विशेष दर्जा प्राप्त राज्य (States With Special Status)

 विशेष श्रेणी राज्य का दर्जा (Special Category Status – SCS)

  •  संविधान में किसी राज्य को SCS का दर्जा प्रदान करने से संबंधित कोई प्रावधान सम्मिलित नहीं किया गया है। परन्तु (100% of it provided projects (90% (AIBP) assistance देश के कुछ भागों की आर्थिक स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में अत्यंत पिछड़ी हुई थी, अत: पूर्ववर्ती योजना आयोग व राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) द्वारा SCS राज्यों को केंद्रीय योजनागत सहायता प्रदान की गई।
  •  विशेष श्रेणी राज्य की अवधारणा पहली बार 1969 में  गाडगिल फ़ॉर्मूले के आधार पर 5वें वित्त आयोग द्वारा लागू की गयी थी। समकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप इस फॉर्मूले को कई बार संशोधित भी किया गया।
  • 1991 में गाडगिल-मुखर्जी फॉर्मूला अपनाया गया। इसे 14वें वित्त आयोग तक प्रयोग में लाया गया।
  • विशेष दर्जा प्रदान करने के पीछे मुख्य तर्क यह था कि कुछ राज्यों के पास उनकी अंतर्निहित विशेषताओं के कारण संसाधन आधार संकुचित है तथा वे विकास के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा सकते।

SCS मांगों के समक्ष व्याप्त चुनौतियाँ

  • 14वें वित्त आयोग की अनुशंसाएं: वर्ष 2015 में 14वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं के स्वीकृत होने के पश्चात् इसने प्रभावी रूप से विशेष श्रेणी के दर्जे को समाप्त कर दिया हैं।
  • दर्जा प्रदान करने पर अनेक राज्यों से इस प्रकार की मांगों में वृद्धिः चुनावों के दौरान विशेष श्रेणी का दर्जा देने हेतु लोकलुभावन वादे ऐसी मांगों में वृद्धि करते हैं। आंध्रप्रदेश के अतिरिक्त ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान द्वारा भी पूर्व में विशेष श्रेणी राज्य के दर्जे (SCS) की मांग उठाई गई है।
  •  स्वेच्छाचारी मानदंड: SCS योजना आयोग की अनुशंसाओं पर वर्तमान में निष्क्रिय राष्ट्रीय विकास परिषद् द्वारा प्रदान किया जाता था। ये अनुशंसाएं योजना आयोग द्वारा विकसित मानदंडों पर आधारित होती थीं। इन मानदंडों के स्वेच्छाचारी होने के कारण इनकी आलोचना की जाती थी। उदाहरण के लिए, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ (2001 में उनके गठन के पश्चात्) के लिए यह दर्जा केवल इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया था कि वे अंतर्राष्ट्रीय सीमा साझा नहीं करते हैं।
  • स्थिति में कोई सुस्पष्ट परिवर्तन नहीं: SCS राज्यों द्वारा प्राप्त की गई प्रति व्यक्ति केन्द्रीय योजना सहायता “सामान्य श्रेणी” के राज्यों को प्राप्त सहायता से चार गुना अधिक होती थी। इसके अतिरिक्त वे उद्योगों को आकर्षित करने हेतु कर प्रोत्साहन भी प्राप्त करते थे जिनमें पूँजी निवेश सब्सिडी, उत्पाद शुल्क और आय कर छूट तथा परिवहन लागत सब्सिडी शामिल होते थे। परन्तु ये प्रोत्साहन इन राज्यों के औद्योगीकरण में व्यापक तौर पर असफल सिद्ध हुए।
  • वित्तीय रूप से अंकेक्षित (audited) डेटा का अभाव 14वें वित्त आयोग के समक्ष एक प्रमुख चुनौती थी। इसलिए आयोग ने असंसाधित डेटा को एकत्रित किया तथा उसे दोनों राज्यों के मध्य विभाजित कर दिया जिसके परिणामस्वरूप राज्य के गठन के समय पर्याप्त निधि का आवंटन नहीं हुआ।

