर विजय प्राप्त की थी और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया था।

इसमें चंद्रगुप्त के राजदूत पुष्यगुप्त का उल्लेख है, जिसने प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इससे यह भी पता चलता है कि मालवा क्षेत्र भी चंद्रगुप्त के नियंत्रण में था। बाद के स्रोतों से यह भी पता चलता है कि दक्कन के क्षेत्र पर भी उसका अधिकार था। कुछ मध्ययुगीन पुरालेखों में इस बात का उल्लेख है कि चंद्रगुप्त ने कर्नाटक के कुछ हिस्सों को सुरक्षा प्रदान की थी।

संगम ग्रंथों में प्रारंभिक तमिल लेखकों (ईसवी वाद की प्रारंभिक शताब्दियों में ) ने “मोरियार’ का उल्लेख किया है, यह माना जाता है कि यह मौर्यों का ही उल्लेख है जिनका दक्षिण से संपर्क हुआ था; परन्तु संभवतः यह चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी के शासन का हवाला देता है। अंततः जैन परम्परा से सूचना मिलती है कि अपने अंतिम दिनों में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म अपना लिया था। उसने राजसिंहासन त्याग दिया और एक जैन ‘साधु भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर चला गया। दक्षिण कर्नाटक में स्थित जैनों के तीर्थ स्थान श्रावणवेलगोला में उसने अपने अंतिम दिन विताए और एक कट्टर.जैन की तरह भूखे रहकर धीरे-धीरे प्राण त्याग दिए।

चंद्रगुप्त का पुत्र विन्दुसार 297 ई.पू. में गद्दी पर बैठा। भारतीय और “क्लासिकल स्रोतों’ में उसका कम उल्लेख हुआ है। यूनानी बिन्दुसार को अमिट्रोफ्रेट्स के नाम से पुकारते थे। यूनानी स्रोतों में इस बात का भी उल्लेख है कि बिन्दुसार का संबंध सीरिया के सेल्यूसिड वंश के राजा, एंटियोकस प्रथम के साथ था, जिससे उसने मीठी मदिरा, सूखा अंजीर और एक तार्किक (प्राचीन यूनानी दर्शन तथा अलंकार या भाषणशास्त्र का शिक्षक) भेजने का आग्रह किया था।

सोलहवीं शताब्दी में तिब्बत के एक वौद्ध पूजारी तारनाथ ने अपनी रचना में बिंदुसार का युद्ध संबंधी वर्णन लिखा है। कहते हैं उसने पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों के बीच का भाग जीत लिया था और सोलह नगरों के राजाओं और सरदारों को हरा दिया था। दक्षिण के प्रारंभिक तमिल कवियों ने भूमि पर मौर्यों के रथों के गरजते हुए चलने का जिक्र किया है। शायद यह बिंदुसार का ही शासनकाल होगा। बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि चूंकि अशोक ने केवल कलिंग पर ही विजय प्राप्त की थी, अतः मुंगभद्र तक का प्रदेश उसके पूर्व शासकों के काल में ही मगध का अंग बन चुका होगा। इसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि विंदुसार ने दक्कन पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और मौर्य साम्राज्य को प्रायःद्वीप में सुदूर दक्षिण स्थित मैसूर तक विस्तार किया।

हालांकि विंदुसार को “शत्रु का संहारक” कहा जाता है, उसके शासनकाल का ब्यौरा भी ठीक से नहीं मिलता है। उसके विजय अभियानों का अनुमान केवल अशोक के साम्राज्य के विस्तार को देखकर लगाया जा सकता है क्योंकि अशोक ने केवल कलिंग (उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की थी। उसका धार्मिक झुकाव । अजीविकों की तरफ था। वौद्ध स्रोतों के अनुसार विंदुसार की मृत्यु 273-272 ई.पू. के आसपास हुई थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों के वीच राजसिंहासन के लिए चार वर्षों तक संघर्ष होता रहा। अंततः 269268 ई.पू. के आसपास अशोक विंदुसार का उत्तराधिकारी वना।

