बहिर्जनिक प्रक्रियाएँ

हिमनद हिम के पिंड हैं जो हिम के संचयन और संपीड़न से निर्मित होते हैं। यद्यपि, ये मंद गति करते हैं लेकिन अपरदित सामग्री को अपने नीचे की भूमि में परिवहन और निक्षेपण करने में सक्षम होते हैं।  भूजल में कुछ प्रकार की ऐसी संस्तर शैलों के घुलने और अपरदन करने की योग्यता होती है जिससे जटिल भू-भाग बनते हैं । सागरीय तरंगों की क्रियाविधि को समुद्र तट के साथ समझाया गया है जिससे विविध स्वरूपों और प्रक्रियाओं का निर्माण होता है। हम सागर में ज्वार-भाटे की उभरती और गिरती तथा तरंगों की निम्न एवं मंद लयात्मक गतियों को देख सकते हैं। यह ज्ञात है कि सागरीय तट रेखा तरंगों द्वारा निरंतर रूपांतरित होती रहती है।

मरूस्थल क्षेत्र में पवन से असाधारण रेत और धूल भरी आँधियाँ आती हैं और ये निरंतर भू-भाग को आकार देती रहती हैं। कुल मिलाकर इस इकाई में आपको अनाच्छादन प्रक्रिया के प्रमुख गतिशील कारकों तथा उनके द्वारा निर्मित होने वाली विभिन्न भूआकृतिक विशेषताओं के बारे में संक्षेप में समझाया गया है।

उद्देश्य 

  • नदियों, हिमनदों और भूजल के कार्यों का वर्णन कर सकेंगे;
  • सागर की तरंगों और पवन के कार्यों को समझा सकेंगे; और
  • भूआकृतिक कारकों द्वारा विभिन्न भूआकृतियों के निर्माण में सम्मिलित प्रक्रियाओं को समझा सकेंगे।

नदी के कार्य

आप संभवतः जानते होंगे कि प्रमुख अपरदनात्मक कारकों जैसे कि बहता जल, हिमनदीयाँ, भूजल, सागर की तरंगें और पवन इत्यादि पदार्थों के अपरदन, परिवहन और निक्षेपण के लिए उत्तरदायी होते हैं। नदी या बहते जल की क्रिया सभी बहिर्जनिक प्रक्रियाओं में सबसे महत्वपूर्ण होती है क्योंकि नदियाँ थलीय क्षेत्र से पदार्थों को हटाकर उन्हें महासागरों तक ले जाती हैं। नदियों के कार्य में निकट रूप से परस्पर संबन्धित तीन क्रियाविधियाँ जैसे अपरदन, परिवहन और निक्षेपण सम्मिलित हैं। नदियाँ या धाराएँ मुख्यरूप से दो प्रकार की होती है, बहुवर्षी और अल्पकालिक

बहुवर्षी नदियाँ आद्र क्षेत्रों में स्थायी रूप से प्रवाहित होती हैं जो वर्ष भर जल के प्रवाह को बनाए रखती हैं। अधिकांशतः प्रमुख सरिताओं एवं नदियों में जल का प्रवाह आई मौसम में अथवा वर्षा ऋतु में अथवा उसके बाद होता है। शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाली अस्थायी नदियों का प्रवाह अल्पकालिक सरिताएँ कहलाती हैं।

बहते जल की क्रिया वर्षण के प्रभाव से आरंभ होती है। नदियाँ प्राथमिक रूप से वर्षा, हिम, ओलावृष्टि या सहिम वृष्टि से जल ग्रहण करती है और वही जल अनेक प्रक्रियाओं से होकर अंततः सागर तक पहुंचता है। गुरूत्वाकर्षण बल के कारण, जल अनुप्रवाह वाली सतह की ओर बहता है इसी समय कुछ बल जिन्हें घर्षण बल कहते हैं, इस अनुप्रवाह बहाव का प्रतिरोध करते हैं। जलप्रवाह मुख्यरूप से गुरूत्वाकर्षण और घर्षण के इन दोनों मौलिक बलों पर निर्भर करता है। सरिता अपरदन सक्रिय रूप से अपने धरातल अथवा संस्तर तथा चैनल के किनारे वाले भागों से सामग्रियों को हटाने में सक्रियता से संलिप्त होता है। अपरदनकारी पदार्थ की क्षमता सामान्य रूप से उसकी ऊर्जा पर निर्भर करती है। बहते जल की विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे जलद्रवीय क्रिया, संक्षारण, अपघर्षण और संनिघर्षण को समझाया गया है।

नदी का अपरदन ऊर्ध्व और पार्श्व दोनों तरह से होता है। बहते जल का बल कभी-कभी घाटी के किनारे वाले भागों को तोड़ सकता है और अल्प संगठित जलोढ़ पदार्थों जैसे बालू, गाद, मृत्तिका और बजरी को नदी की धारा के प्रभाव से अपरदित कर देता है। इस अपरदन की प्रक्रिया को चलजलीय क्रिया कहा जा सकता है। यह यांत्रिक अपरदन है, जो सिर्फ जल के द्वारा शैलों की सामग्री को कमजोर करके हटाने में सहायता करता है। सामग्रियों को हटाते समय, सरिता चैनल कुछ प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया जैसे विलयन अथवा अम्ल अभिक्रियाओं से गुजरती है जो घुलनशील पदार्थों का विलयन कर देती है। यह प्रक्रिया संक्षारण कहलाती (Corrosion) है। उदाहरण के लिए, चूनापत्थर क्षेत्र से प्रवाहित होने वाली नदी शैलों का संधियों पर विलय कर देती है और उनमें कन्दराओं का निर्माण हो जाता है।

गुटिका और शैल खंड नदी के संस्तर और शैलों की भित्तियों पर आघात करते हैं जिससे शैल निर्बल होकर खंडित हो जाते हैं। खंडित पदार्थ बहते जल के साथ नीचे आ जाता है। इस प्रकार की अपघर्षण प्रक्रिया में नदी अपने जलमार्ग को अधिक। चौड़ा और गहरा कर लेती है। तेजी से बहती नदी की क्रिया द्वारा बेलनाकार छेद का बनना जल गर्तिका (Pothole) कहलाता है, जो सरिता के अपघर्षण द्वारा बनते हैं। अपघर्षण द्वारा निर्मित कुछ अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएँ प्रपात-कुंड, शूट और गर्त हैं। शैल खंड जैसे गोलाश्म और उपलिका जल के बहाव के समय आपस में घर्षण करते हैं और अपेक्षाकृत छोटे बालू और गाद के कणों में विखंडित हो जाते है। यह प्रक्रिया संनिघर्षण कहलाती है।

अपरदन के कारण चैनल मार्ग सामान्यतः चौड़ा हो जाता है और अपक्षयण तथा पर्वतीय ढ़ाल पर होने वाली प्रक्रियाएँ घाटी को चौड़ा करने में योगदान देती है। V आकार की घाटी युवा अवस्था को प्रदर्शित करती है, जबकि सपाट आधार वाली घाटी नदी तंत्र की परिपक्वावस्था में पाई जाती है।

जैसा कि आपने पढ़ा है कि नदी शैल खंडों, बालू और गाद इत्यादि का लम्बी दूरी तक अपने प्रवाह के समय परिवहन करती है। परिवहन के समय में शैल खंड जल के प्रवाह की दिशा में धारा के संस्तर से बहकर नीचे आते हैं। इस प्रक्रिया में अपेक्षाकृत बड़े पदार्थ (गोलाश्म, उपलिका, बजरी और बालू) लुढ़कने और उछलने से एक दूसरे के साथ टकरा सकते हैं और अपेक्षाकृत छोटे, गोल और चमकदार हो जाते हैं। ये पदार्थ संस्तर से खिंचकर नीचे आते हैं और संस्तर भार कहलाते हैं। जल में कुछ खनिज पदार्थ घुले रहते हैं और यह घुलनशील पदार्थ विलयित भार के रूप में प्रवाहित होते हैं।

मृत्तिका और गाद के घुले हुए कण नदी के जल में तैरते हैं और प्रक्षुब्ध निलंबन के रूप में बह जाते हैं। यदि जल ठहरा हुआ हो, तो ये पदार्थ तली में बैठ जाते हैं। नदी द्वारा लाया जाने वाला इस प्रकार का निलंबित भार पूरी तरह से नदी के आयतन और वेग पर निर्भर करता है और शैल के आमाप और मात्रा के आधार पर परिवर्तित होता रहता है। निलंबित और घुले हुए भार जलीय स्तंभ में संस्तर भार से अधिक तेजी से गति करते हैं।