आगे की राह

  •  योजना आयोग की समाप्ति के पश्चात् SCS को आवंटित अनुदान में अत्यधिक कटौती की गयी है। वर्तमान में, SCS और अन्य राज्यों को आवंटित अनुदान के मध्य का अंतर अत्यंत कम हो गया है और यह दर्जा राजनीतिक लाभ का प्रतीक मात्र बन गया है।
  •  हाल ही में कर अंतरण में हुई 42% तक की वृद्धि और राज्यों को प्रदत्त सामान्य केंद्रीय सहायता में कमी के परिणामस्वरूप SCS के तहत प्रदत्त लाभ कम हो गए हैं। लेकिन अभी भी निधि अंतरण की अधिक न्यायसंगत विधियों को विकसित करने की आवश्यकता
  •  रघुराम राजन समिति (2013) द्वारा “अल्प विकसित राज्यों” की श्रेणी के आरम्भ और “SCS” की समाप्ति हेतु प्रस्तुत की गयी सिफारिशों को विभिन्न राज्यों के विकास संबंधी आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से समझने के लिए लागू किया जा सकता है।
  • इस समिति द्वारा प्रस्तुत “अल्प विकसित राज्यों” की श्रेणी समान रूप से भारित 10 संकेतकों पर आधारित है। इन संकेतकों में मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय, शिक्षा, स्वास्थ्य, घरेलू सुविधाओं, निर्धनता दर, महिला साक्षरता, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जनसंख्या का प्रतिशत, शहरीकरण दर, वित्तीय समावेशन और भौतिक कनेक्टिविटी सम्मिलित हैं।

अन्य विशेष प्रावधान (Other Special Provisions)

भारतीय संविधान का भाग 21, “अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध” भारत के विभिन्न राज्यों के लिए विशेष उपबंधों को सम्मिलित करता है।

अंतर : विशेष दर्जा (special status) और विशेष श्रेणी दर्जा (special category status: SCS) 

  • विशेष दर्जा संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित अधिनियम के माध्यम से भारतीय संविधान द्वारा प्रत्याभूत है, जबकि विशेष श्रेणी दर्जा (SCS) सरकार के प्रशासनिक निकाय राष्ट्रीय विकास परिषद् (NDC) द्वारा प्रदान किया जाता रहा है।
  • विशेष दर्जा विधायी और राजनीतिक अधिकारों को सशक्त बनाता है जबकि SCS केवल आर्थिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय पहलुओं से संबंधित है।
  •  SCS की अवधारणा पहली बार 1969 में प्रस्तुत की गई थी जब पांचवें वित्त आयोग ने कुछ वंचित राज्यों को अधिमान्य व्यवहार के साथ केन्द्रीय सहायता तथा कर रियायत प्रदान करने की मांग की थी। अनुच्छेद 370 तथा 371 (विशेष उपबंध) संविधान के प्रवर्तन से ही इसके भाग रहे हैं, जबकि परवर्ती उपबंधों के समूह को संविधान में संसद द्वारा संशोधनों के माध्यम से सम्मिलित किया गया था।

अनुच्छेद 370- जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध में अस्थायी उपबंध

अनुच्छेद 371 से 371J-12 राज्यों के लिए विशेष उपबंधों को शामिल करते हैं-ये हैं – असम, महाराष्ट्र, गुजरात, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना तथा गोवा।

अनुच्छेद 371

371 के तहत विशेष दर्जा प्रदान किए जाने के कारण

  •  राज्य के पिछड़े क्षेत्रों के लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करना, अथवा
  •  राज्य के जनजातीय लोगों के सांस्कृतिक एवं आर्थिक हितों की सुरक्षा करना, अथवा
  •  राज्य के कुछ भागों में कानून और व्यवस्था की ख़राब स्थिति से निपटने हेतु, अथवा
  •  राज्य के स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा हेतु।

