विधि-निर्माण में ‘लाभ के पद’ की अवधारणा

प्रश्न: हालिया परिपाटियों और वाद-विवादों के आलोक में भारतीय राजव्यवस्था में ‘लाभ के पद’ के मुद्दे पर चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • विधि-निर्माण में ‘लाभ के पद’ की अवधारणा को प्रस्तुत करने की आवश्यकता या उद्देश्यों पर चर्चा कीजिए।
  • ‘लाभ के पद’ के अर्थ को स्पष्ट कीजिए और हालिया विवादों एवं परिपाटियों की चर्चा कीजिए।
  • इससे सृजित होने वाले मुद्दों पर चर्चा कीजिए।
  • आगे की राह सुझाइए।

उत्तर

विधायिका और कार्यपालिका के मध्य एक अत्यंत संवेदनशील संतुलन विद्यमान होता है। विधि निर्माताओं को वर्तमान सरकार के प्रति किसी बाध्यता के बिना स्वतंत्र रूप से अपने संसदीय कर्तव्यों के निर्वहन में सक्षम होना चाहिए। इसलिए, संविधान के अनुच्छेद 102 और 191 के अंतर्गत क्रमशः सांसद या विधायक के रूप में निर्वाचित या नियुक्त होने वाले किसी व्यक्ति के लिए निर्धारित निरहर्ताओं में से एक के रूप में, ‘लाभ के पद’ को सूचीबद्ध किया गया है।

संविधान या जन प्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 में ‘लाभ के पद’ को परिभाषित नहीं किया गया है किन्तु विभिन्न न्यायालयों के अनुसार लाभ का पद किसी ऐसे पद को कहा जा सकता है जो सामान्यतः सार्वजनिक प्रकृति के कुछ निश्चित कर्तव्यों से युक्त होता है। उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न मामलों के माध्यम से कुछ परीक्षणों को प्रस्तुत किया है जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि कोई पद लाभ का पद है अथवा नहीं। उच्चतम न्यायालय का अवलोकन यह निर्धारित करता है कि कोई पद ‘लाभ का पद’ तभी होगा, यदि उसमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं:

  • यदि नियुक्ति सरकार द्वारा की गई हो; 
  • यदि सरकार के पास पद धारण करने वाले को हटाने या बर्खास्त करने का अधिकार है;
  • यदि सरकार द्वारा पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता हो;
  • यदि उसके द्वारा सरकार के लिए कार्य संपादित किए जाते हैं; और
  • यदि पद धारक के कर्तव्यों और कार्यों पर सरकार का नियंत्रण हो।

हाल ही में, दिल्ली में 20 विधायकों को लाभ का पद धारण करने के कारण राष्ट्रपति द्वारा निरर्ह घोषित किया गया था। मार्च 2006 में, राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने उत्तर प्रदेश-फिल्म विकास परिषद के अध्यक्ष का पद धारण करने के कारण समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सांसद जया बच्चन को 14 जुलाई, 2004 से भूतलक्षी प्रभाव के साथ निरर्ह घोषित कर दिया था।

कोई व्यक्ति लाभ का पद धारण करता है; संबंधित पद लाभ का है; अथवा संबंधित पद संघ या राज्य सरकार के अधीन आता है; यह निर्धारित करने में व्याप्त व्यक्तिनिष्ठता के कारण ही इस सन्दर्भ में विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इसके अतिरिक्त संसद (निरर्हता निवारण) अधिनियम, 1959 में उन पदों की एक विस्तृत श्रृंखला को सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें किसी भी अंतर्निहित सामान्य सिद्धांत के बिना निरर्हता से छूट प्राप्त है। इस कारण से मानदंड थोड़े अधिक व्यक्तिनिष्ठ हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता (एक अकादमिक संस्थान), कृभको (एक किसान सहकारी संगठन) इत्यादि को गैर-लाभकारी संगठन के रूप में माना गया है।

सांसदों (और राज्य विधायिकाओं के सदस्यों) की केंद्र (राज्य) सरकार में पर्यवेक्षी भूमिका होती है और इसलिए उन्हें संबंधित सरकार द्वारा नियंत्रित किसी भी पद के आर्थिक प्रतिफल से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, समानता सुनिश्चित कर तथा राजनीतिक अवसरवाद को रोकते हुए, संसदीय (निर्हरता निवारण) अधिनियम 1959 को आवश्यकतानुसार संशोधित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही एक उपाय के रूप में, किसी पद को स्थापित करने वाली संविधि में पद की प्रकृति को स्पष्ट रूप से ‘लाभकारी’ या ‘गैर-लाभकारी’ रूप में वर्णित करने की पद्धति को अपनाया जाना चाहिए।

इसे और अधिक स्पष्टता प्रदान करने हेतु द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC) ने ‘लाभ के पद’ को अलग से परिभाषित करने एवं ऐसे सभी कार्यालयों/पदों को ‘लाभ का पद’ मानने की अनुशंसा की है जिनमें कार्यकारी निर्णय निर्माण एवं सार्वजनिक निधि पर नियंत्रण शामिल है। आयोग के अनुसार इस प्रकार के पद को किसी भी विधि निर्माता द्वारा धारण नहीं किया जाना चाहिए।

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