भूआकृतिविज्ञानी अपने भूआकृतिक अध्ययनों में नदी जल प्रवाह, प्रक्रियाओं और परिणामतः इनसे निर्मित भूआकृतिक विशेषताओं के बीच संबन्धों को जानने का प्रयास करते हैं। आप किसी नदी का अवलोकन करने के लिए एक अपवाह मानचित्र या स्थलाकृतिक मानचित्र (टोपोशीट) को लीजिए। ये मानचित्र पर कैसी दिख रही है? यह मुड़ी हुई या सीधी है अथवा वक्रित है? ये सीधी, गुंथी हुई, विसी अथवा वक्रित प्रकृति की हो सकती है। हमें सीधी नदी या धारा बहुत कम दिखाई देती है। क्षुद्र सरिताएँ और अवनलिकाएँ पर्वतीय प्रवाह प्रणाली के भाग होते हैं जो बहते जल की क्रिया द्वारा बनते हैं। क्षुद्र सरिताएँ कुछ सेन्टीमीटर चौड़ी और गहरी लघु प्रवाह प्रणाली के रूप में होते हैं जिन्हें लघु नलिकाओं द्वारा काटा जाता है।

ये लंबी और संकरी, निरंतर और असतत् तथा कर्तित धारा संस्तरों का निर्माण करती हैं जिन्हें अवनलिकाएँ कहते हैं। इन्हें स्थानीय रूप से डोंगा, लुवका, रैम्प और वोकारोका कहते हैं। सरिता घाटी अपने आसपास के भू-भाग से जल का सरिताओं में योगदान करती है जिसमें घाटी की तली, धरातल और ढाल युक्त भित्तियाँ सम्मिलित होती हैं। प्रतिरोधी शैल लगभग ऊर्ध्व भित्तियाँ बनाते हैं जिससे ‘V’ आकार की संकरी घाटियाँ बनती है। क्षिप्रिकाएँ और जलप्रपात ‘V’ आकार की घाटियों के कारण बनने वाली विशिष्टताएँ हैं। अधिक प्रतिरोधी संस्तर शैल निक बिंदु के नीचे नदी प्रवणता से क्षिप्रिकाएँ बनाती है। समय के साथ अपरदन प्रतिरोधी शैल को हटा देता है। जलप्रपातों का निर्माण सरिताओं की धाराओं के आकस्मिक ऊर्ध्व पात के द्वारा होता है।

नदी द्वारा निर्मित अपरदनात्मक भूआकृतियाँ :  क्षुद्र सरिता, अवनलिकाएँ, जल प्रपात, त्वरित धाराएँ, घाटीयाँ, जलोढ़ प्रणाल इत्यादि । नदी द्वारा निर्मित निक्षेपणात्मक भूआकृतियाँ : बाढ़ का मैदान, जलोढ़ फेन बाहादा, वेदिका, डेल्टा आदि।

जलोढ़ नदी चैनल असंबद्ध अवसादों (जलोढ़क) के बने होते हैं जो पदार्थों के परिवहन में धारा की क्षमता को प्रदर्शित करते हैं। इनको दो प्रकारों में श्रेणीकृत किया जाता है अर्थात् विसी वाहिकाएँ और गुंफित वाहिकाएँ। विसपी वाहिकाएँ गहरी और चिकनी वाहिकाएँ है और ये सामान्यतः पंक का परिवहन करती हैं जिसमें गाद और मृत्तिका होती है। गुंफित वाहिकाएँ गहराई और चौड़ाई में उथली होती है और जल प्रवाह के द्वारा अपने भार को ले जाती है जिसमें बालू और बजरी होते हैं। विसपी धाराएँ अत्यधिक विशिष्ट प्रकार के लहरदार मोड़ होते हैं।

क्या आपने कभी किसी नदी में बाढ आने की गतिविधि को देखा है? अधिकांश लोग सामान्यतः इसका अनुभव करते या समाचार चैनलों और समाचार पत्रों आदि में देखते या पढ़ते है। बाढ़ के प्रभावों को विशेष रूप से उन लोगों द्वारा अनुभव किया जाता है जो नदी तटों पर रहते हैं। बाढ़ में नदी का वेग जितना अधिक होता है, भार ले जाने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। हम देख सकते हैं कि बाढ़युक्त चैनलों में अनियमित प्रवाह की प्रवृत्तियाँ होती हैं और प्रवाह के प्रबलता में भी उतार-चढ़ाव होता है।

जब अपरदन के बलों की तीव्रता कम हो जाती है, तो शैल खंड, बालू और गाद प्रवाह के निकट अथवा दूर स्थानों पर निक्षेपित हो जाते हैं। बाढ़कृत मैदान निक्षेपणात्मक आकृतियों के श्रेष्ठ उदाहरण हैं जिनमें स्थूल पदार्थ चैनल के निकट तटबंधों के रूप में और नदी के विसी मोड़ों के बाहर की ओर स्तंभ बनाते हैं। गाद और मृतिका के बारीक अवसाद बाढ़कृत मैदान को आवृत करते हैं। कुछ अन्य विशेषताएँ जैसे चापझील, पंकिल स्थान, कटक और स्वेल स्थालाकृति और पश्च अनूप आदि भी बाढ़कृत मैदानों के परिणमस्वरूप बनते हैं।

नदी की पर्वतों से उत्पत्ति होती है और वह फिर लगभग समतली सतह पर प्रवाहित होती है, व्यापक स्तर पर शैल खंड निक्षेपित होते हैं जिससे जलोढ़ पंखों और शंकुओं का निर्माण होता है। अधिकतम स्तर पर निक्षेपण नदमुख के निकट होता है जिससे डेल्टा निर्मित होते हैं।

हिमनदों के कार्य

हिमनद विज्ञान में हिमनदीय हिम के व्यवहार के बारे में पढ़ते हैं। हिमनदियाँ (Glaciers) हिमरेखा के ऊपर बड़ी मात्रा में बर्फ के जमा हो जाने के कारण बनते हैं, जो चरम शीत जलवायवीय स्थितियों में स्थायी और मौसमी बर्फ के बीच का क्षेत्र होता है। हिमनदियाँ दो प्रकार की होती हैं, घाटी हिमनदियाँ (पर्वतीय या एल्पाइन ग्लेशियर्स) और महाद्वीपीय हिमनदियाँ । घाटी हिमनदी नदियों की भांति लंबे या छोटे, संकरे या चौड़े, एकल या बह शाखित सहायक हिमनदों से युक्त हो सकते हैं।

इनकी चौड़ाई इनकी लंबाई की तुलना में कम होती है जो किलोमीटर के एक अंश से लेकर कुछ किलोमीटर तक हो सकती है। प्रत्येक हिमनद हिम की एक धारा है जो अपने शिखर हिम संचयन केन्द्र से घाटी में नीचे की ओर प्रवाहित होता है। दूसरी तरफ, महाद्वीपीय हिमनद महाद्वीपों के अ–पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक स्तर की हिमपरतों के रूप में पाए जाते हैं।

ये विपुल हिम पिण्ड एक या अधिक संचयन क्षेत्रों से सभी दिशाओं में प्रवाहित होते हैं। ध्रुवों पर अत्यंत कम मात्रा में वार्षिक सौर ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे व्यापक स्तर पर हिम का संचयन हो जाता है। इस श्रेणी का उदाहरण उत्तरी गोलार्ध में ग्रीनलैन्ड और दक्षिणी गोलार्ध में अन्टार्कटिका (दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र) है।

हिमनद शैल पदार्थों के अपरदन, परिवहन और निक्षेपण के द्वारा भूदृश्य को पुनः आकार दे सकते हैं। हिमनद अपरदन शैल पर हिम की गति से होता है और ये शैल टुकड़ों की सहायता से संपन्न होता है, जो आंशिक द्रवण और पुनः हिमीकरण द्वारा हिम में अभिमार्जन करते हैं। अपघर्षण एक प्रकार का अपरदन है, जो हिम शैल अंतरापृष्ठ पर क्रिया करता है जो ठोस आधार शैल के छोटे भागों को उसकी गति के बगैर अलग करने में सहायता करता है।

निरंतर अपघर्षण से हिमनद चिकने और चमकदार हो जाते हैं। ये अपघर्षी प्रक्रिया अभिमार्जन (Scouring) कहलाती है। अभिमार्जन से विभिन्न प्रकार की विशेषताएँ निर्मित होती हैं। अभिमार्जन की प्रक्रिया में पिघला हुआ जल हिमनद के शैल तली की दरारों और संधियों में वेधन करके जम जाता है। जब ये जल जमता है, तो ये विस्तारित होता है और अत्यधिक उत्तोलक शक्ति डालता है जिससे शैल कमजोर हो जाती है। जब शैलखंड हिमनद की तली में स्थित हिम में अंतःस्थापित होते हैं तो हिमनदीय रेखण नामक खरोंच एवं खाँचे आधार शैल में से मुदलेप हो सकती है।

ये रेखीय खरोंचे हिम की गति की सामान्य दिशा के विषय में संकेत देती है। जब प्रबल, नुकीले शैल का टुकड़ा आधारी हिम से जुड़ा रहता और शैल सतह पर खिंचकर अपेक्षाकृत बड़ी वक्रित रेखाएँ निर्मित करता है जो एक दूसरे के साथ जुड़ी रहती है तो ये खाँच कहलाती है। खाँचे सामान्यतः गोलाश्मों के समूहों द्वारा उकेरी जाती है जो एक साथ हिमीकृत हो जाते हैं। ये खाँचे विभिन्न आयामों की होती है जोकि सामान्यतः एक मीटर से अधिक लंबाई के होते हैं।

