तमिल भाषा और साहित्य का विकास

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप जान सकेंगें किः

  • तमिल साहित्य कितना पुराना है
  • तमिल वीर और प्रेम का काव्य क्या है
  • उनकी रचना एवं वर्गीकरण कैसे किया गया
  • उनकी साहित्यिक विशेषतायें क्या हैं
  • उस काल की दूसरी रचनायें क्या हैं

आपने पढ़ा कि किस प्रकार से तमिलहम् में नई बस्तियों का विकास हुआ और कैसे कृषि का फैलाव एवं व्यापार की उन्नति हुई। व्यापार के कारण लोग बाहर से आकर बसते हैं और प्रदेश के अन्दर ही स्थानीय एवं बाह्य लोगों के बीच पारस्परिक संबंधों की प्रक्रिया के लिये अवसरों का प्रारंभ होता है। संस्कृतियों के पारस्परिक संबंधों की प्रक्रिया किसी क्षेत्र में भाषा एवं साहित्य के विकास में सहायता करती है। इस इकाई में आप तमिल भाषा एवं साहित्य के विकास की जानकारी प्राप्त करेंगे।

प्रारम्भिक साक्ष्य

तीसरी सदी ई.प. के आस-पास तमिल भाषा पूर्णतः साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित हो चुकी थी अर्थात् ऐसी भाषा के रूप में जिसकी अपनी स्वयं लिखने की एक प्रणाली थी। तमिल साहित्यिक परंपरा अर्थात् तमिल भाषा में लेखन की परंपरा के संदर्भ में सबसे प्रारंभिक प्रमाण मदुरई की पहाड़ियों में बनी जैन एवं बौद्ध गुफाओं से प्राप्त तमिल ब्राह्मी के शिलालेख हैं। ये शिलालेख उन लोगों और संस्थाओं की पट्टिकाओं के रूप में हैं जिन्होंने इन कन्दराओं को दान में दिया। इन शिलालेखों के मुख्य स्थान अरिट्टाप्पत्ति (मौगलम, मदुरई), कारूंगलावकूति (मैलूर, मदुरई), काँगरपुलियाम्कूलम (मदुरई), अजकरमलई (मदुरई) हैं। इन लेखों में तमिल के ऐसे बहुत से शब्दों का प्रयोग हुआ है जिनको स्थानीय स्तर पर संस्कृत, प्राकृत या पालि भाषाओं से ग्रहण किया गया है।

निगमत्तूर (निगम का सदस्य) और वणिमन (वह पुरुष जो वणिभम या व्यापार में संलग्न है) शब्दों को उदाहरण के रूप में बताया जा सकता है कि इनको तमिल भाषा में संस्कृत से ग्रहण किया गया है। इसको भी भली-भाँति जान लेना चाहिए कि इन लेखों में जिस तमिल भाषा का प्रयोग किया गया है वह तमिल साहित्य की भाषा से काफी अलग प्रकार की है। यह अन्तर इसलिए आया कि उत्तर की ओर से देशान्तर करने वाले जैन एवं बौद्ध धर्मों के अनुयाइयों ने काफी बड़ी संख्या में संस्कृत और प्राकृत या पालि की उक्तियों का प्रयोग किया। इन उक्तियों को तमिल भाषा की भाष्य प्रणाली के अनुरूप ही ग्रहण किया गया।

इन लेखों में जिस ढंग से व्यक्तियों, व्यावसायिकों एवं स्थानों के नामों का प्रयोग हआ है उस से तमिल का साहित्यिक भाषा के रूप में सूत्राधार मिलता है। इन लेखों का लेखन काल सामान्यतः 200 ई.पू. से 300 ई. के मध्य का है। तमिल भाषा के वीर काव्यों की लोकप्रियता संगम साहित्य के नाम से है और यह साहित्य ही तमिल साहित्य की प्राचीनतम परम्परा का प्रमाण प्रस्तुत करता है।

