स्वतंत्रता संघर्ष में भारतीय पूँजीपति वर्ग का योगदान
प्रश्न: स्वतंत्रता संघर्ष में भारतीय पूँजीपति वर्ग के योगदान पर समालोचनात्मक चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में भारतीय उद्योगपतियों के योगदान पर प्रकाश डालिए।
- कांग्रेस पार्टी के साथ उनके संबंधों का वर्णन कीजिए।
- इस बात पर प्रकाश डालिए कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के समर्थन के साथ-साथ अपने व्यावसायिक हितों को कैसे संतुलित किया।
उत्तर
स्वतंत्रता संघर्ष में भारतीय पूँजीपति वर्ग का योगदान स्वाधीनता आन्दोलन के विभिन्न चरणों में विविधतापूर्ण रहा। जमनालाल बजाज, वाडीलाल लल्लूभाई मेहता आदि कुछ उद्योगपति स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय रूप से सम्मिलित थे तथा उन्होंने अनेक राष्ट्रवादी आन्दोलनों में भाग लिया। जी.डी. बिड़ला, अम्बालाल साराभाई इत्यादि जैसे अन्य पूँजीपतियों द्वारा कांग्रेस को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई गयी, हालांकि इन्होंने संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग नहीं लिया था। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य पूँजीपतियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर स्वाधीनता संघर्ष का विरोध भी किया गया।
अधिकांश प्रारंभिक भारतीय उद्योगपति व्यापारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश व्यवसायियों हेतु बिचौलियों एवं सहयोगियों की भूमिका निभाई। उनके और ब्रिटिश पूँजीपतियों के मध्य सामंजस्यपूर्ण संबंध विद्यमान थे। हालांकि, 19वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय पूँजीपतियों ने अपनी स्वतंत्रता का समर्थन करना प्रारंभ कर दिया था, क्योंकि प्लेग, मुद्रा अस्थिरता, अकाल, साम्प्रदायिक दंगों आदि के द्वारा उत्पन्न अवरोधों के कारण ब्रिटिश राज के लाभदायक प्रभाव संकुचित होने प्रारंभ हो गए थे।
प्रारंभ में, निजी व्यवसायियों द्वारा कांग्रेस को लघु वित्तीय अनुदान दिए जाते थे। वर्ष 1885 में कुछ व्यवसायियों ने कांग्रेस की सदस्यता भी ग्रहण की थी। हालांकि, ब्रिटिश समर्थन और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता ने उन्हें स्वदेशी आन्दोलन के द्वारा भारतीय वस्तुओं के समर्थन के बावजूद इस आन्दोलन का विरोध करने हेतु बाध्य किया। असहयोग आन्दोलन के दौरान भी पूँजीपतियों के एक छोटे वर्ग ने, जिसमें पुरुषोत्तमदास भी शामिल थे, स्पष्ट रूप से स्वयं को आन्दोलन का विरोधी घोषित किया।
1920 के दशक के उत्तरार्द्ध में भारतीय पूँजीपति वर्ग के एक प्रभावशाली वर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन को समर्थन देना प्रारंभ किया। परन्तु उनकी एकमात्र चिंता आन्दोलन की प्रकृति थी, अर्थात् वे संघर्ष के संवैधानिक मार्ग और ब्रिटिश सरकार के साथ वार्ता को पूर्णतया त्यागने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें यह भय था कि दीर्घकालीन जनांदोलन लोगों को उग्र-रुढ़िवादी बना सकता था तथा उन्हें साम्राज्यवाद के साथ-साथ पूँजीवाद के विरुद्ध भी कर सकता था। तथापि, पूँजीपतियों ने कांग्रेस के अनुमोदन या सहभागिता के बिना संवैधानिक और आर्थिक मुद्दों पर ब्रिटिश सरकार के साथ किसी भी प्रकार की वार्ता को अस्वीकार किया। उदाहरणार्थ- वर्ष 1930 में फिक्की (FICCI) ने अपने सदस्यों को गाँधीजी की भागीदारी के बिना गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार करने की सलाह दी थी।
जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लिया गया तब उनके द्वारा कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के मध्य मध्यस्थता भी की गई थी। इसके अतिरिक्त, दीर्घकालीन आंदोलनों के दौरान उन्होंने भारतीयों का उत्पीड़न रोकने, राजनीतिक कैदियों को रिहा करने तथा कांग्रेस पर आरोपित प्रतिबंधों को हटाने हेतु ब्रिटिश सरकार पर दबाव भी डाला।
यद्यपि पूँजीपतियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को निर्णयात्मक रूप से प्रभावित नहीं किया तथा न ही आन्दोलन उनके समर्थन पर निर्भर था, तथापि वे पूर्णतया राष्ट्रवादियों के पक्ष में रहे। इसके अतिरिक्त उन्होंने उन विधेयकों का समर्थन नहीं किया जो समग्र राष्ट्रीय हित के विरुद्ध थे, जैसे कि पब्लिक सेफ्टी बिल, जो कि समाजवादियों और साम्यवादियों के प्रति दमनकारी था। वस्तुतः, कांग्रेस की वामपंथ की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति से उत्पन्न खतरे ने उन्हें इसे रोकने हेतु साम्राज्यवाद के समर्थन के बजाय स्वयं को सक्रिय रूप से राजनीति में शामिल करने की ओर प्रेरित किया।
पूँजीपतियों ने भारतीयों के दीर्घकालिक हितों की पहचान की तथा एक साझे मोर्चे की आवश्यकता के समय उनके साथ संगठित रहे। हालांकि, इसके साथ-साथ उन्होंने अपने व्यावसायिक हितों की सुरक्षा की दिशा में भी कार्य किया।
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