भूवैज्ञानिक युग में सबसे अभिनव हिमयुग जिसे प्लीस्टोसीन कहा जाता है लगभग 2.5 लाख वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था और 10,000 वर्ष पूर्व समाप्त हुआ है।

हिमनद अपरदन की एक अन्य प्रमुख क्रियाविधि उत्पाटन है। हिमनद उत्पाटन उसी प्रकार अपरदन करता है जैसे अपघर्षण करता है, लेकिन इससे आधार शैल के अपेक्षाकृत बड़े खंडों को निकालते हैं। उत्पाटन की प्रक्रिया शैल टीलों के प्रतिपवन पार्श्व भाग में सबसे अधिक प्रभावी होती है।

शैल टीले हिम के बढ़ने के अभिपवन पार्श्व भाग में चिकने चमकदार होते हैं और अपघर्षण के कारण रेखित तथा खाँचदार सतह दर्शाते हैं, जबकि अन्य भाग अथवा प्रतिपवन पार्श्व भाग में खड़ी ढाल की और अनियमित तथा रेखित सतह वाले हो सकते हैं। यह विशिष्ट असममित विशेषता जिसे खड़े शैल समूहों के लिए भेड़ पीठ शैल (भेड़ शैल के लिए फ्रांसीसी शब्द) कहते हैं। ये संरेखित पहाड़िया होती हैं जो अक्सर समूहों के रूप में पाई जाती हैं। हम देख सकते हैं कि शैल का प्रतिपवन पार्श्व भाग सुसंधित और उत्पाटन के लिए अनुकूल होता है।

दूसरी तरफ, अभिपवन पार्श्व भाग पर अपघर्षण के कारण शैल सतह सांचित है जिसमें कम जोड़ दिखाई देते हैं। बड़े भेड़ पीठ शैल जो सामान्य रूप से एक किलोमीटर से अधिक विस्तार के होते हैं फ्लिगबर्ग (Flyggbergs) कहलाते हैं। हिमनद के बनने में सैंकड़ों या हजारों वर्षों का समय लगता है। ये मोटा हिम पिंड सामान्यतः गतिहीन दिखाई देता है लेकिन ये बहुत धीमी गति से संचालित होता है जो संभवतः कुछ सेन्टीमीटर प्रति दिन होती है।

पृथ्वी पर सबसे बड़ा द्वीप ग्रीनलैण्ड है जो लगभग 17 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और इसकी औसत मोटाई 5000 फुट की है। अन्टार्कटिका (दक्षिण ध्रुव) हिमपरत 1.39 करोड़ वर्ग किलोमीटर में फैली है और इसकी अधिकतम मोटाई लगभग 14000 फुट है जो पूरे महाद्वीप को घेरे हुए है। वर्तमान में, ये दोनों महाद्वीपीय हिमनद संयुक्त रूप से पृथ्वी के भूमि क्षेत्रफल के लगभग 10 प्रतिशत भाग को घेरे हुए हैं।

हिमनदीय घाटियाँ और हिमजगहवर हिमनदीय अपरदन के कुछ महत्वपूर्ण प्रकारों में से हैं। हिमनदित घाटी का जिसमें खड़े ढाल वाली भित्तियाँ एवं सपाट तल होता है। U आकार हिमनद के आधार के अपरदन के कारण बनता है। हिमनदीय घाटियों में । प्रणालीकृत हिम स्थूल एक किलोमीटर से कुछ किलोमीटर तक की द्रोणिका उत्खनित कर देते हैं। मुख्य हिमनद में मिलने वाली छोटी सहायक नदियाँ निलंबी घाटियाँ बनाती हैं।

निलंबी घाटियाँ सहायक हिमनदियों के अवशेष है जिनमें आधार शैल का अपरदन मुख्य हिमनदीय घाटी की तुलना में कम प्रभावी होता है जिसकी वजह से सहायक घाटी मुख्य घाटी की खड़ी भित्ति से कट जाती है। यह हिमयुगान्तर स्थलाकृति अक्सर जलप्रपातों के बनने में सम्मिलित होती है, उदाहरण के लिए, यू. एस. ए. में योसेमाइट घाटी और स्विट्जरलैन्ड में लॉटर ब्रूनन घाटी इत्यादि ।

घाटियों के कुछ भाग जो हिमनद द्वारा अत्यधिक गहरे हो जाते हैं हिमनदित शैल बेसिन कहलाते हैं जिनमें झील अथवा सागर की प्रवेश द्वार निहित हो सकती है। यह फियार्ड (Fiords) कहलाते हैं जो नार्वे, न्यूजीलैण्ड और स्कॉटलैण्ड में पाये जाते हैं। हिमनदित घाटी का सपाट तल समुद्रतल के ऊपर स्थित होता है।

दूसरी तरफ फियॉर्ड का तल हिमनदित घाटी होती है जो सागर द्वारा जलमग्न रहती है। ये तल समुद्रतल के नीचे स्थित रहता है। जहाँ कोई हिमक्षेत्र पर्वत के भागों का लबें समय तक अभिमार्जन करता है तो इसके परिणामस्वरूप एक छोटा बेसिन बनता है जिसे हिमजगहवर कहते हैं। हिमजगहवरों में विशिष्ट रूप से खड़े और लंबवत् ढाल होते हैं।

यह दसियों मीटरों से लेकर किलोमीटरों तक की चौड़ाई के हो सकते हैं। उदाहरण के लिए अंटार्कटिका में वालकोट हिमजगहवर 16 किलोमीटर चौड़ा है और इसकी दीवारें लगभग 3000 मीटर ऊँची हैं। स्पष्ट तथा अनेक बड़े हिमजगहवर हिमनदन की पुनरावर्ती घटनाओं के द्वारा विकसित हुए हैं। जब हिमजगहवर हिमनदीय हिम को और अधिक समय तक रोक नहीं पाती हैं तो इनकी तली में गर्त जैसे छोटे झीलों का निर्माण होता है, जिनमें जल भरा रहता है इन्हें गिरिताल (Tarn) कहते हैं।

जहाँ बड़े हिमनदित पर्वत शिखरों में अति प्रवणपार्यों अथवा पिरैमिड आकृतिक के शिखरों की शीर्षभित्तियों के प्रसरण आखनन में जो प्रक्रियाएँ शामिल होती है उन्हें सींग (Horn) कहते हैं। हिमनदित उच्च भूमि के विभिन्न भागों में अनेक पृथक हिमनद विकसित हो जाते हैं, जो सामान्यतः संकरे अथवा पैने कटकों द्वारा पृथक रहते हैं और अरेत (Arete) कहलाते हैं |

हिमनद बड़ी मात्रा में शैल मलबे को काफी दूरी तक ले जाने में सक्षम होते हैं। हिमनदीय निक्षेपण मुख्यरूप से दो प्रकार का होता है: हिम के पिघलने के बाद उसका सीधे निक्षेपण और पिघले हुए जल द्वारा जो हिमनद से बहता है। हिम से निक्षेपित सामग्री गोलाश्मी मृत्तिका (Till) कहलाती है और ऐसे निक्षेपों द्वारा निर्मित भूआकृतियाँ हिमोढ़ (Moraines) कहलाती हैं।

गोलाश्मी मृत्तिका (Till) एक हिमनदीय निक्षेप है जो विभिन्न आमापों के गोलाश्मों अथवा पत्थरों से निर्मित होता है और साथ ही इसमें मृतिका, गाद अथवा बालू का सरल मिश्रण भी सम्मिलित होता है। इस अवर्गीकृत मलबे का बड़ा आयतन हिमनदीय पिघले जल की धाराओं द्वारा अपरदित होकर हिमोढ़ के रूप में हिम की निचली परतों में पुनःनिक्षेपित हो जाता है। हिमनदों के परिवहनीय कार्य में जब शैल मलबा उसकी सतह पर लाया जाता है तो इसे अधिहिमनदीय अथवा उसके संस्तर पर लाए जाने पर अधोहिमनदीय अथवा इन दोनों के बीच कहीं निक्षेपित होने पर अंतर्हिमानी कहते हैं।

हिमनद घाटी की भित्तियों से तुषार द्वारा खंडित सामग्री को ले जाता है। और जब ये सामग्री हिम की सतह पर गिरती है तो इससे हिमनद के भागों में सामग्री द्वारा लंबा कटक बनता है तो इन्हें पाश्विक हिमोढ़ कहते हैं। मध्य हिमोढ़ दो पाश्विक हिमोढ़ों के उस स्थान पर मिलने से बनते हैं जहाँ दो घाटी हिमनद एक साथ प्रवाहित होते हैं। शैल अंश हिम के उपरिमुखी अपरूपण और अधोरदन के कारण भी अवसाद की पतली परत के रूप में संचित होते हैं, जिससे अंतर्हिमानी सामग्रीयाँ निर्मुक्त होती है।