संघ काव्य (प्रेम और वीरता का काव्य)

तमिल के संघ काव्यों को संगम साहित्य इसलिये कहा गया है क्योंकि इनको संगम के द्वारा एकत्रित किया गया। संगम विद्वानों की एक संस्था थी। इन कविताओं की रचना स्वयं संगम के द्वारा नहीं की गई थी। वास्तव में ये कवितायें संगम से अधिक पुरानी हैं। संगम का इतिहास किवदंतियों से भरा पड़ा है। परम्परा के अनुसार प्रारंभ में तीन संगम अस्तित्व में थे परन्तु अन्ततः उनमें से एक ही संगम के द्वारा किये गये कार्य जीवित रह सके।

पहले ऐसा विश्वास किया जाता था कि ये संगम दरबारी कवियों की संस्थायें थीं। परन्तु अब यह स्वीकृत तथ्य है कि वे साहित्यिक विद्वानों के द्वारा गठित की गई थीं। संगम और संघ काव्यों की रचना के मध्य समय की जो दरी है उसके कारण संगम साहित्य मिथ्या जैसा हो गया है। कुल मिलाकर तमिल वीर काव्य लोक कथाओं की उत्पत्ति था। ये भाट कवियों की परम्परा के महत्व को अभिव्यक्त करती हैं।

ये भाट कवि अपने आश्रयदाता सरदारों की प्रशंसा में गाते हए घूमते रहते थे। फिर भी सभी काव्यात्मक रचनायें घमक्कड भाट कवियों की रचना नहीं थीं। उनमें से कुछ की रचना विद्वान कवियों ने की थी जिन्होंने भाट कवियों की परंपरा का अनुकरण किया। कापिलर, पारानर, अव्वायर और गौतमनार इस काल के जाने-पहचाने कवि थे। ये विद्वान भाट कवि थे और इनको साधारण भाट कवियों से अलग पुलावर के नाम से जाना जाता है। साधारण भाट कवियों को पनार कहा गया है।

यह साहित्य किसी विशेष सामाजिक समूह या गुट से संबंधित नहीं है बल्कि साधारण जीवनयापन का एक भाग ही है। ये कवितायें कई शताब्दियों में फली फलीं जिससे ऐसा लगता है कि तमिल भाषा एवं साहित्य का क्रमिक विकास हुआ। वे न केवल अपनी वास्तविक पहचान को कायम रखने में सफल हुई बल्कि वे वर्गीकृत काव्य-संग्रह या चुनिन्दा संग्रह का अभिन्न अंग बन गई।

वर्गीकरण

अब हम वर्गीकृत काव्य संग्रहों से कुछ विशेष काव्यात्मक शीर्षकों एवं परिपाटियों से प्राप्त की गई कविताओं को देखेंगे। एट्टतोगै या कविताओं के आठ संग्रह और पत्तप्पाट्ट या दस काव्य संग्रह की ऐसे काव्य संग्रहों की दो श्रेणियां जिनमें वीर गाथा काव्य का वर्णन है। एटूतोगै के अन्तर्गत नट्रिणें, कुरून्तौगे, निटुण्तु आदि काव्य संग्रहों के समूह हैं। उदाहरणार्थ , मल्लैप्पाट्ट आदि काव्य संग्रह पत्त पत्त के अन्तर्गत हैं। (कृपया तालिका को देखें)। काव्य संग्रहों को अकम में विभाजित किया गया है इसके अन्तर्गत व्यक्तिनिष्ठ प्यार या प्रेम जैसे विषयों का वर्णन है और परम के अन्तर्गत वस्तनिष्ठ जैसे लट और सर्वनाश विषयों का वर्णन हुआ है।

