स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और पहुंच

‘द ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिजीज़’ पर प्रकाशित लैंसेट रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार, स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और पहुंच के संदर्भ में भारत 195 देशों में से 145वें स्थान पर है। इस मामले में यह अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान से पीछे है। हालांकि, 1990 के दशक की तुलना में स्थिति में सुधार देखा गया है।

वर्तमान स्थिति

हाल ही में जारी एक सामान्य समीक्षा मिशन (Common Review Mission: CRM) रिपोर्ट में पाया गया है कि

  • अधिकांश सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (Community Health Centres: CHCs) और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary
    Health Centres: PHCs) अब सरकारी भवनों से संचालित होते हैं। हालांकि, उनके निर्माण की गति मंद है।

उच्च जोखिम वाले रोगी अब जिला चिकित्सालयों तक पहुंच रहे हैं। किन्तु अभी भी:

  • जिला चिकित्सालयों में आठ प्रमुख विशेषज्ञ सेवाओं की सुनिश्चितता का स्तर पर्याप्त नहीं है।
  • जिला चिकित्सालयों के सन्दर्भ में प्रमुख बल ‘मामलों के अधिकतम बोझ’ से निपटने से स्थानांतरित कर ‘सुनिश्चित
    आपातकालीन सेवाओं पर दिया जाना चाहिए।
  • अधिकांश राज्यों में यह दर्ज किया गया है कि सीमान्त क्षेत्रों में स्थित संस्थानों द्वारा अनुचित रूप से रेफर किया जाता है।

हालांकि विभिन्न राज्यों ने दवाओं एवं उपभोग सामग्रियों की खरीद और आपूर्ति को आउटसोर्स किया है, परंतु छोटे उत्तर-पूर्वी राज्यों को अभी भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके कारण रोगियों को दवा खरीदने के लिए उच्च आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर (out of pocket expenditure: OOPE) वहन करना पड़ता है।

  • कई राज्यों ने नि:शुल्क नैदानिक परीक्षण नीति को भी अधिसूचित किया है, परंतु सीमान्त क्षेत्रों में स्थित संस्थानों में नैदानिक
    परीक्षण के लिए अपेक्षित संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण अभी भी आउट ऑफ पॉकेट एक्स्पेंसेस कम नहीं हो सके हैं।
  • शिकायत दर्ज कराने के लिए एक सामान्य टोल-फ्री नंबर उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त, पंजीकरण और निवारण के मध्य
    समयांतराल अधिक है।
  • प्रधानमंत्री राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम के तहत निर्धनों के लिए निःशुल्क डायलिसिस सेवाओं का प्रावधान है। हालांकि, ये सेवाएं ऐसे रोगियों की सीमित संख्या को ही प्राप्त हो पाती हैं।
  • इसके साथ ही ब्लड बैंकों और ब्लड सप्लाई यूनिट्स (BSUs) की संख्या बढ़ाने की दिशा में प्रयास किया गया है; परंतु मानव संसाधनों की कमी और उपकरणों की गैर-कार्यक्षमता के कारण कई राज्यों में ब्लड बैंक परिचालन में नहीं हैं।
  • राष्ट्रीय आयुष मिशन (NAM) के शुभारंभ के साथ विघटन की स्थिति उभरी है। उदाहरण के लिए, कई राज्यों ने आयुष दवाओं की खरीद को NAM पर स्थानांतरित कर दिया है। इसके अतिरिक्त राज्य आयुष सेवाओं की मांग या पहुंच बढ़ाने में सक्षम नहीं है।
  • कई राज्यों में मोबाइल मेडिकल यूनिट्स (Mobile Medical Units: MMUs) अभी भी कार्यशील नहीं हैं। एम्बुलेंस की अनुपलब्धता की स्थिति बनी रहती है। प्रदाताओं के प्रशिक्षण में एकरूपता सुनिश्चित करने, आपातकालीन प्रतिक्रिया दल को उन्नत बनाने और पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्रों में अंतिम-बिंदु तक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सम्बन्धी चिंताओं का समाधान
    करने की आवश्यकता है।

अनुशंसाएँ

  • स्वास्थ्य सुविधाओं की पर्याप्तता: चिकित्सालयों सहित समस्त सार्वजनिक निर्माण की गति की निगरानी करने (अनुपालन न होने पर दंड के प्रावधान समेत) के लिए राज्यों में समर्पित सेल/स्वायत्त निकाय होना चाहिए तथा उनके द्वारा विधानसभा में प्रत्येक वर्ष अपनी रिपोर्ट सौंपी जानी चाहिए।

उपयोग और देखभाल की निरंतरता:

