हड़प्पा सभ्यता – Part II

इस इकाई में हड़प्पा-सभ्यता के भौगोलिक विस्तार और भौतिक विशेषताओं का विवरण है। इसमें हड़प्पा-सभ्यता की मुख्य बस्तियों और उन भौतिक अवशेषों के बारे में बताया गया है जो इन बस्तियों की विशेषताओं को उजागर करते हैं। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • यह समझ पाएंगे कि प्रारंभिक हड़प्पा और हड़प्पा-सभ्यता के बीच जनसंख्या और भौतिक परम्पराओं की निरंतरता कायम थी, हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों के क्रमिक विकास के भौगोलिक तथा जलवायु संबंधी पहलुओं से परिचित हो सकेंगे,
  • हड़प्पा-सभ्यता के महत्वपूर्ण केन्द्रों की विशिष्ट भौगोलिक,
  • जलवायु और जीवन-निर्वाह संबंधी विशेषताओं का उल्लेख कर पाएंगे,
  • यह जान सकेंगे कि हड़प्पा-सभ्यता की मुख्य बस्तियों की भौतिक विशेषताएं क्या थीं और विशेषकर यह कि इन बस्तियों की भौतिक विशेषताओं में किस तरह की एकरूपताएं पाई गई हैं।

इस इकाई में हम चरागाही और खेतिहर जातियों तथा छोटे-छोटे कस्बों की नींव पर पनपी हड़प्पा सभ्यता के भौगोलिक विस्तार और इसकी भौतिक विशेषताओं की चर्चा करेंगे।

प्रारम्भिक हड़प्पा और हड़प्पा-सभ्यता के बीच जनंसख्या और भौतिक परम्पराओं की निरंतरता बनी हुई थी। इसमें हड़प्पा-सभ्यता के भौगोलिक विस्तार के अलावा कुछ महत्वपूर्ण केन्द्रों के संबंध में भी विशेष चर्चा की गई है। इस इकाई में आपको हड़प्पा-सभ्यता की नगर योजना, महत्वपूर्ण इमारतों, कला एवं शिल्प, घरों की बनावट, मिट्टी के बर्तन, औजार तथा उपकरण और जीवन-निर्वाह के तरीकों आदि की जानकारी देने का प्रयास किया गया है। अन्त में, हड़प्पा की बस्तियों की भौतिक विशेषताओं में पाई गई एकरूपताओं पर भी प्रकाश डाला गया है।

गांवों से कस्बों और नगरों की ओर

इकाई 5 में आप पढ़ चुके हैं कि किस तरह चरागाही घुमन्तु और खेतिहार समुदाय सिन्धु के मैदान में आकर बसे। किस तरह छोटे-छोटे नगर और कस्बे आबाद हए जिन्होंने दर-दर के देश-प्रदेशों से सम्पर्क कायम किया। आगे चलकर इन्हीं खेतिहर समदायों और छोटे-छोटे नगरों की नींव पर “हड़प्पा-सभ्यता’ पनपी।

“हड़प्पा-सभ्यता” में बड़े-बड़े नगरों की मौजूदगी उसका एक महत्वपूर्ण पहल है। इसका अर्थ यह भी है कि उस समय कुशल कारीगर थे, दूर-दूर तक व्यापार होता था, समाज में धंनी और निर्धन दोनों तरह के लोग रहते थे और राजा हुआ करते थे। ये विशेषताएं तो आम तौर पर सभी सभ्यताओं में पाई जाती हैं, किन्तु हड़प्पा-सभ्यता की अपनी कुछ अलग विशेषताएं भी थीं। हड़प्पा-सभ्यता के अवशेष जिस भौगोलिक क्षेत्र में पाए गए हैं, उस । क्षेत्र में रहने वाले समुदाय एक ही लिखित लिपि का प्रयोग कर रहे थे।

हड़प्पा का कोई भी समुदाय, भले ही, उस समय वह राजस्थान में था या पंजाब में या सिंध में, नाप-तोल के लिए एक ही तरह के बाट और तराजू का इस्तेमाल करता था। वे तांबा और कांसे से निर्मित जिन औजारों का प्रयोग करते थे, वे बनावट, शक्ल और आकार में एक जैसे होते थे। उनके द्वारा प्रयोग में लाई गई ईंटों का अनुपात 4:2:1 था।

उनके कुछ नगरों में बनी इमारतों, किलों आदि की बनावट में भी एकरूपताएं थीं। उस पूरे भौगोलिक क्षेत्र में, जहां हड़प्पा-सभ्यता के नगर मौजूद थे, मोहरों (Seals), शंख से बनी चूड़ियों, लाल पत्थर के बने मनकों और सेलखड़ी से बने गोल चपटे मनकों की बनावट एक-सी होती थी। हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों को अधिकतर गुलाबी रंग के मिट्टी के बर्तनों से पहचाना जाता है। इन मिट्टी के बर्तनों का ऊपरी भाग लाल रंग का होता था। मिट्टी के इन बर्तनों पर काले रंग से पेड़ों, पशु-पक्षियों के एक ही प्रकार के चित्र बने होते थे और । ज्यामिती की आकृतियों को चित्रित किया जाता था। हड़प्पा सभ्यता की बस्तियों की भौतिक विशेषताओं में पाई जाने वाली ये एकरूपताएं ही हड़प्पा सभ्यता की मुख्य विशेषताएं थीं।

हड़प्पा-सभ्यता : स्रोत

हड़प्पा-सभ्यता के बारे में जानकारी हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक बस्तियों की खुदाई की रिपोर्टों से प्राप्त होती है। हड़प्पा में खदाई 1921 में आरंभ हई। तब से कई हड़प्पा की बस्तियों का पता लगाया जा चुका है और वहां खुदाई की गई है। सर जॉन मार्शल और सर मॉर्टिमर व्हीलर जैसे ख्याति प्राप्त पुरातत्वविदों ने हड़प्पा की बस्तियों की खुदाई की है। इन विद्वानों ने वहां मिले भौतिक अवशेषों का गहराई से अध्ययन किया है तथा अतीत की कहानी को पुनः स्थापित किया है। चूंकि उन अवशेषों पर लिखे शब्दों को पढ़ा नहीं जा सकता, इसलिए हड़प्पा के लोगों द्वारा प्रयोग किए गए शिल्प-अवशेषों के अध्ययन के  आधार पर ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

