प्रशासनिक संगठन और अन्य शक्तियों के साथ सम्बन्ध

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • उस विशाल प्रशासनिक ढांचे को समझ सकेंगे जिसे मगध साम्राज्य ने बनाया।
  • इस युग के प्रशासन की विभिन्न इकाइयों, उनके अधिकार और कार्यभार से परिचित हो सकेंगे।
  • विभिन्न स्तरों पर प्रशासन करने के ढंग में अन्तर कर सकेंगे
  • सेना गुप्तचरी और वैधानिक प्रणाली का महत्व समझ सकेंगे
  • अन्य शक्तियों के साथ मौर्यों के सम्बन्ध तथा उनके साथ नीति में जो परिवर्तन आये उन्हें समझ सकेंगे।

तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व तक मौर्यराज्य, जिसका केन्द्र मगध था, सुदृढ़ रूप से संस्थापित हो चुका था। एक विशाल राज्य क्षेत्र के नियंत्रण के लिए उपयुक्त प्रशासनिक संयंत्र भी मौजूद था। उस संयंत्र के अन्तर्गत प्रशासन के विभिन्न स्तर थे। इनमें प्रमुख था साम्राज्य का केन्द्रीय प्रशासकीय क्षेत्र मगध, प्रान्तीय केन्द्र, परिधि पर स्थित क्षेत्र, नगर तथा गांव, आदि। राजा के प्रभुत्व को बनाए रखने और उसके आदेश का पालन करने के अलावा प्रशासन के कार्यकलाप में, न्याय, सेना, गुप्तचरी, राजस्व जमा करना, हस्त शिल्प इत्यादि शामिल थे। इस इकाई में इन्ही सब विषयों पर प्रकाश डाला गया है। साहित्यिक स्रोतों में अर्थशास्त्र तथा यूनानियों के वृतान्त और अशोक के समय के शिलालेखों के आधार पर, हम मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था का ठीक तरह से अनुमान लगा सकते हैं।

इसके अलावा इस इकाई में हम अन्य समकालीन भारतीय और विदेशी शक्तियों से मौर्यों के सम्बन्ध पर भी विचार करेंगे। लेकिन इससे पहले उस पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है, जिसके कारण मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था सामने आयी।

पृष्ठभूमि

चंद्रगुप्त मौर्य के समय तक मगध का महाजनपद एक शक्तिशाली साम्राज्य का केन्द्र बन चुका था। ईसा पूर्व छठी शताब्दी की स्थिति के विपरीत इसका प्रभाव क्षेत्र, गंगा के मैदान तक ही सीमित नहीं था। दक्षिण के अन्दरूनी क्षेत्रों तथा पूर्वी क्षेत्रों और उत्तर-पूर्व के इलाकों को छोड़ कर लगभग समस्त भारतीय उप महाद्वीप मौर्यों के नियंत्रण में आ चुका था।

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि इस समय तक :

  • अब भी कुछ ऐसी जनजातियां घने जंगलो में रहती थी जो शिकार तथा भोजन संग्रहण द्वारा ही जीवन निर्वाह करती थी
  • ऐसे क्षेत्र थे विशेषकर गंगा घाटी में,
  • जहाँ अतिरिक्त कृषि उत्पादन था
  • शहरी बस्तियाँ, व्यापार और दस्तकारी उद्योग का केंद्र बन चुकी थीं
  • अपनी आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से राज्य अतिरिक्त उत्पादन हासिल करता था

मगध की निरंतर विजय और विस्तार में अनेक कारकों का योगदान था जिन्होंने उसे एक बड़े साम्राज्य का रूप दिया जैसे राज्य द्वारा राजस्व बढ़ाने का प्रयास। इस प्रयास में ऐसी जमीनों पर नियंत्रण किया गया। जिससे अतिरिक्त उत्पादन हो सके ताकि राज्य इसे वसूल कर सके; व्यापारियों पर कर लगाना; खान और व्यापार मार्गों पर नियंत्रण इत्यादि। उदाहरण के लिए, अशोक की कलिंग पर विजय, पूर्वी भारत के तटीय व्यापार को अपने नियंत्रण में करने की इच्छा से प्रेरित थी। इसी प्रकार कर्नाटक के इलाके पर कब्जा करने का उद्देश्य कोलार की सोना खाने हो सकती हैं।

अतिरिक्त उत्पादन को हासिल करने, तथा उसके वितरण या व्यय की समस्या ने एक जटिल प्रशासनिक व्यवस्था का होना अनिवार्य बना दिया। यह व्यवस्था विभिन्न स्तरों पर आर्थिक, राजनैतिक, और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए भी जरूरी थी। अन्य क्षेत्रों पर विजय के लिए एक शक्तिशाली सेना की जरूरत थी, और सेना को संगठित करने तथा उसकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक कुशल प्रशासन का होना जरूरी था। उसी तरह व्यापारियों से कर या उत्पादकों से अतिरिक्त उत्पादन वसूल करना हो तो एक ऐसा प्रशासनिक ढाँचा चाहिए था जो नियम बनाये और उन्हे लागू भी करें अर्थात् वसूली भी करें। काफी समय से जो पद्धतियां और संस्थाएं विकसित हो रही थीं मौर्य प्रशासन ने उन्हें एक ठोस रूप दिया। मौर्य प्रशासन के कामकाज का ढंग अत्यन्त सुव्यवस्थित था। हम इन्हीं सम्बंधित विषयों पर विचार करेंगे।

मोटे तौर पर प्रशासन की केन्द्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय इकाइयां तथा अन्य संबंधित विषयों की भी चर्चा की जाएगी।

