सविनय अवज्ञा आदोलन : 1930-1934

यह इकाई 1930-34 के दौरान काग्रेस द्वारा गांधी जी के नेतृत्व में चलाये मये सविनय अवज्ञा आंदोलन की चर्चा करने का प्रयास करती है।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • यह समझ सकेंगे कि किन परिस्थितियों में सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत हुई,
  • यह बता पायेंगे कि आंदोलन किस तरह शुरू हुआ और इसका कार्यक्रम क्या था,
  • यह समझा सकेंगे कि आंदोलन को कुछ समय के लिए क्यों स्थगित कर दिया गया,
  • यह भी बता पायेंगे कि क्यों यह अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहा,
  • यह समझ सकेंगे कि भारतीय इतिहास में इस आंदोलन का क्या महत्व है ।

आपने पहले कांग्रेस द्वारा शुरू किये गये असहयोग आंदोलन के बारे में पढ़ा । हालांकि यह आंदोलन अपनी लक्ष्य-प्राप्ति में असफल रहा, लेकिन फिर भी यह लाखों लोगों को अंग्रेजी राज के खिलाफ हुए आंदोलन से जोड़ने में सफल रहा । आठ साल के अंतराल के बाद 1930 में कांग्रेस ने एक बार फिर एक जन-आंदोलन का आह्वान किया, जिसे सविनय अवज्ञा आंदोलन के नाम से जाना जाता है ।

असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद से भारतीय परिस्थितियों में बदलाव आए और भारतीय समस्याओं के प्रति अंग्रेज़ सरकार के न बदलने वाले रवैये ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार की । इस इकाई में हम सविनय अवज्ञा आंदोलन की पृष्ठभूमि, अवस्थानुमार विकास, तथा अंततः इसकी असफलता और परिणामों की चर्चा करेंगे ।

पृष्ठभूमि

फरवरी 1922 में चौरी-चौरा घटना के बाद गांधी जो द्वारा अचानक असहयोग आदोलन वापस ले ले के निर्णय का अनेकों कांगेमी नेताओं पर प्रभाव पड़ा, उनका उत्साह भंग हआ जिससे राष्ट्रीय आंदोलन तेज़ी से कमज़ोर होता चला गया । मार्च, 1923 में अखिल भारतीय काग्रेस की म्यता घट कर 106,000 तक पहँच गई और मई, 194 सिर्फ 56,000 रह गयी । दोहरे शामन  अंदर से तोड़ने का स्वराजियों का कार्यक्रम, (इसके बारे में आप इकाई 21 में पढ़ चुके हैं) परिषद् और नगर पालिकाओं की राजनीति तक ही सीमित होकर रह गया । “परिवर्तन विरोधी गुट”, जिसने । नावों में गांधी के रचनात्मक कार्यों पर जोर दिया था, छिन्न-भिन्न हो गया और अपने आपको उन्होंने राजनीतिक घटनाओं से अलग रखा । असहयोग-खिलाफत आंदोलन के दिनों की असाधारण हिंदूमुसलमान एकता 1920 के मध्य में हुए व्यापक साम्प्रदायिक दंगों में विलीन हो गयी ।

उदाहरण के लिए सितम्बर, 1924 में उत्तर पश्चिमी सीमांत (टियर) प्रांत के क्षेत्र कोहाट में हिंदू-विरोधी हिंसा भड़की । अप्रैल और जुलाई, 1926 के बीच कलकत्ता में दंगों की तीन घटनाओं में लगभग 138 लोग मारे गये । उसी साल ढाका, पटना, रावलपिंडी, दिल्ली और यू.पी. में सांप्रदायिक उपद्रव हुए । बहुत से सांप्रदायिक संगठन बन गए । कुछ जगहों पर यह देखा गया कि कुछ लोग जो स्वराजियों के साथ थे वे हिन्दू महासभा के भी सदस्य थे । वैकल्पिक संविधान के लिए नेहरू रिपोर्ट प्लान पर 1927-28 में जिन्ना मे समझौते की बातचीत प्रमुखतः हिंदू महासभा के विरोध और इसको लेकर जिन्ना की हठधर्मिता के कारण टूट गयी ।

1919-22 जैसी हिंदू-मुसलमान एकता फिर कभी देखने में नहीं आयी, किंतु 1928 के बाद से ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन बढ़ रहा था । ये संकेत निम्न बातों में देखे जा सकते हैं :

  • साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए अनेक शहरों में हुए प्रदर्शन और हड़तालें,
  • वम्बई और कलकत्ता में जुझारू कम्युनिस्टों के द्वारा चलाया गया मज़दूर आंदोलन, जिसने भारतीय  व्यापारियों, अंग्रेज़ अफ़सरों तथा पूँजीपतियों सभी को भयभीत कर दिया,
  • वंगाल और उत्तर भारत में क्रांतिकारी गुटों का फिर से उभर आना (इसमें नये धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी स्वर लिए हुए भगत सिंह की हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन शामिल थी),
  • विभिन्न क्षेत्रों के किसान आंदोलन, ख़ासकर 1928 में गुजरात में, वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में लगान बढ़ाने के सरकारी प्रयासों के ख़िलाफ़ हुआ बारदोली का सफल सत्याग्रह ।

जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में काग्रेस का वामपंथी दल इसी काल में उभर रहा था, जिसका नारा था डोमिनियन स्थिति ही नहीं हमें पूर्ण स्वराज. चाहिए । बहुत पशोपेश के बाद गांधी जी ने कांग्रेस मत में इस परिवर्तन को दिसम्बर, 1929 में लाहौर के अधिवेशन में स्वीकार कर लिया जिसने 1930-34 में देशव्यापी संघर्ष के अगले प्रमुख दौर के लिए पृष्ठभूमि तैयार की । नयी लहर के आने के ठीक पहले के वर्षों में जो पतन और विखंडन हो चुका था उसे देखते हुए, आप जानना चाहेंगे कि यह कैसे संभव हुआ, “कैम्ब्रिज स्कूल” के इतिहासकारों ने ब्रिटिश नीतियों और राष्ट्रीय आंदोलन के उत्थान और पतन के बीच एक सीधे सहज संबंध का संकेत करते हुए इसे स्पष्ट करने की कोशिश की है । साइमन कमीशन का यह प्रभाव पड़ा कि “मृतप्राय राष्ट्रवाद” पुनर्जीवित हो उठा ।

