दिनकर के काव्य की अंतर्धाराएँ

रामधारी सिंह दिनकर पर आधारित इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :

  • परवर्ती छायावादी काव्य युग से परिचित हो सकेंगे
  • इस युग के प्रतिनिधि कवि दिनकर की राष्ट्रीय चेतना उनके काव्य में किस प्रकार अभिव्यक्त हुई  है, इस को समझ सकेंगे।
  • राष्ट्रीय चेतना के अलावा दिनकर के काव्य में सौंदर्य और प्रेम की जो धारा है और ‘उर्वशी’ जिस धारा की मुखरतम अभिव्यक्ति है,
  • उसकी मुख्य विशेषताओं को जान सकेंगे दिनकर के साहित्य और कला के बारे में क्या विचार हैं,
  • उनके परिप्रेक्ष्य में उन की काव्य दृष्टि के विकास को रेखांकित कर सकेंगे।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के आधुनिक काल वाले खंड में कविता की नई धारा के तृतीय उत्थान का उल्लेख करते हुए खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराओं को चिन्हित किया है .. ‘द्विवेदी काल की क्रमशः विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा, छायावाद कही जानेवाली धारा तथा स्वाभाविक स्वच्छंदता को लेकर चलती हुई धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त करने वाली शाखा भी हम ले सकते हैं। उन्होंने यह भी ठीक लिखा है कि ‘जबकि धाराएँ साथ-साथ चल रही हैं तब उनका थोड़ा बहुत प्रभाव एक दूसरे पर पड़ेगा ही।

रामचंद्र शुक्ल जैसे मर्मज्ञों ने ठीक ही दिनकर जी का संबंध छायावादी धारा से नहीं जोड़ा। स्वछंद धारा ‘ के अंतर्गत उन्हें रखा। दरअसल दिनकर जी ने जब लिखना शुरू किया तो छायावाद रूप ग्रहण कर चुका था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 1930 ई. तक छायावादी रचनाओं ने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली। ‘इसी समय तीन और शक्तिशाली कवियों का प्रवेश हुआ। ये हैं — भगवती चरण वर्मा, ‘बच्चन और दिनकर’। पहले दो कवियों के स्वभाव में मस्ती, उल्लास और अपने प्रति दृढ विश्वास को प्रधान तत्वों के रूप में उन्होंने चिन्हित किया है। दिनकर जी के बारे में लिखते समय वे सिर्फ मस्ती को उनकी विशेषता नहीं बताते। वे लिखते हैं, ‘कल्पना की ऊँची उड़ान, विषम परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की उमंग और सामाजिक चेतना की तीव्रता के कारण ‘दिनकर’ प्रथम दो कवियों से एकदम भिन्न श्रेणी के कवि हैं। ‘दिनकर’ की उमंग और मस्ती में सामाजिक मंगलाकांक्षा का प्राधान्य है।’

कवि की विशेषता बताते हुए वे लिखते हैं, ‘उसका मन व्यक्त रूप में मस्ती और मौज का उपासक है, शहर की चिंता में दुबले होने वालों से अलग रहना पसंद करता है। किंतु उसके भीतर अव्यक्त और अलक्षित रूप से सामाजिक चेतना का वेग है। इन विविध वृत्तियों के संघर्ष से ‘दिनकर’ के काव्य में वह प्रवाह उत्पन्न हुआ है जो अन्य कवियों में नहीं मिलता।” वे आगे लिखते हैं, ‘दिनकर अपने ढंग के अकेले हिंदी कवि हैं। यौवन और जीवन उन्हें आकृष्ट करते हैं, सौंदर्य का मोहन संगीत उन्हें मुग्ध करता है, पर वे इनसे अभिभूत नहीं होते। उल्लास और उमंग सच्चे अर्थों में मानवता की मुक्ति से ही संभव है। जब छायावाद के प्रथम उन्मेष के कवियों के बाद दूसरे उन्मेष के कवि आए, तो उनके सामने मानवतावाद का आदर्श अस्पष्ट रह गया था। ‘दिनकर’ में वह आदर्श पूरे ज़ोर पर है। आपने ध्यान दिया होगा कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दिनकर जी की विशेषताओं की व्याख्या करते समय उन्हें छायावाद के दूसरे उन्मेष का कवि कहा है। इससे ऐसा लगता है कि यह छायावाद का परवर्तीकाल है। तो क्या दिनकर जी की कविताएँ छायावादी कविताओं का बढ़ाव मात्र है?

