उदारीकरण के पश्चात भारत में राज्य की भूमिका

प्रश्न: उदारीकरण के पश्चात के भारत में, यह अत्यावश्यक है कि राज्य की भूमिका एक सुविधाप्रदाता की हो, न कि एक नियामक की। विश्लेषण कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • उदारीकरण-पूर्व काल के विनियमन आधारित दृष्टिकोण से विचलन की चर्चा करने के साथ-साथ उदारीकरण की आवश्यकता का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  • समग्र दृष्टिकोण में उन परिवर्तनों का सुझाव दीजिए जिन्हें उदारीकरण के परिप्रेक्ष्य में अपनाया जाना चाहिए।
  • इसे सूचीबद्ध कीजिए और सविस्तार वर्णन कीजिए कि कैसे उदारीकरण के परिप्रेक्ष्य में स्थापित संस्थानों की कार्यप्रणाली में सुधार राज्य को एक सुविधाप्रदाता के रूप में परिवर्तित कर रहा है।
  • निष्कर्ष से पूर्व बाजार सुधारों को अपनाने से संबंधित कुछ मुद्दों की चर्चा कीजिए।

उत्तर:

उदारीकरण-पूर्व के वर्षों को “लाइसेंस राज” के रूप में चिह्नित किया जाता है जिसमें अर्थव्यवस्था में ठहराव, सार्वजनिक क्षेत्र में अक्षमता, अत्यधिक नियमन और निजी उद्यमियों के समक्ष नौकरशाही बाधाएं विद्यमान थीं। निर्धनता और आर्थिक पिछड़ेपन की दोहरी समस्या का सामना करने में मिश्रित अर्थव्यवस्था की विफलता ने अविनियमन और आर्थिक उदारीकरण का सूत्रपात किया।

उदारीकरण को अनावश्यक नियंत्रण और प्रतिबंधों को हटाने हेतु लाया गया था। इसके तहत एक ऐसे आर्थिक परिवेश को निर्मित करने का प्रयास किया गया जिसमें औद्योगिक और व्यावसायिक उद्यमों को सुचारू रूप से कार्य करने और आर्थिक एवं सामाजिक विकास की प्रक्रिया में योगदान करने में सक्षम बनाया जा सके।

हालाँकि, यह देखा गया कि 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं का विनियमन कमजोर था; इसलिए राज्य को सुविधा प्रदाता की भूमिका के साथ-साथ कुशल और प्रभावी विनियमन का भी लक्ष्य रखना चाहिए।

आर्थिक उदारीकरण के संदर्भ में, राज्य को एक सुविधा प्रदाता, समन्वयक और परिवर्तन के उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना चाहिए, ताकि वहः

  • वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ प्रगतिशील एकीकरण और इसमें आक्रामक भागीदारी की सुविधा प्रदान कर सके।
  • वाणिज्यिक गतिविधियों में संलग्न अति विस्तारित और अक्षम सार्वजनिक क्षेत्र से रक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के मूल कार्यों का निष्पादन करने वाले एक स्पष्ट रूप से केंद्रित सार्वजनिक क्षेत्र की ओर स्थानांतरित हो सके।
  • बेहतर रूप से कार्य करने वाले बाज़ार की व्यवस्था कर सके और विकास की गति को प्रोत्साहित करने हेतु एक अधिक कुशल निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे सके।
  • नए उद्यमियों को प्रोत्साहन प्रदान कर सके। ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ और ‘व्यवसाय से बाहर निकलने की आसान प्रक्रिया (easy exit)’ की सुविधा प्रदान कर सके। उदाहरण के लिए दिवालियापन कानूनों ने निजी उद्यमियों को जोखिम लेने और निजी उद्यम प्रारम्भ करने के लिए अवसर प्रदान किए हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र का ध्यान प्रभावी कानूनों और विनियमों का मसौदा तैयार करने, अवसंरचना के विकास और नागरिकों को रोजगार के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित और सुसज्जित करने पर केंद्रित होना चाहिए। साथ ही जब राज्य एक आमूलचूल परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) से गुजर रहा है, तो ऐसे में नौकरशाही जैसे कुछ स्थापित संस्थानों में भी संरचनात्मक परिवर्तन होने चाहिए। वास्तव में इसकी जटिल प्रक्रिया-उन्मुखता (procedure-orientation) को परिणाम-उन्मुखता (resultorientation) और जवाबदेही में परिणत होने की आवश्यकता है।

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