इरविन ने गांधीजी के साथ समानता के स्तर पर बात करके कांग्रेस को महत्ता दी, किंतु गहराई से देखने पर यह समानता संदेह उत्पन्न करती है क्योंकि ब्रिटिश नीति प्रायः राष्ट्रवादी दबाव के परिणामस्वरूप बदलती थी, न कि इसके विपरीत । उदाहरण के लिए, साइमन कमीशन ने, जिसमें सभी अंग्रेज़ थे, भारतीयों की मांगों के संदर्भ में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को भी वापस लेने की योजना बनायी थी किंतु 1930 की जन-लहर ने अंग्रेज़ों को केंद्र में किसी तरह की भी ज़िम्मेदार सरकार बनाने का वायदा करने के लिए मजबूर कर दिया । इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय आंदोलन और जनता के महान आत्म बलिदान ने एक बार फिर फ़रवरी-मार्च, 1931 में इरविन को गांधी जी के साथ बातचीत करने के लिए मजबूर कर दिया ।

1928 और 1929 के इस पूरे काल में हम ब्रिटिश प्रभुसत्ता और विभिन्न भारतीय हितों के बीच राजनीतिक और आर्थिक तनावों को बढ़ता हुआ पाते हैं :

  • 1929 के अंत में आयी विश्वव्यापी मंदी के प्रभाव के फलस्वरूप ये अंतर्विरोध और अधिक तीव्र हो गये थे । व्यापारिक वर्ग ब्रिटिश शुल्क नीति से खुश नहीं था । लंकाशायर के कपड़ों का आयात फिर से बढ़ गया था और कलकत्ता में बिड़ला और अंग्रेजों के जूट संबंधी हितों तथा बम्बई में जहाज़रानी को लेकर विरोध बढ़ रहा था ।
  • जिन मज़दूरों की बड़े पैमाने पर छटनी हुई थी उन्होंने अभूतपूर्व जुझारू और संगठन शक्ति का प्रदर्शन करते हुए आंदोलन शुरू कर दिया ।
  • कृषि उत्पादन में आये गतिरोध और 1920 के अंतिम चरण से अंग्रेज़ों द्वारा रैयतवाड़ी क्षेत्र में लगान बढ़ाने के प्रयत्नों के फलस्वरूप गांवों में तनाव बढ़ गया और बारदोली विजय के बाद कहीं जाकर इस प्रकार की कोशिशें हमेशा के लिए समाप्त हो पायीं ।

जनता में सामाजिक आर्थिक असंतोष ने अनिवार्यतः या अपने आप ही ब्रिटिश विरोधी रुख नहीं अपना लिया, क्योंकि जिन लोगों द्वारा उसका प्रत्यक्ष दमन किया जाता था, उनमें प्रायः भारतीय जमींदार, साहूकार या मिल-मालिक ही थे । ये वे समूह थे जिनका राष्ट्रवादियों से संबंध हो सकता था या जिन्हें राष्ट्रवादी सामान्यतः अपनी तरफ रखने का प्रयास करते थे । फिर भी, 1930 में एक भारी देश-व्यापी लहर उठी । आइए देखें ऐसा क्यों और कैसे हुआ ।

सविनय अवज्ञा-मार्च, 1930-1931

लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन (1929) ने गांधी जी को पूर्ण स्वराज के लिए अंहिसात्मक संघर्ष का विकल्प चुनने का तरीका प्रदान किया । यह लय किया गया कि 26 जनवरी, 1930 को पूरे भारत . में स्वतंत्रता की घोषणा की जाएगी या ज़्यादा से ज़्यादा लोगों द्वारा स्वतंत्रता की शपथ ली जायेगी । इसी तारीख को सविनय अवज्ञा आंदोलन भी शुरू होना था । इसे स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया ।

गांधी जी के प्रयास

गांधी जी अब भी अपने कार्यक्रम की योजना के बारे में निश्चित नहीं थे । आंदोलन शुरू करने से पहले एक बार फिर उन्होंने सरकार से समझौता करने की कोशिश की । उन्होंने प्रशासनिक सुधार के लिए “ग्यारह सूत्र” पेश किए और कहा कि यदि लॉर्ड इरविन उन्हें स्वीकार कर लेंगे तो संघर्ष की आवश्यकता नहीं होगी । इनमें महत्वपूर्ण मांगे थीं :

  • रुपये की विनिमय दर घटा का । शिलिंग 4 पेंस की जाए,
  • भूमि लगान में 50 फीसदी कमी कर दी जाए और इसे विधायी नियंत्रण (लेजिस्लेटिव कंट्रोल) का विषय बनाया जाए,
  • नमक-कर और सरकार का नमक पर एकाधिकार समाप्त किया जाए,
  • सर्वोच्च श्रेणी की सेवाओं का वेतन घटा कर आधा कर दिया जाए,
  • सेना खर्च में 50% कमी की जाए, ।
  • भारतीय कपड़ा-उद्योग और जंहाज़रानी उद्योग को संरक्षण दिया जाए, ” सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा किया जाए ।

अनेकों प्रेक्षकों को यह मांग-पत्र, पूर्ण स्वराज से पीछे हटना जान पड़ा । जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा :

“हमारी राजनीतिक और सामाजिक सुधारों की सूची बनाने का क्या अर्थ था जबकि हम स्वतंत्रता के संबंध में बात कर रहे थे । गांधी जी ने जब इस शब्द का प्रयोग किया तो क्या उन्होंने इसका वही अर्थ लगाया जो हम लगा रहे थे या फिर हम लोग कोई भिन्न भाषा ‘बोल रहे थे ।”

गांधी जी के प्रस्ताव पर सरकार की प्रतिक्रिया नकारात्मक थी । गांधी जी अभी भी अनिश्चित थे । उन्होंने वाइसरॉय को लिखा :

“किंतु यदि आपके पास इन बुराइयों से निपटने का कोई उपाय नहीं है और मेरे पत्र का आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तो आश्रम के सहयोगियों के साथ नमक-कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिए मुझे कार्रवाई करनी होगी । मैं इस कर (टेक्स) को गरीब आदमी के दृष्टिकोण से सभी को प्रभावित करने वाला मानता हूँ ।” .