अब तक 1000 से ज्यादा ऐसी बस्तियों की खोज की जा चुकी है जिनमें हड़प्पा-सभ्यता के अवशेष मौजूद हैं। फिर भी, इनमें से अधिकांश बस्तियों की खुदाई नहीं की गई है। एक अनुमान के अनुसार, अब तक जितनी हड़प्पा की बस्तियों का पता लगाया गया है, उनमें से केवल तीन प्रतिशत की ही खदाई की गई है। जिन स्थानों पर खुदाई का कार्य किया गया है, वहां भी अब तक कुल क्षेत्र के पांचवें हिस्से के बराबर क्षेत्र में ही खुदाई की गई है। हाकड़ा घाटी में गंवेरीवाला और पंजाब में फुकस्लान नामक कुछ स्थान इतने बड़े हैं, जितना कि मोहनजोदड़ो लेकिन खुदाई करने वालों ने उन्हें अभी तक छुआ भी नहीं है।

इसका कारण यह है कि खुदाई के कार्य में बहुत धन खर्च होता है और बहुत अधिक जन-शक्ति की जरूरत पड़ती है। फिलहाल, : भारत या पाकिस्तान की सरकारों के पास इन खुदाई के कार्यों के लिए पर्याप्त धन नहीं है। फिर भी, एक बात साफ है और वह यह कि जब हड़प्पा सभ्यता के बारे में सामान्य अनुमान लगाया जाता है तो बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए। कोई भी नई खोज या खदाई की रिपोर्ट हड़प्पा-सभ्यता के लोगों के बारे में हमारे विचारों को बहुत हद तक बदल सकती है। उदाहरण के तौर पर, मॉर्टिमर व्हीलर जैसे विद्वान का, जिन्होंने लगभग बीस वर्ष पहले लिखा था, यह विश्वास था कि सिन्धु घाटी में हड़प्पा सभ्यता परी तरह विकसित थी और उससे पहले की अवधि में जो लोग इन क्षेत्रों में रहते थे, उनके और हड़प्पा-सभ्यता के बीच कोई साम्य नहीं था।

फिर भी, उपलब्ध सामग्री और नई उत्खनन रिपोर्टों का गहराई से विश्लेषण करने पर पुरातत्वविदों को यह मानना पड़ा है कि हड़प्पा-सभ्यता का विकास सिन्ध घाटी और उसके आस-पास ही हआ था और उसे विकसित होने में काफी समय लगा था। पहले वाली इकाई में आप “प्रारंभिक हड़प्पा” काल में हई उन्नति के बारे में पढ़ चुके हैं। यह पाया गया है कि “प्रारंभिक हड़प्पा” और हड़प्पा कालों के बीच आबादी और तकनीकी कौशल की निरंतरता थी।

खेतिहर बस्तियों में विकास की प्रक्रिया जाहिर थी और बुनियादी शिल्प तथा विशिष्ट सिन्धु शैली संभवतः पहले की क्षेत्रीय परम्पराओं से प्रभावित थी। चूंकि हड़प्पा-सभ्यता का अध्ययन कई मानों में अभी तक अधूरा है, इसलिए यह प्राचीन इतिहास के छात्रों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण विषय बना हुआ है।

                हड़प्पा सभ्यता की बस्तियां

 

भौगोलिक विस्तार

विद्वानों का आम तौर पर यह विश्वास है कि हड़प्पा, घग्घर और मोहनजोदड़ो का क्षेत्र हड़प्पा-सभ्यता का केन्द्र-बिन्दु रहा होगा। अधिकांश हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियां इसी क्षेत्र में हैं। इस क्षेत्र में कुछ खास किस्म की एकरूपताएं पाई जाती हैं। इस पूरे क्षेत्र की भूमि एकदम समतल और सपाट है, जो यह इंगित करती है कि यहाँ जीवन-यापन के तौर-तरीके एक जैसे थे। हिमालय से पिघली बर्फ और मानसन की वर्षा से यहाँ आने वाली बाढ़ के । स्वरूप का पता लगता है। इससे खेती और चरागाही के लिए एक जैसी ही संभावनाएं पैदा हुई होंगी। सिन्धु व्यवस्था के पश्चिम में.काछी मैदान ईरानी सीमा-भूमि के अंतवर्ती क्षेत्र में स्थित है। यह एक समतल कछारी हिमानी घौत है जो बोलन दर्रे और मंचार झील के निचले भाग में स्थित है।

यह बंजर और शुष्क प्रदेश है, हरियाली कहीं-कहीं बाह्य इलाके में नजर आती है। नौशारो, जुदैरजोदड़ो और अली-मुराद जैसे स्थान इसी क्षेत्र में स्थित हैं। मकरन तट पर सुत्का-कोह और सुत्काजिन-दोर बस्तियां बलूचिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र के सबसे अधिक शुष्क भाग हैं। वे हड़प्पा-सभ्यता की पश्चिमी-सभ्यता सीमाएं हैं। उत्तरपूर्वी . अफगानिस्तान में शार्तुघई में जो हड़प्पा की बस्तियाँ पाई गई हैं, वे हड़प्पा-सभ्यता की अलग-थलग बस्तियाँ रही होंगी।

हड़प्पा-सभ्यता की पूर्वी सीमाओं पर बड़गांव, मनपुर और आलमगीरपुर जैसी बस्तियां थीं। यह इलाका अब उत्तर प्रदेश में है। गंगा-यमुना दोआब में स्थित इन स्थानों में जीवन-निर्वाह की व्यवस्था, उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुकूल थी। इस क्षेत्र में वर्षा अधिक होती थी और यहाँ घने जंगल थे। यह इलाका चरागाही और खानाबदोशी के क्षेत्र से बाहर है और गेहँ उत्पादक क्षेत्र के अंतर्गत आता है। अतः इसमें बसने की समस्याएं दूसरी तरह की थीं। सम्भवतः इसीलिए कुछ विद्वानों का मानना है कि इस क्षेत्र की अपनी स्वतंत्र संस्कृति थी, जिसे हड़प्पा-सभ्यता से प्रोत्साहन मिलता था। जम्मू में मांडा और पंजाब में रोपड़ वे स्थान हैं, जो भारत में हड़प्पा-सभ्यता के उत्तरी छोर कहलाते हैं। महाराष्ट्र में दैमाबाद और गुजरात में भगत्रव की बस्तियां हड़प्पा की दक्षिणी सीमाएं रहीं होंगी।