केन्द्रीय प्रशासन

“मौर्य साम्राज्य का प्रशासन केन्द्र और प्रान्तीय क्षेत्रों से लेकर गाँव तक अनेक प्रशासनिक इकाइयों में। विभाजित था। इन सभी इकाइयों के अपने अलग-अलग प्रशासनिक ढाँचे तो थे, पर यह सभी, एक केन्द्रीय प्राधिकार से नियंत्रित होते थे। केन्द्रीय प्रशासन को निम्नलिखित भागों में बांट सकते हैं:

  • राजा
  • मंत्रिपरिषद
  • नागरिक प्रशासन
  • सेना
  • गुप्तचर विभाग
  • विधि एवं न्याय
  • जन कल्याण

राजा

राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। नीति संबंधी प्रत्येक समस्या को खुद तय करता था तथा महत्वपूर्ण निर्णय भी स्वयं लेता था। अर्थशास्त्र इस बात की साफ तौर पर पुष्टि करता है कि, यदि किसी समस्या के सुलझाने में नीति शास्त्र और राजा के कानून में मतभेद होता था तो राजा का कानून ही मान्य होता था। वास्तव में मौर्य साम्राज्य में एक केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था थी जिसमें राजतंत्र, गणसंघ से कहीं अधिक प्रभावशाली था।

अर्थशास्त्र के अनुसार प्रशासन के प्रत्येक पहलू में राजा का आदेश या विचार ही सर्वोपरि था। इसके अनुसार, प्राचीन शास्त्रों में राज्य से संबंधित जिन मान घटकों (सप्तांग) का वर्णन है, राजा उनका केन्द्र था।

अर्थशास्त्र के अनुसार राजा की केन्द्रीय भूमिका है क्योंकि राजा ही :

  • मंत्रियों की नियुक्ति या निष्कासन करता है
  • जनता और कोष की रक्षा करता है
  • जनता की उन्नति और कल्याण के लिए काम करता है
  • दुराचारियों को दंडित करता है
  • अपने सद्चरित्र से प्रजा को प्रभावित करता है

हर जनसाधारण राजा नहीं हो सकता। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा में कुछ आवश्यक गुण होने चाहिए, जैसेः

  • वह उच्च कुल का हो
  • छोटे पदाधिकारियों और राजाओं पर प्रभुत्व जमा सके
  • बुद्धिमान हो
  • सत्यवादी हो
  • धर्म का रक्षक हो, इत्यादि।

अर्थशास्त्र के अनुसार राजा को कुछ विशेष क्षेत्रों में अत्यन्त निपुण होना चाहिए, जिससे वह अपना काम भली भांति कर सके। उसे सैनिक शिक्षा प्राप्त होना चाहिए और विभिन्न विभागों जैसे अर्थव्यवस्था (वर्त), लिपि आदि के बारे में पूर्ण ज्ञान हो। अर्थशास्त्र राजा के आचरण और उसके दैनिक कार्यक्रम पर भी प्रकाश डालता है।

राजा के एक निपुण प्रशासक होने के लिए अर्थशास्त्र में तीन बुनियादी शर्तों का वर्णन है:

  • ‘राजा हर समस्या पर बराबर से ध्यान दे
  • उसे सतर्क रहना चाहिए और उचित कार्यवाही करने के लिए तैयार रहना चाहिए
  • उसे अपनी जिम्मेदारी को भली भांति निभाना चाहिए

उसके अलावा उसे हमेशा अपने अधिकारियों और सलाहकारों के सम्पर्क में रहना चाहिए। अशोक के समय के शिलालेखों और मेगस्थनीज के वृतान्त से भी यह मालूम होता है कि राजा ऐसा ही करता था।

अशोक के समय तक मौर्य साम्राज्य भली भांति संगठित हो चुका था। इस दौरान एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि ऐसा विचार आया कि राजा को अपनी प्रजा के प्रति पिता के सामान व्यवहार करना चाहिए। धौली के लेख में अशोक कहता है:

प्रत्येक व्यक्ति मेरी संतान है, और जो कामना मैं अपनी संतान के लिए करता हूँ कि उसे इस संसार में दूसरे में भी, सुख और शांति मिले, वही कामना मैं प्रत्येक व्यक्ति के लिए करता हूँ। लेकिन इस पैतृक रवैये के साथ-साथ, सम्राट अपने अधिकार के बारे में पूरी तरह सचेत था। इसी शिलालेख में वह तोशाली और सम्पा के अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए कहता है:

मैं जो कुछ भी अनुमोदन करू मैं चाहता हूं कि उसे या तो उचित कार्यवाही करके या प्रभावकारी साधनों द्वारा प्राप्त किया जाये—यह मेरा तुम लोगों को निर्देश है।

उसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक के प्रशासन का मुख्य उद्देश्य प्रजा का कल्याण था, पर राजनैतिक विशलेषण के दृष्टिकोण से वह एक सम्राट था। रोमिला थापर के अनुसार, देवानापिय (देवताओं का प्रिय) की पदवी धारण करके अशोक ने ईश्वर और राजा के संबंध पर जोर देने का प्रयास किया, और शायद इस हद तक कि पुरोहित को भी एक माध्यम के रूप में शामिल नहीं किया। यह वास्तव में इस बात का संकेत है, कि धार्मिक समस्याओं में भी अब राजा ने अपने अधिकार का प्रयोग करना शुरू कर दिया था 