वाइसरॉय ने गांधी जी को एक संक्षिप्त उत्तर दिया, जिसमें उन्होंने खेद प्रकट किया कि “गांधी ऐसा मार्ग अपना रहे हैं जिससे स्पष्टतः कानून का उल्लंघन होगा और जो सार्वजनिक शांति के लिए खतरा है ।”

गांधी जी ने ..अपने प्रतिउत्तर में कहा, “मैंने घटने टेक कर रोटी मांगी और बदले में मुझे पत्थर मिला । अंग्रेज़ी राष्ट्र सिर्फ बल प्रयोग का जवाब देता है और मैं वाइसरॉय के जवाब से चकित नहीं हूँ ।”

आंदोलन की शुरुआत

गांधी जी ने निर्णय लिया । 12 मार्च, 1930 को अपने 78 चुने हुए अनुयायियों के साथ गांधी जी ने साबरमती आश्रम से दांडी समुद्र तट तक की ऐतिहासिक यात्रा शुरू की । वहाँ गांधी जी और उनके अनुयायियों ने समुद्र से नमक बना कर नमक कानून तोड़ा । आंदोलन का कार्यक्रम इस प्रकार था :

  • हर जगह नमक कानून का उल्लंघन किया जाना ।
  • विद्यार्थियों को कालेज छोड़ना चाहिए और सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से इस्तीफा देना चाहिए ।
  • विदेशी कपड़ों को जलाया जाना चाहिए ।
  • सरकार को कोई कर अदा नहीं किया जाना चाहिए ।
  • औरतों को शराब की दुकानों के आगे धरना देना चाहिए, इत्यादि ।

शुरू में, केंद्रीय मुद्दे के रूप में नमक का चयन उलझन पैदा करने वाला जान पड़ा । शीघ्र ही घटनाओं ने इस चयन के व्यापक प्रभाव को उजागर कर दिया । बाद में इरविन ने गांधी जी से सहमति प्रकट की कि “आपने नमक के मसले पर एक अच्छी नीति तैयार की ।” नमक गरीव ग्रामीणों की एक ठोस और सर्वव्याप्त शिकायत थी, जो अपने आप में इस मायने में लाजवाब थी कि उसमें सामाजिक फूट का कोई आशय न था । खान-पान की आदतों के संबंध में, नमक से लोगों का रोज़मर्रा का वास्ता था । इसके साथ विश्वास, मेहमान-नवाज़ी, पारस्परिक कर्तव्य के आशय भी जुड़े हुए थे । इस अर्थ में वह दूरगामी भावात्मक तत्व रखता था ।

इसके अतिरिक्त नमक कानून तोड़ने का अर्थ सरकार के उस दावे को ठुकराना था जो मानता था कि जनता की निष्ठा उसके माथ है । तटीय इलाकों में जहाँ, पिछली शताब्दी से ब्रिटिश-आयात ने स्वदेशी नमक उत्पादन को नष्ट कर दिया था, अवैध नमक के निर्माण से लोगों को मामूली आमदनी मिल सकती थी, जो महत्वहीन नहीं थी । नमक निर्माण भी खादी उत्पादन की तरह, रचनात्मक कायो के गांधीवादी तरीकों का एक हिस्सा बन गया । गांधी के प्रभाव वाले ग्रामीण क्षेत्रों ने हर जगह नमक सत्याग्रह के लिए पहले स्वयंसेवक उपलब्ध कराये । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि दांडी मार्च और उसके बाद नमक-कानून के देशव्यापी उल्लंघन ने अहिंसात्मक जन-संघर्ष की शक्ति का अत्यधिक प्रभावशाली प्रदर्शन किया ।

सरकार के सम्पूर्ण नैतिक अधिकार और उसकी अपने-आपको गरीबों का “माँ-बाप” कहने वाली पैतृक छवि नष्ट हो रही थी । नवम्बर, 1930 में मिदनापुर. (बंगाल) के एक अतिरिक्त जिला अधिकारी ने लिखा कि अब वृद्ध और बुजुर्ग गाँव वाले भी “ढिठाई” से बात कर रहे थे । “एक साधारण किमान एकदम पालथी मारकर बैठ गया और व्यंग्य से हँसते हुए बोला, हम जानते हैं कि सरकार कितनी शक्तिशाली है ।”

आंदोलन का प्रसार

पुलिस और निम्न स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों के सामाजिक बहिष्कार से अनेकों इस्तीफे दिये गये । अंग्रेजों द्वारा क्रूरता से चलाया गया दमन चक्र इस बात का प्रतीक था कि अंगेज़ ख़तरे की गंभीरता को अच्छी तरह समझ गये थे । जैसा कि अमरीकी पत्रकार वेब मिलर (Webb Miller) ने लिखा है “सत्याग्रहियों को निर्दयता से मारा-पीटा गया जबकि उन्होंने किसी प्रकार का प्रतिरोध भी नहीं किया ।” किंतु निहत्थे, मुकाबला न करने वाले सत्याग्रहियों द्वारा घृणित यंत्रणा को झेलने के दृश्य ने जिस तरह से स्थानीय सहानुभूति और आदर को जागृत किया उस तरह अन्य कोई नहीं कर पाता ।

नृशंस दमन ने पुलिस और स्थानीय अफसरों द्वारा किए गये छोटे-मोटे अत्याचारों के अनेकों मामलों की याद को जगा दिया, जिससे पूरे देश का संघर्ष गांव वालों के दिन प्रतिदिन के जीवन्त अनुभवों से जुड़ गया । यह सहानुभूति शीघ्र ही सहभागिता में बदल गयी, जिसने आंदोलन को अब तक के काग्रेस संगठन और प्रचार के सोधे प्रभाव की संकीर्ण सीमा से कहीं ज़्यादा फैला दिया ।

लेकिन ऐसी सहभागिता अक्सर हिंसात्मक रूप ले लेती थी, जैसे कई बार गांव वालों द्वारा पलिस पर । आक्रमण से पता चलता है । वैसे भी अधिकांश काग्रेस के नेताओं के शुरू में ही गिरफ्तार हो जाने से गांधी जी द्वारा आन्दोलन के लिए बनाये गये नियम कमज़ोर पड़ते चले गये ।

जब नमक सत्याग्रह अपनी चरम सीमा पर था, गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाहर या इसकी सीमाओं का अतिक्रमण करने वाली तीन प्रमुख विस्फोटक घटनाओं के कारण अग्रेज चौकन्ने हो गये थे ।

  • 18 अप्रैल, 1930 को बंगाल के क्रांतिकारियों ने, चिटगाँव शस्त्रागार पर कब्ज़ा करके और 22 अप्रैल को जलालाबाद की पहाड़ियों पर जम कर लड़ाई करके, आतंकवादी आंदोलन के इतिहाम में अत्यधिक शक्तिशाली और वीरोचित युग का शुभारंभ किया , बंगाल में क्रांतिकारी आतंकवाद 1930 में 56 घटनाओं के साथ (1919-29) के दशक की 47 घटनाओं की तुलना में समूचे सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ चला । चिटगाँव घटना के नेता सूर्यसेन 1933 तक गांवों में भूमिगत रहने में सफल हुए और वहां किसानों की सहानुभूति का एक नया रूप देखने को मिला । शिक्षित मध्यम वर्ग के सिर्फ युवा हिंदुओं के कहे जाने वाले आदोलन में पहली बार मुसलमान भी शामिल हुए थे ।
  • पेशावर में 23 अप्रैल, 1930 को, खान अब्दुल गफ्फार खान का गिरफ्तारी ने एक व्यापक लहर फैलायी और गढ़वाल राइफल्स की टोली ने (मुसलमान भीड़ का सामना करते हुए हिंदू सिपाहियों ने गोली चलाने से मना कर दिया । यह देशभक्तिपूर्ण आत्म-बलिदान, अहिंसा और साम्प्रदायिक एकता की एक ऐसी मिसाल है जो अच्छी तरह याद रखने के काबिल है ।
  • महाराष्ट्र के औद्योगिक शहर शोलापुर में, मई, 1930 के शुरू में, कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल हुई,