अंतर्हिमानी मलवा हिमनद के मुख्य भाग में पाया जाता है और आगामी हिमपात में ढक जाता है। कुछ अधिहिमनदीय पदार्थ हिम-विदरों में गिरकर पाश्विक अंतर्हिमानी बन सकते हैं। समय के साथ कुछ सामग्री हिम के पिघलने के कारण हिम से नीचे की ओर गति कर सकती है और अध्यारोहित हिम के कारण दब भी सकती है। हिमनद के नीचे अधिकतर निक्षेपित ऐसे पदार्थों को तटस्थ हिमोढ़ कहते हैं।

ड्रमलिन अंडाकार आकृतियाँ है जो गोलाश्मी मृत्तिका की बनी होती है जो असममित धारारेखित पहाड़ियों के आकार में बनती है। इनका निर्माण हिम की गति की दिशा के समांतर होता है। हिमनद मृद कटक लंबी और पतली कटके होती हैं जो व्यापक रूप से बालू और बजरी से बनती हैं। यह धारा प्रवाही सुरंगों द्वारा हिम सुरंगों के भीतर अथवा नीचे की और निक्षेपित होती हैं।

केम (Kames) कम खड़े टीले अथवा शंक्वाकार पहाड़ियाँ होती है जो सामान्यतः हिमनद मृद कटक के साथ बनते हैं। ये स्तरित विस्थापन से बने अलग-अलग टीले या पहाड़ियाँ होते हैं। ये पूर्व हिम-विदरों के भरने को प्रदर्शित कर सकते हैं जो स्तरित मलबे युक्त होती हैं जो अधिहिमनदीय धाराओं द्वारा हिम-विदरों में प्रवेश कर जाता है। हिमनदन के अंत में भूमि पर बड़ी मात्रा में अवसाद का सपाट जलोढ़ ऐप्रन के रूप में निक्षेपित हो जाता है, जिससे धारा चैनल गुंफित बन जाता है। इस प्रकार की स्तरित सामग्री का विस्तारित संचयन हिमानीधौत मैदान कहलाता है। केतली (Kettels) स्थिर हिम के खंड के रूप में बनता है, जो क्षयित होकर दब जाता है। ये जल से भरे अनियमित गर्त या गढ्ढे केतली झील कहलाते हैं।

भूजल के कार्य

हमारे पूर्वजों को स्वच्छ भूजल के बारे में जानकारी थी और वे हजारों वर्षों से इसका जिनमे कणांतर की जगहें उपयोग कर रहे थे। लेकिन भूजल की गति के वेग और स्वरूप के बारे में 19वीं शताब्दी बड़ी होती हैं जिससे गुरूत्व । में एक फ्रांसीसी अभियंता हेनरी डार्सी ने भूजल निकाय की आनति और मृदा अथवा शैल जल त्वरित रूप से गति कर पदार्थ की जलीय चालकता के मापन द्वारा प्रदर्शित किया था।  इन पदार्थो की उच्च साथ हम इसकी उत्पत्ति और गहराई का पता लगाने में सक्षम हैं और आप ये भी पारगम्यता अथवा जलद्रवित पहचान सकते हैं कि ये गति कर रहा है अथवा नहीं।

क्या आप जानते हैं कि विश्व का लगभग आधा भूजल सतह के 8000 मीटर नीचे तक के दायरे में पाया जाता है? यह तरफ बारीक कण की मृदा जल पृथ्वी की सतह के नीचे रंधाकाशों और शैलों की दरारों में पाया जाता है। उच्च पारगम्यता वाले पदार्थ भूजल को अपने परस्पर संबद्ध मुखों द्वारा संचरित करने  में सक्षम होते हैं।

भूजल के कार्य में शैल अपक्षयण की सतह अथवा सतह के नीचे भूजल की गति द्वारा रासायनिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। संक्षारण अथवा विलयन प्रक्रिया भूजल की अपरदनी क्रिया में अपरदन प्रक्रिया के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है। द्रवण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा शैल अथवा जल विलयन अथवा विलेयों के समूह में घुल जाते हैं।

विलेयता शैल में खनिज की मात्रा पर निर्भर करती है, उदाहरण के लिए, हैलाइट गिब्साइट की तुलना में अधिक घुलनशील होता है। अधिकांश शैल कुछ हद तक जल में घुलनशील होते हैं। भूजल की क्रिया विशेषरूप से चूनापत्थर, डोलोमाइट और चॉक वाले क्षेत्रों में विशिष्ट भूआकृतियों का सतह पर सम्मुचय निर्मित करती है जिसे कार्स्ट । स्थलाकृति कहते हैं। चूनापत्थर कैल्शियम कार्बोनेट का बना होता है जो प्रबल रूप से कार्बोनिक अम्ल विलयन के साथ अभिक्रिया करके कैल्शियम बाइकार्बोनेट बनाता है। इस कैल्शियम बाइकार्बोनेट मिश्रण की जल में घुलने की प्रवृत्ति होती है।

जैसा कि हम जानते हैं कि वर्षा जल मुख्यरूप से भूजल का मूल स्रोत है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO.) गैस उपस्थित होती है और वर्षाजल तालों और महासागरों में घुल जाती है। कार्बन डाइऑक्साइड मिश्रित वर्षाजल एक सक्रिय विलायक बन जाता है। जब ये विलायक शैलों से अंतःस्रवित होता है, तो ये शैल कणों को विलयन के द्वारा घुलनशील एवं विघटित कर देता है। कार्बन डाइऑक्साइड (CO.) जल में घुली होने पर निर्बल कार्बोनिक अम्ल (H,O+ CO, →H,CO.) बनाती है। कार्बोनिक अम्ल काट दृश्यभूमि में मुख्य विलायक होता है।

डोलोमाइट शैल कैल्सियम, मैग्नेशियम कार्बोनेट शैल होते हैं जो सामान्य स्थितियों में चूनापत्थर से थोड़ा कम घुलनशील होते हैं लेकिन विशेषतया प्राकृतिक जलों में चूनापत्थर की भाँति ही व्यवहार करते हैं। सतह के नीचे चूनापत्थर में संधियाँ और दरारें मन्द गति से चौड़ी हो जाती हैं जिसके फलस्वरूप भूमिगत कंदराएँ और अवनलिकाओं का निर्माण होता है ।

ये क्षैतिज और ऊर्ध्व दोनों रूपों में बनती है। कंदराएँ अवसादों हेतू बेहतरीन जाल के रूप में कार्य करती हैं और ये सिंक अथवा अंतःस्रवण बिंदु से धारा अथवा रिसाव बिंदु तक जल के प्रवाह को संभव बनाती है। कैल्साइट के अवक्षेपण से गुफाओं के अंदर आकर्षण और अलंकरण युक्त भूआकृतियाँ निर्मित होती हैं जिन्हें गुहा गौण निक्षेप (Speleothem) कहते हैं। गुहा, गौण निक्षेप मुख्य रूप से कार्बोनेट निक्षेपों के बने होते हैं और जल के बूंद-बूंद गिरने या प्रवाहित होने से बनते हैं। जब जल और कार्बन डाइऑक्साइड (CO.) विलयन से निकल जाते हैं, तो कैल्साइट मिश्र निक्षेपित हो जाता है।

अधिकांश निक्षेपण कंदराओं के किनारे वाले भागों में होता है और छत तथा फर्श पर भी होता है। स्टैलेगमाइट और स्टैलेक्टाइट सबसे सामान्य प्रकार के गुहा गौण निक्षेप हैं। स्टैलेगमाइट जल प्रवाह के द्वारा फर्श से किनारे वाले भागों और छत की और विकसित होता है जबकि स्टैलेक्टाइट छत से टपकने वाले जल से बनता है। विश्व में । सबसे बड़ा गुफा तंत्र मैमॉथ गुफा, यू. एस. ए. का है जो अपने ज्ञात पथ का 560 किलोमीटर से अधिक और विशेषरूप से 110 मीटर की ऊर्ध्व गहराई तक के एक पथ का हिस्सा आवृत्त करता है।

शब्द कार्ट प्रक्रियाओं के समूह और भूआकृतियों के सम्मुचयन दोनों को प्रदर्शित करता है। विविध प्रकार की लघुस्तर की विलयनी विशेषताएँ और प्रतिमाएँ जैसे खाँचे अथवा रंध्र आदि चूनापत्थर और डोलोमाइट सतहों पर भूमि पर अथवा गुफाओं में पाई जाती हैं

जिन्हें कैरन कहते हैं। इन्हें फ्रांसीसी में लैपीज और स्पेनिश भाषा में लैपियाज भी कहते हैं। ये विशेषताएँ व्यापक रूप से समूहों में पाई जाती है और कैरन क्षेत्र कहलाती हैं। कैरन चूनापत्थर के सतह पर घुलने से बनते हैं और चॉक की अत्यधिक सरंध्र प्रकृति होने के कारण उस पर नहीं बनते हैं।

कार्ट दृश्यभूमियों की सबसे सामान्य सतही विशेषताएँ घोल रंध्र या डोलाइन है। ये सामान्यतः बंद गर्त होते हैं जो वृत्तीय अथवा दीर्घवृत्तीय आकार के होते हैं। ये मीटर से कुछ कम से लेकर कई सौ मीटर व्यास तक के हो सकते हैं और कुछ मीटर से लेकर सैंकड़ों मीटर तक की गहराई के होते हैं। विभिन्न प्रकार के घोलरंध्रों के विकास में अनेक समुच्चय प्रक्रियाओं जैसे सतही कार्बोनेट शैलों का घुलना, गुहा निपात, अवतलन और पाइपिंग इत्यादि सम्मिलित होती हैं।

