संसदीय विशेषाधिकार : भारत में इनके विकास का विश्लेषण

प्रश्न: विधायी विशेषाधिकारों के संहिताकरण और नागरिकों के वाक् स्वतंत्रता के अधिकार को इन पर प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। भारत के संदर्भ में चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • संसदीय विशेषाधिकारों को परिभाषित कीजिए।  भारत में इनके विकास का विश्लेषण कीजिए।
  • संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में भारतीय संविधान में उल्लिखित प्रावधानों की व्याख्या कीजिए।
  •  वर्तमान भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संसदीय विशेषाधिकारों के संहिताकरण की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
  • विधिक वादों और उदाहरणों के माध्यम से वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार और संसदीय विशेषाधिकारों के मध्य टकराव का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर:

संसदीय विशेषाधिकार शब्द संवैधानिक अर्थ में शक्तियों और उन्मुक्तियों दोनों को शामिल करने के लिए प्रयोग किया जाता है। संसद और राज्य विधानमंडल के लिए क्रमशः अनुच्छेद 105 और 194 के तहत विशेषाधिकारों के माध्यम से, संसद के सदस्यों को सामान्य नागरिक की तुलना में व्यापक व्यक्तिगत और वाक स्वतंत्रता प्रदान की जाती है ताकि वे बिना किसी अवरोध के संसदीय कार्य कर सकें।

जहाँ, विधायिकाओं की वाक् स्वतंत्रता को इन अनुच्छेदों में स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है; वही अन्य विशेषाधिकारों के संदर्भ में यह नहीं है। इस प्रकार, विधि-निर्माताओं के पास यह निर्धारित करने की एकमात्र शक्ति है कि उनके विशेषाधिकार क्या हैं, उनका उल्लंघन क्या है और उल्लंघन की स्थिति में सजा का प्रावधान क्या होना चाहिए।

इस संदर्भ में, संसदीय विशेषाधिकारों के संहिताकरण और नागरिकों के वाक् स्वतंत्रता के अधिकार को इन पर प्राथमिकता देने के लिए निम्नलिखित को संदर्भित किया जाना चाहिए:

  • अनुच्छेद 105 (3) में दिए गए प्रावधान परिवर्ती प्रकृति के हैं और संविधान सभा ने विचार किया था कि उचित समय पर निश्चित रूप से एक कानून का निर्माण किया जाएगा।
  • हाउस ऑफ कॉमन्स के विशेषाधिकार जिन्होंने व्यापक पैमाने पर भारत में नियमों को परिभाषित किया है, वे स्वयं समीक्षा अधीन हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देशों ने भी विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध किया है।
  • पी.वी. नरसिम्हा राव बनाम राज्य वाद में यह कहा गया कि ‘यह सत्य है कि एक सदन अपनी अवमानना के दोषी, मतदान के लिए रिश्वत स्वीकार करने वाले सदस्य पर कार्यवाही कर सकता है, परन्तु सदन की दंडनीय शक्तियां सीमित हैं।’
  • संसद में बढ़ती विविधता और प्रतिस्पर्धी मांगों को समायोजित करने की आवश्यकता है।
  • कर्नाटक विधानसभा द्वारा 2 पत्रकारों को एक वर्ष के कारावास का हालिया आदेश यह दर्शाता है कि सदन में किसी सदस्य के विचार से असंतुष्ट व्यक्ति को न्यायालय द्वारा कोई उपचार प्राप्त नहीं है।
  • सांसदों के लिए वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की निरपेक्ष शक्ति पर लोगों के लिए प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ लोकतंत्र के आदर्शों के खिलाफ है।
  • विधि-निर्माताओं को सदन के सत्र के दौरान, सत्र आरंभ होने के 40 दिन पूर्व तथा सत्र की समाप्ति के 40 दिन बाद तक सिविल मामलों में गिरफ्तारी से सुरक्षा प्राप्त है, जिससे उन्हें वर्ष की महत्वपूर्ण अवधि के दौरान गिरफ्तारी से बचने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
  • न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग ने विधायिकाओं के स्वतंत्र कामकाज के लिए संहिताकरण का भी समर्थन किया है।

वर्तमान में, भारत में संसदीय विशेषाधिकारों का कार्यक्षेत्र अस्पष्ट है। विधि-निर्माताओं द्वारा संहिताकरण का विरोध किया जा रहा है क्योंकि यह संसद में उनके कृत्यों को न्यायिक जांच के अधीन रखेगा और नए विशेषाधिकारों के विकास को प्रतिबंधित करेगा। हालांकि, एक परिपक्व लोकतंत्र में इस नियम – ‘कोई भी अपने ही अभियोग में न्यायाधीश नहीं हो सकता है’ का उपयोग समान रूप से होना चाहिए क्योंकि विधि-निर्माताओं की शक्ति अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने की शक्ति इस नियम के विरुद्ध होती है।

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