शराब की दुकानों, पुलिस चौकियो और सरकारी भवनों पर हमले हुए : यहाँ तक कि कुछ दिनों के लिए समानांतर-सरकार जैसी स्थिति भी रही ।

मानसून के आने से गैरकानूनी नमक बनना मुश्किल हो गया और कांटोस ने जनसंघर्ष के अन्य तरीकों को अपनाया । इन सब तरीकों की यही विशेषता रही कि सामाजिक रूप से एक को दुसरे से जोड़ने वाले मुद्दों को सावधानी से चना गया और अनेक प्रकार की लोकप्रिय (Populist) गतिविधियों के द्वारा उन्हें व्यापक बनाया तथा उन्हें नया रूप प्रदान किया गया ।

मई, 1930 में कार्यकारिणी समिति ने रैयतवाड़ी इलाकों में भूमि करबंदी, ज़मींदारी क्षेत्रों में चौकीदारी (ग्रामीण-पुलिस) हरबंदी (जो लगानबंदी जितना महत्वपूर्ण नहीं था) का समर्थन किया । समिति ने गरीव किसानों के, मुफ्त चारे, लकड़ी और अन्य जंगल उत्पादों के बरसों पुराने अधिकार पर रोक लगाने वाले वन-कानून के शांतिपूर्ण उल्लघन के लिये “वन सत्याग्रह” की स्वीकृति दी ।

सरकार ने बड़े पैमाने पर सम्पत्ति जन्न करके इन करबंदी आंदोलनों को दवाया, फिर भी हज़ारों किसान बहादरी मे अपनी बात पर अड़े रहे और कई बार भारी संख्या में आसपास की रियासतों में चले जाते थे । ग्रामीण आदोलनों ने उन सीमाओं का बार-बार अतिक्रमण किया जो गांधी जी ने निर्धारित की थीं । यह अतिक्रमण अनेक स्थानों पर पुलिस के साथ हुई हिंसात्मक मुठभेड़ों तथा मध्यप्रांत, महाराष्ट्र और कर्नाटक के जंगलों पर कवीलों द्वारा किये गये भारी हमलों के रूप में हुआ ! यह अफवाह फैल गयी कि अगेजी-राज का अंत निकट आ गया है ।

विभिन्न समुदायों की प्रतिक्रिया

असहयोग आंदोलन की तुलना में 1930 में शहरी बुद्धिजीवियों का समर्थन गांधीवादी राष्ट्रवाद को कम था, इसी तरह वकीलों के वकालत छोड़ने या विद्यार्थियों के सरकारी संस्थानों को छोड़ राष्ट्रीय विद्यालयों में दाखिला लेने की घटनाएं गिनी-चुनी थीं । बंगाल में, जुझारू शहरी शिक्षित युवावर्ग क्रांतिकारी-आतंकवाद से अधिक आकर्षित होने की ओर प्रवृत था । उत्तरी भारत के शहरों में थोड़े समय के लिए भगत सिंह की लोकप्रियता स्वयं गांधी जी के बराबर थी । 1919-22 की तुलना में । राष्ट्रवाद का सबसे अधिक प्रत्यक्ष कमज़ोर पक्ष था, मुसलमानों की हिस्सेदारी जो बादशाह खान के नेतृत्व वाली उत्तर-पश्चिमी प्रांतों के “खुदाई खिदमतगारों” के संगठन और दिल्ली जैसी जगहों को छोड़कर समग्र रूप में कम रही ।

उदाहरण के लिए इलाहाबाद में 1930 और 1933 के बीच सविनय अवज्ञा आंदोलन के 679 कैदियों में से सिर्फ 9 ही मुसलमान थे । मई और जुलाई, 1930 में ढाका शहर और किशोरगंज गांवों में सामाजिक असंतोष साम्प्रदायिकता में बदल गया तथा मार्च, 1931 में – गांधी-इरविन समझौते के ठीक बाद कानपुर में बड़े पैमाने पर दगे हुए । असहयोग आंदोलन के विपरीत सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ कोई प्रमुख मज़दूर-आंदोलन नहीं उभरा । शहरों में निरन्तर हड़तालें हो रहीं थीं किंतु काग्रेस ने अपने कार्यक्रम में उद्योगों या संचार साधनों को प्रभावित करने वाली हड़तालों को शामिल नहीं किया था, ब्रिटिश अधिकारियों के लिए यह काफी राहत पहुंचाने वाली बात थी ।

इस तरह की कमजोरियों को (कम से कम सविनय अवज्ञा आंदोलन के शुरू के महीनों में किसानों की भारी लामबंदी और व्यापारिक वर्गों से यथोचित समर्थन प्राप्त करके दूर किया गया । असहयोग आंदोलन के विपरीत इस आंदोलन में शुरू से ही कानून का उल्लंघन, गिरफ्तारियों और मार-पीट का समावेश था । जेल जाने वालों की संख्या 92,214 थी जो 1921-22 की संख्या से तिगुनी थी । राष्ट्रीय आंदोलन के इस दौर में अहमदाबाद मिल-मालिकों, बम्बई के व्यापारियों और छोटे दुकानदारों (शहर के उद्योगपति कम उत्साही थे) और जी. डी. बिड़ला के नेतृत्व में कलकत्ता के मारवाड़ियों का समर्थन प्राप्त था । इसे पूंजीपतियों का आन्दोलन को समर्थन देने के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता  है।

उदाहरण के लिए, अनेक शहरों के व्यापारियों ने कुछ महीनों के लिए विदेशी माल का आयात बंद करने की सामूहिक शपथ ली । पिकेटिंग और मंदी के समग्र प्रभाव से ब्रिटिश कपड़ों के आयात में आश्चर्यजनक गिरावट आई । 1929-30 में 124 करोड़ 80 लाख गज़ से यह 1930-31 में सिर्फ 52 करोड़ तीस लाख गज़ रह गया ।

सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक अपूर्व और विलक्षण विशिष्टता औरतों की व्यापक हिस्सेदारी थी । जहाँ 1930 में कुछ स्नातकोत्तर महिला छात्राएं अपनी कक्षाओं में अध्यापकों के संरक्षण में जा रही थीं, वहीं सामाजिक रूप से कहीं अधिक संकीर्ण पेशों, व्यापार या किसान परिवारों की औरतें, दुकानों का घेराव और लाठियों का सामना कर रही थीं तथा जेल जा रहीं थीं । उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने महसूस किया कि “भारतीय औरतें एक ही समय में घरेलू और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए *संघर्ष कर रही हैं…” हालांकि राजनीति में औरतों की अचानक सक्रिय हिस्सेदारी से परिवार के भीतर या बाहर उनकी परिस्थिति में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया |

आख़िरकार, गांधी जी की अंहिसा औरतों की पारम्परिक छवि को पूर्णतः भंग करने की मांग नहीं कर रही थी बल्कि, पुरुष गतिविधियों को ही आत्मबलिदान, और पीड़ा सहने की स्वीकृति पर जोर देकर कुछ हद तक “नारीसुलभ गुणों” से सम्पन्न कर दिया गया था । गहरे धार्मिक परिवेश की गांधी जी की संतछवि शायद कहीं अधिक निर्णायक थी । काग्रेस आंदोलन में शामिल होना एक नया धार्मिक मिशन था और इस संदर्भ में कुछ अतिक्रमणों की अनुमति थी या उन्हें गौरवान्वित भी किया जाता था; ठीक वैसे ही जैसे सदियों पहले मीरा एक संत के रूप में सम्मानित हुई थीं । औरतों की हिस्सेदारी के जिस रूप की तीव्र निन्दा हुई, वह था प्रत्यक्ष आतंकवादी कार्यों के साथ हत्या में हिस्सा लेना, जैसा कि बंगाल में अनेकों बार हुआ भी था ।

यहाँ तक कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने, जोकि औरतों की भूमिका के प्रश्न पर सामान्यतः औरों से अधिक प्रगतिशील थे, तब ऐसे नारी स्वभाव के प्रतिकूल स्त्रियोचित) आचरण की निन्दा करते हुए चार अध्याय (1934) नामक एक उपन्यास लिखा ।

क्षेत्रीय विभिन्नताएँ

संविनय अवज्ञा आंदोलन पर हाल ही में हुए अनेकों क्षेत्रीय अध्ययनों के फलस्वरूप रोचक विभिन्नताएँ और अन्दरूनी बेचैनी प्रकाश में आयी है। गुजरात खासकर खेड़ा ज़िला, सूरत का बारदोली ताल्लुका, अहमदाबाद और बंबई शहर का गुजराती व्यापारिक और व्यावसायिक समुदाय ये ऐसे क्षेत्र थे जो

गांधीवादी सत्याग्रह के माध्यम से संयत और संगठित किये गये थे । गांधी जी की नीतियाँ खेड़ा और बारदोली के पट्टीदार जैसे किसानों के हितों के साथ मेल खाती थीं जिनके पास काफी जमीने थीं । ये ऐसे क्षेत्र थे जहाँ बड़ी ज़मींदारी के न होने से लगान कोई बड़ा मुद्दा नहीं था । उन क्षेत्रों में जहाँ काग्रेस संगठन कमज़ोर था, या जहां ज़मींदार-किसान का अंदरूनी विभाजन काफी तीव्र था, ग्रामीण आंदोलन वहाँ अधिक अबाध गति से बढ़ गये थे । अतः मध्यप्रांतों, महाराष्ट्र या कर्नाटक में, जहां असहयोग आंदोलन का प्रभाव नगण्य था वहां गांधीवादी विचारों में नवीनता नज़र आती थी जबकि गुजरात, तटीय आंध्र या बिहार जैसे मज़बूत केन्द्रों में नहीं थी ।

संयुक्त प्रांत में जिला स्तर पर जो तुलनात्मक अध्ययन किये गये, उसने संगठन और जुझारूपन के बीच विपरीत संबंधों को उजागर किया है । आगरा जिले के कुछ भागों ने जिसमें कांग्रेस संगठन मज़बूत था और वहां बड़े ज़मीदारों की संख्या कम थी, बारदोली आंदोलन का ही अनुसरण किया । रायबरेली, जो कि ताल्लुकेदार प्रधान क्षेत्र था, उसमें ताल्लुकदारों पर किसानों का भारी दबाव था ।

यहां खादी या चरखे का नामोनिशान नहीं था । स्थानीय कार्यकर्ता यह प्रचार कर रहे थे कि ज़मीन भगवान की देन है और इसके मालिक केवल ज़मींदार ही नहीं हैं । बंगाल में, जहां कि कांग्रेस अपेक्षाकृत कमज़ोर और गुटबंदी का शिकार थी, पूर्वी जिलों में सम्प्रदायों और वर्गों में लगभग समानता तथा वामपंथ की ओर पहले से ही झुकाव होने से स्थिति और जटिल थी । पश्चिमी बंगाल के भागों जैसे मिदनापुर, आरामबाग तहसील और बांकुरा में शक्तिशाली गांधीवादी ग्रामीण आंदोलन हुए । किसानों में जिनमें खासी संख्या मुसलमानों की थी जो सविनय अवज्ञा से या तो अलग थे या उसके विरोधी थे, प्रजा आंदोलन उभर रहा था । एक जिले, तिपेरा में जहां मुसलमानों का बहुमत था, काग्रेस कार्यकर्ता कृषि सुधारवाद को राष्ट्रवाद से इस तरीके से जोड़ रहे थे कि इसे सरकारी अधिकारियों और स्थानीय हिंदू ज़मींदारों द्वारा “घोर बोल्शेविक” आंदोलन घोषित किया गया ।

समझौते के माह, मार्च-दिसम्बर, 1931

1930 के सितम्बर-अक्तूबर के आस-पास, सविनय अवज्ञा आंदोलन ने दूसरी अवस्था में प्रवेश किया जो पहले से अधिक प्रतिकूल था क्योंकि इस समय मंदी अपना प्रमुख प्रभाव दिखाने लगी, कर-बंदी के लिए दबाव बढ़ता गया और अक्तूबर में यू.पी. कांग्रेस को अनिच्छा से लगान अदा न करने की अनुमति देनी पड़ी । अनेक इलाकों में गरीब किसानों और जनजातियों की जुझारूता और उग्रता की घटनाएं कई गुना बढ़ गयीं । साथ ही सरकारी रिपोर्टों में कहा जाने लगा कि शहरी व्यापारियों में उत्साह और समर्थन की भारी कमी आ गयी है, जिनमें अनेक व्यापारियों ने, जिन्होंने आयातित माल न बेचने की पहले शपथ ली थी, उसे तोड़ना शुरू कर दिया ।