गुजरात में भी बसावट का स्वरूप एक जैसा नहीं था। वहां कच्छ और काठियाबाद में छोटे-छोटे कटे हुए पठार थे और असमतल भूमि थी। दूसरी ओर, इस क्षेत्र में काम्बे की खाड़ी और कच्छ के रण से जड़ा एक बहत विशाल समुद्रतट था। गजरात में हड़प्पा के लोग चावल और ज्वार-बाजरे का भोजन के रूप में इस्तेमाल करते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पा-सभ्यता बहुत बड़े क्षेत्र में फैली हुई थी। इसका क्षेत्र मेसोपोटामिया और मिश्र की समसामयिक सभ्यताओं से अधिक विस्तृत था। मेसोपोटामिया में बस्तियां नदीय मैदानों के पार घने समूहों में फैली हुई थीं। फिर भी, घग्घर-हाकड़ा क्षेत्र में बसी बस्तियों को छोड़कर हड़प्पा-सभ्यता की अन्य बस्तियां बहुत कम घनी थीं और बिखरी हुई थीं। राजस्थान और गुजरात में हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर तक फैला रेगिस्तान और दलदल भरा इलाका था।

शार्तुघई का सबसे निकट का हड़प्पा पड़ौसी 300 कि. मी. दूर था। इन खाली स्थानों में आदिम जातियां रहती रही होंगी जो उस समय भी शिकार-संग्रहण या चरागाही-खानाबदोशी द्वारा अपना भरण-पोषण कर रही थी। इसी तरह, इस क्षेत्र में किए गए अध्ययनों से हमें हड़प्पा-सभ्यता के किसी नगर में रहने वाली जनसंख्या के आकार का पता चलता है। विद्वानों का मत है कि हड़प्पा-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मोहनजोदड़ो की जनसंख्या लगभग 35,000 थी। आधुनिक भारत के सबसे छोटे शहरों की भी आबादी बड़े से बड़े हड़प्पा-सभ्यता के शहरों की आबादी से अधिक होगी।

यह याद रखने योग्य बात है कि हड़प्पा काल में परिवहन का सबसे तेज रफ्तार का माध्यम बैलगाड़ी हुआ करती थी, लोहे से लोग अनजान थे और हल के इस्तेमाल को क्रांतिकारी खोज समझा जाता था। ऐसी पुरातन तकनीक का सहारा लेकर जो सभ्यता दूर-दूर तक बिखरे क्षेत्रों को सामाजिक-आर्थिक संबंध के जटिल जाल में पिरोने में सफल रही, उसके लिए उन दिनों यह एक चमत्कारिक उपलब्धि थी।

महत्वपूर्ण केन्द्र

अब सवाल यह उठता है कि हड़प्पा के लोगों ने अफगानिस्तान में शार्तुघई या गुजरात में सुरकोटड़ा जैसे दूरवर्ती स्थानों को अपने कब्जे में लाने की कोशिश क्यों की? इस सवाल का जवाब हमें मिल सकता है यदि हम कुछ महत्वपूर्ण केन्द्रों की भौगोलिक स्थिति और विशेषताओं से संबंधित विवरण की जांच करें।

हड़प्पा

हड़प्पा पहली बस्ती थी, जहाँ खुदाई की गई। सन् 1920 से आरंभ करके आगे के वर्षों में दयाराम साहनी, एम. एस वेंट्स और मॉर्टिमर व्हीलर जैसे प्रातत्वविदों ने हड़प्पा में खदाई का कार्य किया। यह बस्ती पश्चिमी पंजाब में रावी के तट पर स्थित है। इसके आकार और इधर पाई गई वस्तुओं की विविधता की दृष्टि से यह बस्ती हड़प्पा-सभ्यता का प्रमुख नगर मानी जाती है। इस नगर के अवशेष लगभग 3 मील के घेरे में फैले हुए हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि हड़प्पा के इधर-उधर या आस-पास बस्तियों का कोई नामो-निशान नहीं है।

हड़प्पा में जनसंख्या का एक बड़ा भाग खाद्य उत्पादन से भिन्न क्रिया कलापों में लगा हुआ था। ये क्रियाकलाप प्रशासन, व्यापार, कारीगरी या धर्म से संबंधित रहे होंगे। चंकि ये लोग अपने लिए अन्न का उत्पादन नहीं कर रहे थे, इसलिए किसी दसरे को उनके लिए यह कार्य करना पड़ता था। उत्पादकता कम थी और परिवहन के साधन अविकसित थे। अतः खाद्य का उत्पादन न करने वाले इन लोगों के भरण-पोषण के लिए खाद्य उत्पादक क्षेत्रों से खाद्यान्न प्राप्त करने और ढोने के लिए बहुत लोगों को जटाना पड़ता होगा।

किन्तु ये क्षेत्र नगर से बहुत दूर नहीं रहे होंगे क्योंकि अनाज ढोने का काम । बैलगाड़ियों और नावों द्वारा किया जाता था। कुछ विद्वानों का यह कहना है कि आस-पड़ोस के गांवों के लोग नदियों में बाढ़ वाले टेढ़े-मेढ़े मैदानों में जगह बदल-बदल कर खेती करते रहे होंगे। हड़प्पा की भौगोलिक स्थिति का सबसे अलग-थलग होने का कारण यही बताया जा सकता है कि यह कुछ ऐसे महत्वपूर्ण व्यापार मार्गों के मध्य स्थित था, जो आज तक प्रयोग में है। इन मार्गों ने हड़प्पा को मध्य एशिया, अफगानिस्तान और जम्म से जोड़ा। हड़प्पा की स्थिति इसलिए उत्कृष्ट मानी जाती थी क्योंकि यहां दूर-दूर से आकर्षक वस्तुएं लाई जाती थीं।

मोहनजोदड़ो

सिन्धु नदी के तट पर बसे सिंध प्रांत के लरकाना जिले में स्थित मोहनजोदड़ो को हड़प्पा-सभ्यता की सबसे बड़ी बस्ती माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गह-निर्माण, मद्रा, महरों आदि के बारे में अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त होती है। इस जगह खुदाई का काम 1922 में, आर. डी. बेनर्जी और सर जॉन मार्शल की देख-रेख में शुरू किया गया। बाद में मैके और जार्ज डेल्स ने भी खदाई की थोड़ी-थोड़ी खदाई का काम और नक्शा तैयार करने का काम अस्सी के दशक तक चलता रहा।

खुदाई से पता चलता है कि लोग वहाँ बड़े लम्बे समय तक रहे और एक ही जगह पर मकानों का निर्माण तथा पुनर्निर्माण करते रहे। इसी का यह परिणाम है कि इमारतों के अवशेषों और मलबे के ढेर की ऊंचाई लगभग पचहत्तर फीट है। मोहनजोदड़ो में बसावट के समय से बराबर बाढ़ आती रही। बाढ़ की वजह से वहां जलोढ़ मिट्टी इकट्ठी हो गई। सदियों से बराबर जमा होती गई गाद के कारण मोहनजोदड़ो के आस-पास की भमि की सतह लगभग तीस फुट ऊंची हो गई। भू-जल तालिका का स्तर भी उसके अनुरूप बढ़ता चला गया है। अतः मोहनजोदड़ो में सबसे परानी इमारतें आजकल के मैदानी स्तर से लगभग 39 फुट नीचे पाई गई हैं। जल-तालिका में चढ़ाव के कारण पुरातत्व विशेषज्ञ इन स्तरों की खुदाई नहीं कर पाए हैं।