दिनकर का युग

दिनकर जी ने जिस युग में लिखना शुरू किया था, उसके बारे में विचार करना ज़रूरी है। वह समय कैसा था? अंग्रेज़ों की गुलामी खत्म करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा संघर्ष नए धरातल पर पहुंच गया था। कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य की घोषणा की थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इसके साथ ही और भी घटनाएं थी जो संपूर्ण देश के मानस को आंदोलित कर रहीं थीं – आंदोलन की वापसी, गांधी-इरविन समझौता, मेरठ षड़यंत्र और भगत सिंह तथा उनके साथियों को फांसी। एक तरफ जहाँ महात्मा गांधी सर्वमान्य नेता बन चुके थे, वहीं दूसरी तरफ स्वाधीनता-आंदोलन में युवा शक्ति अपने ढंग से हस्तक्षेप कर रही थी। यही समय था जब भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई और पढ़े लिखे लोगों के बीच साम्यवादी विचार लोकप्रिय होने लगे।

किसान-सभा की स्थापना और ठीक उसके समानांतर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बोल्शेविक क्रांति की घटना एकदम ताज़ा थी और समाजवादी सोवियत संघ नई आशा बनकर उभरा था। बीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक का यह कालखंड अत्यंत घटनापूर्ण था। इसमें एक ओर जहाँ मानवता की मुक्ति के लिए आशाजनक संकेत मिल रहे थे और दिशाएं खुलती दिखलाई पड़ रहीं थीं, वहीं दूसरी ओर फासिज्म जन्म ले रहा था और द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारी भी चल रही थी।

यह किनारे बैठने का समय न था। कवि को सौंदर्य का उपासक समझा जाता है। वह सौंदर्य का सृजन भी करता है। पर इस दौर का सजग कवि अपनी भूमिका में और भी सक्रियता चाहता था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल में भारतीय स्वीधानता आंदोलन में युवावर्ग के प्रवेश को चिन्हित किया है। वे लिखते हैं, ‘देश के युवकों में कभी भी आत्मविश्वास की मात्रा उतनी नहीं थी जितनी इस काल में रही। धीरे-धीरे व्यक्ति मानव के स्थान पर समाज-मानव का महत्व प्रतिष्ठित होता गया। यह काल एक ओर सामूहिक आंदोलन में विश्वास करता है और दूसरी ओर सामाजिक अभ्युत्थान के प्रति आकृष्ट होने का समय है।’ जैसा पहले द्विवेदी जी के हवाले से ही कहा गया है, संभवतः इसी युवा शक्ति के असर से इस युग के मिजाज में मस्ती और फक्कड़पन मिलता है। इस मस्ती और फक्कड़पन का क्या मतलब है? कुछ एक विद्वान इसका स्रोत खोजते हुए वासना और योग तक जाते हैं और कुछ अतृप्त यौन इच्छाओं तक।

एक आलोचक ने सही लिखा है कि ‘माखनलाल’ और ‘नवीन’ के काव्य का अनुशीलन करने से जो तथ्य उभर कर सामने आता है, वह यह है कि उनकी मस्ती उनकी उत्सर्ग-भावना की देन थी। वे चूंकि स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर के कवि थे, जो धीरे-धीरे काफी उग्र हो चुका था, इसलिए उनमें पहले के राष्ट्रीयतावादी कवियों की तुलना में एक बलिदान का भाव है। यही भाव दिनकर में आकर बहुत बढ़ जाता है।’ दिनकर जी के समानधर्मा कवि बच्चन ने इस संबंध में लिखा है : ‘प्रकृति-प्रेमी पंत की भाषा विशिष्टता संपन्न होकर भी संघर्ष की भाषा नहीं थी, और न ही रहस्यवादी महादेवी की भाषा। राष्ट्रवादियों के स्वर की प्रखरता सतही थी। गहराई आगे चलकर पहले माखनलाल चतुर्वेदी ने और बाद में ‘दिनकर’ ने दी।’

द्विवेदीजी ने इस काल की विशेषता बताई है – व्यक्ति-मानव की जगह समाज-मानव की प्रतिष्ठा। बच्चन ने अपने जैसे कवियों का अभीष्ट बताया है – संघर्ष की भाषा, व्यक्ति और समाज के संघर्ष की भाषा बोलने का प्रयत्न। लेकिन ऐसे भी आलोचक हैं जो इस दौर की व्याख्या अलग ढंग से करते हैं। डॉ. नामवर सिंह को अपनी पुस्तक ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’ में सहज अक्खड़ता-फक्कड़ता से मिली जुली रूमानियत से भरे इस दौर के काव्य पर अलग से विचार करना संभव नहीं लगा, जबकि वे छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की प्रवृत्तियों पर विचार करते हैं। दरअसल फक्कड़पन और मस्ती तथा जवानी की इस अभिव्यक्ति को आलोचकों ने गंभीरता से ग्रहण ही नहीं किया। नामवरजी ने फासिज्म के उदय, म्युनिख-समझौते, राष्ट्रीय पैमाने पर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के निर्माण और पतन के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन में शिथिलता और नए वामपंथी दलों के बढ़ते असंतोष की चर्चा की है।