ठाकुरदास ने मोतीलाल नेहरू को चेतावनी दी कि “व्यापारिक समुदाय की सहनशक्ति की क्षमता” अपनी सीमा तक पहुंच चुकी है, और होमी मोदी जैसे उद्योगपतियों ने “बार-बार होने वाली हड़तालों की जिनसे व्यापार और उद्योग अव्यवस्थित हो जाता है” भर्त्सना की । संभवतः अंग्रजों द्वारा सम्पत्ति के निर्दयता के साथ अपहरण के विरोध में अधिकांश किसानों का उत्साह भी क्षीण होने लगा था । लगभग सभी बड़े काग्रेस नेता जेलों में बंद कर दिये गये थे । संभवतः यह गांधी जी के अचानक पीछे हट जाने के कारण हुआ हो । उन्होंने 14 फरवरी, 1931 को इरविन के साथ बातचीत शुरू की जिसका परिणाम 5 मार्च को दिल्ली समझौते के रूप में सामने आया । यह समझौता गांधी-इरविन समझौता के नाम से जाना जाता है । इस समझौते की प्रमुख विशेषताएँ ये थी :

  • पहली गोल मेज़ कान्फ्रेंस में हुए करार पर दूसरी गोल मेज़ कान्फ्रेंस में आगे विचार-विमर्श किया जायेगा ।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कारगर ढंग से सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेगी ।
  • विदेशी माल का बहिष्कार भी तुरंत वापस ले लिया जायेगा ।
  • सरकार मतिनय अवज्ञा आदोलन के संबंध में लागू अध्यादेशों को वापस लेने के लिए राज़ी हो गयी । ये भी तय हुआ कि जिन राजनीतिक-कैदियों के विरुद्ध हिंसा का कोई आरोप नहीं था उन्हें रिहा किया जायेगा और जो जुनि वसूल नहीं किये गये हैं, उन्हें माफ कर दिया जायेगा । आंदोलन के कारण जिन्हें नुकसान पहुँचा था, उनकी क्षतिपूर्ति की जायेगी ।
  • सरकार नमक कानून से संबंधित मौजूदा कानून के उल्लंघन को न तो माफ करेगी और न ही कानून में संशोधन करेगी । तथापि, सरकार ने समुद्र तट के निर्दिष्ट क्षेत्रों के भीतर रहने वाले लोगों को नमक इकट्ठा करने और बनाने की अनुमति दी ।

5 मार्च, 1931 को जब बातचीत के परिणामों की चर्चा करने के लिए कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई तो इसमें मतभेद हो गया । अनेक लोगों ने इसे अपनी जीत माना क्योंकि वाइसरॉय समझौता करने के लिए बाध्य हुए, पर कुछ लोग खुश नहीं थे । गांधी जी ने अंग्रेज़ों की शर्तों पर ही गोलमेज़ कान्फ्रेंस में शामिल होना स्वीकार कर लिया, जबकि ऐसा करना जनवरी, 1931 के अंत तक उनके द्वारा अपनाये गये रुख के सर्वथा प्रतिकूल था । यहाँ तक कि गांधी जी की उस प्रार्थना को भी वाइसरॉय ने ठुकरा दिया जो उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड को माफ करने के लिए की थी । इस तरह, 23 मार्च को उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया । सविनय अवज्ञा आंदोलन अचानक ठप्प हो गया और जैसा कि कुछ साल बाद नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि यह अंत “ज़ोरदार नहीं बल्कि फुसफुसा था ।”

गांधी-इरविन समझौते के परिणाम अस्पष्ट थे । नेहरू जी के अलावा अनेक लोगों को पूर्ण स्वराज के निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के बहुत पहले ही, इस अप्रत्याशित विराम से निराशा हुई । खासकर, किसानों को विशेष रूप से यह महसूस हुआ कि उनके साथ धोखा किया गया है क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के आदेश पर अपनी ज़मीनें, और माल-असबाब का बलिदान किया था । भगत सिंह को फाँसी पर चढ़ाये जाने के कुछ दिनों बाद जब कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ, तब गांधी जी के ख़िलाफ़ काले झंडे का प्रदर्शन भी हुआ था ।

यद्यपि नेहरू जी इससे बिल्कुल संतुष्ट नहीं थे, किंतु उन्होंने ही दिल्ली समझौते को स्वीकार करने का मुख्य प्रस्ताव रखा जिसमें नयी नीति का अनुमोदन किया गया । अधिक बुनियादी बात ये है कि उस समझौते के कारण, कुछ ऐसे कीमती महीने हाथ से निकल गये जिनके दौरान कांग्रेस ने ठीक उस समय ‘कर बंदी’ और ‘लगान बंदी’ आंदोलनों पर रोक लगा दी जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष अपनी चरम सीमा पर था, मंदी की अभी शुरुआत ही हुई थी और आर्थिक कठिनाइयाँ इतनी नहीं बढ़ पायी थीं कि बड़े पैमाने पर संघर्ष की संभावनाएँ समाप्त हो जाती ।

जनवरी, 1932 में कांग्रेस ने फिर से कर बंदी के लिए जनता का आह्वान किया था किंतु तब तक लोगों का जोश ठंडा पड़ चुका था ।

गांधी जी का दूसरी गोल मेज़ कान्फ्रेंस में शामिल होना व्यर्थ ही हुआ । पहली कान्फ्रेंस जनवरी, 1931 में उस समय हुई जबकि सविनय अवज्ञा आंदोलन अभी जारी था और काग्रेस, कान्फ्रेंस का बहिष्कार कर रही थी । इस कान्फ्रेंस में रैमसे मैकडोनाल्ड ने केंद्र में उत्तरदायी शासन स्थापित करने । का अनूठा प्रस्ताव पेश किया ।

इस प्रस्ताव की दो विशेषताएं थीं : एक, संघीय-सभा (Federal Assembly) जिसमें शामिल होने वाले राजा अपने सदस्य नामित करेंगे और दूसरी, सुरक्षा विदेशी कार्य, वित्त और अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश नियंत्रण बनाये रखने के लिए “अनेक नियंत्रण और रक्षा उपाय ।” इसे चर्चा के आधार के रूप में स्वीकार करने के उपरांत काग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि की हैसियत से गांधी जी की दूसरी गोल मेज़ कान्फ्रेंस में मुसलमान नेताओं, अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि अम्बेडकर, जिन्होंने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन-क्षेत्र की मांग करनी शुरू कर दी थी और राजाओं से अंत तक तकरार होती रही । अग्रेज़ उल्लासपूर्वक यह दृश्य देख रहे थे । काग्रेस को स्पष्ट रूप से मात दे दी गयी थी ।