कालीबंगन

कालीबंगन की बस्ती राजस्थान में घग्घर नदी के सूखे तल के आस-पास स्थित है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इस क्षेत्र में हड़प्पा की बस्तियों की संख्या सबसे अधिक थी। कालीबंगन की खुदाई 1960 के दशक में बी. के. थापर के निर्देशन में की गई थी। इस स्थान से पूर्व-हड़प्पा और हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। इससे पता चलता है कि पूर्व-हड़प्पा और हड़प्पा-सभ्यता के लोगों के बीच धार्मिक विचारों में काफी अन्तर था।

कुछ विद्वानों का मत है कि कालीबंगन हड़प्पा-सभ्यता के “पूर्वी , अधिकार क्षेत्र” का हिस्सा रहा होगा। आज के हरियाणा, पूर्वी पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में हड़प्पा युग के बाड़ा, सीसवाल और आलमगीरपुर जैसी बस्तियाँ पाई गई हैं। यहां हड़प्पा काल के मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ कुछ ऐसे प्रमाण भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि मिट्टी के बर्तन बनाने में इन बस्तियों की अपनी अलग परम्पराएं भी मौजूद थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि हड़प्पा-सांस्कृतिक क्षेत्र और पूर्वी प्रान्तों के बीच कालीबंगन की स्थिति एक मध्यस्थ की रही होगी।

लोथल

गुजरात में रंगपुर, सुरकोटड़ा और लोथल जैसी बस्तियां पाई गई हैं। लोथल काम्बे की खाड़ी के तट से लगे सपाट क्षेत्र में स्थित है। ऐसा लगता है कि यह स्थान समकालीन पश्चिम एशियाई समाजों के साथ समुद्री व्यापार के लिए सीमा-चौकी के रूप में महत्वपर्ण रहा होगा। इसके उत्खनक, एस.आर. राव ने यहां एक जहाजी मालघाट (Dockyard) की खोज का दावा किया है।

सुत्काजिन-दोर

सुत्काजिन-दोर पाकिस्तान-ईरान सीमा से लगे मकरान समुद्रतट के समीप स्थित है। आजकल यह बस्ती सखे बंजर मैदानों के बीच स्थित है। इस शहर में एक किला था जिसके चारों ओर रक्षा के लिए पत्थर की दीवार थी। बंजर भूमि में इसके स्थित होने का कारण यही हो सकता है कि यहां एक बन्दरगाह थी जिसकी व्यापार के लिए आवश्यकता थी।

भौतिक विशेषताएं

इस भाग में हड़प्पा-सभ्यता की भौतिक विशेषताओं पर चर्चा की जाएगी इसमें हम हड़प्पा-सभ्यता की नगर-योजना, मिट्टी के बर्तन, औजार और उपकरण, कला एवं दस्तकारी, लिपि और जीविका के स्वरूप पर विचार किया जाएगा।

नगर-योजना

मॉर्टिमर व्हीलर और स्टूआर्ट पिग्ट जैसे पुरातत्वविदों का मत था कि हड़प्पा-सभ्यता के नगरों की संरचना और बनावट में असाधारण प्रकार की एकरूपता थी। प्रत्येक नगर दो भागों में बटा होता था। एक भाग में ऊँचा दुर्ग होता था जिसमें शासक और राजघराने के लोग रहते थे। नगर के दूसरे भाग में शासित और गरीब लोग रहते थे। योजना की इस अभिन्नता का अर्थ यह भी है कि यदि आप हड़प्पा की सड़कों पर घमने निकलें, तो आप पाएंगे कि वहां के घर, मन्दिर, खलिहान और गलियां बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी मोहनजोदड़ो की या हड़प्पा-सभ्यता के अन्य किसी भी नगर की।

संकल्पना की अभिन्नता का यह विचार उन विदेशी समुदायों से लिया गया था जिन्होंने अकस्मात हमला करके सिन्ध घाटी को जीत लिया और नए नगरों का निर्माण किया। इन नगरों की योजना ऐसी की गई थी जिसमें कि वहाँ के मूल निवासियों को शासकवर्ग से अलग रखा जा सके। इस तरह, शासकों ने ऐसे किलों का निर्माण किया जिनमें वे आम जनता से अलग-थलग, शान से रह सकें। आजकल विद्वान अब इन विचारों को अस्वीकार कर रहे हैं कि हड़प्पा सभ्यता के नगरों का निर्माण अकस्मात हआ और उनकी योजना में एकरूपता थी। हड़प्पा-सभ्यता के शहर नदियों के बाढ़ वाले मैदानों, रेगिस्तान के किनारों पर या समद्री तट पर स्थित थे।

इसका मतलब है कि अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को तरह-तरह की प्राकतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जब उन्होंने स्वयं को वातावरण के अनुकल ढालना सीखा तो उन्हें अपनी नगर-योजना और जीवन शैली में भी विविधता लाने पर विवश होना पड़ा। बहुत सी बड़ी और मालपूर्ण इमारतें निचले नगर में स्थित थीं। अब कुछ महत्वपूर्ण बस्तियों की योजना पर फिर से विचार किया जाएगा। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीगन बस्तियों की नगर-योजना में कुछ समानताएं हैं। ये शहर दो भागों में विभाजित थे।

इन शहरों के पश्चिम में किला बना होता था और बस्ती के पूर्वी सिरे पर नीचे एक नगर बसा होता था। यह दुर्ग या किला ऊँचे चबूतरे पर, कच्ची इंटों से बनाया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्ग में बड़े-बड़े भवन होते थे जो संभवतः प्रशासनिक या धार्मिक केन्द्रों के रूप में काम करते थे। निचले शहर में रिहायशी क्षेत्र होते थे। मोहनजोदड़ो और हड़ाप्पा में किलों के चारों ओर ईंटों की दीवार होती थी।

