WTO और दोहा दौर की वार्ताओं का संक्षिप्त परिचय

प्रश्न: दोहा दौर की धीमी प्रगति संकेत करती है की WTO, मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित करने में अप्रभावी सिद्ध हो रहा है। इसके पीछे उत्तरदायी कारकों की पहचान करते हुए, वर्तमान सन्दर्भ में WTO की प्रासंगिकता पर टिप्पणी कीजिए।

दृष्टिकोण

  • WTO और दोहा दौर की वार्ताओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • दोहा दौर की धीमी प्रगति तथा इस प्रकार की प्रवृत्ति के पीछे उत्तरदायी कारकों की चर्चा कीजिए।
  • वर्तमान सन्दर्भ में WTO की प्रासंगिकता पर टिप्पणी कीजिए तथा निष्कर्ष स्वरूप आगे की राह सुझाइए।

उत्तर

विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization: WTO) एकमात्र ऐसा वैश्विक अंतरराष्ट्रीय संगठन है जिसका लक्ष्य सुचारू, अनुमानित तथा मुक्त व्यापार प्रवाह सुनिश्चित करना है। हाल ही में, संगठन पर अत्यधिक दबाव है क्योंकि विकासशील देशों की व्यापार संभावनाओं को बेहतर बनाने के उद्देश्य से गठित दोहा विकास दौर की वार्ताएं कुछ असहमतियों पर अटकी हुई हैं।

हालांकि विगत वर्ष WTO द्वारा ट्रेड फैसिलिटेशन एग्रीमेंट सहित विभिन्न मापदंडों की पुष्टि की गयी, तथापि कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों (जैसे कृषि सब्सिडी तथा खाद्यान्न, सेवाओं, बौद्धिक संपदा अधिकार आदि की पब्लिक स्टॉकहोल्डिंग) में धीमी प्रगति दर्ज की गई है, जिसका प्रमुख कारण विकसित देशों और विकासशील देशों के मध्य निम्नलिखित मुद्दों पर विभाजित मत हैं, जैसे:

  • घरेलू रूप से संवेदनशील कृषि क्षेत्रक को खोलना: भारत ने देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी के निर्वाह का उल्लेख करते हुए निरंतर अपने कृषि क्षेत्र की सुरक्षा को बनाए रखा है, जबकि विकसित देश विकासशील देशों के पक्ष में इस प्रकार के विभेदात्मक व्यवहार का समर्थन नहीं करते हैं।
  • कृषि सब्सिडी जारी करना: एक ओर विकासशील देशों द्वारा विकसित देशों में विकृत कृषि सब्सिडी को समाप्त करने की मांग की गई है, तो दूसरी ओर विकसित देश अपनी कृषि सब्सिडी छोड़ने पर सहमत नहीं हैं।
  • IPR संबंधी मुद्दे: 2003 में कुछ मामलों के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग की अनुमति प्रदान कर TRIPS को विकासशील देशों के पक्ष में प्रवृत्त बनाए जाने से संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यूरोप अप्रसन्न हैं।
  • सेवाओं में व्यापार: भारत जैसे देश सेवाओंआपूर्ति के मोड 4 सहित सीमा पार सेवाओं की आपूर्ति हेतु अधिक उदार प्रतिबद्धताओं का समर्थन करते हैं। परन्तु दूसरी ओर यूरोपीय संघ तथा अमेरिका जैसे देशों के हित मोड 3 सेवाओं की आपूर्ति में अधिक हैं।
  • विशेष एवं विभेदात्मक उपचार: विकासशील देशों का दावा है कि विकसित देश सद्भावनापूर्ण वार्ता नहीं कर रहे थे, जबकि विकसित देशों का तर्क है कि विकासशील देशों के प्रस्ताव अनुचित थे।

इन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए, सदस्यों द्वारा अपने व्यापार संबंधी हितों को आगे बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) जैसे अलग द्विपक्षीय और क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौते किये जाने में वृद्धि हुई है। वर्ष 2000 से लेकर अब तक, विश्व भर में 156 अतिरिक्त क्षेत्रीय व्यापार समझौते (RTA) किए जा चुके हैं। इसका अर्थ है कि विगत 11 वर्षों में RTAS की संख्या दोगुना हो गई है। हालांकि, WTO निम्नलिखित कारणों से अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है:

  • क्षेत्रीय व्यापार समूह केवल कुछ स्थानों पर ही सफल हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त द्विपक्षीय एवं क्षेत्रीय व्यापार संधियाँ पेटेंट जैसे कुछ चयनित क्षेत्रों में कठोर “WTO प्लस” स्थितियों हेतु मार्ग प्रशस्त करती हैं।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रमुख कृषि निर्यातकों के साथ भिन्न-भिन्न समझौतों पर वार्ता करने के स्थान पर भारत अपनी खाद्य खरीद और पब्लिक स्टॉक होल्डिंग नीतियों के WTO के अंतर्गत सुरक्षित होने के कारण बेहतर स्थिति में है।
  • WTO में आम सहमति द्वारा निर्णय लिए जाते हैं। इसलिए, इस बात की कम संभावना रहती है कि किसी भी पक्ष के हितों के प्रति अत्यधिक प्रतिकूल व्यवस्था को एकपक्षीय रूप से आरोपित कर दिया जाए।
  • यह किसी देश को एक ऐसा मंच प्रदान करता है जिसके माध्यम से वह अन्य देशों के स्वार्थ उद्देश्यों के विरुद्ध समान विचारधारा वाले देशों की राय को संगठित कर सके।
  • इसका विवाद समाधान तंत्र अत्यधिक कुशल है: WTO के किसी समझौते के उल्लंघन की दशा में अपने व्यापारिक भागीदार को समाधान हेतु इसके मंच पर लाकर विभिन्न देश WTO के समाधान तंत्र में विश्वास प्रदर्शित करते हैं।

हालांकि, वैश्विक परस्पर निर्भरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण बने रहने हेतु WTO की कार्यपद्धति में संरचनात्मक सुधार करने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त भूमंडलीकृत विश्व के वास्तविक लाभों को प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय समझौतों और WTO की बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के मध्य सुदृढ़ व बेहतर तालमेल स्थापित करने की भी गहन आवश्यकता है।

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