फिर भी, समझौते और विराम की अवधि का प्रभाव पूर्णतः नकारात्मक नहीं था । आखिरकार, अग्रेज़ों को पहली बार गांधी जी के साथ समानता और शिष्टाचार के स्तर पर बातचीत करनी पड़ी थी और यह वह बात थी जिसका अनेकों हठधर्मी अफसरों ने बुरा माना । रिहा हए कांग्रेसी इस तरह अपने-अपने गाँवों और शहरों को लौट गये, जैसे उनका विश्वास कम न हुआ हो और वे विजयी हुए हों । ग्रामीण क्षेत्रों में काग्रेस का तेज़ी से विस्तार हुआ । सामान्य मनःस्थिति 1922 के बाद  वाले विखण्डन और पतन की भावना से काफी भिन्न थी ।

वास्तव में काग्रेस अपने आप को एक वैकल्पिक सत्ता केंद्र के रूप में, जो अधिक विधि सम्मत हो, स्थापित करना चाहती थी ताकि वह  स्थानीय झगड़ों के निपटारे के लिए मध्यस्थता न्यायालय बना सके और ज़मींदार तथा रैयत के बीच होने वाले झगड़ों में मध्यस्थता कर सके । उसी दौरान, अनेक क्षेत्रों में जनता का ज़ोर भी बढ़ रहा था, विशेष रूप से संयुक्त प्रातों का लगान बंदी संघर्ष जिसे दिसम्बर, 1931 में प्रांतीय काग्रेस ने । अनुमति दे दी थी । हालांकि, काग्रेस नेता भारतीय रजवाड़ों में अब भी हस्तक्षेप करने से इन्कार कर रहे थे, फिर भी, शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर का शक्तिशाली महाराजा विरोधी आंदोलन इस बात का सूचक था कि राजनितिक अशांति रजवाड़ों में भी फैल रही थी । (दो वर्ष बाद अलवर में विद्रोह हो गया) ।

इसी पृष्ठभूमि में काग्रेस के और अधिक मजबूत हो जाने से पहले ही उस पर प्रहार करने का निर्णय नयी दक्षिणपंथी राष्ट्रीय सरकार और वाइसरॉय विलिंगडन ने 1931 के अन्त में लिया ।

नयी नीति को एक प्रकार के सिविल मार्शल लॉ की संज्ञा दी गयी (डी. ए. लो) | 4 जनवरी, 1931 को सिरे से सभी कांग्रेस संगठनों पर प्रतिबंध लगाने के अध्यादेश जारी हुए, (मात्र बंगाल में ही 272 संगठनों को अवैध करार दिया गया) । देश पर सैनिक शासन की औपचारिक घोषणा किये बिना ही नागरिक स्वतंत्रता रद्द कर दी गयी ताकि कांग्रेस को सरकार के विरुद्ध लड़ने का मौका न देकर उसे सुरक्षात्मक लड़ाई के लिए मजबूर किया जा सके | 4 जनवरी, 1932 को कुछ और कांग्रेसी नेताओं का जत्था गिरफ्तार कर लिया गया जिनमें गांधी जी और सरदार पटेल भी शामिल थे । अव राजनीतिक कैदियों के साथ साधारण अपराधियों जैसा व्यवहार, पहले से कहीं अधिक आम बात हो गयी ।

1932-34 : सविनय अवज्ञा आंदोलन की दुबारा शुरुआत

यद्यपि, राष्ट्रीय आंदोलन को मात दी जा चुकी थी, और उसे अभूतपूर्व पैमाने पर दमनकारी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ा था, फिर भी वह लगभग डेढ़ वर्ष तक बहादुरी के साथ चलता रहा । शुरू के तीन महीनों में एक लाख बीस हज़ार लोगों को जेल हो गयी । यह संख्या इस बात की इतनी प्रतीक नहीं है कि आंदोलन 1930 की तुलना में अधिक व्यापक हो गया था बल्कि यह उस तीव्र और सुव्यवस्थित दमन चक्र का प्रतीक है, लेकिन बहुत जल्द ही जेल जाने वाले लोगों की संख्या में कमी आने लगी ।

अप्रैल 1932 में लॉर्ड विलिंग्डन ने बंबई शहर और बंगाल को “दो काले धब्बे” बताया । गुजरात के छोटे व्यापारियों की अब भी काग्रेस में अपूर्व निष्ठा थी । बंगाल अभी तक एक भयानक सपना बना हुआ था जिसका कारण किसानों की छुटपुट अशांति का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि आतंकवाद  ही इसका मुख्य कारण था (1932 में 104 घटनाएँ, जो किमी एक वर्ष में सबसे अधिक धी और 1933 में 33 घटनाएँ) । हालांकि, खेड़ा के रास जैसे गाँव में 2000 एकड़ भूमि के जन्न होने, सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाये जाने और बिजली के झटके देने के बावजूद 1933 तक लगान नहीं दिया गया था, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में जो प्रतिक्रिया हुई, वह 1930 की तुलना में कुल मिलाकर कम जान पड़ी ।

क्रूर दमन के फलस्वरूप जन-आंदोलन धीरे-धीरे फीका पड़ रहा था, राजनीति के यथार्थवाद और भारत के कुछ बड़े व्यापारी घरानों के आर्थिक जोड़ तोड़ ने मिलकर इन बड़े व्यापारियों को अंग्रेजों के साथ सहयोग देने की ओर प्रवृत्त किया । बंबई के मिल मालिकों ने जापानियों के साथ होने वाली स्पर्धा के डर से, लंकाशायर के साथ मिलकर अक्तूबर, 1933 में लीसमोदी समझौता किया । अहमदाबाद के व्यापारियों और जी. डी. बिड़ला ने इस विश्वासघात की कटु । आलोचना की, किंतु 1932 के बाद से बिड़ला और ठाकुरदास स्वयं काग्रेम पर समझौता करने के लिए दबाव डाल रहे थे ।

यह अस्वाभाविक नहीं था कि जेल में गांधी जी ने सम्मानपूर्वक पीछे हटने की दृष्टि से सोचना शुरू किया । उन्होंने मई, 1933 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया और अप्रैल, 1934 में उसे औपचारिक रूप से वापस ले लिया । महात्मा जी ने हरिजन कल्याण कार्य को अपने नये ग्रामीण रचनात्मक कार्यक्रम का मुख्य मुद्दा बनाया । यह अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति का जवाब था । (अग्रेज़ों की यह नीति 1932 के आरंभ में रैमसे मैकडोनाल्ड द्वारा घोषित औपचारिक साम्प्रदायिक पंचाट (Communal Award) में परिलक्षित हुई) । इस पंचाट में नये संघीय विधानमंडलों के लिए हिंदू, “अछूत” और मसलमान निर्वाचन क्षेत्रों की अलग से व्यवस्था थी ।