एक से अधिक घोलरंध्रों के जुड़ने से युआला बनते हैं और इनके फर्श सपाट होते हैं। ये सामान्यत: छोटे डोलाइनों से बड़े होते हैं। अशुद्ध चूनापत्थर के विकैल्सीकरण के कारण, घोलरंध्रों के अंदर सामग्री का संचयन होता है जिसे टैरा रोसा कहते हैं। पौल्जे एक बड़ा परिबंद गर्त है जिसके सपाट फर्श होते हैं जो प्रमुख रूप से शीतोष्ण क्षेत्रों में दिखाई देते हैं। शब्द पोल्जे का स्लाविक भाषा में अर्थ कृषि योग्य भूमि से है। इन्हें इटली में कैम्पों अथवा पिआनो, फ्रांस में प्लानस, क्यूबा में होजोस, स्पेन में प्ला और मलेशिया में वैंग कहते हैं। उच्च पारगम्यता वाले पदार्थ भूजल को इन परस्पर संबन्धित रंध्रों के द्वारा संचारित करने में सक्षम होते हैं।

कार्ट दृश्यभूमि से होकर प्रवाहित होने वाली नदियों में अपरदन प्रक्रिया के कारण विभिन्न प्रकार की घाटियाँ बन जाती हैं। ये विशेषरूप से कंदरा (कैवन) निपात के द्वारा प्रायः महाखड्डे बनाती है। नदी अपने जल के प्रवाह को क्रमशः किसी स्थान विशेष पर कम कर देता है जिससे अंध घाटी का निर्माण होता है, जहाँ नदियों का कुल भार कार्स्ट पिंड के भीतर प्रवाहित होता है।

शुष्क घाटियां कमोवेश सामान्य नदी घाटियों जैसी होती है जिनके संस्तरों में नदीय चैनल नहीं होते हैं और ये मुख्य रूप से चैनल तंत्र में जल के अग्र भागों पर पाई जाती है। ये कार्ट दृश्यभूमियों में सामान्य है और इनमें चूनापत्थर वाले क्षेत्रों में विशिष्ट रूप से खड़े ढाल और सपाट फर्श होते हैं

समुद्री तरंगों के कार्य

हम मे से अनेक लोग ये जानते हैं कि हमारे नीले ग्रह का 70 प्रतिशत से अधिक भाग किलोमीटर क्षेत्र के दायरे महासागरों के जल से आवृत्त है। महासागरों की तरंगें और धाराएँ तटीय भूभागों में विशेष में रहती है। और दर्शनीय दृश्यभूमि निर्मित करती हैं। आइए हम तरंगों और महासागरीय धाराओं द्वारा जल की गति की प्रक्रिया को समझते हैं। विशिष्ट अर्थों में, लहरें अपरदन की कारक हैं और धाराएं परिवहन और निक्षेपण के लिए उत्तरदायी होती हैं।

तरंगें तटरेखा परिवर्तनों की क्रिया में सम्मिलित प्रमुख कारक हैं और ये याद रखना चाहिए कि तरंगें जल की सतह पर पवन के बहने के दौरान इसके द्वारा निर्मित होती है। सतह के निकट पवन की क्रिया गहरे जल से अपेक्षाकृत उच्च होती है। पवन तरगें सभी तटरेखाओं, छोटे तालाब, झीलों से लेकर बड़े महासागरीय बेसिनों तक प्रचालन करती हैं। तरंगें जल में कक्षीय गति में बनती है जो तली की ओर कम हो जाती है।

यह दोलनी तरंगें कहलाती हैं । इस प्रक्रिया में जल की गति गहराई में बहुत निर्बल होती है जो उनकी तरंगदैर्ध्य से लगभग आधे के बराबर होती है। जब तरंग प्रवाहित होती है तो जल की ऊपरिमुखी और अधोरदन की ओर गति होती है जो तरंग श्रृंग और तरंग गर्त कहलाती है। एक गर्त से गर्त अथवा श्रृंग से श्रृंग के बीच की क्षैतिज दूरी तरंग दैर्ध्य (L) कहलाती है, जो पवन वेग के समानुपाती होती है।

श्रृंग से गर्त तक की ऊर्ध्व दूरी को तरंग उच्चता कहते है; जल गर्त की अपेक्षा श्रृंग में से अधिक तेजी से गति करता है। सागर की तरंगें पवन की दिशा में सागर में चलती है और इनकी ऊंचाई पवन की गति, पवन अवधि और पवन की दूरी पर निर्भर करती है। जब तरंगें उथले जल में पहुंचती हैं तो ये आगे की ओर झुक जाती हैं और फिर तरंगें अचानक टूट जाती हैं। तरंग के टूटने के पश्चात् तरंगों का बल पुलिन (Beach) पर पड़ता है और यह उद्धावन उत्पन्न करता है।

परिणामी तरंग वापसी प्रवाह के दौरान पश्च धावन (Back wash) का निर्माण करती हैं, जिनसे तरंगिका (Rip current ) उत्पन्न होती है। और स्थानीय धारा अनियमित होती है जो स्नान करने वालों के लिए असंभावित खतरा उत्पन्न करती है। उथले जल में, तरंग श्रृंग का उपतटीय भाग अपतटीय भागों से अधिक मंद गति से चलता है। जब तरंग तट पर आती है, तो इसके श्रृंग की प्रवृत्ति समुद्रतलके स्थलाकृतिक समोच्च रेखा के समान्तर चलने की होती है। यह प्रक्रिया तरंगिका एक तरंग अपवर्तन कहलाती है।

महासागरीय जल की एक अन्य महत्वपूर्ण क्रिया ज्वार-भाटा कहलाती है जिसका एक नियमित और पूर्वसूचनीय पैटर्न होता है। ज्वार-भाटे में चक्रों में जल ऊपर उठता और नीचे गिरता है जिससे एक दिन में दो बार उच्च ज्वार और दो बार निम्न ज्वार आता है। ज्वार-भाटे महासागर के जल में होने वाली गतियाँ हैं जो सूर्य और चंद्रमा के गुरूत्वाकर्षण के कारण होती हैं। इनसे तटों पर जलस्तर में परिवर्तन हो जाता है। लगभग सभी तटों पर उभरते एवं अवपाती ज्वार आते हैं।

ये दो प्रकार के होते हैं

  • उच्च वृहद् ज्वार सामान्य उच्च ज्वारों से उच्चतर होते हैं जो तब प्रकट होते हैं जब पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य एक सीध में सदृश होते हैं।
  • लघु ज्वार भाटे वृहद् ज्वार भाटों के एकान्तरी होते हैं और तब प्रकट होते हैं जब चंद्रमा और सूर्य पृथ्वी के सापेक्ष एक दूसरे के लंबवत् होते हैं।

ज्वार-भाटे तरंग क्रिया के ऊर्ध्व विस्तारों को नियंत्रित करते हैं। एक बड़ा ज्वार-भाटा विस्तार व्यापक तट क्षेत्र निर्मित करने के योग्य होता है जबकि छोटा ज्वार-भाटा विस्तार स्थिर स्तर पर अल्प तरंग ऊर्जा निर्मित कर सकता है। महासागरीय धाराएँ अवसादी आपूर्ति के परिसंचरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। महासागरीय धाराओं को मुक्त सागर में पवन द्वारा परिसंचरित जल की बृहत् संचलन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। 

तरंगें तटरेखाओं के पास अपरदन करने के लिए उत्तरदायी होती है। संक्षारण के कारण, घुलनशील शैलें तरंग क्रिया के कारण कुछ हद तक समुद्री जल में घुल जाते हैं। लेकिन ये प्रक्रिया तरंग क्रिया में कम महत्वपूर्ण है क्योंकि महासागरीय जल में कैल्सियम कार्बोनेट की उच्च मात्रा के कारण घुलना धीमा होता है। तटरेखा प्रक्रियाओं में अपघर्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तरंगें समतल गोल पत्थरों, बाल, गुटिकाओं और छोटे ।

गोलाश्मों को शैल चट्टानों और तट पर आघात करने के लिए तैयार करती है जिससे सघन अपरदन होता है। बनने वाला मलबा आगे की तरंग क्रिया द्वारा खंडित, चिकना और अधिक छोटे कणों में परिवर्तित हो जाता है और इसमें से अधिकांश मलबा तरंगों के प्रबल बल के कारण वापस सागर में ले जाया जाता है। तटीय शैलों की संधियों और दरारों में अत्यधिक दबाव पड़ता है जिससे विदलनों का निर्माण होता है। संक्षारण और अपघर्षण के विपरीत, शैल पदार्थ अधिक बारीक या बहुत छोटे अंशों में विघटित हो जाते हैं और आसानी से अध: प्रवाह एवं तरंगिकाओं के साथ सागर में चले जाते हैं। यह प्रक्रिया संनिघर्षण कहलाती है।

