“उत्तर प्रदेश किसान सभा” के विशेष संदर्भ में उत्तर प्रदेश में हुए किसान आन्दोलनों पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए।

उत्तर की संरचनाः

भूमिका

किसान आन्दोलनों की संक्षिप्त चर्चा, उत्तर प्रदेश के विशेष संदर्भ में करें।

मुख्य भाग

  •  “उत्तर प्रदेश किसान सभा” की स्थापना तथा उसके कार्यक्रमों पर विस्तारपूर्वक चर्चा करें।
  • अन्य किसान आन्दोलनों का संक्षिप्त उल्लेख करें।

निष्कर्ष

  • “उत्तर प्रदेश किसान सभा” के योगदान को बताएं।

उत्तर

भूमिकाः

  • ब्रिटिश आर्थिक नीतियों एवं भारतीय तालुकदारों के शोषण तथा उत्पीड़न ने 20वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के किसानों में भयंकर असंतोष उत्पन्न किया। “उत्तर प्रदेश किसान सभा” इत्यादि संगठनों ने कृषकों के इस असंतोष को आन्दोलन के रूप में संगठित कर ना केवल किसानों की समस्या को हल करने का प्रयास किया अपितु राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष को भी विस्तृत आधार प्रदान किया।

पृष्ठभूमिः

  • 1857 के विद्रोह के पश्चात अवध के तालुकदारों को उनकी भूमि लौटा दी गयी। इससे प्रांतों में कृषि व्यवस्था पर तालुकदारों (बड़े जमींदारों) का नियंत्रण और बढ़ गया। जमींदारों द्वारा लगान की दरों में बहुत अधिक वृद्धि की गयी। साथ ही बेगार, नजराना और अवैध कर की वसूली भी की गई। इससे पूरे उत्तर प्रदेश में किसानों की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी थी।
  • इसी समय 1914 में प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया। इससे खाद्यान्न और अन्य आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि हो गयी। किसानों को रोजमर्रा/दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी साहकारों से ऋण लेना पड रहा था।

मुख्य भागः

  • इसी पृष्ठभूमि में किसानों की समस्याओं को प्रदेश में सर्वप्रथम होमरूल लीग आन्दोलन के कार्यकर्ताओं द्वारा हल करने का प्रयास किया गया। गौरी शंकर मिश्र, इंद्र नारायण द्विवेदी और मदनमोहन मालवीय के प्रयासों से फरवरी 1918 में “उत्तर प्रदेश किसान सभा” का गठन हुआ। इस संगठन ने ना केवल किसानों की समस्याओं को ब्रिटिश शासन तक पहुँचाने का प्रयास किया अपितु किसानों को जागरूक और संगठित करने का प्रयास भी किया।
  • 1919 के मध्य तक “उत्तर प्रदेश किसान सभा” की 450 शाखाएँ उत्तर प्रदेश में स्थापित की गयी। फतेहपुर, इलाहाबाद, मैनपुरी, बनारस, कानपुर, रायबरेली, एटा और गोरखपुर में किसान सभा की अनेक बैठकें हुई।
  • “उत्तर प्रदेश किसान सभा” में झिंगुरी सिंह, दुर्गापाल सिंह और बाबा रामचंद्र जैसे प्रमुख व्यक्तियों ने नेतृत्व प्रदान किया। साथ ही “जवाहर लाल नेहरू” जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने भी ‘किसान सभा’ से लगातार सम्पर्क बनाए रखा।
  • बाबा रामचन्द्र ने “रामचरित मानस’ की चौपाइयाँ सुनाकर अवध में किसानों को संगठित करना प्रारंभ किया। उन्होंने जौनपुर, प्रतापगढ़ और इलाहाबाद में किसानों का नेतृत्व किया। इस समय ‘प्रतापगढ़’ किसान आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बन गया था और बाबा रामचन्द्र किसानों के सर्वमान्य नेता।
  • इसी बीच कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर “असहयोग आन्दोलन” प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया। लेकिन मदन मोहन मालवीय जैसे नेता इसके पक्षधर नहीं थे। यह मतभेद किसान सभा में भी उत्पन्न हुआ था। बाबा रामचन्द्र ने 17 अक्टूबर 1920 को प्रतापगढ़ में सामांतर संगठन “अवध किसान सभा” का संगठन किया।
  • अवध किसान सभा द्वारा किसानों से बेदखली जमीन न जोतने और बेगार न करने की अपील की गयी। किसानों को निर्देशित किया गया कि वे अपने मामलों का निपटारा पंचायतों के माध्यम से करें। जल्द ही ‘अवध किसान सभा’ का पूरे प्रदेश में विस्तार हो गया। 20-21 दिसम्बर 1920 को अयोध्या में आयोजित रैली में 1 लाख से अधि क किसानों ने भाग लिया।
  • जनवरी 1921 में ‘किसान आन्दोलन’ के स्वरूप में परिवर्तन हुआ। रायबरेली, फैजाबाद और सुल्तानपुर में ‘लूट-पाट’ की घटनाएँ हुई। कुछ स्थान पर पुलिस से संघर्ष भी हुआ।
  • इस स्थिति में सरकार द्वारा दमनात्मक कार्यवाही चलाई गई। किसान नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। अवध क्षेत्र में “देशद्रोह बैठक अधिनियम” लागू कर दिया गया। इससे राजनीतिक गतिविधियों पर पूर्णतः प्रतिषेध आरोपित हो गया और मार्च
  • 1921 तक किसान आन्दोलन मृत प्राण हो गया। 1921 के अंत में, पुनः उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच और सीतापुर में किसानों ने
  • “एका आन्दोलन” प्रारंभ किया। यह आन्दोलन मदारी, पासी और अन्य पिछड़ी जातियों के किसानों तथा छोटे जमींदारों ने किया था।
  • “एका आन्दोलन” कारण लगान की ऊची दर, जमादारों की दमनकारी नीतियों और बगार प्रथा था। आन्दोलनकारियों ने प्रतीकात्मक धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन किया। आन्दोलन में एकत्र किसान शपथ थे कि केवल उचित लगान की अदायगी करेंगे, बेगार नहीं करेंगे, अपराध से संबंध नहीं रखेंगे और पंचायत का निर्णय स्वीकार करेंगे। लेकिन मार्च 1922 तक सरकार ने इस आन्दोलन को दमनात्मक कार्यवाही से कुचल दिया।
  • इसके पश्चात् उत्तर प्रदेश में संगठित किसान आन्दोलन को पुनः स्थापित करने का प्रयास “अखिल भारतीय किसान सभा” ने किया। सभा की स्थापना अप्रैल 1936 में लखनऊ में हुई। इसके अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द और सचिव एन.जी. रंगा चुने गए।
  • अखिल भारतीय किसान सभा ने ना केवल किसानों को संगठित किया अपितु कांग्रेस के साथ मिलकर कृषक समस्याओं का प्रभावी समाधान भी किया।

निष्कर्ष

  • इस प्रकार, उत्तर प्रदेश में कृषक समस्याओं को आन्दोलन का रूप देने का आधारभूत कार्य “उत्तर प्रदेश किसान” द्वारा किया गया। अन्य किसान सभाओं तथा राजनीतिक संगठनों के सहयोग से परवर्ती दशकों में ना केवल किसानों को जागरूक किया गया अपितु उनकी समस्याओं को भी हल करने का प्रयास हुआ।

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