अनुच्छेद 371 से संबंधित कुछ मुद्दे 

  • राजनीतिकरण: इस स्थिति को वोट बैंक आकर्षित करने की एक रणनीति के रूप में भी देखा जाता है, क्योंकि इससे कुछ प्रत्यक्ष लाभ प्रदान किये जा सकते हैं। जैसे कि अनुच्छेद 371J के समावेशन के पश्चात् हैदराबाद-कर्नाटक के 6 सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े जिलों में शिक्षा एवं रोजगार में आरक्षण तथा अवसंरचना विकास हेतु निधि उपलब्ध कराना, हालांकि इस सन्दर्भ में इसने यह भी सुनिश्चित किया है कि एक पृथक राज्य की मांग पुन:प्रकट न हो।
  • स्थानीय लोगों को प्राथमिकता: अनुच्छेद 371D आंध्रप्रदेश के कुछ जिलों में स्थानीय लोगों को सरकारी नौकरियों में 85% तक आरक्षण प्रदान करने का उपबंध करता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 371F के तहत विशेष दर्जा प्राप्त होने के कारण सिक्किम स्थानीय सिक्किम निवासियों हेतु निजी क्षेत्र की नौकरियों में 90% तक आरक्षण प्रदान करने हेतु एक विधेयक प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा है।
  • अधिक संसाधनों तक पहुंच का अभाव: आवश्यक नहीं कि इस अनुच्छेद में जिलों को शामिल करने से उस क्षेत्र में संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाए। उदाहरण के लिए – 371J के अंतर्गत शामिल कर्नाटक के जिले अभी भी विभिन्न प्रकार की वंचनाओं से पीड़ित हैं।
  • नागरिकों के मूल अधिकारों को बाधित करना: नागालैंड के जनजातीय निकायों ने अनुच्छेद 371A का उद्धरण देते हुए नगरपालिका चुनावों में महिलाओं हेतु 33% सीट आरक्षण के निर्णय का विरोध किया है। ज्ञातव्य है कि यह अनुच्छेद उनके जनजातीय रीति-रिवाजों को सुरक्षा प्रदान करता है। इस प्रकार, महिलाओं के राजनीतिक अधिकार बाधित होते हैं।

अनुच्छेद 370 से संबंधित अन्य तथ्य

  • 2015 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 370 ने संविधान में एक स्थायी स्थान प्राप्त किया है तथा इसकी विशेषता है कि यह संशोधन, निरसन या निराकरण से परे है।
  • यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 35A राज्य में लागू मौजूदा कानूनों को “सुरक्षा प्रदान करता है।
  • हालांकि उच्चतम न्यायालय ने कहा कि केवल संसद ही अनुच्छेद 370, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्त दर्जा प्रदान करता है, को समाप्त करने पर विचार कर सकती है।
  • अनुच्छेद 370 के निरसन हेतु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत, संशोधन आवश्यक है। पंरतु अनुच्छेद 370 को समाप्त करने हेतु साथ ही साथ राज्य की “संविधान सभा” की अनुशंसा प्राप्त करना भी अनिवार्य है। इस प्रकार इससे तात्पर्य है कि मौजूदा अनुच्छेद के खंड (1)(d) के तहत “राज्य की सहमति” आवश्यक होगी।

क्या अनुच्छेद 370 को एकतरफ़ा रूप से निरस्त किया जा सकता है?

  • अनुच्छेद 370 के खंड 3 के अनुसार, “राष्ट्रपति एक लोक अधिसूचना द्वारा यह घोषणा कर सकेगा कि यह अनुच्छेद प्रवर्तन में नहीं रहेगा, परन्तु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना जारी करने से पूर्व उस राज्य (कश्मीर) की संविधान सभा की अनुशंसा प्राप्त करना आवश्यक होगा।”
  •  इस प्रकार अनुच्छेद 370 केवल तभी निरस्त किया जा सकता है जब कश्मीर की नई संविधान सभा द्वारा निरसन हेतु अनुशंसा की जाए।
  • उल्लेखनीय है कि जनवरी 1957 में राज्य के संविधान निर्माण का कार्य संपन्न होने के पश्चात् राज्य की अंतिम संविधान सभा का विघटन कर दिया गया था। अतः यदि संसद अनुच्छेद 370 को रद्द करने हेतु सहमत होती है, तो एक नई संविधान सभा का गठन करना होगा।
  • संविधान सभा में राज्य विधान सभा हेतु निर्वाचित विधायक ही सम्मिलित होंगे। प्रत्यक्ष रूप से कहा जाए तो केंद्र सरकार, जम्मूकश्मीर की स्वीकृति के बिना अनुच्छेद 370 को निरस्त नहीं कर सकती।

