सूचना का अधिकार, 2005 : ‘लोक प्राधिकरणों’ की परिभाषा

प्रश्न: संक्षेप में चर्चा कीजिए कि क्यों सूचना का अधिकार, 2005 के अंतर्गत ‘लोक प्राधिकरणों’ की परिभाषा एक विवादित मुद्दा रहा है। साथ ही, केन्द्रीय सूचना आयोग के इस निर्देश के पीछे के तर्क की व्याख्या कीजिए कि राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को भी RTI अधिनियम के दायरे में लाया जाना चाहिए।

दृष्टिकोण:

  • सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 में प्रदत्त परिभाषा के आधार पर ‘लोक प्राधिकरणों’ को परिभाषित करते हुए आरम्भ कीजिए।
  • इस मुद्दे से संबंधित हालिया निर्देशों एवं वाद-विवादों की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • राजनीतिक दलों को RT| अधिनियम के दायरे में लाए जाने के केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्देश के पीछे के तर्क की व्याख्या कीजिए।

उत्तर:

सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 द्वारा ‘लोक प्राधिकरणों’ को अधिनियम की धारा 2 (h) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। इसमें सम्मिलित हैं:

स्व-शासन संबंधी कोई भी प्राधिकरण, निकाय या संस्थान, जिसकी स्थापना या गठन:

  • संविधान द्वारा या उसके अंतर्गत किया गया हो, अथवा
  • संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित कानून के अंतर्गत किया गया हो, या
  •  केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना अथवा आदेश द्वारा किया गया हो।

इसके अतिरिक्त इसमें सम्मिलित हैं:

  • केंद्र सरकार या राज्य सरकार के स्वामित्वाधीन, उनके द्वारा नियंत्रित या पर्याप्त रूप से वित्त पोषित निकाय।
  • केंद्र सरकार या राज्य सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्त पोषित गैर-सरकारी संगठन (NGOs)।

उपर्युक्त प्रथम भाग में सम्मिलित इकाइयों के सन्दर्भ में प्रमुख मुद्दा यह था कि क्या विभिन्न कानूनों के अंतर्गत पंजीकृत इकाइयों को केवल उनके निगमन या पंजीकरण के कारण ही सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में मान लिया जाना चाहिए। हालांकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि निर्धारित क़ानून के अंतर्गत गठित किसी भी निकाय (जैसे कि कंपनी अधिनियम के तहत गठित कंपनी या संबंधित कानूनों के अधीन गठित सोसायटी/ट्रस्ट) को सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम के अंतर्गत स्वतः ही एक सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

इस विषय में भी अनेक विवाद रहे हैं कि दूसरा भाग केवल प्रथम भाग की परिभाषा के रूप में मौजूद है या उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में भी स्पष्ट किया है कि दूसरे भाग का उद्देश्य ऐसे निकायों को सम्मिलित करना है जिनका गठन किसी अधिसूचना द्वारा या उसके अंतर्गत न किया गया हो।

अन्य प्रमुख मुद्दा विशिष्ट रूप से परिभाषा के भाग की व्याख्या से संबंधित है अर्थात् उस भाग से जिसमें स्वामित्वाधीन, नियंत्रण, पर्याप्त वित्तपोषण इत्यादि का उल्लेख शामिल है। इस संबंध में न्यायपालिका में भी विरोधाभासी दृष्टिकोण विद्यमान हैं। उदाहरणार्थ

  • नियंत्रण: विभिन्न उच्च न्यायालयों ने ‘नियंत्रित’ संस्थानों को अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य की परिभाषा के आधार पर या सरकारी एजेंसियों द्वारा विभिन्न कानूनों के अंतर्गत पर्यवेक्षण एवं विनियमन के आधार पर निर्धारित करने का विचार प्रस्तुत किया है। हालाँकि, कुछ न्यायालयों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि विनियमन तथा पर्यवेक्षण को नियंत्रण के समतुल्य नहीं समझा जाना चाहिए।
  • पर्याप्त वित्तपोषण: एक ओर जहाँ RTI अधिनियम द्वारा इसे परिभाषित नहीं किया गया है वहीं न्यायालयों ने भी इसकी एक समान परिभाषा नहीं दी है। कुछ मामलों में जहाँ वित्तपोषण के विभिन्न रूपों जैसे कि सब्सिडी, भूमि, कर्मचारियों के वेतन आदि को पर्याप्त वित्तपोषण के रूप में स्वीकार किया गया है वहीं कुछ अन्य मामलों में वित्तपोषण की मात्रा पर विचार किया गया है।

उपर्युक्त परिभाषा की व्याख्या करते हुए वर्ष 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) ने एक निर्णय के माध्यम से छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में घोषित किया था। हालांकि, राजनीतिक दलों द्वारा उक्त आदेश का पालन नहीं किया गया।

CIC द्वारा दिए गए निर्णय के पीछे के तर्क:

  • पर्याप्त रूप से वित्तपोषित: राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित किया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त उन्हें दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में भूमि भी आवंटित की जाती है तथा रियायती दरों पर आवास एवं बंगले प्रदान किए जाते हैं। साथ ही वे आयकर अधिनियम की धारा 13 A के तहत आयकर में पूर्ण रूप से छूट प्राप्त करते हैं।
  • सार्वजनिक चरित्र: भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन राजनीतिक दलों द्वारा निर्वहन की जाने वाली भूमिका का महत्त्व और उनके द्वारा किए जाने वाले कर्तव्यों की प्रकृति भी इनके सार्वजनिक चरित्र को रेखांकित करती है। ये निरंतर लोक कर्तव्यों के निर्वहन में संलग्न रहते हैं। वे विशिष्ट होते हैं क्योंकि गैर-सरकारी होने के बावजूद वे सरकारी शक्तियों के प्रयोग को प्रभावित करते हैं।

इसके अतिरिक्त, सूचनाओं का प्रकटीकरण व्यापक सार्वजनिक हित में है। यहां तक कि भारत के विधि आयोग की निर्वाचन विधियों में सुधार संबंधी 170वीं रिपोर्ट ने भी राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली में आंतरिक लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व लाने हेतु अनुशंसा की है। हालांकि इस संदर्भ में कुछ चिंताओं पर भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इनका राजनीतिक दलों की आंतरिक कार्यप्रणाली एवं राजनीतिक कार्यपद्धति पर प्रतिकूल प्रभाव न हो। राजनीतिक दलों द्वारा इसका उपयोग एक-दूसरे के विरुद्ध, उनके कार्यों में अवरोध उत्पन्न करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

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