तरंगों की चलजलीय क्रिया के कारण तटीय शैलें तरंगों के अत्यधिक बल के साथ तटीय शैलों पर टकराने से विघटित हो जाते हैं। शैल में रंध्र या दरारें होती हैं जिनमें वायु भरी रहती है, जब जल इन रंध्रो में प्रवेश करता है तो । संपीडित वायु शैल को छोटे टुकड़ो में तोड़ देती है। यह आंकलन किया गया है कि तट पर तूफान आने की घटना के समय जल की तरंगों द्वारा लगभग 36 टन प्रति वर्ग मीटर क्षेत्रफल तक दाब मोचित होता है।

तूफान में, प्रबल तरंग गति के साथ ही ऐसे चलजलीय बहाव में सम्मिलित जल का द्रव्यमान गंभीर तटीय अपरदन के लिए उत्तरदायी होता है। जब सागर का जल गहरा होता है, तो सागरीय तरंगें सीमित बल के साथ क्रिया करती है, जबकि उथले सागर तट तरंगों द्वारा अपार बल के साथ अधिक अपरदन किए जाने से अधिक प्रभावित होते हैं। विखंडनी तरंगें तटीय शैलों पर अत्यधिक दाब डालती हैं लेकिन इनकी तीव्रता सामान्यतः शैलों और विखंडनीय लहरों के बीच की दूरी पर निर्भर करती  हैं।

भूकपीसिंधु अथवा सुनामी तरंग सामान्यतः आकस्मिक भूस्खलन अथवा सागरतल पर अवसर्पण के द्वारा उत्पन्न होती है जिनमें भूकंप सागरतल के भ्रंशन से संबंधित होते हैं और कभी-कभी उल्कापिण्डों अथवा धूमकेतुओं के द्वारा भी होती है। मूंकपीसिंधु अथवा सुनामी तरंग एक जापानी शब्द है जिसका अर्थ बंदरगाह की तरंगें है। विश्व के इतिहास में एक दुखद भूकपीसिंधु अथवा सुनामी तरंग 26 दिसंबर, 2004 को हिंद महासागर में आई थी जो इंडोनेशिया के सुमात्रा क्षेत्र में रिक्टर पैमाने पर 9.4 तीव्रता के भूकंप द्वारा उत्पन्न हुई थी।

इसमें कुल 2.3 लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुई थी जिनमें से 1.67 लाख लोग इंडोनेशिया में, 35000 श्रीलंका में, 1800 भारत में और 8000 थाइलैण्ड से थे। मूंकपीसिंधु अथवा सुनामी तरंगें कभी-कभी तट पर 100 से 150 किलोमीटर की लम्बी दूरी के साथ और 400 से 500 किलोमीटर प्रति घंटा के वेग से आती है। तरंग की ऊँचाई खुले सागर में 1 से 2 फुट तक लेकिन तट पर आने पर ये 40 मीटर तक हो सकती है। यद्यपि भूकपीसिंधु अथवा सुनामी तरंगें बहुत कम आती हैं लेकिन ये तट पर व्यापक स्तर पर विनाश और अपरदन करने में सक्षम होती हैं।

तरंगें विविध प्रकार की दृश्यभूमि की विशेषताओं को निर्मित करती हैं। समुद्र के तट पर लहरों के द्वारा अधः कर्तित प्रक्रिया के कारण शैल या अवसाद से निर्मित खड़ी ढ़ाल अथवा ऊर्ध्व भित्ति भृगु कहलाती है। भृगु की ढलान सामान्यतः संस्तर शैल के । अश्मविज्ञान और भूवैज्ञानिक संरचना तथा अपक्षयण की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। भृगु को महाद्वीप और सागर के मध्य का संक्रमण क्षेत्र भी माना जाता है। संधियों और संस्तर तलों पर, तरगें दबाव डालती हैं और भृगु के आधार को सक्रियता से काटती हैं जिससे अवतल आकार बन जाता है। इस प्रकार की अवतल काट को खाँच अथवा स्पर्शिका कहते हैं।

पानी के अंदर और अधः कर्तित क्रिया के कारण, भृगु का ऊपरी भाग झूलता हुआ प्रतीत होता है और ये किसी भी समय गिर सकता है। तरंग द्वारा कटे प्लेटफॉर्म अथवा वेदिकाएँ भृगु के फलक पर भृगु प्रतिसरण के दौरान होने वाली प्रक्रिया से बनते हैं। जब प्लेटफॉर्म के अपेक्षाकृत मृदु भाग का मंद अपरदन होता है जबकि कठोर भाग विअपरदित रहते हैं, तो ये विशेषता शैलभित्ति कहलाती है।

महाखड्ड, समुद्री गुफा, तटीय मेहराब, समुद्री स्टैक, खाड़ी, रेखिका, भूजिहवा इत्यादि सामान्यतः शैलों की संरचनात्मक दुर्बलता के कारण होने वाले प्रबल अपरदन के कारण । बनते हैं। महाखड्ड एक प्रकार की अपरदनात्मक विशेषता है जो तरंग की क्रिया के द्वारा शैलों की निर्बल भ्रंश रेखाओं अथवा संधियों पर निम्न गर्त के साथ बनते हैं।

महाखड्ड को स्कॉटलैन्ड में जिओस अथवा यॉन और दक्षिण-पश्चिम इंग्लैन्ड में जॉनस कहते हैं। जब तरगें बलपूर्वक पास-पास सटे संधित शैलों पर आघात करती हैं, तो मृदु शैल भाग । कटकर गिरते हैं और अपरदित हो जाते हैं जिसके परिणामस्परूप समुद्री गुफाएँ बनती । है। तटीय मेहराब तब बनते हैं जब दो गुफाओं के ऊपरी भाग सम्मुख भागों में जुड़ जाते हैं। जब मेहराब अंदर धंस जाता है और अवशेषी भाग तरंग द्वारा कटे प्लेटफॉर्म पर खड़ा रह जाता है तो इससे बनने वाली विशेषता समुद्री स्टैक कहलाती है।

जब सामग्री आसपास की संहत तटीय सामग्री की अपेक्षा आसानी से अपरदित हो जाता है, तो खाड़ी बनती है। रेखिकाएँ अन्तराज्वारीय और उप-ज्वारीय क्षेत्रों में बनते हैं। ये विभिन्न आकारों के जैसे रेखीय, लहरदार अथवा चापाकार होते हैं और सामान्यतः तट के समान्तर अथवा तिर्यक होते हैं। जब बालू अथवा बजरी तरंगों, ज्वार और पवन की क्रिया द्वारा संचयित हो जाती है, तो एक अवरोध बन जाता है। स्पिट (Spits) अवसादों के भू-पृष्ठीय दृश्यांश होते हैं जिनमें बालू और बजरी होती है जो वेलांचली धाराओं के प्रवाह फलस्वरूप निक्षेपित होती है। रोधिका भुजिहवा ज्वारनदमुखों के मुहाने पर बनते हैं। पुलिन की बालू का वह प्रपथ जो एक द्वीप को दूसरे द्वीप अथवा द्वीप को मुख्यभूमि से जोड़ता है संयोजी भित्ती (Tombolo) कहलाता है।

महासागर के भूमि की ओर के भाग के किनारों में संचयित अवसाद पुलिन अथवा बीच कहलाती है। पुलिनें सामान्यतः विभिन्न स्थानीय रूप से उपलब्ध प्रचुर सामग्रियों और भृगुओं तथा पर्वतों और नदियों से प्राप्त अवसाद से बनते हैं। कुछ पुलिने गुटिका पुलिने है जो सामान्यतः मध्य और उच्च अक्षांशों पर देखे जाते हैं और कुछ बलुई प्रकृति के होते हैं जो उष्णकटिबंधी तटों पर पाए जाते हैं। पदार्थों का एक से दूसरे स्थान पर परिवहन तट पर तरंगों की क्रिया द्वारा होता है।

तूफानों के समय तरंग का बल उच्चतम होता है, जिससे शैलें खंडित हो जाती हैं और विभंगें भी चौड़ी हो जाती हैं। पुलिन में, बालू का संचयन और उसकी हानि मुख्य रूप से तरंग क्रिया के स्तर पर निर्भर करती हैं। कम ऊर्जा की तरंगें बालू को घटती हुई पश्चधावन की वजह से पुलिन के मुख की ओर ले जा सकती है। अत्यधिक ऊर्जा युक्त तरंगों के कारण, पुलिन की अपरदन को प्रभावित करने की प्रकृति होती है क्योंकि प्रबल पश्चधावन द्वारा बालू की गति को मुक्त सागर के जल की और कर सकती है। यदि आप पुलिन को निरंतर देखें, तो आपको गर्मियों के मौसम में चौड़े रेतीले पुलिनें और सर्दियों में संकरे पुलिनें दिखाई देंगे। ऐसा गर्मियों और सर्दियों के दौरान तरंग क्रिया की परिवर्ती तीव्रता के कारण होता है।