अनुच्छेद 35A के विषय में

  • इसे 1954 में संविधान के अनुच्छेद 370(1)(d) के तहत जारी राष्ट्रपति के आदेश द्वारा संविधान में सम्मिलित किया गया था।
  •  यह जम्मू-कश्मीर के विधान मंडल को राज्य के स्थायी निवासियों” तथा उनके विशेष अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को
    परिभाषित करने की शक्ति प्रदान करता है। साथ ही यह उपबंध भी करता है कि इन विशेष अधिकारों और विशेषाधिकारों को अन्य राज्यों के लोगों के समानता के अधिकार या संविधान के तहत किसी अन्य अधिकार के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • यह जम्मू-कश्मीर के संविधान के कुछ प्रावधानों को संरक्षण प्रदान करता है जैसे कि राज्य के बाहर विवाह करने वाली स्थानीय महिलाओं को सम्पत्ति अधिकारों से वंचित करना। इसके साथ ही साथ उनके बच्चों को भी इन अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।
  • यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर के बाहर के निवासियों को राज्य में निवास करने और सम्पत्ति खरीदने से प्रतिबंधित करता है।
  • यह तर्क दिया जाता है कि यह अनुच्छेद 14,19 तथा 21 के तहत प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है, क्योंकि सरकारी नौकरियों और अचल संपत्तियों की खरीद के सम्बन्ध में यह गैर-निवासियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण व्यवहार का प्रावधान करता है।

पांचवीं अनुसूची (5th Schedule)

किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने हेतु मानदंड

  • जनजातीय जनसंख्या की बहुलता;
  • क्षेत्र की सघनता और युक्तियुक्त आकार;
  •  क्षेत्र की अल्प-विकसित प्रकृति
  •  लोगों के आर्थिक स्तर में सुस्पष्ट असमानता।

इन मानदंडों को भारतीय संविधान में वर्णित नहीं किया गया है किन्तु ये पूर्णतया स्थापित हो चुके हैं।

अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्य

आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना के क्षेत्रों में अनुसूचित क्षेत्र संबंधी प्रावधान लागू हैं।

जनजातीय सलाहकार परिषद् 

  • इसकी स्थापना राष्ट्रपति के निर्देश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्य में या किसी ऐसे राज्यों जहां अनुसूचित जनजाति तो है किन्तु अनुसूचित क्षेत्र नहीं है में की जाती है।
  • इसमें 20 सदस्य शामिल होते हैं, जिनमें से तीन-चौथाई उस राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होने चाहिए।
  • राज्यपाल इन परिषदों के सदस्यों की संख्या को विनियमित करने, उनकी नियुक्ति की रीति, इन परिषदों के अध्यक्ष, अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति तथा इसकी बैठकों और सामान्य कार्यवाहियों के संचालन के नियम उपबंधित कर सकता है।

पांचवीं अनुसूची (अनुच्छेद 244)

  •  पांचवी सूची के उपबंध असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम से भिन्न किसी भी अन्य राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए लागू होंगे।
  • यह भारत के उन बड़े हिस्सों में अनुसूचित क्षेत्रों” का निर्धारण करती है जिनमें “अनुसूचित जनजातियों के हितों को संरक्षित किया जाना आवश्यक है। अनुसूचित क्षेत्र की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी का जनजातीय होना आवश्यक है।
  • 5वीं अनुसूची के अंतर्गत राज्यपाल की शक्तियां

राज्यपाल की विभिन्न शक्तियां

  • राज्य के किसी अनुसूचित क्षेत्र में शांति और सुशासन हेतु विनियमन करना, जैसे- अनुसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के द्वारा या उनके मध्य भूमि अंतरण को निषिद्ध या प्रतिबंधित करना; उन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को किये जाने वाले भूमि आवंटन को विनियमित करना; ऐसे क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों के लोगों को साहूकारों द्वारा धन उधार देने के व्यवसाय को विनियमित करना।
  • संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किए गए किसी भी अधिनियम के अनुसूचित क्षेत्रों में लागू न होने के संबंध में निर्देश देना।
  •  उपर्युक्त वर्णित किसी भी विनियमन के निर्धारण की प्रक्रिया में, राज्यपाल किसी भी संघ या राज्य कानून को निरस्त या संशोधित कर सकता है।
  •  राज्यपाल इस प्रकार के विनियमन राज्य की जनजातीय सलाहकार परिषद् के परामर्श से ही बना सकता है।
  • जनजाति सलाहकार परिषद् (Tribes Advisory Council: TAC): 5वीं अनुसूची के तहत निर्धारित किया गया है कि यह TAC का कर्तव्य होगा कि वह राज्य में जनजातियों के कल्याण और प्रगति से संबंधित विषयों (राज्यपाल द्वारा संदर्भित) पर राज्यपाल को परामर्श प्रदान करे।