गांधी जी ने इस पंचाट का विरोध किया क्योंकि उसमें हिंदू और हरिजनों को दो अलग राजनीतिक सत्ता माना गया । उन्होंने हिंदू निर्वाचन क्षेत्र से ही हरजिनों के लिए अधिक सीटों के आरक्षण की मांग की । हरिजन नेता, अम्बेडकर ने गांधी जी के दृष्टिकोण का समर्थन किया । काग्रेसियों के एक वर्ग ने “परिषद् की राजनीति” को ही पसंद किया और इस प्रकार ऐसा लगा मानों 1920 के मध्य का दृश्य फिर से उपस्थित हो गया हो । 1935 को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट पहले के कानूनों से कहीं अधिक प्रतिगामी था, क्योंकि यह तब बनाया गया था जब अंग्रेज़ों को अपनी विजय निकट दिखाई दे रही थी ।

आंदोलन के बाद की स्थिति

यह बहुत जल्द ही स्पष्ट हो गया कि सरकार की विजय की भावना बहुत भ्रामक थी । क्योंकि 1937 में काग्रेस ने अधिकांश प्रांतों में चुनाव जीत लिया । (खंड 6 की इकाई 3.3 देखिए) परन्तु आन्दोलन में कांग्रेस की हार का कारण शासन की भारी शक्ति थी, किंतु इसकी जन-प्रतिष्ठा पहले जैसे ही ऊँची रही । सविनय अवज्ञा आंदोलन ने आशाएं जगा दी थीं जिन्हें गांधी जी की नीति पूरा नहीं कर सकी थी । नेताओं में नेहरू जी (और कभी-कभी बोस) ने इस नयी मन स्थिति को व्यक्त किया और राष्ट्रवाद के साथ परिवर्तनकारी सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों को मिलाने की आवश्यकता पर बल दिया ।

1934 में कुछ काग्रेस कार्यकर्ताओं ने पार्टी के भीतर ही समाजवादी ग्रुप (Socialist Inner Group) की स्थापना की । बिहार और आंध्र जैसे प्रांतों में ज़मींदार-विरोधी कार्यक्रमों वाली किसान सभाएं तेज़ी से बढ़ने लगी । कम्युनिस्ट भी, मेरठ केस में हुई गिरफ्तारियों और सविनय अवज्ञा से दूर रहने की अपनी गलती से उबर रहे थे । आतंकवादियों और गांधीवादी कार्यकर्ताओं का भ्रम टूट चुका था और उनका एक बड़ा हिस्सा वामपंथ की ओर जाने लगा ।

इस बदली हुई परिस्थिति में कांग्रेस के भीतर के प्रभुत्वशाली गुटों ने वामपंथ की ओर झुकाब दिखाते हुए कुछ संशोधन स्वीकार किये ताकि वे कांग्रेस पर अपना नियंत्रण रख सकें । यह सब प्रायः व्यवहार में न होकर कार्यक्रम संबंधी बयानों के स्तर तक ही रहा । 1930 के मध्य तक ज़मींदारी प्रथा को रोकने और अंततः उसका उन्मूलन करने से संबंधित भूमि-सुधार कांग्रेस के औपचारिक कार्यक्रमों में शामिल हो गये थे जो उसके पहले के सभी बयानों के विपरीत था । इस तरह के परिवर्तन का पूर्व संकेत, मूलभूत अधिकारों और आर्थिक नीति पर आधारित कराची घोषणा पत्र में मिलता है ।

गांधी-इरविन समझौते के ठीक बाद इस तरह की घोषणा एक महत्वपूर्ण बात भी । यह घोषणा-पत्र, विषय-वस्तु की दृष्टि से काफी संतुलित था । पहली बार, न केवल लगान में बल्कि भूमि किराये में भी कमी का वादा किया गया था तथा निर्वाह योग्य मजदूरी और ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार भी कांग्रेस कार्यक्रम में शामिल हो गये । 1920 के दशक के उत्तरार्ध के श्रमिक असंतोष की तरह किसान आंदोलनों ने सविनय अवज्ञा को वास्तविक शक्ति दी थी जो पूरी तरह से निष्फल नहीं हुई । हालांकि राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर निर्णायक राजनीतिक नियंत्रण कुछ और तत्वों ही के हाथों में रहा, फिर भी भारतीय समाज के इन वर्गों के बढ़ते हुए दुराग्रह के कारण कांग्रेस की अधिकांश भाषा और नारे तथा कुछ प्रत्यक्ष नीतियों को वामपंथी दिशा लेनी पड़ी ।

सारांश

इस इकाई में हमने 1930 से 1934 तक के सविनय अवज्ञा आंदोलन के इतिहास की चर्चा की है । आपने पढ़ा है कि किस तरह असहयोग आंदोलन के बाद की अवधि में भारत में घटी घटनाओं ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार की । गांधी जी के निष्ठा के साथ किये गये प्रयासों . के बावजूद अंग्रेजों ने जो रुख अपनाया था उसमें चूँकि समझौते की कोई गुंजाइश न थी इसलिए गांधी जी को 1930 में आंदोलन शुरू करने पर बाध्य होना पड़ा । आंदोलन का देश के विभिन्न क्षेत्रों में तत्काल स्वागत हुआ और किसान अपने वर्ग की मांगों को लेकर इसमें शामिल हुए ।

फिर भी, जब आंदोलन में गति आयी तब 1931 में गांधी-इरविन समझौते के कारण इसे कुछ समय के लिए स्थगित किया गया । गांधी जी दूसरी गोल-मेज़ कान्फ्रेंस में हिस्सा लेने के लिए लंदन गये किंतु मिशन असफल रहा । 1931 में आंदोलन को फिर से शुरू किया गया किंतु यह, अपना पहले वाला उत्साह खो चुका था ।

ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए अपने दमनकारी तंत्र को और अधिक मजबूत किया । इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए आंदोलन को अंततः 1934 में पूरी तरह वापस ले लिया गया । इस तरह जनता का एक और साहसिक संघर्ष बिना अपने तात्कालिक लक्ष्य को प्राप्त किये समाप्त हो गया । किंतु लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया । कोस के कार्यक्रम में किसानों की आर्थिक मांगों के समर्थन में कुछ परिवर्तन किया गया और अंत में, प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडलों की स्थापना जन आंदोलन की विजय सिद्ध हुई ।

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