सर्दी के मौसम में अधिकतर तूफान आते हैं। तरंगों, धाराओं और पवन की क्रिया द्वारा सागर के किनारों पर अवसादों के निक्षेपित हो जाने से समुद्रतटीय बालू के टिब्बे बन जाते हैं। ये मरूस्थली टिब्बों के समान होते हैं और मुख्य रूप से मध्यम से बारीक आकार के क्वार्ट्ज कणों से बनते हैं। ज्वारनदमुख लंबी और संकरी ज्वारीय निवेशिका हैं और आंशिक रूप से परिबद्ध लेकिन मुक्त सागर से जुड़ी रहती हैं।

पवन के कार्य

पवन सभी स्थलीय पर्यावरणों में एक भूआकृतिक कारक है। पवन की क्रिया से वातोढ़ प्रक्रियाएँ होती हैं जिनमें अपरदन, परिवहन और निक्षेपण इत्यादि सम्मिलित हैं। पवन अनेक पदार्थों को अपरदित करके उड़ा ले जाती है और उन्हें उनके स्रोत क्षेत्र से अधिक दूरी पर निक्षेपित कर देती है। पवन द्वारा अपरदन और परिवहन की क्षमता मुख्य रूप से कणों के भार, आमाप और आकार पर निर्भर करती है। सपाट आकार के कणों में गोल कणों की तुलना में बहुत मंद गति होती है। वातोढ़ (Aeolian) कण सामान्यतः हिमनदीय और नदीय पर्यावरणों के कणों की तुलना में गोलाकार आकार के होते हैं।

पवन बालू के आमाप के कणों और गाद को बहा ले जाती है जो धूल भरी आंधी के रूप में हजारों । किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। प्रक्षुब्ध पवनें भारी मात्रा में बारीक धूल को हवा में उछालती है जिससे सघन धूलि मेघ बन जाते हैं जिसे धूल भरी आँधी कहते हैं। धूल से भरे मेघों में खड़े होने पर व्यक्ति धुंधलेपन अथवा पूर्ण अंधकार में छिपा प्रतीत होता है। शुष्क क्षेत्रों में पवन की क्रिया बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यहाँ पर कम वनस्पतियाँ, अनाच्छादित शैलों और मृदा सतहों की उपस्थिति के कारण वातोढ़ क्रियाएँ घटित होती है।

शुष्क क्षेत्रों की पहचान मुख्य रूप से यांत्रिक अपक्षयण के द्वारा होती है जिसमें तापमान के दैनिक विस्तार और तुषार क्रिया के कारण होने वाली शैलों के विघटन की प्रक्रिया सम्मिलित है। विघटित शैल कणों को पवन द्वारा परिवहित किया जाता है। ये न सिर्फ अपनी राह में आने वाले शैलों पर आघात करते हैं बल्कि एक-दूसरे के साथ भी टकराते हैं। शैल कणों के आमाप में परस्पर घर्षण के कारण धीमें रूप से कमी आती है और बलपूर्वक टकराने से ये और छोटे कणों तथा महीन बालू और धूल में विखंडित हो जाते हैं।

ये प्रक्रिया संनिघर्षण कहलाती है। हम बलुई समुद्रतटों पर वनस्पतिहीन क्षेत्रों में और जलोढ़ मैदानों में भी पवन की क्रिया को देख सकते हैं जहां ये क्षेत्र हिमानियों और हिमपरतों के किनारों पर होते हैं। शुष्क पर्यावरणों के अतिरिक्त अन्य सभी में पवन की क्रिया सुरक्षात्मक वनस्पति आवरण और आर्द्रता युक्त मृदा होने के कारण बहुत कम होती है।

पवन अपस्फीति (Deflation) और अपघर्षण प्रकार की अपरदनी क्रिया करती है। असंपिंडित बालू और धूल कणों को पवन द्वारा हटाने, उठाने और दूर उड़ा ले जाने की प्रक्रिया अपस्फीति कहलाती है। अपस्फीति मुख्य रूप से वायु की धाराओं द्वारा होती है। व्यापक स्तर पर उन्मुक्त कणों को किसी स्थान से उड़ा ले जाने से वहाँ गर्त या खोरवले गढ्ढे बन जाते हैं जिन्हें वातगर्त अथवा खोखले अपस्फीति कहते हैं । वातगर्त कुछ मीटर से लेकर एक किलोमीटर से अधिक व्यास के हो सकते हैं। ये सामान्यतः शुष्क जलवायु वाले सपाट मैदानी भागों में बनते हैं।

कभी-कभी ये गर्त वर्षाजल से भर जाते हैं और एक प्रकार का उथला तालाब या झील बन जाता है। अपस्फीति पीठिका शैलों के निर्माण करने में भी उत्तरदायी होते हैं, जिनमें निर्बल शैल के अवशेषी पिंड अपेक्षाकृत कठोर शैलों से ढके रहते हैं। ये मरूस्थली और अर्ध-मरूस्थली क्षेत्रों में सक्रिय होते हैं। अपस्फीति बजरी मरूस्थल सतह के निर्माण का भी एक कारक है।

बजरी अथवा स्थूल सामग्री की पतली परतें सुरक्षात्मक आवरण के रूप में बिछ जाती है जो नीचे स्थित अपेक्षाकृत बारीक पदार्थों को पवन द्वारा उड़ा ले जाने से बचाती है इसे पश्च-निक्षेप कहते हैं। इन्हें मरूस्थली क्षेत्रों के अतिरिक्त पर्वतीय और परिहिमनदीय पर्यावरणों में भी देखा जा सकता है।

पश्च-निक्षेपों के ऐसे स्थूल पदार्थों को गिबर (ऑस्ट्रेलिया में), मरूथल कवच क्षेत्र (उत्तरी अमेरिका में), हमाडा, सेरिर और रेग (अरब क्षेत्र में) कहते हैं। व्यापक स्तर पर पश्च-निक्षेपों द्वारा बने पथरीले रास्ते निरंतर और सपाट शैल आवरण के साथ संकलित हो जाते हैं। इनको विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे यू. एस. ए. में मरूस्थली क्षेत्र का पेवमेन्ट, ऑस्ट्रेलिया में गिबर का मैदान और मध्य एशिया में गोबी का मैदान इत्यादि ।

पवन बड़ी मात्रा में बालू तथा छोटे कोणीय शैल कणों को अपरदन के साधन के रूप में बहा ले जाती है और ये कण शैलों और मृदा सतहों पर बालू विस्फोट के रूप में आघात करते हैं। इसके फलस्वरूप शैल सतहें चिकनी और चमकदार हो जाती हैं। यह प्रक्रिया वातोढ़ अपघर्षण कहलाती है। पवन अपघर्षण पृथ्वी की सतह से एक मीटर की ऊंचाई के दायरे में सबसे प्रभावी होता है क्योंकि सामान्य पवन सामान्य आकार के कणों को 180 सैंटीमीटर से अधिक ऊँचाई तक नहीं उठा सकती हैं। जब बड़े गोलाश्मों द्वारा पवन । बाधित होती है, तो इसकी गति कम हो जाती है जिससे पदार्थ का निक्षेपण हो जाता है, उदाहरण के लिए बालू और मृत्तिका का संचयन ।

पवन कणों को विभिन्न तरीकों जैसे मंद विरूपण विसर्पण, वल्गन, कर्षण और निलंबन इत्यादि द्वारा परिवहन करती है। सतह पर पवन की क्रिया द्वारा स्थूल कणों का पलटना ओर धकेला जाना विसर्पण कहलाता है। विसर्पण द्वारा गति करने वाले पदार्थ की मात्रा का आंकलन करना कठिन होता है क्योंकि विसर्पण और रेपटेशन (Reptation) विसर्पण की प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित होती हैं। रेपटेशन (Reptation) एक प्रकार की गति है जिसमें कण उच्च ऊर्जा कणों के प्रभाव में थोड़ा उछलते हुए गति करते हैं। वल्गन में बारीक कण उछल कर कुछ दूरी तय करते हैं और फिर सतह पर गिर जाते हैं। इसकी ऊर्जा का प्रभाव अन्य कणों को उछालता है।

छोटे कण उच्च वेग के साथ सामान्यतः अधिक दूरी तय कर लेते हैं। वल्गन की ऊँचाई 3 मीटर तक हो सकती है, लेकिन औसतन ऊँचाई 0.2 मीटर तक होती है। वल्गन उन्मुक्त बालू की अपेक्षा चट्टानी सतह अथवा गुटिका की सतह पर अधिक होता है। बालू कणों से बड़े आकार के कण कर्षण द्वारा गति करते हैं। ये पवन द्वारा अल्प कोण पर भूमि पर लुढ़कते और धकेलते हुए चलते हैं। प्रक्षुब्ध वायु प्रवाह में, बहुत बारीक कण कई दिनों तक काफी ऊँचाई पर रहते हैं और अंत में धूल के रूप में निक्षेपित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया निलंबन कहलाती है। जो कण लंबी अवधि तक वायु में रहते हैं उसे दीर्घावधि निलंबन कहते हैं और जब कण जल्दी ही भूमि पर गिर जाते हैं तो उसे अल्पावधि निलंबन कहते हैं।