उन्होंने लिखा है कि इस पृष्ठभूमि में एक प्रकार की अशांति, घुटन, कुंठा, कशमकश, निरूपायता आदि का अनुभव किया जा रहा था। राजनीतिक स्तर पर नेहरु जैसे बुद्धिवादी इसे महसूस कर रहे थे। यही समय छायावाद के नैतिक विजन के टूटने का समय भी है। नामवरजी कहते हैं कि इसके कारण हृदय और बुद्धि के अलगाव के रूप में मन का विभाजन हुआ और उसके कारण एक रिक्तता और संकट पैदा हुआ। उनके मुताबिक ‘काव्य के स्तर पर इस ‘संकट’ से उबरने के दो ही रास्ते थे या तो इस संकट को गंभीरता से स्वीकार कर समूचे द्वंद्व को पूरी नाटकीयता के साथ काव्यरूप दिया जाए या फिर इस संकट को ‘संकट’ के रूप में मानने से एकदम इंकार किया जाए। बौद्विक युवा कवि पहला रास्ता चुनें, इससे पहले बच्चन आदि उत्तरछायावादी कवि दूसरा रास्ता अपना चुके थे। बुद्धि और सत्य के बीच की दरार को उन्होंने एक सहज सत्य के रूप में स्वीकार करके बुद्धि से एकदम कुट्टी कर ली, क्योंकि उनके लेखे सारे खुराफातों की जड़ बुद्धि ही थी। बुद्धि के बहिष्कार के बाद संभवतः कवि का काम आसान हो गया। छायावादी दार्शनिक गंभीरता की जगह फक्कड़ाना अंदाज़ ने ले ली। इस मस्ती के आलम में सारी समस्याएँ अपने-आप हवा हो गयीं। इस सरलता का लोकप्रिय होना स्वाभाविक था। इसलिए जैसा विजयदेव नारायण साही का विचार है, “समस्या यही थी कि तीसरे दशक के काव्य में जो अनिवार्य अगंभीरता थी, उससे मनोभूमि को फिर किस प्रकार गंभीरता की ओर वापस लाया जाए।”

दिनकर की राष्ट्रीय चेतना

जैसा शुरू में ही कहा गया, मैथिलीशरण गुप्त के बाद दिनकर जी को ही राष्ट्रकवि कहकर पुकारा गया। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौरान लिखना शुरू किया था और अपने चारों ओर की स्थितियाँ उन पर जबर्दस्त असर डाल रही थीं। अपनी चुनी हुई कविताओं के संकलन ‘चक्रवाल ‘ में उन्होंने लिखा है, ‘मैं….वैमा कवि अवश्य बनना चाहता था, जिसकी प्रेरणा उसके सामाजिक कर्तव्य-ज्ञान से आती है, किंतु, विप्लव और राष्ट्रीयता का वरण मेरा उद्देश्य न था।’ बारदोली सत्याग्रह के दौरान उनका पहला लघु गीत-संग्रह ‘बारदोली विजय’ प्रकाशित हुआ, जिसमें राष्ट्रीयता के गीत थे। फिर भी उनके अनुसार उनके पहले खंड-काव्य (प्रण-भंग) को देखकर कोई ‘यह नहीं कह सकता था कि राष्ट्रीयता मेरी कविताओं का प्रधान गुण है। फिर क्यों उन्हें राष्ट्रीयता की भावनाओं को व्यक्त करने वाला सबसे सशक्त कवि माना गया? 1939-1940 ई0 के दौरान उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई ‘रसवंती’, ‘द्वन्द्व -गीत’ और ‘हुंकार’। वे बताते हैं कि हुंकार के प्रकाशन से उन्हें यश मिला, जिसमें राष्ट्रीयता के भावों की ज़ोरदार अभिव्यक्ति थी। इसके बारे में वे स्पष्ट करते हैं : ‘राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया।

अपने समय की धड़कन सुनने को जब भी मैं देश के हृदय से कान लगाता, मेरे कान में किसी बम के धड़ाके की आवाज़ आती, फाँसी पर झूलने वाले किसी नौजवान की निर्भीक पुकार आती अथवा मुझे दर्द भरी ऐंठन की वह आवाज़ सुनाई देती जो गाँधीजी के हृदय में चल रही थी, जो उन सभी राष्ट्र नायकों के हृदय में चल रही थी, जिनसे बढ़कर मैं किसी और को श्रद्धेय नहीं समझता था। मेरी समझ में उस समय सारे देश में एक स्थिति थी जो सार्वजनिक संघर्ष की स्थिति थी, सारे देश का एक कर्तव्य था जो स्वतंत्रता संग्राम को सबल बनाने का कर्तव्य था और सारे देश की एक मनोदशा थी जो क्रोध से क्षुब्ध, आशा से चंचल और मज़बूरियों से बेचैन थी। यह वह समय था जब ‘सामूहिक अनुभूतियों का साम्राज्य छा जाता है। प्रसाद, निराला, पंत जैसे अपने वरिष्ठ समकालीनों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, ‘वे फिर भी संयमशील रहे, किंतु, मुझ जैसे लोग राष्ट्रीय एवं क्रांतिकारी भावनाओं के प्रवाह में बह गए।’ खड़ी बोली हिंदी-कविता की मूल प्रेरणा राष्ट्रीयता थी – ऐसा कहना अनुचित न होगा। दिनकर जी ने जिन कवियों को अपने गुरू के रूप में याद किया है – वे भी राष्ट्रीय भावनाओं के निर्भीक गायक थे। यह समझना भी ज़रूरी है कि उस समय राष्ट्रीय भावना क्रांतिकारी भावना थी उसमें गांधीवाद, समाजवाद या फिर सशस्त्र क्रांति के जरिए आज़ादी की राह खोजने वाले सब शामिल थे। अगर हम बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में लिखी गई ऐसी कविताओं को पढ़ें तो देखेंगे कि उनमें एक सशक्त, भयविहीन भारत की कल्पना की गई है। भारत की पाँच हज़ार साल पुरानी, लंबी संस्कृति की स्मृति भी उन कविताओं में है। अंग्रेज़ों के क्रूर शासन से मुक्ति के लिए भारतीय जनता उठ खड़ी हो इसके लिए ज़रूरी था कि वह उस हीनभाव से उबरे जो ब्रिटिश हुकूमत ने उसके अंदर कूट-कूट कर भर दिया था। आश्चर्य नहीं कि स्वामी विवेकानंद युवकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए। यह इसलिए कि उन्होंने मात्र धर्म-प्रचार नहीं किया, भय से मुक्ति का आह्वान ही उनके समूचे अभियान का मूल था।