मंत्रिपरिषद

अर्थशास्त्र तथा अशोक के शिलालेख मंत्रिपरिषद का हवाला देते हैं। अर्थशास्त्र के अनुसार “राज्य का कार्य बिना किसी सहायता के नहीं चल सकता। इसके अनुसार रथ केवल एक पहिए से नहीं चलता इसलिए राजा को मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिये और उनकी सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए” इसी प्रकार गिरनार का अशोक का शिलालेख भी परिषद के कार्य के बारे में बताता है :

  • तीसरे शिलालेख से संकेत मिलता है कि मंत्रिमंडल से यह अपेक्षा की जाती थी कि इस पर नजर रखें कि विभिन्न अधिकारी नयी प्रशासनिक नीतियों को लागू कर रहे हैं अथवा नहीं।
  • चौथे शिलालेख के अनुसार राजा की अनुपस्थिति में मंत्री उसकी नीतियों पर विचार कर सकते हैं उसमें संशोधन करने की सलाह दे सकते हैं तथा जो भी महत्वपूर्ण समस्या राजा ने उनको सौंपी है उस पर निर्णय ले सकते हैं। पर परिषद को अपने विचारों से राजा को तुरन्त अवगत कराना होगा।

यद्यपि समय-समय पर परिषद के अधिकारों में फेर बदल आता रहा होगा, पर इसकी मुख्य भूमिका एक सलाहकार समिति की ही थी, क्योंकि अंतिम निर्णय लेने का अधिकार राजा का था। मंत्रिपरिषद के सदस्यों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी और कौटिल्य के अनुसार, यह आवश्यकता पर निर्भर होना चाहिए। पर उसके विचार में “बड़ी मंत्रिपरिषद राजा के लिए लाभदायक होती है”। उसने इन समस्याओं का भी वर्णन किया है जिन पर राजा को अपने मंत्रियों से सलाह लेनी चाहिए:

  • राज्य की परियोजनाओं को किस प्रकार कार्यान्वित किया जाये,
  • इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक जनशक्ति और पूँजी का अनुमान लगाना,
  • उन क्षेत्रों/स्थानों को निर्धारित करना जहाँ पर परियोजनाएं लागू करनी हैं,
  • तथा विपदाओं से निपटने के उपाय और हल सोचना।

कौटिल्य के अनुसार मंत्रिपरिषद में बहुमत के फैसले (भवियसित) के आधार पर परियोजनाओं का निर्णय होना चाहिए। पर यदि राजा समझता है कि बहुमत का फैसला लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उचित नहीं है तो उसे स्वयं निर्णय लेना चाहिए। वह स्पष्ट रूप से कहता है “मत्रियों को यह भली भाँति देखना चाहिए कि राजा के आदेश का पालन हो।”

एक रोचक पहलू जिसका वर्णन अर्थशास्त्र में है, उसका सम्बंध उन योग्यताओं से है जो किसी भी मंत्री की नियुक्ति के लिए जरूरी है, जैसे वह न तो धन का लोभी हो और न ही किसी दबाव में आये। उसे सर्वोपरि शुद्ध अर्थात सब से पवित्र होना चाहिए। अर्थशास्त्र में मंत्रियों के एक छोटे गुट का भी उल्लेख है जो ऐसी समस्याओं पर सलाह दें, जिनका हल तत्काल चाहिए! इस गुट को आंतरिक परिषद (मित्रगण) कहा गया है।

हमें अर्थशास्त्र में अट्ठारह विभागों का उल्लेख मिलता है। जैसे कर्मन्तिक का संबंध उद्योग की देखभाल से है, अन्तवैपिक का राजा की सुरक्षा से तथा सन्निधाता का राज्यकोष से, इत्यादि।

नागरिक प्रशासन

मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के प्रशासन का सुस्पष्ट वर्णन किया है। हालांकि, उसका वृतान्त अर्थशास्त्र से भिन्न है, फिर भी इससे हमें इस युग के नागरिक प्रशासन को समझने में काफी मदद मिलती है। इसके अनुसार नागरिक परिषद उपसमितियों में विभाजित थी और प्रत्येक समिति के पाँच सदस्य थेः

  • पहली समिति का काम उद्योग और शिल्प की देखरेख का था जिसमें केन्द्रों का निरीक्षण तथा मजदूरी निर्धारित करना आदि शामिल था।
  • दूसरी समिति विदेशियों की देखभाल, भोजन, आवास और सुरक्षा आदि की व्यवस्था करती थी।
  • तीसरी समिति का काम जन्म और मृत्यु का पंजीकरण करना था।
  • चौथी समिति वाणिज्य और व्यापार के लिये थी। मापतौल का निरीक्षण और बाजार और मण्डी का नियंत्रण उस समिति की जिम्मेदारी थी।
  • पांचवी समिति निर्मित वस्तुओं का निरीक्षण करती थी तथा उनकी बिक्री का प्रबन्ध करती थी नई तथा इस्तेमाल की गई वस्तुओं को अलग रखा जाता था और उस पर कड़ी दृष्टि रखी जाती थी।
  • छठी समिति का काम बिक्री कर वसूल करना था, जिसकी दर वस्तु के मूल्य की 1/10 थी।

रोचक बात यह है कि अर्थशास्त्र में नागरिक प्रशासन का विस्तृत ब्योरा तो है, पर उन समितियों का वर्णन नहीं है।