कालीबरन में, दुर्ग और निचले शहर दोनों के चारों ओर दीवार थी, निचले शहर में सड़कें उत्तर से दक्षिण की ओर जाती थीं और समकोण बनाती थीं। स्पष्टतः सड़कों और घरों की पंक्तिबद्वता से पता चलता है कि नगर-योजना के बारे में वे लोग कितने सचेत थे। फिर भी, उन दिनों नगर आयोजकों के पास साधन बहुत सीमित थे। यह पूर्वधारणा मोहनजोदड़ो और कालीबंगन से मिले प्रमाणों पर आधारित है, जहां गलियाँ और सड़कें अलग-अलग ब्लाकों में अलग-अलग तरह की हैं और मोहनजोदड़ो के एक भाग मोनार क्षेत्र में सड़कों तथा इमारतों की पंक्तिबद्वता शेष क्षेत्रों से बिल्कुल भिन्न है। मोहनजोदड़ो का निर्माण एक सी सपाट इकाइयों में नहीं किया गया था।

वास्तव में, इसका निर्माण अलग-अलग समय में हुआ। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भवनों और इमारतों के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया। कालीबंगन में कच्ची ईंटें प्रयोग की गई। सिंध में कोट-दीजी और अमरी जैसी बस्तियों में नगर की किलेबंदी नहीं थी। गुजरात में स्थित लोथल का नक्शा भी बिल्कुल अलग सा है।

यह बस्ती आयताकार थी जिसके चारों तरफ ईंट की दीवार का घेरा था। इसका कोई आन्तरिक विभाजन नहीं था, अर्थात् इसे दुर्ग और निचले शहर में विभाजित नहीं किया गया था। शहर के पूर्वी सिरे में ईंटों से निर्मित कुण्ड सा पाया गया, जिसे इसकी खुदाई करने वालों ने बन्दरगाह के रूप में पहचाना है। कच्छ में सकोटड़ा नामक बस्ती दो बराबर के हिस्सों में बंटी हुई थी और यहां के निर्माण में मूलतः कच्ची मिट्टी की ईंटों और मिट्टी के ढेलों का इस्तेमाल किया गया था।

हड़प्पा-सभ्यता के निवासी पकी हुई और बिना पकी ईंटों का इस्तेमाल कर रहे थे। इंटों का आकार एक जैसा होता था। इससे पता चलता है कि हर मकान मालिक अपने मकान के लिए ईंटें स्वयं नहीं बनाता था, बल्कि ईंटें बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता था। इसी तरह, मोहनजोदड़ो जैसे शहरों में सफाई की व्यवस्था उच्चकोटि की थी। घरों से बहने वाला बेकार पानी नालियों से होकर बड़े नालों में चला जाता था जो सड़कों के किनारे एक सीध में होते थे। इस बात से फिर यह संकेत मिलता है कि उस जमाने में भी कोई ऐसी नागरिक प्रशासन व्यवस्था रही होगी जो शहर के सभी लोगों के हित में सफाई संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए निर्णय लेती थी।

कुछ विशाल इमारतें

हड़प्पा. मोहनजोदड़ो और कालीबंगन में किले के क्षेत्रों में बड़ी विशाल इमारतें थीं जिनका प्रयोग विशेष कार्यों के लिा किया जाना होगा। यह तथ्य इस बात से स्पष्ट होता है कि ये इमारतें कच्ची ईंटों से बने ऊँचे-ऊँचे चबूतरों पर खड़ी की गई थीं। इनमें से एक इमारत, मोहनजोदड़ो का प्रसिद्ध “विशाल स्नान कण्ड” है। ईंटों से बने इस कण्ड की। लम्बाई-चौड़ाई 12 मी.x 7 मी. और गहराई 3 मी. है।

इस तक पहुँचने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियाँ हैं। कण्ड के तल को डामर से जलरोधी बनाया गया था। इसके लिए पानी पास ही एक कक्ष में बने बड़े कएं से आता था। पानी निकालने के लिए भी एक ढलवाँ । नाली थी। कण्ड के चारों तरफ मण्डप और कमरे बने हुए थे। विद्वानों का मत है कि इस स्थान का उपयोग राजाओं, या पुजारियों के धार्मिक स्नान के लिए किया जाता था।

मोहनजोदड़ो के किले के टीले में पाई गई एक और महत्वपूर्ण इमारत है, अन्नभण्डार। इसमें ईंटों से निर्मित सत्ताईस खण्ड (Blocks) हैं जिनमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हुए हैं। अन्नभण्डार के नीचे ईंटों से निर्मित खांचे थे जिनसे अनाज को भण्डारण के लिए ऊपर पहुँचाया जाता था। हालांकि कुछ विद्वानों ने इस इमारत को अन्न-भण्डारण का स्थान मानने के बारे में संदेह व्यक्त किया है किन्त इतना निश्चित है कि इस इमारत का निर्माण किसी खास कार्य के लिए किया गया होगा।

विशाल स्नान-कुण्ड के एक तरफ एक लम्बी इमारत (230 x 78 फुट) है जिसके बारे में अनुमान है कि वह किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वर्ग फट का खुला प्रांगण है और उस पर तीन बरांडे खुलते हैं। महत्वपूर्ण भवनों में एक सभा-कक्ष भी था। इस सभा-कक्ष में पांच-पांच ईंटों की ऊँचाई की चार चबतरों की। पंक्तियां थीं। यह ऊँचे चबूतरे ईंटों के बने हुए थे और उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की तरफ कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में पाई गई है।

हड़प्पा की प्रसिद्ध इमारतों में से एक अन्नभण्डार है। इसमें एक क्रम में ईंटों के चबूतरे  (Platform) बने हुए थे जो अन्नभण्डारों के लिए नींव का काम देते थे। इन पर बने अन्नभण्डारों की दो कतारें थी और प्रत्येक कतार में छः अन्नभण्डार थे। अन्नभण्डार के दक्षिण में ईंटों के गोल चबूतरों की कई कतारें थीं। फर्श की दरारों में पाया गया गेहूँ और जौ का भूसा यह सिद्ध करता है कि इन गोल चबूतरों का इस्तेमाल अनाज गाहने (अनाज से भूसी अलग करने) के लिए किया जाता था।

कालीबंगन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की तुलना में छोटा था। यहां की गई खुदाई में सबसे महत्वपूर्ण खोज है अग्नि-कुण्डों का पाया जाना। यहां ईंटों के बने बहुत से चबूतरे पाए गए हैं। इनमें से एक चबूतरे पर एक पंक्ति में बने सात “अग्नि-कुण्ड” और एक गड्ढे में पशुओं की हड्डियां तथा मृगभंग पाए गए हैं।