  • मानव संसाधन के क्षेत्र में विशेषज्ञों के लिए निविदा प्रक्रिया (bidding)’ जैसे नीतिगत सुधार लाए जाने चाहिए।
  • अस्थायी तौर पर नियुक्त जो विशेषज्ञ सेवा में बने रहना चाहें, उन्हें राज्य के विशेषज्ञ कैडर में सम्मिलित होने का विकल्प
    प्रदान किया जाना चाहिए।
  • अनुचित रेफरल से संबंधित मुद्दों का समाधान करने के लिए सीमान्त क्षेत्रों में स्थित प्रदाताओं हेतु प्रौद्योगिकी संचालित
    चिकित्सा शिक्षा और SHCs (सेक्टरल हेल्थ केयर) में रोगियों को टेली-परामर्श की समर्पित पहलों/कार्यक्रमों पर विचार
    किया जाना चाहिए।

जिला चिकित्सालयों का सुदृढीकरण:

  • राज्यों को सामान्य ICUs और प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या (पहाड़ी और पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए 5 लाख की जनसंख्या
    पर विचार किया जा सकता है) पर उच्च निर्भरता इकाइयों (High-dependency units) को प्रस्तावित करने के लिए
    प्रोत्साहन राशि प्रदान की जानी चाहिए।
  • प्रशिक्षकों की मांग को पूरा करने के लिए निकटवर्ती सरकारी और विश्वसनीय निजी मेडिकल कॉलेजों की फैकल्टी को
    लिया जा सकता है।
  • जिला चिकित्सालय और विश्वसनीय गैर-लाभकारी मिशनरी/ट्रस्ट चिकित्सालयों का प्रशिक्षण स्थलों के रूप में चयन किया जा सकता है।

दवाओं की खरीद और उपलब्धता:

  • अभिनव समाधानों को अपनाया जा सकता है, जैसे केंद्र द्वारा थोक खरीद या पूर्वोत्तर विकास के व्यापक एजेंडे में एक
    विशेष उपाय के रूप में दवाओं तक पहुंच को प्राथमिकता प्रदान करना।
  • जेनेरिक प्रिस्क्रिप्शन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर सामान्य जागरुकता बढ़ाई
    जानी चाहिए और प्रिस्क्रिप्शन ऑडिट को बढ़ाया जाना चाहिए।
  • PHC स्तर पर नि:शुल्क निदान संबंधी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।

राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम:

इसे नि:शुल्क निदान पहल से संबद्ध किया जाना चाहिए और दवाओं को EDL (आवश्यक नैदानिक सूची) डायरेक्टरी में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए।

रक्त तक पहुंच:

ब्लड यूनिट्स के अनुमोदन और लाइसेंसिंग को MoHFW के एकल विभाग के अधीन लाया जाना चाहिए और रक्त (ब्लड) की मांग गैर-शल्य चिकित्सा संबंधी देखभाल से संबद्ध की जानी चाहिए।

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के समक्ष चुनौतियां

(Issues With Private Healthcare System In India)

71वें राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) के अनुसार, 2014 में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निजी अस्पतालों में भर्ती किये जाने वाले रोगियों की कुल हिस्सेदारी क्रमशः 58% और 68% थी। परन्तु इस निजी क्षेत्र में विभिन्न चुनौतियाँ भी उपस्थित हैं यथाः

  • देखभाल की उच्च लागत की चुनौती: हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ऑफ़ इंडिया के अनुसार निजी चिकित्सालयों से स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करने वाले 75% रोगी अपनी घरेलू आय या जीवन भर की बचत से चिकित्सा बिलों का भुगतान करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य 18% रोगियों द्वारा चिकित्सा बिल के भुगतान हेतु निजी ऋणदाताओं से ऋण लिए जाते हैं; जो उच्च स्तरीय निर्धनता हेतु उत्तरदायी है।
  • दवाओं की विभेदकारी कीमतें: राष्ट्रीय आवश्यक औषधि सूची (NLEM) तथा गैर-NLEM श्रेणी के अंतर्गत आने वाली औषधियों की कीमतें विभेदकारी हैं। ये अस्पष्टता उत्पन्न करती हैं तथा निजी अस्पतालों द्वारा रोगियों के शोषण को बढ़ावा देती हैं।
  • प्रदाताओं के मध्य स्वास्थ्य सेवाओं के वितरण में भिन्नता: योग्यता एवं करुणा संबंधी व्यवसायिक मानकों के अभाव के कारण, रोगियों की सुरक्षा प्रक्रिया से सम्बंधित पारदर्शिता से समझौता किया जाता हैं।
  • रोगी और चिकित्सक के मध्य आपसी समन्वय का अभाव: प्रारंभ में शुल्कों और विभिन्न संबंधित प्रक्रियात्मक लागत सम्बन्धी सूचनाओं में कमी के कारण, दोनों पक्षों के मध्य आपसी संबंध प्रभावित होते हैं। इससे समग्र चिकित्सा प्रक्रिया कमजोर होती
  • चिकित्सीय कानूनी विधियों का विकास, देश में निजी संस्थानों के उदय के समरूप नहीं रहा है, जोकि चिकित्सा जैसे श्रेष्ठ पेशे में कदाचार और भ्रष्टाचार की संभावनाएं उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त अभी भी पूरे देश में नैदानिक प्रतिष्ठान अधिनियम (2010) को समुचित रूप से लागू किया जाना शेष है।
  • हाल ही में, कर्नाटक विधानसभा द्वारा राज्य के निजी चिकित्सा प्रतिष्ठानों में पारदर्शिता बढ़ाने हेतु कर्नाटक निजी चिकित्सा
    प्रतिष्ठान (संशोधन) विधेयक पारित किया गया।

