स्वातंत्र्योत्तर भारत में : जाति आधारित लामबंदी और आंदोलन
प्रश्न:स्वातंत्र्योत्तर भारत में अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को सुधारने में जाति आधारित लामबंदी और आंदोलनों की भूमिका का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
दृष्टिकोण
- स्वातंत्र्योत्तर भारत में जाति आधारित लामबंदी और आंदोलनों का वर्णन कीजिए।
- निचली जातियों की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को सुधारने में इनकी भूमिका का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर
स्वातंत्र्योत्तर भारत में, निचली जातियों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार करने और सदियों पुराने अन्याय को उजागर करने एवं उसका विरोध करने हेतु जाति-आधारित लामबंदी और आंदोलनों को प्रारंभ किया गया। इन आंदोलनों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन: ब्रिटिश शासनकाल के दौरान आरम्भ हुए दलित आंदोलन ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बी.आर. अंबेडकर के नेतृत्व में न्याय की मांग को जारी रखा। उन्होंने दलितों के लिए आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की मांग की। यह मानते हुए कि अनुसूचित जातियों (SCs) को हिंदू समाज में निरंतर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, अंबेडकर और उनके अनुयायियों ने 1956 में औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म को अपना लिया।
- दलित पैंथर्स: यह एक सामाजिक संगठन था, जिसे 1972 में महाराष्ट्र में जातिगत भेदभाव का मुकाबला करने हेतु स्थापित किया गया था। इसके सदस्य अनुसूचित जातियों के युवा और नव-बौद्ध थे जो अधिकांशतः साहित्यिक पृष्ठभूमि से संबंधित थे। क्रांति पर बल देने के कारण इस आंदोलन का स्वरूप उग्र सुधारवादी था। यद्यपि, आंदोलन को अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई।
- बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और अन्य जाति-आधारित दलों का उद्भव: उत्तर भारत में, 1984 में कांशीराम के नेतृत्व में बसपा का गठन किया गया। पार्टी ने बहुजन अर्थात SCS, STS, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs) और धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व किया। BSP यूपी, पंजाब और मध्यप्रदेश में SCs के मध्य पर्याप्त आधार प्राप्त करने में सफल रही। यूपी में समाजवादी पार्टी, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों ने भी दलित समूहों को अपना वोट बैंक बनाने पर ध्यान केंद्रित किया।
- OBC दर्जा प्राप्त करने हेतु आंदोलन: आरक्षण का लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से OBC सूची में शामिल किए जाने हेतु विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा उठाई गई मांगों और आंदोलनों में वृद्धि हुई है। इनमेंहरियाणा और गुजरात के क्रमशः जाट आरक्षण आंदोलन (2016) और पाटीदार आंदोलन (2015) जैसे आंदोलन शामिल हैं।
जाति-आधारित लामबंदी और आंदोलनों के कारण दलित वर्ग का नेतृत्व खंडित और विभाजित रहा है, जिसने दलित समुदाय के विकास और उन्नति को धीमा कर दिया है। इस सन्दर्भ में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI), दलित पैंथर्स, बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज सेंट्रल इम्प्लॉइज फेडरेशन (BAMCEF) और हाल ही में बहुजन समाज पार्टी (BSP) के नेतृत्व का उदाहरण दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, समुदाय द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं में निम्नलिखित शामिल हैं:
- निचली जातियों के उत्थान के उद्देश्य से प्रारंभ इन आंदोलनों के बावजूद, उन्हें निरंतर हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, 2016 में ऊना हिंसा, 2018 में भीमा कोरेगांव हिंसा, आदि।
- ये आंदोलन अभी तक इन जातियों के विरुद्ध प्रचलित कुप्रथाओं जैसे मैला ढोने की प्रथा, निम्नस्तरीय कार्यों (menial work) को “अछूतों” के लिए निर्धारित करना और जीवन के प्रति जोखिम उत्पन्न करने वाले स्वच्छता सम्बन्धी कार्य आदि को समाप्त करने में असफल रहे हैं।
- इसके अतिरिक्त, निचली जातियों को निम्न साक्षरता दर, भूमि स्वामित्व का अभाव, निम्न आय, जाति आधारित व्यवसायों में रोजगार, निम्नस्तरीय स्वास्थ्य संकेतक आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अतः अभी भी इनका समाधान किये जाने की आवश्यकता है।
- वर्षों से, वोट बैंक की राजनीति के कारण जाति के उत्थान के वास्तविक मुद्दे की उपेक्षा की गई है और समाज के अपात्र व्यक्तियों जैसे- भूस्वामी, संपन्न वर्ग आदि के द्वारा आरक्षण लाभ के अपने हिस्से की मांग की जाती है।
अतः, इन जातियों के नेताओं के प्रयासों और इन आंदोलनों के द्वारा अभी भी संबंधित समुदायों हेतु पर्याप्त प्रतिनिधित्व और सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक सशक्तिकरण संबंधी अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं की गयी है।
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