उसी तरह गांधी जी ने अहिंसा का जो राजनीतिक अस्त्र निकाला, उसके जरिए उन्होंने साधारण भारतीय को यह अहसास कराया कि उसे ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के लिए अलग से किसी शारीरिक बल की या हथियारों की मदद की ज़रूरत नहीं है। एक भय मुक्त मानव मज़बूत से मज़बूत शासन के लिए कितना खतरनाक हो सकता है – गांधी जी को देखकर भारत की जनता ने इस बात को समझा। गांधी जी ने यह भी दिखलाया कि अपने देश या राष्ट्र की मुक्ति या भलाई का मतलब दूसरे देश या राष्ट्र का अहित करना नहीं है। इस तरह राष्ट्रीयता की जिस भावना का संचार गांधी जी के द्वारा हुआ, उसमें दूसरों के मुकाबले अपनी श्रेष्ठता का अहंकार न था, आक्रामकता न थी बल्कि समानता के व्यवहार का कोमल नियंत्रण था।

राष्ट्रीयता अपने आप में एक उदात्त भावना है, लेकिन जब वह अहंकार और श्रेष्ठत्व के भाव से मुक्त हो जाए तो विश्व बंधुत्व की उच्चता प्राप्त कर लेती है। सौभाग्य से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जन्मी राष्ट्रीयता की भावना में ये गुण थे।

दिनकर जी की राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत कवि… इसी भाव से युक्त हैं। वे लिखते हैं कि कवि होने की सामर्थ्य ‘मुझमें भारतवर्ष का ध्यान करने से जाग्रत हुई, यह शक्ति मुझमें भारतीय जनता की आकुलता को आत्मसात करने से स्फुरित हई।’ दिनकर जी के पहले से कविता लिख रहे कवि भी इस आकुलता को स्वर दे रहे थे। माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे कवि तो राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भी थे। राष्ट्रीयता और स्वाधीनता के लक्ष्यों के प्रति उनकी गहरी उत्सर्ग-भावना पाठकों को आंदोलित करती थी। माखनलाल जी ने एक कविता में लिखा – ‘होता हूँ कुर्बान, बताओ / किस कीमत पर लोगे जान?’नवीन जी के शब्द हैं – ‘हम संक्रांतिकाल के प्राणी, बदा नहीं सुखभोग / घर उजाड़कर जेल बसाने का है हमको रोग।’ आंदोलन में सीधे शामिल होने से इनकी कविताओं का एक अलग ही तेवर है। दिनकर जी इनकी तरह आंदोलन में न थे। वे सरकारी नौकरी में थे। इसके चलते उन्हें भी ऐसा लगता रहा मानो ‘मेरी राष्ट्रीय कविताओं और मेरे जीवन के बीच एक प्रकार की भिन्नता रही है जो उस व्यक्ति के चारित्रिक विरोधाभास का प्रतीक है जो कहता कुछ है तथा करता कुछ और है।’ ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ की कविताओं में राष्ट्रीयता का स्वर अत्यंत प्रखर है। प्राय: इन कविताओं में आह्वान, उद्बोधन, पुकार बुलाव – ये सब देखने को मिलते हैं। ‘मंगल-आह्वान’ की ये पंक्तियां देखिए

गत विभूति, भावी की आशा

ले युगधर्म पुकार उठे,

सिंहों की घन-अन्ध गुहा में जागृति की हुंकार उठे।

जिनका लुटा सुहाग,

हृदय में उनके दारूण हूक उठे,

चीखू यों कि याद कर ऋतुपति की कोयल रो कूक उठे।

आगे की पंक्तियाँ हैं :