काव्य संग्रहों की इन श्रेणियों में अकम और पुरम जैसे शीर्षकों पर कवितायें हैं। काव्य ग्रंथ में अकम शीर्षक पर लिखी गई चार सौ कवितायें हैं और परानानरू काव्य संग्रह में परम शीर्षक पर आधारित कवितायें हैं और ये दोनों एटूतोगै श्रेणी में ही आते हैं। इसी भांति दोनों अकम और पुरम काव्य संग्रह पत्तू पत्तू श्रेणी में आते हैं। वीर काव्य ग्रंथों के अलावा संगम साहित्य के वर्गीकृत ग्रंथों के अन्तर्गत तमिल व्याकरण का ग्रंथ तोल्काप्पियम और अट्ठारह धर्मोपदेशों के वर्णन से परिपूर्ण ग्रंथ पतिनेन्कीश्कणक्क भी आता है। तिरूक्कुरल द्वारा रचित सुप्रसिद्ध तिरूक्कूरल इन अट्ठारह धर्मोपदेशों में से एक है। तोल्काप्पियम और पतिनेन्कीश्कणक्क दोनों की रचना एटूतौमै और पत्तू पत्तू काव्यों के संकलन के बाद हुई। वीर काव्य संग्रहों के संकलन की तकनीकी एवं शैली बाद में की जाने वाली रचनाओं से विशिष्ट प्रकार का अन्तर रखती है।

काव्य संगठन

संघ काव्य का संकलन मौखिक भाट साहित्य के सिद्धान्तों के आधार पर किया गया। मौखिक संकलन की विशेषतायें सारे विश्व में लगभग एक जैसी हैं। भरपुर महावरों तथा अभिव्यक्तियों का प्रयोग मुख्य विशेषता है। इनमें उन्हीं मुहावरों एवं अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया गया है जो उन दिनों सामान्य जनों के मध्य प्रचलित थे। कवि लोग इनकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति को जानते थे और वे यह भी जानते थे कि इनका कहां एवं कैसे अपनी कविता में उपयोग किया जाये। कविताओं के संकलन में मूल भावों एवं स्वाभाविक अभिव्यक्तियों का प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि उनको मौखिक रूप से प्रसारित किया जा सके और उनमें सामान्य रूप से भाट कवियों के साथ-साथ समाज की भागीदारी भी स्पष्ट हो सके।

कविताओं में घटित होने वाले विभिन्न संदर्भो की अभिव्यक्तियों को व्यक्त करने के लिये काव्यात्मक बनाने की आवश्यकता होती थी। उदाहरण के लिये, यदि किसी सरदार की प्रशंसा करनी होती थी तो उसकी प्रशंसा के लिये “मालाधारी विजेताओं का योद्धा”, “गौरवशाली रथों का स्वामी”, “तेज दौड़ने वाले अश्वों का सरदार”, “आंखों को रसिक लगने वाला योद्धा” जैसे काव्यात्मक शब्दों का प्रयोग बिना किसी रुकावट के किया जाता था फिर चाहे कोई भी कवि या सरदार रहा हो। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि भाट कवि कृत्रिम अभिव्यक्तियों एवं उनके संदर्भो के प्रयोग में दक्ष थे। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हम उनकी काव्यात्मक प्रतिभा को कम करके देखना चाहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कवियों की व्यक्तिगत शैली एवं अभिव्यक्ति का कोई विशेष महत्व नहीं है। मौखिक कविता में छंद रचनाओं की तकनीकी साधारण शैली एवं अभिव्यक्तियों पर निर्भर करती थी।

यह संकलन की एक ऐसी तकनीकी थी जिसमें ऐसे महावरों का प्रयोग होता था जिन पर न केवल कवियों की बल्कि समाज की भी सामान्य तौर पर पकड़ होती थी। इसलिये बार-बार ऐसी पंक्तियों एवं शीर्षकों का वर्णन आया है जिनका उदार परिवर्तन के साथ अनेक कवियों ने विभिन्न काव्यों में प्रयोग किया।