राष्ट्रपति और अनुसूचित क्षेत्रः

  •  राष्ट्रपति को राज्यपाल से परामर्श के बाद किसी भी अनुसूचित क्षेत्र की सीमाओं में परिवर्तन करने की शक्ति प्रदान की गयी है।
  •  राज्यपाल द्वारा निर्धारित किये गये विनियमन केवल राष्ट्रपति की स्वीकृति के उपरांत ही प्रभावी होते हैं। राज्यपाल के लिए अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राष्ट्रपति के समक्ष वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना अनिवार्य है।

 अनुसूची में संशोधन

संसद विधि द्वारा इस अनुसूची के किसी भी प्रावधान में परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन के माध्यम से संशोधन कर सकती है। ऐसा कोई कानून संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं माना जायेगा।

  • पांचवीं अनुसूची के उपबंधों का पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 के माध्यम से और अधिक कानूनी और प्रशासनिक सुदृढीकरण हुआ है।

5वीं अनुसूची से संबंधित मुद्दे

  •  यह अनुसूचित क्षेत्रों को शासित करने के लिए प्राधिकार और शक्ति को केंद्रीकृत करने की प्रवृत्ति दर्शाता है जो केंद्र सरकार के लिए राज्यपाल के माध्यम से कल्याण के नाम पर हस्तक्षेप करने का मार्ग प्रशस्त करता है।

TAC से संबंधित मुद्दे

  • स्वायत्त जिला परिषदों (ADCs), जिनमें कुछ सीमा तक विधायी और वित्तीय शक्तियां निहित हैं, के विपरीत किसी भी शक्ति के बिना TACs का सृजन करना।
  •  TACs के संघटन के सम्बन्ध में कोई स्पष्टता नहीं है, विशेष रूप से शेष एक-चौथाई सदस्यों के संबंध में।

राज्यपाल की भूमिका से संबंधित मुद्दे

  • प्रायः राज्यपाल का कार्यालय व्यावहारिक रूप से केवल वार्षिक रिपोर्ट-लेखन संस्थान की भूमिका तक ही सीमित हो
    जाता है।
  •  राज्यपाल की विवेकाधीन भूमिका की अस्पष्टता

कभी-कभी जनजातीय समुदायों के कैबिनेट मंत्रियों को भी सदस्य के रूप में नियुक्त किया जाता है, जिसके कारण हितों में संघर्ष उत्पन्न होता है क्योंकि, राज्य कैबिनेट का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति भी TAC की अध्यक्षता करता है।

पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996

  •  पंचायतों से संबंधित संविधान के भाग 9 के प्रावधान पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों पर लागू नहीं होते हैं। हालांकि, संसद कुछ अपवादों | और संशोधनों के साथ इन प्रावधानों को ऐसे क्षेत्रों तक विस्तृत कर सकती।।
  • इसके अंतर्गत संसद ने पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 को अधिनियमित किया है, जिसे पेसा के नाम से जाना जाता है।
  • वर्तमान में दस राज्यों में पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र हैं। ये राज्य हैं: आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और राजस्थान।

अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक गांव में ग्राम सभा होगी जिसकी निम्नलिखित भूमिका होगी

  • जनजातीय समुदाय की परंपराओं, रिवाजों और संस्कृति का संरक्षण करना।
  •  स्थानीय विवादों का समाधान करना।
  •  प्रबंधन और संरक्षण की पारंपरिक प्रणालियों के आधार पर साझा संपत्तियों का प्रबंधन और संरक्षण करना।
  •  प्रशासन द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले में जनजातियों को भूमि के पुनस्र्थापन की अनुमति प्रदान करना।
  •  जनजातीय लोगों को धन उधार देने पर नियंत्रण और लघु वनोपजों पर स्वामित्व।
  •  स्थानीय बाजारों और मेलों पर नियंत्रण के साथ-साथ मदिरा के आसवन, निषेध और निर्माण के नियंत्रण का अधिकार।
  •  नीलामी द्वारा गौण खनिजों के दोहन के लिए रियायत, अनुसूचित क्षेत्रों में गौण खनिजों के लिए निष्कर्षण लाइसेंस/खनन पट्ट को अनुमति के लिए संस्तुति देना