प्रियदर्शन इतिहास कंठ में

आज ध्वनित हो काव्य बने

वर्तमान की चित्र पटी पर

भूतकाल संभाव्य बने।

इन पंक्तियों में ‘गत विभूति’ की स्मृति ध्यान देने योग्य है और यह इच्छा भी कि वर्तमान में बीते हुए समय को फिर से संभव किया जा सके। अतीत को गौरवपूर्ण समझने की यह प्रवृत्ति आम थी। दिनकर जी भी इससे मुक्त न थे। लेकिन इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि कवि भारत की सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करने की कोशिश में लगा हुआ था। उसके लिए तो ‘विशाल भारतीय जनता की अनुभूतियाँ ‘ दरअसल ‘भारत के पाँच सहस्त्र वर्ष प्राचीन उस गौरवपूर्ण इतिहास की अनुभूतियाँ थीं जो सौभाग्यवश, हमारे ही काल में आकर फिर से जीना चाह रहा था। भारतीय जनता के हृदय में जो सांस्कृतिक छवियाँ भारतीयता के प्रतीक-रूप में बसी हुई थीं, वे ही काव्यात्मक अनुभूतियों का सृजन कर सकती थीं। इनमें धार्मिक चरित्र भी शामिल थे। पर उन धार्मिक प्रतीकों का बीसवीं सदी के कवियों ने दूसरे धर्मों से तुलना करने के लिए उपयोग नहीं किया। वे जनता के मन में जिस उदात्त भावना का संचार कर सकते थे, उस तक पहुंचना ही कवि का लक्ष्य था। इसलिए शंकर का तांडव करता रूप अधिक आकर्षित करता है। तांडव का आह्वान इसलिए कि :

प्रभु! तब पावन नील गगन-तल,

विदलित अमित निरीह-निबल-दल,

मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन, आह!

सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित-शोषण।

अंग्रेज़ भारत जैसे देशों को गुलाम बनाने के अपने घृणित कृत्य को यह कहकर उचित ठहराते थे कि वे अधिक सभ्य हैं, इसलिए असभ्यों पर शासन करने का उनका सहज अधिकार है। दिनकर इसे अस्वीकार करते हैं :

गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,

लगे आग इस आडम्बर में,

वैभव के उच्चाभिमान में,

अहंकार के उच्च शिखर में,स्वामिन्,

अंधड़ आग बुला दो जले पाप जग का क्षण-भर में।

ऊपर की पंक्तियों से स्पष्ट है कि दिनकर जी की राष्ट्रीयता की चेतना में एक समतावादी सामाजिकसांस्कृतिक दृष्टि लगातार सक्रिय है। दरिद्र-जन’, ‘निरीह-निर्बल-दल’ के प्रति पक्षधरता का स्वर यहाँ तीव्र है। यह भी देखना चाहिए कि तांडव के शंकर सिर्फ हिंदुओं के शंकर नहीं हैं, वे अधिसंख्य भारतीय जन के मन में बसे हुए विध्वंस के देवता हैं, अन्याय देखकर ही जिनका तीसरा नेत्र खुल पड़ता है। जिस तरह शंकर, उसी तरह हिमालय, गंगा, बुद्धदेव भी नई राष्ट्रीयता की सांस्कृतिक चेतना के वाहक के रूप में सामने आते हैं।

‘हिमालय’ दिनकर जी की अत्यंत प्रसिद्ध कविता है। इसमें भी भारतीयों के मन में बसे हुए गौरवपूर्ण अतीत की स्मृति है। हिमालय जैसे विशाल भारतीय जन-मानस का एक उदात्त प्रतीक बन जाता है, जो मौन त्याग कर चेतना हो जाए तो अन्याय की कड़ियाँ टूट जाएँगी। उसी प्रकार बुद्धदेव भी एक क्रांतिकारी के रूप में याद किए जाते हैं। भारत का राष्ट्रीय आंदोलन विदेशी शासन से मुक्ति के लिए तो था ही, वह स्वंय भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को नष्ट करने का विराट समाज-सुधार का आंदोलन था। जाति-प्रथा के कारण भारतीय समाज में जो जड़ता आ गई थी, उसे नष्ट करना एक प्रमुख कर्तव्य था। छुआछूत के विरूद्ध गांधी जी ने ज़ोरदार आवाज़ उठाई। जिन्हें अछूत माना जाता था, उन्हें हरिजन की उपाधि दी। मंदिरों के टरवाज़े उनके लिए बंद थे। गांधी जी ने हरिजनों के सामाजिकसम्मान को हासिल करने के क्रम में मंदिर-प्रवेश का आंदोलन चलाया। इसी क्रम में हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल वैद्यनाथ धाम (देवधर) में मंदिर-प्रवेश के प्रयास के दौरान पंडों ने उन पर हमला किया। दिनकर जी इस घटना से क्षुब्ध हो उठे :

आह! सभ्यता के प्रांगण में आज गरल-वर्षण कैसा!