वायुघृण्टाश्म (Ventefacts) चिकनी सतह वाले खंड शैल दृश्यांश अथवा गोलाश्म होते हैं जो पवन द्वारा लाए जाने वाले कणों के प्रभाव से चमकदार या फलकित हो जाते हैं। ये सामान्यतः गर्त, बांसुरियों, खांचों, निक्षारण और सर्पिलज प्रकारों से संबन्धित है जो प्रतिरोधी शैलों में पाई जाती है।

वायुघृण्टाश्म और उनसे संबन्धित प्रकारें पवन की दिशा और परिसंचरण का निर्धारण करने के लिए संकेत प्रदान करती है। यारडांग सपाट शीर्ष और नौतल विहीन होते हैं जो एक छोटे पानी के जहाज के कक्ष जैसे दिखते हैं। प्रति पवन की दिशा का फलक पवनाभिमुख फलक से अधिक ऊँचा और चौड़ा होता है। ये अपघर्षण और अपस्फीति की प्रक्रियाओं द्वारा बनते हैं। यारडांगो के अनेक संरूप तिब्बत मैसिफ (मध्य-पूर्व सहारा), मिस्र, ईरान, अरेबिया, मध्य एशिया, नामीबिया, पेरू और दक्षिण एन्डीज के मरूस्थलों में पाए जाते हैं। बालू टिब्बा पवन द्वारा आकार दी गई कमजोर बालू का कोई टीला/पहाड़ी होता है। बालू के विशाल संचयनों का टीलों के रूप में निक्षेपण जो वातोढ़ बालू निक्षेपों के रूप में पाया जाता है, बालू सागर या अर्ग कहलाता है।

अर्ग (Erg) सदैव प्रबल पवन की दिशा में चलते हैं। ये भूआकृतियाँ क्षेत्रीय स्तर पर बालू परिवहन पथों के अंत में पाई जाती है। यह बालू का परिवहन करने वाले पवनों और स्थलाकृतिक कारकों की परिणामी दिशा को दर्शाता है। उदाहरण के लिए सहारा के मरूस्थल में अत्यधिक लाल बालू टिब्बा विशाल बालू सागर से बने बालुकाश्म से उत्पन्न होती है। अर्ग को लीबिया में एडियन, मध्य एशिया में कौम अथवा कुम तथा पेस्की, अरेबिया में नाफुड और सहारा में कौज कहते हैं। कहीं पर भी विशाल सपाट सतही बालू की परतों के शीर्ष भाग में बजरी का मरूस्थली पथ रेग कहलाता है।

बालू और धूल कण जो पवन की क्रिया द्वारा गति करते हैं अंततः पवन के रूकने पर निक्षेपित हो जाते हैं। एकदिशीय पवन प्रतिरूप की सामान्य स्थितियों में, सामान्य टिब्बे अभिपवन और प्रतिपवन ढालों के साथ बनते हैं। पवन की क्रिया द्वारा अनेक प्रकार के टिब्बे बनते हैं अनुप्रस्थ टिब्बों की पहचान पवनभिमुख दिशा में हल्के ढ़ाल और खड़े प्रतिपवन ढ़ाल द्वारा होती है। टिब्बा कटकों के बीच गहरे गर्त होते हैं। ये उन पट्टियों के बने होते हैं जो मूलरूप से पवन के लंबवत् होती है।

चापाकार टिब्बे की उत्पत्ति तुर्की में हुई है जो एक अर्धचंद्राकार टिब्बे के आकार के रूप में पृथक्कृत रहते हैं जिसका असममित प्राचल होता है। ये सपाट और गुटिका से आवरित भूमि की सतह पर अथवा पेडिमेंट पर विकसित होते हैं। ये सामान्यतः अर्ग के किनारों पर पाए जाते हैं और छोटे आकार के होते हैं और इनकी ऊँचाई सामान्यतः इनकी चौड़ाई का दसवाँ भाग होती है।

तारक टिब्बे (Stardunes) किसी स्थान विशेष पर स्थिर रहते हैं और किसी मरूस्थल दृश्यभूमि की लगभग स्थायी विशेषता होते हैं। ये विशिष्ट रूप से बड़े रेत के पर्वत होते हैं जिनमें टिब्बे के शिखर केन्द्र से विकिरणकारी होते हैं और स्थानान्तरित नहीं होते हैं। तारक टिब्बे, शंकुओं और बालू पर्वत एवं गॉर्डस (Ghourds) को पिरैमिड टिब्बों के रूप में श्रेणीकृत किया जाता है। इनके अनेक सर्पण फलक होते हैं जो पवन की अनेक दिशाओं के परिणमस्वरूप विकसित होते हैं।

सीफ (Seif) एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है ‘वक्रित तलवार’ जो रेखीय अथवा अनुदैर्ध्य लहरदार श्रृंगों वाले टिब्बों के लिए प्रयोग किया जाता है। ये वहाँ बनते हैं जहाँ दो प्रभावी पवन की दिशाएँ एक-दूसरे से लगभग समकोण पर उपस्थित होती हैं। श्रृंग सीधे हो सकते हैं अथवा उच्च ऊँचाई वाले बिंदुओं पर स्थित हो सकते हैं जो किनारे से प्रतिपवन फलक के शीर्ष पर पृथक्कृत हो सकते हैं।

रेखीय टिब्बा सीफ़ को सिफ़ अथवा सिल्क भी कहा जाता है। बालू कटकों के बीच के गलियारों को गासी या गाउड कहते हैं। बालू टिब्बों की सतह पर सामान्यतः पवन द्वारा निर्मित उर्मिकाएँ पाई जाती हैं। पवन बालू को अंतःस्थल से उड़ा सकती है जिससे महासागरों अथवा झीलों के तटों पर टिब्बों के बनने में सहायता मिलती है। कुछ प्रकार के टिब्बों को वनस्पति, स्थलाकृतिक और स्थानीय अवसादों के द्वारा भी नियंत्रित कर सकते हैं।

वनस्पति से स्थिरक टिब्बा पादपों के इर्द-गिर्द वातोढ़ बालू के स्थिरीकरण द्वारा विकसित होते हैं और नेम्का अथवा झाड़ी, परछाई अथवा हमोक टिब्बे कहलाते हैं। ये अर्धशुष्क और तटीय क्षेत्रों में निम्नभूमि के बड़े क्षेत्रों में फैले रहते हैं। लोएस एक बारीक कण का अवसादी निक्षेप है जिसमें क्वार्ट्ज, फेल्डस्पार, कार्बोनेट और मृत्तिका खनिजों के कण पवन द्वारा शुष्क क्षेत्रों से लाए जाते हैं और अन्यत्र निक्षेपित कर दिए जाते हैं। चेक और स्लोवेक गणराज्यों तथा मध्य चीन घने लोएस निक्षेपों के लिए जाने जाते हैं जिन्हें लोएस का पठार कहते हैं।

सारांश

  • जैसा कि आप जानते हैं भूमि सतहों में निरंतर विविध प्रक्रियाओं के द्वारा रूपांतरण होते रहते हैं। इन प्रक्रियाओं को अंर्तजनित और बर्हिजनिक प्रक्रियाओं के रूप में श्रेणीकृत किया जाता है।
  • बर्हिजनिक प्रक्रियाओं की उत्पत्ति पृथ्वी के वायुमंडल से होती है। इनमें मुख्य रूप से अपक्षयण और बृहत् क्षरण तथा अन्य विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाएँ जैसे जल, हिम, सागर की तरंगों और पवन द्वारा अपरदन, परिवहन और निक्षेपण इत्यादि सम्मिलित हैं।
  • अपरदन की प्रक्रिया में विलय होना, जलद्रवीय क्रिया, अपघर्षण और संनिघर्षण आदि सम्मिलित है। ये सभी अधिकतर नदी, भूजल, हिम, सागर की तरंगों और पवन की क्रिया में विभिन्न चरणों में सम्मिलित होती हैं।
  • अपरदित सामग्री फिर विभिन्न प्रक्रियाओं जैसे निलंबन, कर्षण और वल्गन इत्यादि के द्वारा ले जाई जाती है और कहीं अन्यत्र निक्षेपित हो जाती है। ये प्रक्रियाएँ विशेषरूप से समय के साथ भूआकृतियों को बनाती हैं |
  • भूआकृतियों के विकास का अध्ययन एक अन्य विशेषीकृत रोचक विषय है, जिसे भूआकृति विज्ञान कहते हैं।

इस इकाई में हमने बहते जल, भूजल, हिमनद, समुद्री तरंगों और पवन से संबन्धित प्रक्रियाओं और स्वरूपों की चर्चा की है। आप इस इकाई में दिए गए संदर्भो के द्वारा भू आकृतियों के निर्माण और विभिन्न अपरदनी कर्मकों की प्रक्रियाओं के विषय में विस्तार से अध्ययन कर सकते हैं।

प्रश्न

  1. क्या नदी की क्रिया भूमि की सतहों को परिवर्तित करने में योगदान देती है? समझाइए।
  2. पवन की प्रमुख अपरदनात्मक और परिवहनात्मक प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए।

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