भारत में रेत और बजरी के खनन : पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी किए दिशा-निर्देश

प्रश्न: रेत और बजरी का खनन एक ऐसे स्तर तक पहुंच गया है जो पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को संकट में डाल रहा है। टिप्पणी कीजिए। इस प्रकार के खनन की संधारणीयता सुनिश्चित करने के लिए क्या किया जा सकता है? पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों के संदर्भ में चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में रेत और बजरी के खनन का एक संक्षिप्त चित्र प्रस्तुत कीजिए।
  • पर्यावरण और पारिस्थितिक तन्त्र पर इसके संकट/प्रभावों को स्पष्ट कीजिए।
  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों के सन्दर्भ में चर्चा कीजिए कि खनन की संधारणीयता किस प्रकार सुनिश्चित की जा सकती है।

उत्तर

तीव्र शहरीकरण और अवसरंचना विकास के साथ ही, हाल ही के दशक में रेत और बजरी के खनन में चरघातांकीय वृद्धि हुई है। हालाँकि रेत और बजरी की खनन की मात्रा पर किसी प्रकार के आधिकारिक आंकड़ें उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी पर्यावरण और पारिस्थितिक तन्त्र पर इसके प्रभाव का आकलन सरलता से किया जा सकता है, जैसे:

  • इससे नदी की ढलान में वृद्धि या तलछट परिवहन या तलछट जमाव में हुई वृद्धि से नदी के इन-स्ट्रीम(अन्तः जलीय) पर्यावास पर प्रभाव पड़ता है।
  • इससे जल का मैलापन बढ़ सकता है जो प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक प्रकाश को अवरुद्ध करता है।
  • इससे तटों का क्षरण हो सकता है और नदी की आकारिकी (मॉर्कोलॉजी) में परिवर्तन हो सकता है जो नदी के तटीय वानस्पतिक आवरण का नाश कर सकता है।
  • इसके कारण नदी चैनल का स्थानान्तरण हो सकता है जिससे बिना बाढ़ वाले क्षेत्रों में भी बाढ़ आ सकती है।
  • यह निस्यंदक सामग्री की मोटाई को घटा कर भूजल को प्रदूषित कर सकता है, विशेष रूप से जब खनन पुनर्भरण दरारों(recharge fissures)के शीर्ष पर किया जाता है।
  • अवैज्ञानिक और अनियमित रेत खनन वायु की गुणवत्ता में गिरावट ला सकता है तथा इसके कारण निर्मित धूल-युक्त कोहरे से गम्भीर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो सकते हैं।
  • इससे नदी में निलंबित तलछट की सघनता में वृद्धि हो सकती है, जो जल संसाधन परियोजनाओं में अवसादन का कारण बनता है।
  • अवकर्षण बजरी-क्षेत्र की समग्र गहराई को कम कर सकता है, जिससे बजरी की परत के नीचे के अन्य अधःस्तर अनावृत हो सकते हैं, जिसके फलस्वरूप जलीय प्राकृतिक आवास की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।

संधारणीय रूप से खनन सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के संधारणीय रेत खनन प्रबंधन दिशानिर्देश 2016 के अंतर्गत संस्तुतियों का अनुकरण किया जा सकता है, जिनमें सम्मिलित हैं:

  • उपयुक्त जिला या राज्य या केन्द्रीय स्तर के प्राधिकरण से पर्यावरण अनापत्ति (NOC) प्राप्त करना। इसमें सार्वजनिक परामर्श अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना चाहिए।
  • रेत पर निर्भरता कम करना – वास्तुकारों और अभियंताओं को प्रशिक्षण के माध्यम से तथा रेत और बजरी के अतिरिक्त अन्य वैकल्पिक स्रोत का उपयोग करके रेत पर निर्भरता को कम करना।
  • उच्च स्तर की प्रौद्योगिकी का उपयोग- वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप से खनन परिसंचालन हेतु, बेहतर निगरानी (रिमोट सेंसिंग आदि के द्वारा) और खनन में निकाले गए खनिज की ट्रैकिंग के साथ-साथ निर्माण में कृत्रिम और विनिर्मित रेत के उपयोग को बढ़ाने के लिए।
  • खनन क्षेत्रों की पहचान और उचित सीमांकन: खनन क्षेत्रों के मध्य न्यूनतम दूरी और महत्वपूर्ण जलीय सरंचना या नदी तट, नदी की पुनः पूर्ति दर, नदी चैनल परित्यक्त और निष्क्रिय तो नहीं है आदि तथ्यों पर विचार करके खनन क्षेत्रों की पहचान और उचित सीमांकन।
  • व्यवधान को न्यूनतम करने के लिए गतिविधियों को संकेंद्रित करना : नदी के तल से निकासी को कुछ पट्टियों तक सीमित किया जाना चाहिए ताकि प्राकृतिक आवासों और प्रजातियों की विविधता प्रभावित न हो।

इसके साथ ही, संधारणीय रेत खनन के लिए एक प्रमुख चुनौती अवैध खनन है। इस सम्बन्ध में केंद्र और राज्यों को निगरानी सुनिश्चित करनी चाहिए और उसके लिए आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किये जाने चाहिए। केरल ने इस दिशा में सार्थक कदम उठाते हुए अवैध खनन को रोकने के लिए एक सुदृढ़ तन्त्र निर्मित किया है। इस तरह के तंत्र को अन्य राज्यों में भी विकसित किया जाना चाहिए। इस प्रकार के व्यापक प्रयासों से ही रेत खनन को संधारणीय गतिविधि बनाया जा सकता है।

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