घृझा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन-कैसा।

स्मृतियों का अंधेर! शास्त्र का दम्भ! तर्क का छल कैसा।

दीन-दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा!

व्याकुलता से भरा हुआ यह स्वर आगे और तीखा हो जाता है :

मनुज-मेध के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए,

कैसे बचें दीन? प्रभु भी धनियों के गृह में बंद हुए।

अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं,

जागो बोधिसत्व! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं।

वे बुद्ध को ‘विप्लव के वाक ‘ और ‘अतीत के क्रांति-गान’ कहकर संबोधित करते हैं। इन पंक्तियों में भी देखा जा सकता है कि यहाँ राष्ट्रीयता की भावना में आधुनिक चेतना का साग्रह प्रवेश है। भारतीय समाज की जड़ता को स्वीकार नहीं किया गया है। इसके साथ ही, दिनकर जी की राष्ट्रीय चेतना का एक दृढ़ आधार है – सामाजिक साम्य के प्रति उनका आग्रह। ‘कविता की पुकार’ शीर्षक रचना में कवि की इच्छा है :

विद्युत छोड़ दीप सानूँगी, महल छोड़ तृण-कुटी-प्रवेश,

तुम गाँवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लूँ वेश।

आगे की पंक्तियाँ भी ध्यान से पढ़ने योग्य हैं :

शस्य-श्यामला निरख करेगा। कृषक अधिक जब अभिलाषा।

तब मैं उसके हृदय-स्त्रोत में उमड़्गी बन कर आशा।

एक तरह से यह कविता दिनकर का घोषणा पत्र भी है। यहाँ कविता का उद्देश्य साधारण जन-जीवन को अभिव्यक्त करना तो है ही, दमित-दलित मनुष्यों के जीवन में आशा की किरण जगाना भी है। इस प्रकार राष्ट्रीय चेतना को सामान्य जन-जीवन की ठोस भूमि पर प्रतिष्ठित करने का काम दूसरे कवियों के साथ दिनकर जी भी कर रहे थे। इसी वजह से हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने उनके बारे में लिखा है : “वे छायावादियों और प्रगतिवादियों के बीच की कड़ी हैं – कम छायावादी, अधिक प्रगतिवादी।’ इस पर हम थोड़ा आगे जाकर विचार करेंगे कि वे खुद को प्रगतिवादी मानते हैं या नहीं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रगतिवादियों का जो सामाजिक आदर्श था, वही दिनकर जी का भी था। वे अपनी कविता को ‘क्रांति-धात्रि कविते!’ कहकर संबोधित करते हैं :

‘उठ भूषण की भाव-रंगिणी ! लेनिन के दिल की चिनगारी!

युग-मर्दित जीवन की ज्वाला | जाग-जाग, री क्रांति-कुमारी!

लाखों क्रौच कराह रहे हैं, जाग, आदि-कवि की कल्याणी।

फूट-फूट तू कवि-कंठों से बन व्यापक निज युग की वाणी।

1917 में रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया था। भगत सिंह जैसे बलिदानियों ने भी मार्क्स और लेनिन के विचारों के प्रति आकर्षण दिखलाया था। यों देखें तो भारतीय साम्यवादियों और राष्ट्रीय आंदोलन में लगे हुए भिन्न विचारधाराओं के लक्ष्य में मौलिक अंतर नहीं दिखलाई देता है, पर अनेक बार ऐसे अवसर आते थे जब भारतीय साम्यवादी अंतर्राष्ट्रीयता के नाम पर राष्ट्रीय हितों को पीछे करने को उद्यत रहते थे। एक स्तर पर यह विवाद भी चलता था कि पहले राष्ट्रीय स्वाधीनता या साम्यवादी क्रांति और स्वाधीनता साथ-साथ? क्रांति के स्वरूप को लेकर भी बहस चला करती थी। रिवोल्यूशनी सोशलिस्ट पार्टी के नेता सुशील भट्टाचार्य ने एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में बताया है : 1928 में तीसरे इंटरनेशनल ने तय किया कि यह सर्वहारा क्रांति का वक्त है। गांधी जी को साम्राज्यवादी एजेंट समझा जाता था और कम्युनिस्ट सविनय अवज्ञा आंदोलन के विरूद्ध थे।

बोर्जुआजी साम्राज्यवाद के खिलाफ भूमिका निभा रही थी और जनता उनके साथ थी, फिर हम कैसे उनसे कटकर रह सकते थे? प्रत्येक महत्वपूर्ण घड़ी में कम्युनिस्टों ने ऐसे आंदोलनों का साथ नहीं दिया। सुशील भट्टाचार्य की इन बातों को देखें तो पता लगता है कि कम्युनिस्टों की देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति उनके समर्पण पर शक न भी करें, तो भी उस समय अपनी प्राथमिकताओं को लेकर वे देश की जनाकांक्षा के साथ पूरी तरह जुड़े नहीं थे। कविता को ‘लेनिन के दिल की चिनगारी’ कहने वाले दिनकर जी ने 1945 में ‘दिल्ली और मास्को’ शीर्षक कविता में जैसे कम्युनिस्टों से बहस करते हुए, उन्हें अपनी प्राथमिकता दुरूस्त करने को कहा :

ओ समता के वीर सिपाही,

कहो, सामने कौन अड़ी है?