PESA, 1996 की सीमाएं एवं इसके अप्रभावी कार्यान्वयन के कारण

  • जनजातियों में जागरूकता और शिक्षा का निम्न स्तर: जिसके कारण वे अपनी आवाज़ मज़बूत ढंग से नहीं उठा पाते। ग्राम सभा बड़े पैमाने पर ग्राम पंचायतों के अधीनस्थ ही रहती है।
  • शक्तियों का सतही प्रशासनिक और राजकोषीय विकेन्द्रीकरण: प्रमुख शक्तियां अभी भी राज्य सरकारों में निहित हैं। •
  • कर, शुल्क, प्रशुल्क या टोल के आरोपण और संग्रहण की अपर्याप्त शक्तियां: राज्य वित्त आयोगों की सिफारिशों को या तो आंशिक रूप से स्वीकार किया गया है या उनमें से कुछ विशेष सिफारिशों को ही क्रियान्वित किया गया है। •
  • जनजातियों का विस्थापन: राजनेताओं, नौकरशाहों और निजी कंपनियों के मध्य व्यापक गठजोड़ जिसने अनेकों जनजातियों को उनकी भूमि से विस्थापित कर दिया है।
  • राज्य सरकार द्वारा प्रावधानों की अवहेलना करना: उदाहरण के लिए, पेसा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए है, राज्यों ने पेसा के प्रावधानों के अनुपालन से बचने के लिए और जनजातीय क्षेत्रों में खनन और उद्योगों को स्वीकृति देने के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम पंचायतों को नगर पंचायतों में परिवर्तित कर दिया है।
  •  नियमों के निर्माण हेतु कोई समय सीमा नहीं: पेसा अधिनियम, नियमों के निर्माण करने की शक्ति को स्पष्ट नहीं करता और ना ही नियम तैयार करने हेतु राज्यों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित करता है।
  •  निर्णयों के विरुद्ध अपील के लिए कोई प्रावधान नहीं: जनजातियों के अधिकारों के नियमित उल्लंघन को रोकने के लिए किसी कार्यशील शिकायत निवारण तंत्र का पूर्ण रूप से अभाव है।

आगे की राह

  •  पेसा एक शक्तिशाली कानून है जो अनुसूचित क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों पर जनजातीय जनसंख्या के अधिकारों की पहचान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और इस प्रकार उनके जीवन स्तर में व्यापक बदलाव ला सकता है।
  • राज्य सरकारों को जमीनी स्तर पर अधिनियम के वास्तविक कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सरकारी मशीनरी और हितधारकों की क्षमता बढ़ाने के लिए विभिन्न पहलें करनी चाहिए। सिविल सोसाइटी संगठन प्रत्येक स्तर पर हितधारकों के मध्य जागरूकता उत्पन्न करने और राजनीतिक रूप से विभाजित जनजातीय समुदायों को संगठित करने में रणनीतिक भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए, इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं का समाधान करने के लिए एक बहुपक्षीय रणनीति समय की मांग है।

छठी अनुसूची (6th Schedule)

संविधान की छठवीं अनुसूची में चार पूर्वोत्तर राज्यों अर्थात् असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में विशेष प्रावधान सम्मिलित हैं ताकि उनकी सांस्कृतिक पहचान और रीति-रिवाज़ को अक्षुण्ण बनाए रखा जा सके।

छठवीं और पाँचवीं अनुसूची के मध्य तुलना

हालांकि संविधान की पाँचवीं एवं छठवीं दोनों ही अनुसूचियाँ आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाने के लिए निर्मित की गयी हैं, किन्तु इस सन्दर्भ में छठवीं अनुसूची को पाँचवीं अनुसूची से बेहतर माना जाता है, क्योंकि:

