शहरीकरण और औद्योगिकीकरण : सामान्य रूप से जाति आधारित स्तरीकरण को प्रभावित कर रहा है

प्रश्न: यह कल्पना की जाती है कि औद्योगिकीकरण के साथ शहरीकरण, जाति-आधारित व्यवस्था के स्तरीकरण में कुछ आवश्यक बदलाव को अभिप्रेरित करेगा इस संदर्भ में, चर्चा कीजिए कि कैसे जाति व्यवस्था शहरी सामाजिक जीवन में निरंतर बनी हुयी है और अपने प्रभाव को कायम रखे हुए है।

दृष्टिकोण

  • चर्चा कीजिए कि किस प्रकार शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण सामान्य रूप से जाति आधारित स्तरीकरण को प्रभावित करने की उम्मीद की जा रही है।
  • यह बताते हुए कि शहरी समाज में जाति व्यवस्था की निरंतरता के स्वरूप क्या हैं तथा यह शहरी सामाजिक जीवन को कैसे प्रभावित करती है, इसके कारणों को प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर

स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के विकास पथ में तीव्र औद्योगिकीकरण और शहरीकरण देखा गया है। जाति आधारित पहचान शहरीकरण के साथ कम हो जाती है क्योंकि शहरी सामाजिक संरचना तार्किकता, व्यावसायिकता, एवं अनामिता के मूल्यों पर आधारित होती है तथा उपलब्धि उन्मुख होती है। शहरी लोग, सामाजिक-राजनीतिक भागीदारी की प्रगतिशील प्रणाली में पारस्परिक निष्ठा के साथ भाग लेते हैं। यह परिवार, नातेदारी, जाति और वर्ग आधारित पारंपरिक ग्रामीण सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन को इंगित करता है। औद्योगिकीकरण ने लोगों को आजीविका के नए स्रोत प्रदान किए हैं। इसने व्यावसायिक गतिशीलता को संभव बनाया है, जो जाति आधारित व्यवसाय द्वारा प्रतिबंधित थी।

हालांकि, भारत में शहरीकरण और औद्योगीकरण के बावजूद जाति व्यवस्था कायम है और शहरी सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है:

  • सामान्यत:, शहरी समाज कार्यस्थल पर धर्मनिरपेक्ष नियमों का पालन कर सकता है परन्तु विवाह जैसे व्यक्तिगत मामलों में जाति की पहचान अभी भी प्रासंगिक बनी हुई है। इस प्रकार, कार्यस्थल और घरेलू परिस्थितियों में एक विरोधाभास विद्यमान है।
  • आधुनिक उद्योग और व्यवसायों के कारण नए प्रतिष्ठा समूह और वर्ग संरचनाएँ उभरकर सामने आयी हैं। दृष्टव्य है कि शहरी क्षेत्रों में उच्च जाति ही सदैव उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती है।
  • शहरों में शैक्षणिक और व्यावसायिक अवसरों को प्राप्त करने में जाति के लोगों की सहायता करने हेतु जाति संघों का गठन किया जोता है। उदाहरण के लिए, गुजरात बनिया सभा, क्षत्रिय महासभा (गुजरात), आगरा की जाटव महासभा (U.P.) आदि जाति आधारित समूह हैं। ये जाति के सदस्यों के हितों की रक्षा करते हैं। ऐसे समूह प्रतिस्पर्धी बन जाते हैं और वर्ग की विशेषताएं ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार, जाति वोट बैंक की राजनीति में एक कारक बन जाती है।
  • यद्यपि शहरी समाज में जाति से संबंधित कुछ प्रथाएं/अनुष्ठान समाप्त हो गए हैं, परन्तु कुछ पहलू अभी भी जारी हैं। उदाहरण के लिए, पड़ोसियों के साथ संबंधों के निर्माण में जाति, रिश्तेदारी एवं अन्य प्रकार की परंपरागत सामूहिकता की भावना का प्रभाव देखा जा सकता है।
  • सोशल मीडिया के प्रवेश के कारण सोशल नेटवर्क पर जाति पहचान आधारित समूहों का गठन किया जा रहा है।
  • चूंकि आरक्षण नीति जाति से जुड़ी हुई है, निचली जातियों के सदस्य अपनी जाति की पहचान पर अधिक बल देते हैं, जबकि कुछ तुलनात्मक रूप से उच्च जातियां इस नीति के लाभों का लाभ उठाने के लिए आंदोलन का आयोजन कर रही हैं।

इस प्रकार, तीव्र शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के बावजूद, शहरी भारत में जाति व्यवस्था कायम है। हालांकि, जनसांख्यिकीय संक्रमण के साथ ही शहरी युवाओं में अंतरजातीय विवाह, व्यावसायिकता और तर्कसंगतता की बढ़ती प्रवृत्तियां, जाति व्यवस्था की बुराइयों से रहित एक अधिक समतावादी समाज की स्थापना हेतु नई आशा प्रदान करती हैं।

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