बल से दिए पहाड़ देश की

छाती पर यह कौन पड़ी है?

यह है परतंत्रता देश की

रूधिर देश का पीने वाली

मानवता कहता तू जिसको,

उसे चबाकर जीने वाली।

यह पहाड़ के नीचे पिसता हुआ मनुज क्या प्रेम नहीं है?

इसका मुक्ति-प्रयास स्वंय ही क्या,

उज्ज्वलतम श्रेय नहीं है?

उनके सामने यह बात एकदम साफ थी कि भारत की स्वाधीनता से ही यहाँ के करोड़ों शोषितों की मुक्ति का मार्ग खुल सकता है :

दिल्ली के नीचे मर्दित अभियान नहीं केवल है,

दबा हुआ शत-लक्ष नरों का अन्न-वस्त्र, धन-बल है।

दबी हुई इसके नीचे भारत की लाल भवानी,

जो तोड़े यह दुर्ग, वही है समता का अभियानी।

दिनकर जी की राष्ट्रवादिता अंधी नहीं, वह गहराई से मानव-मुक्ति के मूल्य से जुड़ी है। ऊपर जिन कविताओं का उल्लेख है, उनके बहुत बाद, आज़ादी के बाद 1963 में लिखी अपनी कविता ‘किसको नमन करूँ ?’ में वे भारतीय राष्ट्र की कल्पना करते हुए उसे अत्यंत विस्तृत भावना में बदल देते हैं :

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,

एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है।

जहाँ एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,

देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है।

किसी कवि की राष्ट्रवादिता या देशभक्ति अंततः ऐसी ही हो सकती है। दिनकर जी ने मात्र राष्ट्रवादी उद्घोष करने वाले पर देश प्रेम व्यंजक कविताएँ ही नहीं लिखीं, भारतीय राष्ट्र की सांस्कृतिक परंपरा की खोज करते हुए संस्कृति के चार अध्याय’ जैसा ग्रंथ भी लिखा। इसके चलते उनकी राष्ट्रवादी कविताओं में मात्र भावोच्छ्वास नहीं मिलता, उनमें, जैसा पहले ही कहा गया राष्ट्रवाद को मानव-मुक्ति के मूल्य से जोड़ने का उदात्त प्रयास मिलता है।

ऊपर हमने दिनकर जी की कविताओं के अंश पढ़े, उनसे स्पष्ट होता है कि उनका राष्ट्रवाद उन्माद फैलाने वाला न था। धार्मिक चरित्रों और कथाओं का प्रयोग उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त करने के लिए किया लेकिन कभी भी उनका भारत किसी एक धर्म से बँधा हुआ नहीं दिखलाई पड़ता है। चूंकि यह राष्ट्रवाद अंग्रेज़ों की गुलामी को खत्म करने वाले संग्राम के दौरान विकसित हुआ इसलिए इसमें एक खास तरह का लड़ाकूपन है। महात्मा गाँधी उस समय सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व थे। लेकिन कई बार युवाओं को उनके तौस्तरीकों से मतभेद होता था। दिनकर जी की कविताओं में इस युवा-मन की अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर देखने को मिलती है। स्वतंत्रता की कल्पना वे प्राय : एक बडी क्रांति के रूप में ही करते हैं जो अन्याय और असमानता पर आधारित राज्य और समाज का ध्वंस कर देगी। क्रांति की इस अवधारणा का भावनात्मक विस्फोट उनकी ‘विपथगा’ शीर्षक कविता में बड़े ओजस्वी ढंग से मिलता है। इस कविता में शुरू से अंत तक एक भयानक विनाश का नृत्य होता है :

पायल की पहली झमक, सुष्टि में कोलाहल छा जाता है।

पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है।

लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है।

परकटे बिहग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग-नरक जल जाता है।

गिरते दहाड़कर शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन ।

इस क्रांति का सामाजिक चरित्र आगे की पंक्तियों से एकदम साफ हो जाता है :