फिर भी अर्थशास्त्र की रूपरेखा में मेगस्थनीज द्वारा चर्चित समितियों के लगभग सभी कार्यों का वर्णन है। उदाहरण के लिए उपरोक्त वर्णित चौथी समिति का कार्य अर्थशास्त्र में वर्णित पणअध्यक्ष करता है, कर जमा करने की जिम्मेदारी (छठी समिति) शुल्काध्यक्ष की थी तथा गोप का कार्य जन्म एवं मृत्यु का पंजीकरण करना था। नागरिक प्रशासन का अध्यक्ष नागरिक कहलाता था।

उसकी सहायता के लिए दो अधिकारी थे – गोपा और स्थानिक। उसके अतिरिक्त बहुत से अन्य अधिकारी भी थे जिनके कार्यभार का बहुत विस्तार में वर्णन है। उदाहरण के लिए : 

  • बन्धनगराध्यक्ष कारगार की देखरेख करता था 
  • जनता की सुरक्षा की जिम्मेदारी रक्षी या पुलिस की थी
  • कार्यशालाओं, जहाँ वस्तुओं का निर्माण होता था, के कामकाज के लिए बहुत से प्रबन्धक थे, जैसे लौहाध्यक्ष, स्वर्णाध्यक्ष आदि

अर्थशास्त्र में नागरिक प्रशासन की बहुत सी गतिविधियों और उनसे संबंधित नियमों का भी वर्णन है तथा उन नियमों के पालन न करने पर दंड की भी चर्चा है। इसमें सम्मिलित थे:

  • स्वच्छता और जलस्रोत
  • मिलावट की रोकथाम
  • सारायों या यत्रियों के ठहरने के स्थानों की देखरेख
  • आग से सतर्कता

कानून लागू करने वाले कानून से ऊपर नहीं थे। उदाहरण के लिए, यदि रक्षिक (पुलिस कर्मचारी) ने नारी के साथ दुर्व्यवहार किया तो उसे अधिक कठोर दंड मिलता था। यदि कोई भी नागरिक नियमों का उल्लंघन करता था तो वह भी दंड का भागी होता था। जैसे, यदि कोई नागरिक कप! के दौरान रात के समय घर के बाहर दिखायी देता और यदि उसे कप! से छूट प्राप्त नहीं हो तो उसे बड़ा जुर्माना देना होता था इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इस युग में नागरिक प्रशासन विस्तृत और सुनियोजित था।

केन्द्रीय प्रशासन

केन्द्रीय प्रशासन के अन्तर्गत अन्य विभाग भी शामिल थे। फिर भी, कुछ कार्यों को लागू करने की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों की थी, जैसे जन कल्याण सम्बन्धी कार्यक्रम।

सेना

नन्द राजाओं के पास एक शक्तिशाली सेना थी, पर यह बात ध्यान देने की है कि नन्द राजा को परास्त करने के लिए कौटिल्य और चन्द्रगुप्त ने भाड़े के सैनिकों की सेना बनायी थी। इसका संदर्भ, यूनानी और भारतीय, दोनों प्रकार के साहित्यिक स्रोतों में मिलता है। बाद में, चन्द्रगुप्त की सेना काफी संगठित और बड़े आकार की बनाई गई। उदाहरण के लिए प्लीनी (Pliny) के वृतान्त के अनुसार सेना में नौ हजार हाथी, तीस हजार अश्वरोही तथा छह हजार पैदल सैनिक थे, जबकि प्लूटार्क (Plutarch) के अनुसार सेना के छह हजार पैदल हाथी, अस्सी हजार अश्वरोही, दो लाख पैदल सैनिक तथा आठ हजार युद्ध रथ शामिल थे। हो सकता है कि इन वृतान्तों में वास्तविकता को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया हो। लेकिन सेल्युकस का युद्ध में पीछे हटना, अर्थशास्त्र में सैनिक प्रशासन का विस्तृत वर्णन और अशोक के समय का हिंसात्मक कलिंग युद्ध जैसे प्रमाण इस बात की पुष्टि अवश्य करते हैं कि मौर्य शासन काल में एक विशाल सैनिक संगठन मौजूद था। मेगस्थनीज के अनुसार सेना की विभिन्न शाखायें इस प्रकार थीं :

  • पैदल सेना
  • घुड़सवार सेना
  • हाथी
  • रथ
  • यातायात और
  • नौसेना

प्रत्येक शाखा की देखरेख पाँच सदस्यों की एक समिति करती थी। कौटिल्य चतुरंगबल को (पैदल सेना, अश्वरोही सेना, रथ और हाथी) सेना का मुख्य अंग बताता है प्रत्येक विभाग एक सेनाध्यक्ष के अधीन था। इसके अतिरिक्त, कौटिल्य सेना की चिकित्सा सेवा की भी चर्चा करता है। अधिकारियों और सैनिकों को वेतन नकद मिलता था।

एक अलग विभाग विभिन्न प्रकार की युद्ध सामग्री और हथियारों के उत्पादन और अनुरक्षण के लिए था, जिसके प्रधान को अयुद्धगाराध्यक्ष कहते थे।

विभिन्न अध्यक्षों के कार्य का भी विस्तृत विवरण मिलता है। जैसे कि, रथाध्यक्ष को रथों के निर्माण का कार्य भी देखना पड़ता था, और हसत्याध्यक्ष की जिम्मेदारी हाथियों की देख रेख थी। अर्थशास्त्र में चयन नीति, युद्ध योजना और नाकाबन्दी आदि की भी चर्चा की गयी है।

इसमें संदेह नहीं है कि राज्य अपनी आमदनी का एक बड़ा भाग सेना के अनुरक्षण पर व्यय करता था, जिसका एक लम्बी अवधि के बाद राज्य कोष पर प्रतिकूल असर पड़ा होगा।

