भूस्खलन : भारत में भूस्खलन प्रवण क्षेत्र और प्रभाव कम करने हेतु क़दम
प्रश्न: भारत में भूस्खलन से प्रभावित क्षेत्रों और इसके कारणों की पहचान कीजिए। भूस्खलन का प्रभाव कम करने के लिए उठाए जा सकने वाले विभिन्न क़दमों का उल्लेख कीजिए।
दृष्टिकोण
- भूस्खलन को परिभाषित कीजिए।
- भूस्खलन हेतु उत्तरदायी कारणों की पहचान कीजिए।
- भारत में भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों को सूचीबद्ध कीजिए।
- भूस्खलन का प्रभाव कम करने के लिए उठाए जा सकने वाले विभिन्न क़दमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
‘भूस्खलन’ शब्द को चट्टान, मलबा, मिट्टी के ढेर या इन सभी पदार्थों के समुच्चय से बने किसी ढाल के अधोमुखी और बाहर की ओर संचलन के रूप में परिभाषित किया जाता है। भूस्खलन में ये पदार्थ ढाल के सहारे गिरकर, खिसक कर या बहकर, मंद अथवा तीव्र गति से एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर संचलन करते हैं।
हालाँकि, भूस्खलन मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों से संबंधित होते हैं परंतु ये उन क्षेत्रों में भी घटित हो सकते हैं जहां राजमार्गों का निर्माण, भवन निर्माण एवं खुली खदानों हेतु सतह की खुदाई जैसी गतिविधियां होती हैं। भूस्खलन प्रायः भूकंप, बाढ़ तथा ज्वालामुखी के संयोजन से घटित होते हैं। कभी-कभी दीर्घकालिक वर्षा भी भूस्खलन का कारण बन सकती है।
भारत में भूस्खलन के कारण, विश्व के अन्य स्थानों में भूस्खलन के कारणों से अधिक भिन्न नहीं हैं, परंतु यहाँ कुछ विशिष्टताएं विद्यमान हैं। भूस्खलन की परिघटना हेतु उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- पार्श्व और मूलभूत आधार के हटने के कारण ढाल का अस्थिर होना।
- वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, पहाड़ी क्षेत्रों में झूम कृषि प्रणाली का प्रयोग तथा सड़क निर्माण एवं खनन गतिविधियां।
- जनसंख्या दबाव में वृद्धि के साथ-साथ चराई गतिविधियों एवं नगरीकरण में निरंतर वृद्धि हुई है। इसके कारण सघन प्राकृतिक सदाबहार वनावरण में कमी आई है। इन सभी गतिविधियों के कारण पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ जाता है, परिणामस्वरूप मृदा का संघटन कमजोर हो जाता है।
- भारी वर्षा की स्थिति में मृदा अपरदन में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है जो भूस्खलन का कारण बनता है।
भूस्खलन संकट क्षेत्रीकरण (landslide hazard zonation) के आधार पर भारत में भूस्खलन से प्रभावित प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- पश्चिमी हिमालय (उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर)।
- पूर्वी एवं पूर्वोत्तर हिमालय (पश्चिम बंगाल, सिक्किम तथा अरुणाचल प्रदेश)।
- नागा-अराकान पर्वतीय पट्टी (नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और त्रिपुरा)
- नीलगिरी पहाड़ी सहित पश्चिमी घाट (महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल एवं तमिलनाडु)।
- प्रायद्वीपीय भारत के पठार का सीमांत क्षेत्र एवं उत्तर-पूर्वी भारत का मेघालय पठार।
भारत में भूस्खलन के प्रभाव को कम करने हेतु उठाए जाने वाले कदम निम्नलिखित हैं:
- आकस्मिक बाढ़ के प्रभाव को कम करने हेतु जलग्रहण क्षेत्रों में अतिरिक्त जल को भंडारित किया जाना चाहिए; यह भारत में भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों में भू-जल स्तर के पुनर्भरण में भी सहायता करेगा।
- जलग्रहण क्षेत्रों में अपवाहित जल के संग्रहण हेतु तालाबों का निर्माण किया जाना चाहिए।
- सामुदायिक भूमि पर वनावरण में वृद्धि करने हेतु ईंधन एवं चारे से संबंधित वृक्षारोपण किया जाना चाहिए ताकि भारत में भूस्खलन के जोखिम को कम किया जा सके।
- चराई को सीमित किया जाना चाहिए और पूर्व में जिन स्थानों पर चराई हो चुकी है वहां अच्छी किस्म की घास उगाई जानी चाहिए ताकि पौधों की जड़ों द्वारा मृदा की पकड़ में वृद्धि हो सके। इसमें ऐसी घास भी उगाई जा सकती है जिसका कुछ वाणिज्यिक महत्व भी हो, जिससे उसके आर्थिक लाभ भारत में भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों के किसानों को प्रोत्साहित भी करें।
सरकार ने भी भूस्खलन के प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न कदम उठाए हैं, जैसे- भूस्खलन और हिमस्खलन के प्रबंधन हेतु राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन दिशा-निर्देश, राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण (NLSM), हाल ही में सिक्किम-दार्जिलिंग क्षेत्र में रियल-टाइम लैंडस्लाइड वार्निंग सिस्टम की स्थापना इत्यादि।
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