अशोक मौर्य

1837 ई. तक अशोक मौर्य के बारे में लोगों को कुछ विशेष मालूम नहीं था। किन्तु 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि में लिखा एक शिलालेख पढ़ा इस शिलालेख में देवतापिय पियदस्सी (देवताओं के प्रिय. प्रियदर्शी) नामक एक राजा का उल्लेख था। इसकी तुलना श्री लंका के इतिवृत्त महावंस में उल्लिखित पियदस्सी से की गई और वस्तुतः तब यह साबित हो सका कि शिलालेख में वर्णित राजा अशोक मौर्य ही था। युद्ध से विमुखता और धम्म के सिद्वांतों के आधार पर शासन की स्थापना ने अशोक को विशेष प्रसिद्धि दी है। आगे. हम उसके आरंभिक जीवन की प्रासंगिक घटनाओं. कलिंग युद्ध और उसके शासनकाल में मौर्य साम्राज्य के विस्तार पर चर्चा करेंगे।

कलिंग युद्ध

अपने पिता के शासनकाल में अशोक ने उज्जैन और तक्षशिला में राजदूत के रूप में कार्य किया था। यह बताया जाता है कि उसे तक्षशिला में एक विद्रोह को कुचलने के लिए भेजा गया था। वौद्ध स्रोतों से पता चलता है कि तक्षशिला में सफलता प्राप्त करने के बाद उसे उज्जैन भेजा गया था। यह भी कहा जाता है कि उसके व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं जैसे. विदिशा के व्यापारी की पुत्री से उसका विवाह और उससे महिंद्र और संघमित्र नामक दो संतानों की प्राप्ति, ने भी अशोक को वौद्ध धर्म अपनाने की दिशा में प्रवृत्त किया। उसके आरंभिक जीवन की जानकारी ज्यादातर बौद्ध इतिवृत्तों से होती है। अतः इसकी प्रामाणिकता कुछ संदिग्ध है।

अशोक के राज्यारोहण से संबंधित भी कई किवदंतियां प्रचलित हैं, परन्तु इस तथ्य पर मोटे तौर पर सहमति है कि अशोक युवराज नहीं था। इसलिए सिंहासन प्राप्त करने के लिए उसे अन्य राजकुमारों के साथ संघर्ष करना पड़ा था। बौद्ध स्रोतों में यह बताया गया है कि बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व अशोक एक दुष्ट राजा था। यह निश्चित रूप से बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बात है। इसका उद्देश्य अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठा को प्रतिष्ठित करना है। यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अशोक के परवर्ती जीवन में बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका रही, परन्तु उसे कट्टर और दुराग्रही बताने वाले कथनों की सही जांच-परख करनी होगी। अशोक के व्यक्तित्व और विचारों का उल्लेख विस्तृत रूप में उसके कई अभिलेखों में हुआ है, जिसमें उसकी सार्वजनिक और राजनीतिक भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। उनसे यह भी पता चलता है कि कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया था।

हालांकि अशोक के पूर्वजों ने दक्कन और दक्षिण के प्रदेशों में प्रवेश पा लिया था और शायद कुछ हिस्सों को जीत भी लिया था, परन्तु कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) अभी तक अविजित था और उसे मौर्य- साम्राज्य के । नियंत्रण के अधीन लाने का कार्य शेष था। इस इलाके का सामरिक महत्व था क्योंकि स्थल और समुद्र, दोनों से दक्षिण भारत को जाने वाले मार्गों पर कलिंग का नियंत्रण. था। अशोक ने खुद शिलालेख XIII में यह बताया है कि उसके अभिषेक के आठ वर्ष बाद अर्थात् 260 ई.पू. के आसपास कलिंग के साथ युद्ध हुआ था। इस युद्ध में कलिंगवासियों को पूरी तरह कुचल दिया गया और “एक लाख व्यक्ति मारे गए और इससे कई गुना नष्ट हो गए’। अभिलेखों में आगे बताया गया है कि अशोक इस युद्ध में विजयी हुआ, परन्तु युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और तब उसने अचानक बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। युद्ध विजय का स्थान पम्म विजय ने ले लिया। यह नीति व्यक्तिगत और राजकीय, दोनों स्तरों पर अपनाई गई और प्रजा के प्रति सम्राट और उसके अधिकारियों में मूलभूत परिवर्तन आया।