घरों की बनावट

औसत दर्जे के नागरिक निचले शहर में भवन-समहों में रहा करते थे। यहां भी घरों के आकार-प्रकार में विविधताएं हैं। एक कोठरी वाले मकान शायद दासों के रहने के लिए थे। हड़प्पा में अन्नभण्डार के नजदीक भी इसी तरह के मकान पाए गए हैं। दूसरे मकानों में आंगन और बारह तक कमरे होते थे और अधिक बड़े मकानों में कुएं, शौचालय एवं गुसलखाने भी थे। इन मकानों का नक्शा लगभग एक जैसा था-एक चौरस प्रांगण और चारों तरफ कई कमरे। घरों में प्रवेश के लिए संकीर्ण गलियों से जाना पड़ता था। सड़क की तरफ कोई खिड़की नहीं होती थी। इसका मतलब यह हुआ कि मकान की ईंट की दीवारों का मुंह सड़क की ओर होता था।

हड़प्पा-सभ्यता के मकानों और नगरों के विवरण से पता चलता है कि ऐसे लोग भी थे जिनके पास बड़े-बड़े मकान थे। उनमें से कुछ तो विशिष्ट तरणताल में नहाते थे। अन्य लोग बैरकों (Barracks) में रहते थे। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बड़े-बड़े मकानों में रहने वाले लोग धनी वर्ग के थे जबकि बैरकों (Barracks) में रहने वाले लोग मजदूर और दास वर्ग के रहे होंगे।

निचले शहर के मकानों में काफी बड़ी संख्या में कर्मशालाएं भी थीं। कुम्हारों के भट्टों, रंगसाजों के हौजों और धातु का काम करने वालों, सीपी-शंख के आभूषण बनाने वालों और मनके बनाने वालों की दुकानों की पहचान कर ली गई है।

मिट्टी के बर्तन

हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में पाए गए अवशेषों में मिट्टी के बर्तन विशेष स्थान रखते हैं। इनमें बलूचिस्तान की मृत्तिका-शिल्प की परम्पराओं और सिन्धु व्यवस्था के पूर्व की संस्कृतियों का मेल हुआ जान पड़ता है। हड़प्पा की सभ्यता के मिट्टी के बर्तनों में से अधिकांश बिल्कुल सादे हैं, लेकिन काफी बर्तनों पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग से की गई चित्रकारी भी पाई गई है।

रंग से की गई चित्रकारी में विविध मोटाई की सपाट लाइनें, पत्तियों के नमूने, तराजू, । चारखाने, जाली का काम, ताड़ और पीपल वृक्ष शामिल हैं। पक्षियों, मछलियों और पशुओं को भी दर्शाया गया है। इन बर्तनों की आकृतियों में खास हैं पैडेस्टल (Pedestal), बर्तन, थाली, पानपात्र, चारों और छिद्रित बेलनाकार बर्तन और विभिन्न तरह के कटोरे-कटोरियाँ।

मिट्टी के बर्तनों पर बनी आकृतियों और चित्रकारी में एकरूपता के कारण स्पष्ट करना या बताना कठिन है। इस एकरूपता का सामान्यतः स्पष्टीकरण यही है कि मिट्टी के ये बर्तन स्थानीय कुम्हारों द्वारा बनाए जाते थे। किन्तु, गुजरात और राजस्थान जैसे क्षेत्रों में अन्य अनेक तरह के बर्तन भी बनाए जा रहे थे। मिट्टी के कुछ बर्तनों पर मुद्रा के निशान पाए जाने से संकेत मिलता है कि कुछ खास किस्म के बर्तनों का व्यापार भी किया जाता था। फिर भी, अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इतने विशाल क्षेत्र में मिट्टी के बर्तनों की परम्परा में एकरूपता कैसे संभव हुई।

औजार और उपकरण

हड़प्पा-सभ्यता के निवासियों द्वारा इस्तेमाल किए गए औजारों और उपकरणों के आकार-प्रकार तथा उत्पादन की तकनीक में भी आश्चर्यजनक एकरूपता दिखाई पड़ती है। वे तांबा, कांसा और पत्थर के बने औजारे का प्रयोग करते थे उनके मल औजार तांबे तथा कांसे के थे। इनमें चपटी कुल्हाड़ी, छैनी, चाकू हरावल और वाणाग्र मुख्य रूप से पाए जाते हैं। सभ्यता के आगे के चरणों में वे छुरे, चाकू और चपटे तथा तीखी नोक वाले औजारों का भी प्रयोग करने लगे थे। वे कांसे और तांबे की ढलाई की तकनीक जानते थे। पत्थर के । औजारों का भी आम इस्तेमाल होता ही था।

सिंध में सुक्कूर जैसे उद्योग क्षेत्रों में इन औजारों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जाता था और फिर ये औजार विभिन्न शहरी केन्द्रों को भेजे जाते थे। औजारों के आकार-प्रकार में एकरूपता का यही कारण था। “प्रारम्भिक-हडप्पा” काल में औजार बनने की  परम्पराओं में विविधता थी, लेकिन बाद में हुई प्रगति के युग में हड़प्पा-सभ्यता के निवासियों ने लम्बे, पैनी धार वाले, सव्यवस्थित औजारों का ही निर्माण किया जो उनकी उच्चस्तरीय क्षमता और विशिष्टता का संकेत देते हैं। पर, इन औजारों को सुन्दर बनाने और उनमें नवीनता लाने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

कला और शिल्प

कलाकृतियों से यह जानकारी मिलती है कि समाज किस तरह अपने वातावरण, अपने परिवेश और परिस्थितियों से जुड़ता है या जुड़ने की कोशिश करता है। कलाकृतियां हमें यह भी बताती हैं कि समाज, प्रकृति, मानव और ईश्वर के प्रति क्या विचार रखता है। पूर्व आधुनिक समाजों के अध्ययन में कला और शिल्प को अलग करना कठिन काम है। अतः उनका एक साथ अध्ययन किया जाएगा।

मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई गई हड़प्पा-सभ्यता की संभवतः सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है नृत्य की मुद्रा में नग्न स्त्री की एक कांस्यमूर्ति। सिर पीछे की ओर झुकाए, आंखें झुकी हुई, दाई भजा कल्हे पर टिकाए और बाईं भुजा नीचे लटकी हुई दर्शाने वाली यह मर्ति नत्य की स्थिर मुद्रा में है। स्त्री प्रतिमा ने बहुत सारी चूड़ियां पहनी हुई हैं और उसके बालों को सन्दर वेणी बनी हुई है। इस मर्ति को हड़प्पा-कला का अद्वितीय नमना माना जाता है। भैंसे और भेड़ की छोटी-छोटी कांस्य प्रतिमाओं में पशुओं की मुद्राओं को सुन्दर ढंग से पेश किया गया है। खिलौनों के रूप में कांसे की दो गाड़ियां भी बहुत आकर्षक एवं प्रसिद्ध हैं। हालांकि इनमें से एक हड़प्पा में पाई गई थी और दूसरी 650 कि. मी. दूर चान्हू-दारों में-फिर भी इन दोनों की बनावट एक जैसी है।

