विभाजन सांप्रदायिक राजनीति की चरम परिणति
प्रश्न: विभाजन सांप्रदायिक राजनीति की चरम परिणति थी जो बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में विकसित होने लगी थी। टिप्पणी कीजिए।
दृष्टिकोण
- सांप्रदायिक विभाजन के लिए अंग्रेज़ों द्वारा अपनाई गयी विभाजनकारी नीतियों का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए उत्तर का आरंभ कीजिए।
- 20वीं शताब्दी के आरंभ से भारत के विभाजन तक, भारतीय उपमहाद्वीप में सांप्रदायिक राजनीति को आकार प्रदान करने वाले घटनाक्रमों को चिन्हित कीजिए।
उत्तर
अंग्रेज़ों द्वारा 1857 में चुनौती का सामना करने के पश्चात् ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अपनाया गया। इसके परिणामस्वरूप आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में धार्मिक पहचान का व्यावहारिक उपयोग किया जाने लगा। इन धार्मिक पहचानों को चुनावी राजनीति के तर्क ने अत्यधिक मजबूत एवं कठोर बना दिया था। धार्मिक पहचान अब आस्था और विश्वास के मध्य साधारण अंतर का प्रतीक न हो कर, समुदायों के मध्य सक्रिय विरोध और शत्रुता के रूप में विकसित हो गयी।
1905 में बंगाल के विभाजन का कारण प्रशासनिक बताया गया था; परन्तु वास्तव में इसका आधार सांप्रदायिक था। इसी प्रकार, औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1909 में आरंभ पृथक निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था तथा 1919 में इसमें किए गए विस्तार ने सांप्रदायिक राजनीति को महत्वपूर्ण आकार प्रदान किया। इसके कारण अब मुस्लिम निर्दिष्ट निर्वाचन क्षेत्रों में अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकते थे। इसने नेताओं को साम्प्रदायिक नारों का उपयोग करने और अपने धार्मिक समूहों को सुविधाएँ प्रदान कर अनुयायी जुटाने हेतु प्रलोभित किया।
1920 और 1930 के दशक के दौरान सांप्रदायिक तनाव से संबंधित मुद्दों में वृद्धि हो रही थी। मुस्लिम, मस्जिदों के सामने संगीत, गोरक्षा आंदोलन और आर्य समाज द्वारा धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनाने (शुद्धि) के लिए किये जा रहे प्रयासों से क्रोधित थे। दूसरी ओर, 1923 के पश्चात्, तबलीग (प्रचार) और तंज़ीम (संगठन) के तीव्र प्रसार से हिन्दू नाराज थे। इस अवधि के दौरान मुस्लिम लीग का उत्थान और RSS जैसे हिंदू संगठनों का गठन हुआ।
इस पृष्ठभूमि में, मध्यवर्गीय प्रचारकों और सांप्रदायिक कार्यकर्ताओं द्वारा, अन्य समुदायों के विरुद्ध लोगों को संगठित करके, अपने समुदायों में एकजुटता लाने का प्रयास किया गया। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में दंगों को बढ़ावा मिला।
1937 में आयोजित प्रांतीय चुनावों में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन अत्यधिक खराब रहा जिसके परिणामस्वरूप लीग द्वारा चरम सांप्रदायिकता को अपनाने का निर्णय लिया गया। इसके विरोध में हिंदू महासंघ एवं RSS जैसे हिंदू संगठनों ने उग्र सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का समर्थन किया। इसका मुख्य उद्देश्य इसके विरोध में हिंदूओं को जाति-विभाजन से ऊपर उठने और मुस्लिम पहचान के विरोध में हिंदू पहचान को पुनः परिभाषित करने के लिए प्रोत्साहित करना था। प्रायः दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेताओं द्वारा संकीर्ण हितों की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय आंदोलन की अवहेलना की गयी। अब मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए राजनीतिक माँगों को उठाना आरंभ किया।
परिणास्वरूप, ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ में व्यक्त की गयी पाकिस्तान की माँग को क्रमिक रूप से 1940 तक औपचारिक रूप दे दिया गया। इसके द्वारा यह माँग की गयी कि भौगोलिक दृष्टि से निकटवर्ती सभी मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों को एक साथ मिलाकर स्वतंत्र राज्यों का निर्माण किया जाए।
इस प्रकार, एक स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की माँग कुछ ही दशकों में अत्यधिक तीव्र हो गयी। मूल रूप से साम्प्रदायिक राजनीति के कारण ही पाकिस्तान प्रस्ताव के मात्र 7 वर्षों के पश्चात्, 1947 में पाकिस्तान अस्तित्व में आया। इसमें पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और बंगाल के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र सम्मिलित थे।
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