गुप्तचरी

सुसंगठित गुप्तचर विभाग मौर्य प्रशासन का महत्वपूर्ण अंग था जिसके द्वारा आम जनता से लेकर लगभग सारे अधिकारियों पर नजर रखी जाती थी। गुप्तचरों के प्रमुख कार्य इस प्रकार थेः

  • मंत्रियों पर नजर रखना
  • सरकारी कर्मचारियों की गतिविधियों की खबर रखना
  • आम जनता की भावनाओं को जानना
  • विदेशी शासकों की गुप्त गतिविधियों का पता लगाना

इन कार्यों के लिए गुप्तचरों को विभिन्न तरह के लोगों की सहायता लेनी पड़ती थी, जैसे रसोइया, नाई इत्यादि। सूचना प्राप्त करने के लिए वे सन्यासी, छात्र आदि का भेष भी धारण करते थे। आवश्यकता होने पर, महत्वपूर्ण विषयों की सूचना सीधे राजा को ही दी जाती थी। अर्थशास्त्र में सुव्यवस्थित गुप्तचरी की चर्चा की गयी है।

न्याय एवं दंड

सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को बनाये रखने तथा राजस्व की भली भाँति वसूली की आवश्यकता को समझते हुए मौर्यों ने एक सुसंगठित विधि व्यवस्था की स्थापना की। अर्थशास्त्र में विभिन्न अपराधों के लिए निर्धारित दंड की नियमावली मिलती है। विवाह और तलाक के कानूनों का उल्लंघन, हत्या, मिलावट, गलत नाप तौल आदि जैसे अनेक अपराधों का वर्णन उस नियमावली में है।

इन अपराधों की जाँच करने के लिए तथा विवाद को विभिन्न स्तरों पर निबटाने के लिए कई प्रकार की अदालतें थीं। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के न्यायालयों की चर्चा है:

  • धर्मास्थिय वह न्यायालय जो व्यक्तिगत विवाद हल करते थे।
  • कंटकाशोधन वह न्यायालय थे जो राज्य और व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित मामलों पर विचार करते थे।

उदाहरण के लिए न्यायालय का पहला वर्ग स्त्रीधन (पत्नी का धन) या विवाह संबधी विवादों को हल करता था। दूसरे प्रकार की अदालत मजदूरों के वेतन, उनके आचरण और हत्या आदि समस्याओं से सम्बंधित थीं। उन अदालतों पर विशेष प्रकार के नियंत्रण लागू होते थे। विवादों का विधिवत पंजीकरण होता था और सभी को गवाही देने और बहस करने का अवसर प्राप्त था।

कौटिल्य के अनुसार न्याय संहिता के निम्नलिखित स्रोत थेः

  • धर्म
  • व्यवहार-समकालिक विधि संहिताएं
  • चरित्र-रीतिरिवाज
  • राजशासन-राजसी आदेश

राजा धर्म का रखवाला था, और न्याय का सर्वोच्च अधिकार उसी के पास था। मेगस्थनीस के अनुसार अपराधों की संख्या अधिक नहीं थी। पर जिस प्रकार के दंडों का वर्णन अर्थशास्त्र में मिलता है उससे ऐसा प्रतीत होता है मौर्य समाज कानून के उल्लंघन और अपराधों से बचा हुआ नहीं था। इसीलिए एक कठोर दंड मंहिता की आवश्यकता थी पर प्रमाण और गवाह दोनों पर विशेष ध्यान दिया जाता था “निर्णायकों की एक समिति मुकदमें का फैसला करती थी, पर राजा के दरबार में याचना की व्यवस्था भी थी। यहां पर यह वात भी स्पष्ट हो जानी चाहिए, कि जैसा कि अर्थशास्त्र में उल्लेख है, उसके अनुसार एक ही अपराध के दंड का निर्णय अपराधी की जाति के अनुसार होता था। एक ही प्रकार के अपराध के लिए ब्राह्मण को शूद्र की तुलना में कम दंड मिलता था।

राजस्व प्रशासन

मौर्यकालीन राज्य की आमदनी के अनेक माध्यम थे। कौटिल्य ने उन विभिन्न स्रोतों का वर्णन किया है जिनसे राज्य की आय होती थी। इस विभाग की देखभाल सन्निधाता नामक अधिकारी करता था।

राजस्व के इन स्रोतों से राजस्व वसूलने के अलग-अलग तरीके थे। उदाहरण के लिए:

  • नगरों में आमदनी जुर्माना, बिक्री कर (शुल्क) आदि से होती थी। इसके अतिरिक्त शराब की बिक्री पर भी कर लगाया जाता था, धनवान लोगों के लिए एक प्रकार का आयकर भी था। अर्थशास्त्र में ऐसे 21 प्रकार के करों का वर्णन है जो शहरों में लगाये जाते थे।
  • राज्य भूमि से आमदनी, किसानों से लगान, फलोद्यान का कर, नौका शुल्क आदि ग्रामीण क्षेत्रों में राजस्व के मुख्य स्रोत थे।
  • समस्त खाने राज्य के नियंत्रण में थी। यह स्थायी रूप से राज्य की आमदनी का जरिया था।
  • सड़क या जलमार्ग से यात्रा करने वाले व्यापारियों पर कर लगाया जाता था।
  • आयात एवं निर्यात कर, आदि।