मोहनजोदड़ो में पाई गई दाढ़ी वाले सिर की प्रस्तर प्रतिमा भी बड़ी प्रसिद्ध कलाकृति है। चेहरे पर दाढ़ी है परन्तु मूंछ नहीं है। अर्ध-मुदित आंखें शायद विचारमग्न मुद्रा को दर्शाती हैं। बाएं कंधे के दोनों ओर एक आवरण पड़ा है जिस पर तिपतिया पैटर्न की सुन्दर नक्काशी की हुई है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह पुजारी की अर्ध-प्रतिमा है।

हड़प्पा की खुदाई में पाई गई दो पुरुषों की अर्ध मूर्तियों के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे बाद के युग की रही होंगी। प्रतिमा के मांसल भागों को इस खूबसूरती और वास्तविकता से तराशा गया है कि देख कर आश्चर्य होता है। फिर भी, ऐसा लगता है कि हड़प्पा-सभ्यता के लोग अपनी कला-कृतियों के लिए प्रस्तर या कांसे का इस्तेमाल बहुत अधिक नहीं करते थे। इस तरह की कलाकृतियां बहुत कम संख्या में पाई गई हैं।

हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों से पक्की मिट्टी की लघु मूर्तियां बड़ी संख्या में पाई गई हैं। इनका प्रयोग खिलौनों या पूजा-उपासना के लिए किया जाता था। ये लघु मूर्तियां विभिन्न तरह के पक्षियों, बन्दरों, कुत्तों, भेड़ों, मवेशियों और कूबड़दार तथा कूबड़रहित सांडो को हैं। स्त्री और पुरुषों की छोटी-छोटी मूर्तियां भी बड़ी तादाद में मिली हैं। पक्की मिट्टी (Terracotta) की बनी तरह-तरह की गाड़ियों-ठेलों के नमूने भी मूर्ति कला में असाधारण सजीवता को प्रदर्शित करते हैं। इन नमूनों को देखकर लगता है कि आधुनिक काल में इस्तेमाल की गई बैलगाड़ियों का स्वरूप हड़प्पा-युग की बैलगाड़ियों का ही परिवर्तित रूप है।

हड़प्पा-सभ्यता के लोग गोमेद, फीरोज़ा, लाल-पत्थर और सेलखड़ी जैसे बहुमूल्य एवं अर्थ-कीमती पत्थरों से बने अति सुन्दर मनकों का प्रयोग करते थे। इन मनकों को बनाए जाने की प्रक्रिया चान्ह-दारों में एक कारखाने के पाए जाने से स्पष्ट हो जाती है। इस प्रक्रिया में पत्थर को आरी से काट कर पहले तो आयताकार छड़ में बदल दिया जाता था, फिर उसके बेलनाकार टुकड़े करके पॉलिश से चमकाया जाता था। अन्त में, चर्ट बरमे या कांसे के नलिकाकार बरमे से उनमें छेद किया जाता था। सोने और चांदी के मनके भी पाए गए हैं। मनके बनाने के लिए सबसे अधिक सेलखड़ी का प्रयोग किया जाता था।

तिपतिया पैटर्न के बेलनाकार मनकों का संबंध विशेष रूप से हड़प्पा-सभ्यता से जोड़ा जाता है। लाल पत्थर के मनके भी बहत संख्या में पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो में गहनों का ढेर भी पाया गया है। जिसमें सोने के मनके, फीते और अन्य आभूषण शामिल हैं। चांदी की थालियां भी पाई गई हैं।

 

हड़प्पा की बस्तियों से 2000 से अधिक मुहरें (Seals) पाई गई हैं। इन्हें प्राचीन शिल्पकारिता के क्षेत्र में सिन्ध घाटी का उत्कृष्ट योगदान माना जाता है। ये आम तौर पर चौकोर होती थीं और सेलखड़ी की बनी होती थीं लेकिन कुछ गोल महरें भी पाई गई हैं। महरों पर अर्थ-चित्रलिपि में संकेत चिन्हों से सम्बद्ध अनेक तरह के जानवरों के आकार बने होते थे। कछ महरों पर केवल लिपि उत्कीर्ण है जबकि कछ अन्य पर मानव और अर्ध-मानव आकृतियां बनी हुई हैं। कुछ मुहरों पर ज्यामिति से संबंधित विभिन्न नमूने बने हुए हैं।

दर्शाई गई पशु आकृतियों में भारतीय हाथी, गवल (Bish) ब्राहम्नी सांड, गैंडा और बाघ प्रमुख हैं। अनेक तरह के संयुक्त पशु भी दर्शाए गए हैं। इस तरह की एक आकृति में मनुष्य के चेहरे पर हाथी की सूंड और दांत बने हुए हैं, सिर पर सांड के सींग हैं, अग्रभाग मेष का है और पीछे का भाग बाघ का। अनेक मुहरों में यह आकृति पाई गई है। इस तरह की महरों को धार्मिक प्रयोजन के लिए प्रयोग किया जाता होगा। महरों का प्रयोग बड़े शहरों के बीच माल के विनिमय के लिए भी किया जाता होगा। पशओं से घिरे और योग की मुद्रा में बैठे सींगयुक्त देवता को दर्शाने वाली मुहर को भगवान् पशुपति से संबंधित माना गया है। हड़प्पा-सभ्यता की कलाकृतियाँ हमें दो कारणों से निराश करती हैं:

  • पाई गई कलाकृतियों की संख्या बहुत सीमित है और
  • उनमें अभिव्यक्ति की उतनी विविधता नहीं है जितनी मिश्र और मेसोपोटामिया की समकालीन सभ्यताओं की कलाकृतियों में पाई गई है।

हड़प्पा-सभ्यता की प्रस्तर मूर्तिकला मिश्र के लोगों की मूर्तिकला की तुलना में सीमित और अविकसित थी। पक्की मिट्टी की कलाकृतियां भी स्तर में उतनी अच्छी नहीं थीं जितनी कि वे जो मेसोपोटामिया में बनाई जाती थीं। संभव है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए कपड़ों पर आकृतियाँ बनाई हों और रंगचित्रों का प्रयोग किया हो जो कम टिकाऊ होने के कारण समय के साथ नष्ट हो गए हों।