नैदानिक प्रतिष्ठान (पंजीकरण और विनियमन) अधिनियम, 2010

[The Clinical Establishments (Registration and Regulation) Act, 2010]

  • उद्देश्य: सुविधाओं एवं सेवाओं के न्यूनतम मानक निर्धारित करने के दृष्टिकोण के साथ नैदानिक प्रतिष्ठानों के पंजीकरण और
    विनियमन का प्रावधान करना।
  • प्रयोज्यता: सशस्त्र बलों द्वारा चलाए जाने वाले नैदानिक प्रतिष्ठानों को छोड़कर, सभी प्रकार के नैदानिक प्रतिष्ठान इस
    अधिनियम के दायरे में आते हैं।
  • कार्यान्वयन: त्रिस्तरीय ढांचे – केंद्रीय परिषद, राज्य परिषद और जिला पंजीकरण प्राधिकरण के माध्यम से।
  • अर्थदण्डजुर्माना: पंजीकरण के बिना नैदानिक प्रतिष्ठान के संचालन की स्थिति में पहले अपराध के लिए 50,000 रुपये, दूसरे अपराध के लिए 2 लाख रुपये तथा अनुवर्ती अपराध के लिए 5 लाख रुपये के अर्थदण्ड का प्रावधान।
  • निगरानी: यह अधिनियम स्वास्थ्य अधिकारियों को ऐसे अस्पतालों के निरीक्षण करने और उन पर जुर्माना लगाने अथवा उनके लाइसेंस निरस्त करने की अनुमति देता है जो अनावश्यक स्वास्थ्य परीक्षणों एवं प्रक्रियाओं हेतु सलाह देकर अथवा
    ओवर चार्जिंग के माध्यम से रोगियों से अधिक शुल्क वसूलते पाए जाते हैं।

आगे की राह

  • वैश्विक अनुभवों से यह सीख मिलती है कि निजी क्षेत्र केवल तभी उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य एवं बेहतर गुणवत्तापूर्ण सेवाएं प्रदान
    करते हैं, जब सरकार उन्नत गुणवत्ता संबंधी मानदंड निर्धारित करती है। सरकारी क्षेत्रों द्वारा बेहतर मानदंड स्थापित करने में विफल रहने पर, निजी क्षेत्र समुचित रूप से कार्यो का निष्पादन नहीं करते हैं।
  • स्वास्थ्य सेवा हेतु बजट में वृद्धि स्वागत योग्य कदम है, परन्तु केवल यह पर्याप्त नहीं है। वास्तव में सभी हितधारकों से सम्बंधित चिंताओं को एकीकृत करने हेतु वर्तमान तंत्र के पुनर्निर्माण की आवश्यकता है।
  • संचालकों द्वारा पारदर्शिता पर बल दिया जाना चाहिए- अस्पतालों द्वारा मानक उपचार और प्रक्रियाओं से सम्बन्धित दरों को स्पष्ट रूप से प्रकाशित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, विभिन्न प्रकार के अस्पतालों के लिए मानक दरें निर्धारित होनी चाहिए क्योंकि सभी निजी अस्पताल महंगे शहरों में स्थित नहीं हैं।
  • अस्पतालों द्वारा निर्धारित मानक पैकेजों को तथा उनसे विचलन की स्थिति में अस्पतालों द्वारा अतिरिक्त शुल्क वसूल करने के पीछे निहित तर्क का प्रकाशन किया जाना चाहिए। मानक पैकेज से कितने प्रतिशत विचलन हुआ इससे सम्बंधित आंकड़े विनियामक को नियमित रूप से प्राप्त होने चाहिए।

अंततः भारतीय चिकित्सा परिषद को रोगियों के हितों को संरक्षित तथा चिकित्सकों को विनियमित करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

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