कुछ क्षेत्रों में राज्य सम्बंधित व्यक्तियों से सीधे वसूली करता था। जैसे जुआरियों को अपनी जीती हुई रकम का पाँच प्रतिशत राज्य को देना होता था। इसी प्रकार राज्य अधिकारियों द्वारा वस्तुओं के भार की जाँच और उससे सम्बंधित प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए व्यापारियों को शुल्क देना पड़ता था। शस्त्र उद्योग और नमक व्यापार को अपने नियंत्रण में लेने के कारण भी राज्य की आय में वृद्धि हुई। आमदनी को बढ़ाने के लिए, राज्य को आपात स्थिति में कर लगाने का अधिकार था। राजस्व को जमा करने और उसके विधिवत नियंत्रण के लिए कई विभाग भी थे। राजस्व का अधिकतर भाग राज्यकोष में जमा होता था तथा उसी से राजा, सेना, प्रशासन, अधिकारियों के वेतन आदि का खर्च पूरा होता था।

राजस्व व्यय

राजा को लगान में छूट देने का अधिकार था। जैसा कि हम जानते हैं कि अशोक ने लुम्बिनी गाँव में “भाग” घटा कर 1/8 कर दिया था, क्योंकि लुम्बिनी बुद्ध का जन्म स्थान था।

सार्वजनिक निर्माण

मौर्य राज्य में जनोपयोगी सेवाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मेगस्थनीज के वृतान्त और अर्थशास्त्र दोनों में इस विषय पर चर्चा की गयी है:

  • सिंचाई के साधनों की देखरेख के कार्य में राज्य काफी रुचि लेता था क्योंकि यह आय का एक प्रमुख स्रोत था। मेगस्थनीज ने संबंधित अधिकारियों का भी वर्णन किया है। अर्थशास्त्र में सिंचाई के भिन्न साधन, जैसे पोखर, बांध, नहर आदि की चर्चा की गयी है। पानी के सही उपयोग के लिए नियम भी बनाये गए। जिनका पालन न करना अपराध था। राज्य किसानों को स्वयं बाँध बनाने के लिए प्रोत्साहित करता था और उस कार्य के लिए लगान में छूट भी मिलती थी। रुद्रदमन के शिलालेख (दूसरी शताब्दी ईसवी में लिखा गया) में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में दर्शन नामक तड़ाग या झील का हवाला मिलता है। इसे पानी की सप्लाई के लिए बनाया गया था।
  • विभिन्न प्रकार के चिकित्सकों के बारे में काफी हवाले मिलते हैं, जिसमें साधारण वैद्य से लेकर मिडवाइफ (गर्भाव्याधि) तक शामिल थे। अशोक के शिलालेखों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि जनसाधारण और मवेशी दोनों के इलाज के लिए सुविधाएं प्राप्त थीं।
  • राज्य, अकाल और बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं के समय भी नागरिकों की सहायता करता था।
  • अर्थशास्त्र के अनुसार राजा को अनाथ तथा बेसहारा बूढ़ी औरतों की देखरेख करनी चाहिए। पर यह कहना मुश्किल है कि यह कहां तक लागू होता था।
  • जन सुविधाओं का एक पहलू था सड़कों की मरम्मत और सराय बनाना।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राज्य अपनी आमदनी का एक भाग जनसुविधाओं पर व्यय करता था। इस व्यय में, अशोक के काल में बढ़ोत्तरी अवश्य हुई होगी। इसका कारण था, जन कल्याण में अशोक की दिलचस्पी तथा प्रजा की ओर उसका पैतृक रवैया।

प्रशासन की क्षेत्रीय तथा स्थानीय इकाइयाँ

जैसा कि हम जानते हैं कि मौर्य राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यधिक केन्द्रीकृत थी और सारे अधिकार राजा के पास थे। लेकिन इतनी प्रशासकीय व्यवस्था सफल नहीं हो सकती थी जब तक कि विभिन्न प्रशासनिक इकाइयाँ क्षेत्रीय तथा स्थानीय स्तर पर न हों। सीमा के बाद मौर्यों ने प्रान्तीय तथा स्थानीय स्तर पर न केवल प्रशासनिक इकाइयाँ बनायी बल्कि उन्हें सुदृढ़ भी किया।

प्रान्तीय प्रशासन

प्रान्तीय प्रशासन का प्रधान कुमार (राजकुमार) होता था, जोकि प्रान्त का गवर्नर या वायसराय भी था, जिस प्रकार कि राजा बनने से पूर्व अशोक उज्जैयनी या तक्षशिला का राजकुमार था। प्रशासन चलाने में महामात्य (जिसे अशोक के समय में महामात्र कहते थे) और एक मंत्रिपरिषद कुमार की सहायता करते थे। अशोक के शिलालेखों में हमें चार प्रान्तीय राजधानियों का उल्लेख मिलता है – पूर्व में तोशाली, पश्चिम में उज्जैन, दक्षिण में स्वर्णागिरि तथा उत्तर में तक्षशिला। प्रान्तों में ऐसे भी क्षेत्र थे, जिनका प्रशासन कुछ ऐसे गवर्नर चलाते थे जिनका चयन स्थानीय आबादी से किया गया था। रुद्रदमन के जूनागढ़ के शिलालेख में तुशस्य का हवाला मिलता है जो अशोक के समय में जूनागढ़ का युवराज था।

हालांकि इसी शिलालेख से हमें यह भी पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में उस इलाके का प्रतिनिधि (राष्ट्रीय) पुष्यगुप्त नामक एक वैश्य था।