अशोक की मृत्यु के समय मगध

विभिन्न स्थानों पर पाये जाने वाले शिलालेखों और स्तम्भ अभिलेखों, जिनमें अशोक ने अपनी पम्म नीति की चर्चा की है, से अशोककालीन मगध साम्राज्य के क्षेत्रीय-विस्तार पर काफी प्रकाश पड़ता है। अशोक के चौदह बृहद शिलालेख, सात स्तम्भ लेख जूनागढ़ के निकट गिरनार में और कुछ लघु शिलालेख प्राप्त हुए हैं। बड़े शिलालेख पेशावर के निकट शाहवाजगढ़ी और मनसहेरा में, देहरादून के निकट कल्सी में, थाना जिले में सोपारा, कठियावाड़ा में, भुवनेश्वर के निकट धौली में और उड़ीसा के गंगम जिले के जोगदा में पाए गए हैं। लघु शिलालेख कर्नाटक के सिद्धपुरा, जतिंग-रामेश्वर और ब्रप्लगिरि स्थानों में मिले हैं। इसके अतिरिक्त अन्य लघु शिलालेख मध्य प्रदेश में जबलपुर के निकट रूपनाथ में, बिहार के सासाराम में, जयपुर के निकट बेरत में और कर्नाटक के मस्की में मिलते हैं। स्तम्भ लेख, जिसमें अशोक के फरमान हैं, दिल्ली में पाया गया है। मूल रूप में इसकी प्राप्ति अम्बाला और मेरठ के निकट टोपरा नामक स्थान से हुई थी।

इसके अतिरिक्त, इस प्रकार के अभिलेख उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में लौरिया आराराज, बिहार में लौरिया नन्दनगढ़ और रामपूर्वा, भोपाल के समीप सांची, बनारस के निकट सारनाथ और नेपाल के रूम्मिनदेई नामक स्थानों पर मिले हैं।  इन अभिलेखों के स्थापन पर गौर करने से यह

बात भी स्पष्ट हो जाएगी कि प्रयत्नपूर्वक इन्हें महत्वपूर्ण समुद्र और स्थल व्यापारिक मार्गों पर स्थापित किया गया था। इसके आधार पर आधुनिक इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इसके पीछे उपमहाद्वीप पर नियंत्रण रखना भी एक उद्देश्य था, परन्तु मूल उद्देश्य कच्चे माल के स्रोत पर अधिकार बनाए रखना था।

ये लेख साम्राज्य की सीमा पर रहने वाले लोगों की भी चर्चा करते हैं, इससे ऊपर वर्णित राज्य की सीमारेखा की पुष्टि होती है। दक्षिण में चोल, पांड्या, सत्यपुत्र और केरलपुत्रों का उल्लेख हुआ है, जो मौर्य साम्राज्य की परिधि से वाहर थे। साम्राज्य के भीतर भी लोगों की जाति और संस्कृति में काफी भिन्नता थी। उदाहरण के लिए उत्तर-पश्चिम प्रदेश के कम्बोजों और यवनों का उल्लेख मिलता है। उनकी चर्चा के साथसाथ भोजों, पितनिकों, आंध्रों और पुलिंदों का भी उल्लेख किया गया है, जो पश्चिमी भारत और दक्कन में वसे हुए थे। मानचित्र पर अशोक के लेखों के फैलाव के अलावा कुछ और तथ्यों से भी उसके साम्राज्य के विस्तार को पता चलता है। विजय से हासिल राज्य क्षेत्र को विजित और “शासकीय राज्य-क्षेत्र” को राजाविषय कहा गया था, सीमांत राज्य क्षेत्रों को प्रत्यन्त की संज्ञा दी गई है। मगध साम्राज्य की सीमा के बाहर उत्तर-पश्चिम में सेल्यूसिड राजा ऐतिओकस-द्वितीय का राज्य था, दक्षिण में चोल, पांड्य, केरलपुत्र और सत्यपुत्रों के राज्य तथा श्रीलंका द्वीप भी साम्राज्य की सीमा से वाहर थे। ऐसा प्रतीत होता है कि पूरब में उत्तरी और दक्षिण वंगाल मौर्यों के साम्राज्य का अंग था।