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को किवदंतियां सुनाने की प्रक्रिया द्वारा वीर कवितायें पुरानी यादगारों से भरी हुई थीं। जिसके कारण इन कविताओं की रचना समय का निर्धारण करने में कठिनाई होती है।

समय निर्धारण की समस्या

संगम साहित्य के ग्रंथों में वर्णित श्रेणीबद्ध समस्याओं से इनकी रचना समय को निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता। ग्रंथों की कवितायें वास्तव में भिन्न-भिन्न कालों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन काव्यों के वास्तविक संकलन एवं मौखिक प्रसारण में दूसरी सदी ई.पू. से तीसरी सदी ई. के बीच की कई शताब्दियों का समय है। इनका काव्य संग्रहों के रूप में संकलन छठी सदी ई. से नौवीं सदी ई. के मध्य में हुआ। इनकी समीक्षाओं का काल भी 1314वीं सदी ई. से पूर्व का नहीं है। तोलकाप्पियम जो परम्परागत व्याकरण निबन्ध है अपने वर्तमान रूप में तीसरी सदी ई. से पूर्व का नहीं है यद्यपि इसके कुछ आधारभूत भाग कुछ थोड़े से पहले के हो सकते हैं।

किजखानाक्कू के सभी ग्रंथ तीसरी सदी ई. के बाद वाले समय के हैं। संगम साहित्य का समय निर्धारण करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके प्रारंभिक व बाद के स्वरूप को निश्चित करना कठिन है क्योंकि ये सब एक दूसरे में घुल-मिल गये हैं।

काव्यशास्त्र

संगम साहित्य के आधार पर कुछ स्वस्थ विकसित काव्यात्मक परम्पराओं का विकास हुआ। यद्यपि काव्यात्मक परम्पराओं का विकास कछ बाद की शताब्दियों में हआ परन्त संकलन के नियम एवं आचार विधियां तमिल भाट काव्य की पुरानी परंपराओं का ही भाग थीं। पारम्परिक तमिल काव्य की दो मूलभूत विशेषताओं को अकम एवं पुरम नामक काव्य शैलियों में विभाजित किया गया है। इस इकाई के पहले भाग में ही हम अकम एवं पुरम काव्यों के विषय में बता चुके हैं।

पांच तिणे के संबंध में अकम को प्रेम के पांच उपभागों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक तिणे एक विशेष प्रकार की प्रेम मुद्रा से संबंधित है। उदाहराणार्थ, पालै प्रेमियों के बिछड़ने की भावना से संबंधित है। परम काव्य की कविताओं में अपने स्वरूप तिणे (स्थितियों दृश्यों) एवं संदर्भो का वर्णन है। इसमें नौ दृश्यों और 63 संदर्भो का वर्णन है जिनको कवि संकलन के लिय ग्रहण कर सके। अकम एवं पुरम काव्य संग्रहों की कविताओं में प्रत्येक की निश्चित परम्पराओं का अनुसरण किया गया।

प्रत्येक अकम कविता में तिण के ऐसे भाव का अनुसरण किया गया था जिसके स्वयं अपने देवता, जीव, प्राणी, जीवनयापन के तरीके, संगीत यंत्र एवं गीत होते थे। इसी भांति प्रत्येक पुरम काव्य में ऐसे प्रतिबंधों का अनुसरण किया गया है जो तिणे या दृश्यों और व्यवहार की विविधता से जुड़े थे।

साहित्यिक विकास

तमिल साहित्य परम्परा भारत के शास्त्रीय संस्कृत साहित्यिक परम्परा से स्वतंत्र है। यह संस्कृत भाषा के समानांतर ही भाषायी परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन इसके बावजूद भी तमिल भाषा एवं साहित्य के विकास की प्रक्रिया का प्रवाह कभी भी अलगाव की अवस्था में नहीं हुआ। तमिल साहित्य की प्रारंभिक रचनाओं पर भी संस्कृत का प्रभाव है।