  • यह अधिक स्वायत्तता प्रदान करती है।
  • पाँचवीं अनुसूची में उल्लिखित परिषद, राज्य विधान मंडल द्वारा निर्मित की जाती है जबकि छठवीं अनुसूची में यह स्वयं संविधान द्वारा स्थापित की गयी है।
  •  पाँचवीं अनुसूची की परिषद के विपरीत इनके पास स्वयं के लिए बजट तैयार करने की वित्तीय शक्ति भी है। इसे विस्तृत शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं तथा कई विषयों पर कानून निर्माण करने की शक्ति भी प्रदान की गयी है।
  • इसके विपरीत पाँचवीं अनुसूची में जनजातीय सलाहकार परिषद के पास केवल राज्य सरकार को परामर्श देने की शक्ति है और वह भी मात्र उन विषयों पर जिन पर राज्यपाल सलाह माँगे। हालाँकि भूमि हस्तांतरण से संबंधित मामलों में इसे स्वयं निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त है ।
  • छठवीं अनुसूची की परिषदों को विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा व सड़क योजनाओं के वित्तपोषण के लिए भारत की समेकित निधि से भी धन प्राप्त होता है।

कुछ अन्य कदम जिन्हें छठवीं अनुसूची को अधिक सशक्त के लिये उठाये जाने की आवश्यकता है:

  •  सभी क्षेत्रों में निर्वाचित ग्राम परिषदों का गठन।
  • राज्य चुनाव आयोग द्वारा नियमित चुनाव सुनिश्चित करना।
  • ग्राम सभा के प्रति ग्राम परिषदों की जवाबदेही सुनिश्चित करना।
  •  ग्राम सभा को विधिक दर्जा प्रदान करना और इसकी शक्तियों और कार्यों का निर्धारण।
  •  परिषद में महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
  •  विकास कार्यक्रमों की योजना निर्माण, कार्यान्वयन और निगरानी में पारदर्शिता लाना।
  •  यह सुनिश्चित करना कि किसी भी नृजातीय अल्पसंख्यक समूह को परिषद में प्रतिनिधित्व से वंचित तो नहीं रखा गया है।

छठवीं अनुसूची में सम्मिलित किए जाने के लाभ

छठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने से इन क्षेत्रों के लोगों को निम्नलिखित प्रावधानों के माध्यम से स्वशासन के मामले में अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती हैः

  •  राज्य की कार्यपालिका शक्ति के अंतर्गत स्वायत्त जिलों का निर्माण किया जाना। इनमें उस क्षेत्र में निवास करने वाली विभिन्न जनजातियों के निवास के आधार पर कई स्वायत्त क्षेत्र शामिल होते हैं।
  • प्रत्येक स्वायत्त जिले में एक जिला परिषद होती है तथा प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय परिषद होती है। ये दोनों ही अपने क्षेत्राधिकार के तहत आने वाले क्षेत्रों में प्रशासन संबंधी उत्तरदायित्व संभालते हैं।
  • भूमि, वन, नहर के जल, स्थानांतरण कृषि ,ग्राम प्रशासन, संपत्ति के उत्तराधिकार, विवाह और तलाक, सामाजिक रीति-रिवाज जैसे कुछ विशिष्ट मामलों पर कानून बनाने के लिए विधायन शक्ति।
  • न्यायिक शक्ति – परिषदें जनजातियों से संबंधित मुकदमों एवं मामलों के निपटारे के लिए ग्राम परिषदों या न्यायालयों का गठन कर सकती हैं। ऐसे मामलों के संबंध में सम्बंधित उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार राज्यपाल द्वारा अभिनिर्धारित किया जाता है।
  • विनियामक शक्ति – जिला परिषद जिले में प्राथमिक विद्यालयों, सड़कों, दवाखानों, बाजारों, घाटों, मत्स्य पालन केन्द्रों आदि की स्थापना, निर्माण तथा प्रबंधन कर सकती है। यह गैर-आदिवासियों द्वारा धन उधार देने और व्यापार गतिविधियों के नियंत्रण के लिए नियम भी बना सकती है। हालाँकि ऐसे नियमों के संदर्भ में राज्यपाल द्वारा स्वीकृति प्रदान किया जाना आवश्यक है।
  • कर राजस्व संग्रहण – जिला और क्षेत्रीय परिषदों को भू-राजस्व का आकलन करने और एकत्र करने के साथ ही कुछ निर्दिष्ट कर लगाने का भी अधिकार है।
  • स्वायत्त क्षेत्रों के संबंध में संसद या राज्य विधानमंडल की विधायन शक्ति पर सीमाएं – संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित अधिनियम स्वायत्त जिलों और स्वायत्त क्षेत्रों पर लागू नहीं होते हैं अथवा निर्दिष्ट संशोधनों और अपवादों के साथ लागू होते हैं।

