भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और प्रथा
प्रश्न: भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और प्रथाओं ने बहुविध तरीकों से जाति का एक नए सिरे से निर्माण किया है। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारत में जातिगत संस्था पर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं/संस्थानों/प्रथाओं के प्रभावों की चर्चा कीजिए।
- प्रासंगिक उदाहरणों को उल्लेखित कीजिए।
उत्तर
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 से प्रारम्भ करते हुए, जिसके अंतर्गत एक समानता आधारित समाज का मार्ग प्रशस्त किया गया है साथ ही समाज के कुछ वर्गों के साथ किए गए जाति-आधारित भेदभाव और अन्याय को रोकने का प्रयास किया है किन्तु लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं/संस्थाओं और प्रथाओं ने बहुविध तरीकों से जाति का एक नए सिरे से निर्माण किया है। जहाँ पूर्व के जाति संबंधों को एक पदानुक्रम द्वारा व्यवस्थित किया गया था, किन्तु वर्तमान में हमने नई लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न प्रकार की स्वाग्रही जाति (assertive caste) की पहचान की है।
एक लोकतांत्रिक राजनीति में निम्न जातियां अब अपनी शक्ति और अधिकारों के प्रति सचेत हैं। इसे निम्नानुसार प्रदर्शित किया जा सकता है:
- स्वाग्रह की पहचान और जातिगत समीकरणों को पुनर्परिभाषित करना: हाल के वर्षों में, जातीय संगठनों (जो समर्थन प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय राजनेताओं हेतु एक महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं) ने अपने समुदायों को पुनः संगठित करने और अपने समुदाय का नए सिरे से निर्माण करने के लिए विभिन्न सांस्कृतिक संसाधनों जैसे कि उत्पत्ति के मिथकों तथा वीरता परंपराओं का उपयोग किया है। ये आंतरिक जाति पदानुक्रमों और सांस्कृतिक अंतरों का उपयोग करते हुए नातेदारी (kinship) जैसे संबंधों को पुनः परिभाषित करने के लिए इस अवसर का लाभ उठाते हैं।
- मंडल आयोग की अनुशंसाओं ने सामाजिक न्याय और विकास के आधार पर पिछड़ी जातियों के लिए सकारात्मक भेदभाव की व्यवस्था की थी। इससे जाति समूहों का सशक्त राजनीतिकरण भी हुआ, जिसे उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और बिहार जैसे राज्यों में दलों के OBC क्षेत्रीय नेतृत्वकर्ता के रूप में देखा गया, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में वृद्धि हुई। इस प्रकार जाति स्तरीकरण के साथ-साथ एकजुटता और संघर्ष का एक प्रमुख आधार बन गई है। हालाँकि, असमान बंटवारे के कारण अपेक्षाकृत समृद्ध और प्रभावी OBC (जैसे-बिहार और उत्तर प्रदेश में यादव और कुर्मी तथा कर्नाटक में वोक्कालिगा आदि) को सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक लाभों के अधिकांश हिस्से पर नियंत्रण प्राप्त हुआ है। इस घटना ने वर्ग को जाति के साथ सम्बद्ध किया और जाति के भीतर वर्ग का निर्माण किया है।
- चुनावी राजनीति द्वारा जाति को नृजातीय समूहों में परिवर्तित कर दिया गया है। इससे विभिन्न जातियां और उपजातियां चुनाव के लिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी भी जाति की शक्ति हमेशा उसकी संख्यात्मक सुदृढ़ता के अनुपात में नहीं होती है, बल्कि उसकी संगठनात्मक क्षमता पर भी निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, उत्तरप्रदेश में 2014 के आम चुनावों में अनुसूचित जाति समुदाय के भीतर राजभर, पासी, धोबी और खटिक उप-जातियों और OBC के भीतर मौर्य, कुर्मी और लोध का महत्व।
- विभिन्न न्यायिक निर्णयों (जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में देखा गया है कि खाप पंचायतें सहमति आधारित वयस्कों के विवाह में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं) के साथ-साथ विशेष विवाह अधिनियम और सामाजिक-आर्थिक विकास जैसे कानूनी सुधारों के संयोजन के कारण जाति की मूल विशेषताओं में से एक, जाति सगोत्र विवाह का कमजोर होना है। इन सभी ने विवाह के आधार के रूप में जाति को दुर्बल किया है।
10% EWS आरक्षण और ओबीसी के उप-वर्गीकरण के मुद्दे की जांच हेतु एक आयोग का गठन जैसे हालिया निर्णयों ने जातिआधारित तर्कों को पुनः परिभाषित किया है यथा- क्रीमी लेयर और इसे हटाने संबन्धित बहस, कम प्रभावशाली OBCs के हितों की सुरक्षा आदि।
हालांकि, जाति के नए सिरे से निर्माण के भिन्न-भिन्न निहितार्थ है। जाति अभी भी सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार (marker) बनी हुई है। सामाजिक भेदभाव और निचली जातियों के विरुद्ध हिंसा जैसे मैला ढोने की प्रथा, अस्पृश्यता आदि वर्तमान में भी विद्यमान हैं। इस प्रकार यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ और संस्थाएँ जिन्होंने जाति के विचार का सही अर्थों पुनः निर्माण किया है समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखें तथा राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए जाति का एक संकीर्ण साधन के रूप में उपयोग नहीं करें।
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