UPSC के गठन के उद्देश्यों का बहुत संक्षिप्त परिचय

प्रश्न: UPSC की स्वतंत्र और निष्पक्ष कार्य पद्धति को सुरक्षित रखने और सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिए। साथ ही संविधान द्वारा प्रकल्पित ‘योग्यता प्रणाली के संरक्षक’ के रूप में अपनी भूमिका को प्रभावी रूप से निष्पादित करने में UPSC की सीमाओं का आकलन कीजिए।

दृष्टिकोण

  • UPSC के गठन के उद्देश्यों का बहुत संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • तत्पश्चात् योग्यता (मेरिट) प्रणाली के सरंक्षक के रूप में इसकी स्वतन्त्र और निष्पक्ष कार्यपद्धति सुनिश्चित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
  • UPSC द्वारा अपनी भूमिका के निर्वहन में आने वाली बाधाओं की चर्चा कीजिए।
  • उचित रूप से निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर

एक केन्द्रीय भर्ती संस्था के रूप में संवैधानिक दर्जे के साथ UPSC का गठन इसलिए किया गया था ताकि भारत में ‘योग्यता प्रणाली के सरंक्षक’ के रूप में यह अपने कार्यों का निष्पादन स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से कर सके। यह सेवा संबंधी मामलों में सलाह भी देता है और अनुशासनात्मक मामलों पर निर्णय लेने के लिए सरकार द्वारा इससे परामर्श किया जाता है। इसलिए, सेवाओं में योग्यता प्रणाली सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि इसकी कार्य पद्धति का निष्पक्ष और स्वतंत्र होना सुनिश्चित किया जाए।

UPSC की स्वतंत्र और निष्पक्ष कार्यपद्धति के लिए संवैधानिक प्रावधान:

  •  कार्यकाल की सुरक्षा: इसके सदस्यों और अध्यक्ष को केवल राष्ट्रपति द्वारा ही हटाया जा सकता है, वह भी केवल विशिष्ट आधारों पर और केवल विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा।
  • सेवा शर्ते: इन्हें राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जाता है और नियुक्ति के पश्चात इनमें कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता।
  • प्रभारित व्यय: सदस्यों और अध्यक्ष के वेतन, भत्ते और पेंशन आदि सभी भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं, इसलिए इन पर वार्षिक मतदान नहीं होता।
  • पुनर्नियुक्तियों पर रोक: अध्यक्ष (कार्यकाल के बाद) भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं हो सकता; UPSC का सदस्य (कार्यकाल के बाद), UPSC के अध्यक्ष या किसी राज्य लोक सेवा आयोग (SPSC) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र तो है, किंतु भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा। UPSC के अध्यक्ष और सदस्य दूसरे कार्यकाल के लिए योग्य नहीं होते हैं अर्थात पुनः नियुक्त नहीं किए जा सकते।
  • कार्य प्रदर्शन पर राष्ट्रपति को वार्षिक रिपोर्टः UPSC प्रत्येक वर्ष अपने कार्यों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपता है और राष्ट्रपति इसे संसद के दोनों सदनों के पटल पर एक ज्ञापन सहित रखता है, जिसमें उन मामलों की व्याख्या शामिल होती है, जिनमें आयोग का परामर्श स्वीकार नहीं किया गया। अस्वीकृति के सभी मामले केन्द्रीय कैबिनेट की नियुक्ति समिति द्वारा अनुमोदित किए जाते हैं। एक स्वतंत्र मंत्रालय या विभाग को UPSC के परामर्श को अस्वीकार करने की कोई शक्ति नहीं है।
  • राष्ट्रपति, अखिल भारतीय-सेवाओं और केन्द्रीय सेवाओं व पदों के सम्बन्ध में, उन मामलों को निर्दिष्ट करते हुए विनियम बना सकता है जिनमें UPSC से परामर्श करना आवश्यक नहीं होगा। ऐसे सभी विनियमों को संसद के प्रत्येक सदन के पटल पर रखा जायेगा, जहाँ उन्हें संशोधित या निरस्त किया जा सकता है।

सीमाएं:

  • UPSC केवल एक परामर्शदात्री निकाय है, जिसकी सिफारिशें सरकार पर बाध्यकारी नहीं हैं। प्राधिकरणों और आयोगों के सदस्यों व अध्यक्षों की नियुक्ति में इसकी कोई भूमिका नहीं है।
  • उच्चतम राजनयिक और अस्थायी पदों पर कर्मियों की नियुक्तियों के लिए इससे परामर्श नहीं लिया जाता है।
  • राष्ट्रपति UPSC के दायरे से किसी पद, सेवा व विषय को बाहर कर सकता है।
  • CVC के गठन से अनुशासनात्मक मामलों में UPSC की भूमिका प्रभावित हुई है क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी मामलों में सरकार अब इस विशेषज्ञ निकाय से परामर्श लेने लगी है।
  • किसी भी प्रकार के आरक्षण का प्रावधान करते समय इससे परामर्श नहीं लिया जाता है।

UPSC एक संवैधानिक निकाय है और जब CVC जैसे अन्य निकाय भी अपना परामर्श दे रहे हों तो इसके परामर्श को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सरकार समयबद्ध ढंग से संसद के समक्ष एक कार्यवाही रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी, जिसमें इसकी सिफारिशों को न माने जाने के कारणों का जिक्र होगा।

सुशासन के आदर्शों को प्राप्त करना सिविल सेवाओं की प्रभावकारिता पर निर्भर करता है, जो स्वयं भर्ती करने वाले निकाय की प्रभावशीलता पर निर्भर है। इसलिए, UPSC की स्वतंत्र कार्यपद्धति से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए।

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