इस प्रकार, अशोक के राज्य-काल में मगध साम्राज्य का क्षेत्रीय विस्तार अपनी चरम सीमा पर था। परन्तु, इसके साथ ही साथ यह प्रयत्न भी चल रहा था कि साम्राज्य के अंदर होने वाले सभी युद्धों को समाप्त कर दिया जाए। अहिंसा की नीति को राज्य-नीति के रूप में अपनाया जाना अपने आप में एक अनूठी घटना थी, क्योंकि भारत के राजनीतिक इतिहास में इसे दोहराया नहीं गया। विभिन्न इतिहासकारों ने बार-बार अशोक को उदार तानाशाह के रूप में चित्रित किया है। यह धारणा धम्म के व्यावहारिक पक्ष को नजरअंदाज कर देती है। अशोक ने इसके माध्यम से एक विचार पद्धति का सहारा लेकर विशाल साम्राज्य पर नियंत्रण करने की कोशिश की, जिसके अभाव में शासन करना बहुत मुश्किल था। मौर्यों के अभिलेख कुछ महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों और साम्राज्य के सीमांत प्रदेशों से प्राप्त हुए हैं। परन्तु यह सवाल अभी तक अपनी जगह खड़ा है कि वे क्षेत्र जहां अभिलेख पाए गए और वे क्षेत्र जहां अभिलेख नहीं पाए गए हैं, क्या समान रूप से नियंत्रित किए जाते थे। मौर्यों के प्रशासनिक नियंत्रण और धम्म की नीति से जुड़े दोनों सवालों पर  में विस्तार से चर्चा की जाएगी।

सारांश

इस इकाई में हमने प्रथम ऐतिहासिक माम्राज्य में आपको परिचित केगन की कोशिश की है और इमकं अध्ययन के लिए एक दिशा प्रदान की है। इसके अतिरिक्त, मगध माम्राज्य के उदभव और क्षेत्रीय विस्तार की भी चर्चा की गई है।

हम आशा करते हैं कि इम इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • मगध की भौगोलिक स्थिति का मामरिक महत्व समझ गए होंगे और इसके उत्थान में सहायक महत्वपूर्ण कारकों से परिचित हो चुके होंगे।
  • उन घोतों के बारे में जानकारी प्राप्त की जिनकी सहायता से मगध, खासकर मौर्य शासन, के राजनीतिक इतिहास के लेखन में महायता मिल सकती है।
  • मौर्य शासन के उद्भव के पूर्व मगध के आरंभिक इतिहास की प्रमुख घटनाओं की जानकारी प्राप्त कर चुके होंगे।
  • इतिहास के आरंभिक काल के संदर्भ में “साम्राज्य’ की विभिन्न धारणाओं की व्याख्या से साक्षात्कार कर चुके होंगे।
  • मौर्य परिवार के मूल और उनके आरंभिक इतिहास का विवरण प्राप्त कर चुके होंगे।
  • चंद्रगुप्त मौर्य और विंदुसार की विस्तार नीति की जानकारी प्राप्त कर चुके होंगे।
  • अशोक मौर्य के राज्यारोहण से लेकर कलिंग युद्ध नक की घटनाओं को जान चुके होंगे।
  • अशोक की मृत्यु के समय मगध साम्राज्य के विस्तार की सीमाएं जान सके होंगे।

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