सिन्धु-लिपि

हड़प्पा-सभ्यता के लोगों द्वारा प्रयोग की गई मुहरों (Seals) पर लिखावट होती थी। यह लिपि अभी तक पढ़ी न जा सकने के कारण रहस्य बनी हुई है। प्राचीन मिश्र की लिपियों जैसे अन्य विस्मत लिपियों को दबारा पढ़ना इसलिए संभव हो सका क्योंकि विस्मत लिपि में लिखित कुछ लेख बाद में एक परिचित लिपि में पाए गए हैं।

इस परिचित लिपि के कुछ अक्षर विस्मृत लिपि के अक्षरों से मिलते-जुलते थे। हड़प्पा में कोई द्विभाषिक लेख अभी तक नहीं मिले हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि हड़प्पा-निवासी कौन सी भाषा बोलते थे और उन्होंने क्या लिखा। दुर्भाग्यवश, अब तक पाए गए लेख बहुत संक्षिप्त हैं और महरों (Seals) पर खदे हए हैं। इस कारण उन्हें पढ़ पाना और भी कठिन हो जाता है। हड़प्पा-निवासी चित्राक्षरों का प्रयोग करते थे और दाईं से बाईं ओर लिखते थे। किन्तु, विद्वान अभी भी इस लिपि के रहस्य को खोलने की कोशिश में लगे हुए हैं। इस कार्य में सफलता मिलने पर हड़प्पा की सभ्यता के बारे में और भी जानकारी प्राप्त होगी।

जीवन-यापन का स्वरूप

हड़प्पा-सभ्यता की शहरी आबादी कृषि उत्पादन पर निर्भर करती थी। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई के दौरान हड़प्पा-सभ्यता के लोगों की आहार संबंधी आदतों के बारे में वृहत जानकारी प्राप्त हई है। ऐसा लगता है कि भेड़ और बकरी के अलावा, कबड़दार मवेशियों को भी पाला जाता था। बहत सी बस्तियों में सूअर, भैंस, हाथी और ऊँट की हड्डियां भी पाई गई हैं। अभी तक यह निश्चित नहीं है कि ये जानवर पाले जाते थे या उनका शिकार किया जाता था। फिर भी, कुछ मुहरों पर एक सुसज्जित हाथी के चित्र से यह संकेत मिलता है कि इस जानवर को पालतू बना लिया गया था। मुर्गों की हड्डियां भी पाई गई हैं।

संभवतः उन्हें पालतू बना लिया गया था। जंगली जानवरों की हड्डियां भी बड़ी तादाद में पाई गई हैं। उनमें हिरण, गैंडे, कछुए आदि की हड्डियां शामिल हैं। हड़प्पा काल में लोग घोड़ों के विषय में शायद नहीं जानते थे

हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में गेहूँ की दो किस्में अधिक पाई गई हैं। अन्य फसलों में खजूर और फलदार पौधों की किस्में शामिल हैं, जैसे कि मटर। उनके अलावा इस काल में सरसों और तिल की फसल भी होती थी। लोथल और रंगपर में चिकनी मिटटी में और मिटटी में बर्तनों में चावल की भूसी दबी हुई पाई गई है। यह नहीं कहा जा सकता कि चावल की ये किस्में जंगली थीं या नियमित रूप से उगाई जाने वाली किस्में।

भारत अपने परम्परागत सती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मोहनजोदडो में सती कपडे का एक टुकड़ा पाया गया है जिससे पता चलता है कि हड़प्पा-सभ्यता के लोग कपास की खेती करने और कपड़े बनाने-पहनने की कला में निपुण हो चुके थे।

कालीबंगन में खांचेदार खेत के प्रमाण मिले हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि हड़प्पा-सभ्यता के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। इस क्षेत्र में अभी भी एक दिशा में काफी दूर-दूर और एक दिशा में बहुत पास-पास आड़े-तिरछे खांचे बनाने की पद्धति प्रचलित है।। आधुनिक कृषक अपने खेत में इसी ढंग से खांचे बना कर एक तरफ कुलथी या तिल की खेती करता है और दूसरी तरफ सरसों की। हड़प्पा की सभ्यता के किसान भी शायद यही करते थे।

इस तरह, यह पाया गया है कि हड़प्पा-युग में जीवन-निर्वाह की व्यवस्था अनेक प्रकार की फसलों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों पर निर्भर थी। इस विविधता के कारण ही। जीवन-निर्वाह व्यवस्था मजबूत बनी हुई थी। वे प्रति वर्ष एक साथ दो फसलें उगा रहे थे। इससे अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो गई थी कि नगरों में रहने वाली और अपने लिए अन्न का उत्पादन खुद न करने वाली बड़ी जनसंख्या का भरण-पोषण किया जा सकता था।

सारांश

इस इकाई में आपने हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों की भौगोलिक स्थिति और भौतिक विशेषताओं के बारे में पढ़ा है। भौतिक विशेषताओं की एकरूपताओं के कारण हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और घग्घर क्षेत्र में जीवन-निर्वाह के एक जैसे तरीके सामने आए। किन्तु अन्य ऐसे स्थान भी थे, जहां जीविका के स्वरूप में वहां की परिवर्ती भौगोलिक विशेषताओं के कारण विविधता थी।

हड़प्पा की सभ्यता के लोगों की नगर-योजना अत्यंत कशल थी। हड़प्पा-सभ्यता के नगरों में मकान और वहां की जलनिकास प्रणाली को देख कर हड़प्पा की सभ्यता के लोगों की अनोखी भौतिक उपलब्धियों का पता चलता है। हडप्पा युग के मिट्टी के बर्तनों, औजारों और उपकरणों में काफी हद तक एकरूपता पाई जाती हैं।

हड़प्पा-सभ्यता की मुहरें (Seals) और मनके कारीगरी के सुन्दर नमूने हैं लेकिन उनकी प्रस्तर मूर्तिकला और पक्की मिट्टी की लघु मूर्तियां तकनीकी उत्कृष्टता में समकालीन मिश्र और मेसोपोटामिया की कला का मुकाबला नहीं कर सकतीं। हड़प्पा सभ्यता की जीवन-निर्वाह व्यवस्था अनेक फसलों की खेती और पालतू जानवरों पर निर्भर करती थी। इससे वहां की अर्थव्यवस्था नगरों में बसे लोगों का भरण-पोषण करने में समर्थ हो सकी। नगरों में रहने वाले लोग अपने अन्न का उत्पादन स्वयं नहीं करते थे। उनके लिए खाद्यान्न निकटवर्ती क्षेत्रों से आता था।

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