मंत्रिपरिषद का राजा से सीधा सम्पर्क था और वह कुमार की गतिविधियों पर नियंत्रण रखती थी। वरिष्ठ अधिकारी महामात्र कहलाते थे अर्थशास्त्र में उन्हें मंत्री की भाँति समझा गया है, पर अशोक के शिलालेखों में वह ऐसे अधिकारी थे, जो सीमाओ की देखरेख, न्यायिक कार्य आदि करते थे। धम्म महामात्र धर्म से संबंधित समस्याओं को देखते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी नियुक्ति राजा या राजकुमार (वायसराय) कोई भी कर सकता था। उच्च अधिकारियों की दूसरी श्रेणी अमात्य की थी। इस श्रेणी को भी विशेष अधिकार दिए गए थे, क्योंकि अशोक और बिन्दुसार दोनों ही के समय में उन अधिकारियों के मनमाने रवैये के विरोध में तक्षशिला की जनता ने विद्रोह कर दिया था।

जनपद तथा ग्रामीण प्रशासन

इस प्रकार की इकाइयों का प्रशासन नागरिक स्तर पर होता था और उसके संगठन में कई गाँव शामिल हो थे पर साथ ही साथ प्रत्येक गांव की अपनी अलग प्रशासनिक इकाई होती थी। कौटिल्य के अनुसार :

  • जनपद के स्तर पर इस युग में जिन अधिकारियों की चर्चा की गयी है इनमें प्रदेप्ट पर जनपद के पूरे कामकाज की जिम्मेदारी थी अन्य अधिकारियों में “राजक’और युक्त आते थे। इन अधिकारियों के कार्य इस प्रकार थे।
  • भूमि सर्वेक्षण एवं मूल्याकन
  • दौरा एवं निरीक्षण
  • राजस्व जमा करना
  • कानून और व्यवस्था को बनाये रखना इत्यादि

आवश्यकता पड़ने पर राजा इन अधिकारियों से सीधा सम्पर्क भी स्थापित करता था। उदाहरण के लिए चौथे स्तम्भ लेख में अशोक राजक को यह स्वतंत्र अधिकार देता है कि वह जन कल्याण के संबंध में उसके निर्देशों को लागू करे। इसने उन्हें कुछ ऐसे अधिकार दिए जो उनके पास अब तक नहीं थे। युक्त छोटे दर्जे का अधिकारी था जिसका कार्य अन्य दोनों श्रेणियों की सहायता मात्र था।

प्रत्येक श्रेणी के अधिकारियों के प्रभाव पर नियंत्रण और सन्तुलन भी राजा रखता था। अशोक के शिलालेख ग्रामीण स्तरीय प्रशासन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। पर उस प्रकार की इकाई की चर्चा अर्थशास्त्र में अवश्य मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्तर के अधिकारी स्थानीय लोग ही थे। उन्हें ग्रामिक कहा जाता था। इस तरह की इकाइयों का ढांचा स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करता होगा। पर हमें गोप और स्थानिक के नाम से अधिकारियों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं जो जनपद और गांव के स्तर की प्रशासनिक इकाइयों के बीच मध्यस्थता का काम करती थीं। उनके कार्य थे,

  • गांव की सीमा निर्धारित करना
  • जमीन के विभिन्न प्रकार के उपयोग का हिसाब करना
  • प्रत्येक की आय और व्यय को दर्ज करना
  • कर, राजस्व और जमीन का हिसाब रखना

इन अधिकारियों के होते हुए भी, गाँव के स्तर पर प्रशासन चलाने और अपनी समस्याओं सुलझाने के लिए ग्रामवासियों को स्वतंत्रता थी।

यह स्पष्ट है कि मौर्य शासन प्रशासन के सभी स्तरों पर अधिकारियों की एक बड़ी संख्या की नियुक्ति करता ‘था। उस सम्बंध में एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है, कि अधिकारियों को वेतन नकद मिलता था। सेनापति को 48000 पण, सिपाही को 500 पण तथा मजदूर को 60 पण मिलने का हवाला मिलता है इसके कारण राज्य कोष पर बहुत दबाव था। मुद्रा से संचालित अर्थव्यवस्था प्रबल थी। इससे इस बात की पुष्टि अवश्य होती है कि अर्थशास्त्र में राजस्व जमा करने के विविध तरीकों पर – लगान से जुए तकइतना ध्यान क्यों दिया गया है।

अन्य राज्यों से सम्बंध

चन्द्रगुप्त के शासन काल से लेकर मौर्य साम्राज्य के विलय तक, मौर्यों के विदेशी संम्बंधों के निश्चित रूप से दो चरण थे।

  • साम्राज्य के विस्तार का चरण
  • अन्य राज्यों से सम्बंधों को मजबूत करने का चरण

अनेक स्रोत मौर्यों के विदेश सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। उदाहरणस्वरूप अशोक के शिलालेखों में भी समकालीन विदेशी शासकों का वर्णन मिलता है।

पहले चरण में, उत्तर तथा उत्तर पश्चिम क्षेत्र से यूनानी ठिकानों को परास्त करने तथा व्यापार के मार्ग हासिल करने की नीति अपनाई गई।  चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच मुठभेड़ के विषय में आप पढ़ चुके हैं। इस मुठभेड़ के बाद से ऐसा लगता है, कि मौर्यों को इस सीमा पर किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। मध्य भारत के विलय के बाद मौर्यों का दक्षिण पथ पर नियंत्रण हो गया, और साथ ही साथ मौर्य, प्रायद्वीप के अन्दर तक दाखिल हो गए। यह कहा जा सकता है कि विस्तार का पहला चरण खत्म हो गया है। यह स्पष्ट है कि इस चरण में विदेश नीति अत्यन्त आक्रामक थी। युद्ध और दमन के द्वारा ही विरोधी या शत्रु राज्यों को वश में किया जा सका।

