भारत में उपभोक्ता अधिकार संरक्षण की वर्तमान स्थिति और सुशासन के लिए इसकी प्रासंगिकता

प्रश्न: सुशासन (गुड गवर्नेस) की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए उपभोक्ता अधिकारों का प्रभावी संरक्षण एक अनिवार्य शर्त है। इस संदर्भ में, भारत में उपभोक्ता अधिकारों के संरक्षण की स्थिति का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए और इस संबंध में सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में उपभोक्ता अधिकार संरक्षण की वर्तमान स्थिति और सुशासन के लिए इसकी प्रासंगिकता पर संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • प्रभावी उपभोक्ता संरक्षण के समक्ष आने वाले मुद्दों का उल्लेख कीजिए तथा इस संबंध में सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
  • भारत में उचित उपभोक्ता संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कुछ उपायों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर

भारत में उपभोक्ता अधिकार उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 द्वारा संरक्षित हैं। यह अधिनियम उपभोक्ता सशक्तिकरण के लिए छह बुनियादी अधिकारों की बात करता है, ये हैं- सुरक्षा, सूचना, चयन, सुनवाई, निवारण और शिक्षा का अधिकार। ये अधिकार दक्षता, प्रभावशीलता, नैतिकता, समानता, मितव्ययिता, पारदर्शिता, जवाबदेही, सशक्तिकरण, तार्किकता, निष्पक्षता एवं भागीदारी पर केंद्रित सुशासन की संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु अनिवार्य हैं।

भारत में उपभोक्ता शिकायतों का सरल, तीव्र और किफायती निवारण प्रदान करने हेतु केंद्र, राज्य और जिला स्तर पर गठित तीन स्तरीय निवारण प्रणाली के माध्यम से उपभोक्ता अधिकारों को संरक्षित किया जाता है। इसके बावजूद, भारत में उपभोक्ता संरक्षण के समक्ष निम्नलिखित मुद्दे उपस्थित हैं:

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम,1986 विवादों के रोकथाम की अपेक्षा विवादों के निवारण पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।
  • उपभोक्ता संरक्षण परिषदें, जिन्हें उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा और बढ़ावा देने का कार्य सौंपा गया है, अप्रभावी हैं तथा कई राज्यों और जिलों में ये अस्तित्व में भी नहीं हैं।
  • 1986 के अधिनियम में उल्लिखित 6 अधिकारों में से केवल एक, अर्थात् शिकायतों के निवारण के अधिकार, के प्रवर्तन के लिए ही तंत्र उपलब्ध है।
  • उपभोक्ताओं को न्याय प्रदान करने में अत्यधिक विलम्ब।
  • गुणवत्ता युक्त अवसंरचना का अभाव उदाहरणस्वरूप, निम्नस्तरीय प्रयोगशाला परीक्षण सुविधाएँ तथा उपभोक्ता अदालतों में अकुशले डिजिटल अवसंरचना आदि।
  • सेवाओं के न्यूनतम मानक और उत्पादों का मानकीकरण सुनिश्चित करने के लिए कमजोर प्रवर्तन तंत्र।
  • उपभोक्ता न्यायालयों से सम्बंधित मुद्दे:
  • राज्य सरकारों द्वारा न्याय निर्णयन पैनलों के सदस्यों की नियुक्ति में अत्यधिक विलम्ब करना।
  • निर्णय की प्रक्रियाओं में अनावश्यक तकनीकी अड़चनें।
  • कार्यवाहियों का बार-बार स्थगन।
  • अपर्याप्त मुआवजा उपभोक्ताओं को इन मंचों का उपयोग करने से हतोत्साहित करता है।
  • डिजिटल प्रौद्योगिकियों में तेजी से प्रगति के कारण नए मुद्दे उभरे हैं जैसे-ऑनलाइन धोखाधड़ी, पहचान की चोरी (आइडेंटिटी थेफ़्ट), क्रेडिट कार्ड क्लोनिंग, ई-कॉमर्स से जुड़े मुद्दे आदि।

वर्तमान स्थिति में सुधार के लिए उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, 2018 को यथा शीघ्र पारित करने की आवश्यकता है। इसमें महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल हैं जैसे कि:

  • उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने, संरक्षित करने और लागू करने के लिए केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण एजेंसी नामक एक कार्यकारी एजेंसी की स्थापना करना।
  • विधेयक उपभोक्ता विवादों के समयबद्ध निपटान का प्रस्ताव करता है। अर्थात, दूसरे पक्ष द्वारा नोटिस प्राप्त होने की तिथि से 3 महीने और उन मामलों के लिए 5 महीने जिनमें उत्पादों के नमूने का परीक्षण सम्मिलित हो।
  • यह वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र का उपयोग करने का भी प्रस्ताव करता है।
  • इसमें झूठे और भ्रामक सेलिब्रिटी इंडोर्समेंट के लिए दंड आरोपित करने का प्रावधान है।

एक प्रभावी उपभोक्ता संरक्षण आंदोलन को सरकार, व्यापार, नागरिक समाज तथा शैक्षिक और अनुसंधान संस्थानों के सक्रिय समर्थन की आवश्यकता होती है। साथ ही, वस्तुओं और सेवाओं के साथ “डिजिटल सामग्री” को तीसरी श्रेणी के रूप में चिह्नित कर उपभोक्ता संरक्षण के अपने क्षितिज का विस्तार करने का यह सही समय है (जैसा हाल ही में UK द्वारा किया गया है)। इसके अतिरिक्त वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धतियों जैसे ऑनलाइन विवाद समाधान (ODR) को अपनाया जाना चाहिए।

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