वीर काव्यों एवं संगम साहित्य की अन्य रचनाओं में आर्य संस्कृति के विषय में वर्णन है। यहां पर आर्य संस्कृति से हमारा तात्पर्य वैदिक काल के विचारों तथा संस्थाओं से है। वैदिक अनुष्ठानों की परम्परा को भी इन कविताओं के द्वारा प्रमाणित किया गया है। गौतमानर, पाशनर और कपिला जैसे कछ भाट कवि ब्राहमण थे। कवि गौतमानर को इसलिये उद्धत किया गया है कि उसने अपने आश्रयदाता चेर सरदार चेलकेज कत्तवन का भाग्य परिवर्तन करने के लिए बहुत से यज्ञ या वैदिक बलि सम्पन्न किए।

तमिल वीर काव्य में महाकाव्यात्मक एवं पौराणिक विचारों को भी पाया गया है। जहां एक ओर संरक्षक सरदारों की प्रशंसा में कवितायें लिखी गईं वहां दूसरी ओर महाभारत के युद्ध में किसानों की भूमिका का भी वर्णन किया गया है। बहुत से पौराणिक देवी-देवताओं की तलना तमिल देवी-देवताओं के साथ की गई है। तमिल कविताओं में मैयों (काला देवता) को कृष्ण के समान ही माना गया है। तमिल साहित्य की कठोर परम्परा के बावजूद भी इन प्रभावों को कम करके कभी भी नहीं देखा गया।

तमिल साहित्य एवं भाषा का मूल पक्ष उद्भव के लिये संस्कृत का ऋणी नहीं है। परन्तु इसके पूर्ण भाषायी एवं साहित्यिक रूप में बढ़ने एवं विकसित होने में आर्य संस्कृति के प्रभाव ने अनुगृहित किया। वीर कवितायें और प्रेम एवं संगम परंपरा की कुछ रचनायें प्रारंभिक तमिल क्षेत्र की व्यापक साहित्यिक संस्कृति की ही पुष्टि करती हैं। तीसरी सदी ई. में तमिलों ने जो भाषायी परिपक्वता प्राप्त की वे उसकी ओर भी इशारा करती हैं।

अन्य रचनायें

तोल्काप्पियम के मूल भाग में किजम्वाक्क कुछ भाग यहां दूसरी रचनाओं को बनाते हैं। इनको दूसरी रचनायें कहा गया है क्योंकि ये वीर काव्य की भाट परंपराओं से संबंधित नहीं हैं। परन्तु भाट काव्य की परंपरा की साहित्यिक पृष्ठभूमि से ये बहुत अलग भी नहीं हैं। तोल्काप्पियम के भाग पोरूलदिकरम में पुराने तमिल अकम पुरम की परंपराओं का जो वर्णन हुआ है वह वीर काव्यों की रचना काल के काफी नजदीक है। इसी प्रकार से तिणें ग्रंथों एवं रचनाओं जैसे कि कालवाजि अपेक्षाकृत कुछ पहले के हैं।

यद्यपि कुछ विद्वानों का मानना है कि सिलप्पतिकारम एवं मणिमेकलै दोनों महाकाव्य वीर काव्यों के समकालीन हैं लेकिन इन दोनों को काफी बाद की रचना माना गया है।

सारांश

आपने इस इकाई में पढ़ा कि तमिल साहित्य कितना पराना है और इसकी रचना किस भांति से हुई है। आपने इस इकाई में वीर काव्य की मुख्य विशेषताओं, उनके संकलन की तकनीक एवं समय निर्धारण की समस्याओं के विषय में भी पढ़ा। जो दूसरी जानकारी आपने प्राप्त की वह है कि पुराने तमिल साहित्य एवं भाषा का क्या स्तर था। यह भी आप जान सके कि परानी तमिल रचनाओं का वर्गीकरण कैसे किया गया और इनका संगम काल में काव्य संग्रहों के रूप में संकलन कैसे किया गया।

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