साम्राज्य के विस्तार के पश्चात्, मौर्यों ने, न केवल पड़ोसी राज्यों से बल्कि दूर-दूर के देशों से मित्रता के सम्बन्ध मजबूत किए। यह बात ध्यान देने की है कि अन्य देशों से मित्रता के सम्बन्ध भौगोलिक निकटता और कूटनीतिक तथा व्यापारिक आवश्यकता पर आधारित थे।

बिन्दुसार के समय में पश्चिमी देशों से सम्पर्क स्थापित हो चुका था और नियमित रूप से एक दूसरे को संदेश भी भेजे जाते थे। स्ट्रेबो (Strabo) के वृतान्त के अनुसार मौर्य दरबार में मेगस्थनीज का उत्तराधिकारी डेमीकोस था। अथेन्यूज के उस वृतान्त से भी मैत्रीपूर्ण सम्बंधों का हवाला मिलता है, जिसमें भारतीय शासक ने अंजीर, मदिरा तथा दार्शनिकों के भेजने का अनुरोध किया। तेरहवें शिलालेख में अशोक ने पाँच शासकों का हवाला दिया है।

  • अनितयोक (सीरिया का, अनटियोकस द्वितीय)
  • तुरमय (मिस्र का, प्टोलमी द्वितीय)
  • एनिकिनी (मेसीडोना का एन्टीगोनस)
  • एलिरू सन्ट्ररो (एपीरस का एलेकजेन्डर)
  • मक (सायरिन का मगस)

इन शासकों का उल्लेख धम्म विजय के संदर्भ में किया गया है तथा यह भी संकेत मिलता है, कि धम्म का संदेश लेकर उन शासकों के पास दूत भेज गये थे इन धर्मदूतों ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए, क्योंकि शिलालेख में इन क्षेत्रों में धम्म विजय या महान विजय का उल्लेख है। यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने की है, कि इस समय तक पश्चिमी देशों से व्यापार नियमित रूप से शुरू हो चुका था तथा जिस प्रकार का आदान-प्रदान हो रहा था उसने सभ्यता और संस्कृति को विशेष रूप से प्रभावित किया। कला तथा वास्तुकला की नवीन शैलियों का भी जन्म हुआ। खंड 6 में इस विषय पर अधिक जानकारी दी जाएगी।

दक्षिण के राज्यों से भी, मौर्यों के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे। इन क्षेत्रों में चोल,पांडय केरल पुत्र तथा सत्यपुत्र जैसे स्वतंत्र राज्य थे। अशोक का कोई भी शिलालेख इन क्षेत्रों में अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। पर तेरहवें शिलालेख में उन क्षेत्रों में धम्म विजय के विवरण से ही मौर्यों के इन राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की पुष्टि होती है।

धम्म की नीति के कारण लंका भी एक अन्य पड़ोसी मित्र देश बन गया।

इस प्रकार से अन्य राजाओं के साथ मौर्यों के सम्बन्ध में हम एक विशेष परिवर्तन देखते हैं। विस्तार और दमन की नीति का स्थान मित्रता और नैतिक विजय बिना किसी सैनिक शक्ति के प्रयोग के प्राप्त करने की नीति ने लिया। पर यह परिवर्तन मात्र इसलिए नहीं आया कि मौर्य साम्राज्य बहुत ही विशाल हो गया था। इस परिवर्तन का सम्बंध मुख्य रूप से अशोक की सकारात्मक नीतियों से भी था। अशोक ने धम्म की व्यवहारिकता को सिर्फ अपनी प्रजा तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि इसका विस्तार राज्य नीति से सम्बंधित विषयों तक भी किया। उसने धम्म का प्रयोग समकालीन शक्तियों के साथ सम्बंध बढ़ाने के लिए किया।

सारांश

इस इकाई में हमने पढ़ा कि मौर्य प्रशासनिक ढांचा, केन्द्रीय स्तर पर अत्यन्त सुसंगठित था। सभी अधिकार राजा के पास थे, पर मंत्रिपरिषद उसकी सहायता करता था। प्रत्येक अधिकारी के अधिकार और कार्य भली भांति बंटे हुए थे।

अर्थशास्त्र में मंत्रियों की आवश्यक योग्यताओं का भी उल्लेख है। राज्य द्वारा जन सुविधाओं पर ध्यान देना तथा विशेषकर अशोक के शासन काल में राजा का पैतृक रवैया अपना लेना एक अनोखा परिवर्तन था।

राज्य अतिरिक्त उत्पादन पर न केवल विशेष ध्यान देता बल्कि सफलतापूर्वक अधिशेष वसूल करने का भी उचित प्रबन्ध करता था। प्रान्त, जनपद और गाँव के स्तर पर प्रशासनिक इकाइयां इस जिम्मेदारी को सम्भालती थीं। कर व्यवस्था ठीक रूप से नियंत्रित थी। सेना तथा राज्य अधिकारियों के वेतन पर बहुत अधिक धन व्यय किया जाता था। मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था पहले से प्रचलित व्यवस्था पर ही आधारित थी, पर अनेक परिवर्तन किए गए जिससे कि साम्राज्य सुदृढ़ हो।

मौर्यों के विदेश सम्बन्धों के दो चरण थे, प्रथम समाज के विस्तार से सम्बंधित तथा दूसरा मित्रता की नीति से प्रभावित था। जब विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया तो मौर्यों ने मैत्रीपूर्ण रवैये से सम्बन्ध मजबूत किए।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.