हालांकि छठवीं अनुसूची में शामिल करने का अर्थ सभी समस्याओं से मुक्ति नहीं है। इसमें शामिल क्षेत्र भी कुछ समस्याओं से ग्रस्त हैं,जैसे

  • शक्तियों और प्रशासन का विकेंद्रीकरण नहीं – छठवीं अनुसूची के कई क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण संबंधी प्रावधान लागू नहीं हो पाए हैं। उदाहरण के लिए, बोडो प्रादेशिक क्षेत्र के जिलों में, केवल एक ही जिला परिषद है जहाँ कुछ लोगों को ही चुना जाता है तथा उनकी भी शक्तियों पर कोई स्पष्ट निर्बन्धन नहीं है। अतः ऐसी इकाइयों का निर्माण किया जाना चाहिए जिनमें सभी स्तरों से संबंधित लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।
  • विकास का अभाव – यद्यपि छठवीं अनुसूची लोगों को अधिक लाभ देने के लिए और त्वरित विकास के लिए अधिनियमित की गयी थी किन्तु स्थानीय (जनता के) स्तर पर पंचायत या परिषद का गठन नहीं हो पाया है। इस कारण से उनके पास विभिन्न योजनाओं जैसेमनरेगा आदि के कार्यान्वयन के लिए गैर-अनुसूचित क्षेत्रों (वे क्षेत्र जो छठवीं अनुसूची में नहीं हैं) के समान शक्ति और धन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
  • भ्रष्टाचार और अवैध गतिविधियाँ – स्वायत्त परिषदों के कुछ सदस्य उग्रवादी गुटों को आर्थिक मदद पहुँचाते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर कछार स्वायत्त परिषद। द्रष्टव्य है कि ऐसे समूहों की NIA और CBI द्वारा निगरानी की जा रही है।
  • परिषदों पर राज्य की विधायन शक्ति – परिषदों द्वारा बनाए गए कानूनों के लिए राज्यपाल की सहमति आवश्यक है। इस प्रक्रिया में कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है, अतः ऐसे विधायनों में कई वर्षों का विलम्ब हो जाता है। इसके अतिरिक्त छठवीं अनुसूची के पैरा 12 (A) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जिला परिषदों और राज्य विधानमंडल के बीच किसी मुद्दे पर टकराव की स्थिति में राज्य विधानमंडल को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • समन्वय के बिना कार्य का अतिव्यापन – व्यापक स्तर पर एक्टिविटी मैपिंग के अभाव के कारण परिषद और राज्य के कार्यों और क्षेत्राधिकारों में अतिव्यापन हो जाता है। उदाहरण के लिए – जल संसाधनों को विषाक्त होने से बचाने और प्रदूषित जल के शोधन व पुनः प्राप्ति के लिए परिषद तथा राज्य के जल संसाधन विभाग के बीच कोई समन्वयकारी व्यवस्था विद्यमान नहीं है।
  • राज्य वित्त आयोग से सम्बद्धता का अभाव – इनके समकक्ष PRIs की तुलना में इन्हें कम अनुदान प्रदान किया जाता है क्योंकि इन्हें राज्य वित्त आयोगों के तहत कवर नहीं किया गया है। इस प्रकार उन क्षेत्रों के PRIs के वित्तपोषण में अधिक उदारता दिखाई जाती है जो छठवीं अनुसूची से बाहर हैं। अतः इन परिषदों का वित्तपोषण अनुच्छेद 275 (वर्तमान में आय का प्रमुख स्रोत) के अंतर्गत अनुदान के रूप में सहायता के स्थान पर संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत प्रत्यक्ष वित्तपोषण द्वारा किया जाना चाहिए।
  • राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों के विषय में मतभेद – इन क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों को लेकर अस्पष्टता व्याप्त है। ऐसे में इन विषयों से सम्बंधित मामलों में मंत्रिपरिषद के साथ राज्यपाल के परामर्श की आवश्यकता को लेकर भी मतभेद है।

 

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