श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,

माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।

युवती के लज्जा-वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,

मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,

पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमंत्रण।

जिस समय ये कविताएँ लिखी जा रही थीं, एक विवाद संघर्ष में हिंसा के प्रयोग को लेकर भी चल रहा था। 1941 से 1946 के बीच दिनकर जी ने अपना प्रसिद्ध काव्य ‘कुरुक्षेत्र ‘ लिखा। यह द्वितीय विश्वयुद्ध का समय भी था। लेकिन जैसा स्वंय दिनकर जी ने स्पष्ट किया है, ‘कुरुक्षेत्र’ में विश्व-शांति की स्थापना की चिंता कम, अपने देशवासियों की विचार-दिशा बदलने की भावना ज्यादा है। यह इस विचार से प्रेरित था कि ‘अहिंसा अगर परम धर्म है, तो हिंसा को आपद् धर्म मानना ही पड़ेगा।’ कवि के अनुसार कुरुक्षेत्र में महात्मा गांधी का प्रतिनिधित्व युधिष्ठिर करते हैं, किंतु जो नवयुवक उनके अहिंसा के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते, उनके प्रतीक भीष्म हैं। हिंसा और अहिंसा, युद्ध और शांति का द्वन्द्व इसमें महाभारत की कथा के सहारे व्यक्त किया गया है। भीष्म का यह प्रश्न दिनकर का भी प्रश्न है :

समर निन्द्य है धर्मराज, पर, कहो, शांति वह क्या है,

जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?

युद्ध, जिसमें हिंसा अनिवार्य है, तभी होता है जब अन्याय पर आधारित शांति न्याय की माँग को अस्वीकार कर देती है :

शांति खोलकर खड़ग क्रांति का जब वर्जन करती है,

तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है।

शान्ति नहीं तब तक जब तक सुख-भाग न नर का सम हो,

नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।

बाद की पंक्तियाँ हिंदी क्षेत्र में जितनी लोकप्रिय हुई हैं, उसी से पता चलता है कि साम्यवादी समाज की रचना से प्रेरित दिनकर जी – जैसे कवियों का राष्ट्रवाद कोरा चीत्कार-फूत्कार नहीं था। ऐसा नहीं है कि स्वाधीनता पाने के बाद उन्होंने ऐसी कविताएँ लिखना बंद कर दिया। पर उनका प्रखर और क्रुद्ध राष्ट्रवादी स्वर जिस प्रकार ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में प्रकट हुआ, वैसा और कहीं नहीं। भारत पर चीनी आक्रमण की प्रतिक्रिया में लिखे गए इस वाक्य की हर पंक्ति में जैसे परशुराम के कुठार वाली धार है। इसमें भारत को किसी भी आक्रमण का उत्तर देने में सक्षम देखने की आकांक्षा फूटी पड़ती है। उसे एक बलवान राष्ट्र के रूप में विकसित होने का आह्वान किया गया है :

वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल है,

जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,

हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी है,

भोथरे दाँत, पर, जीभ बहुत मोटी है।

औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,

अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।

दिनकर जी की इस प्रकार की कविताएँ अधिक लोकप्रिय हुई – यह स्वाभाविक ही था। इनमें गर्जनतर्जन है, ओजस्वी वक्तृता है, वेगवान छंद है। ऐसा लगता है मानो राष्ट्रीय भावना को कोई सशक्त प्रवक्ता मिल गया हो।

सौंदर्य और प्रेम भावना

पर दिनकर जी सिर्फ राष्ट्रवादी ही नहीं है। आरंभ से ही वे एक ही साथ अलग-अलग भावाधारित कविताएँ लिख रहे थे। जैसा पहले बताया गया है ‘हुंकार’,’द्वन्द्वगीत’ और ‘रसवन्ती’ – ये तीन संग्रह एक साल के भीतर प्रकाशित हुए। ज़ाहिर है कि उनकी कविताएँ एक ही साथ लिखी जा रही थीं। ऊपर जो कविताएँ उद्धृत की गई हैं, उनको देखकर ही यह राय बना ली गई कि दिनकर जी जैसे कवियों में जोश बहुत है, बौद्धिकता कम है। दूसरा आरोप यह लगाया गया कि ये कविताएँ उपयोगितावादी हैं, इसलिए क्षणस्थायी हैं। चूँकि इनमें बात बड़े साफ़ तरीके से कही गई है, उसमें कहीं उलझाव नहीं है, इसी कारण इनमें कलात्मकता की कमी होने का भी आरोप लगा दिया गया। ‘रश्मिलोक’ की भूमिका में इन आरोपों की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है ऐसे लांछन सर इकबाल पर भी लगाये गये थे और उत्तर में उन्होंने कहा भी था कि हाँ भाई, मैं कवि नहीं हूँ। मगर मेरे भीतर कुछ बातें हैं, जो कविता में कही जा सकती हैं। अतएव कविता का उपयोग मैं अपनी बातें कहने के लिए कर रहा हूँ।’ जवाब देने के लिए तो उन्होंने इकबाल का सहारा लिया, पर अपने ऊपर लगने वाले आरोपों से वे व्याकुल भी रहते थे। उन्होंने लिखा है : “मैं भी चाहता था कि गर्जन-तर्जन छोड़कर मैं भी कोमल कविताओं की रचना करूँ, जिनमें फूल हों, सौरम हो, रमणी का सुंदर मुख और प्रेमी पुरुष के हृदय का उद्वेग हो और ऐसी अनेक कविताएँ … रेणुका, रसवन्ती और द्वन्द्वगीत में प्रकाशित हुई।’ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘रसवन्ती में कवि सौंदर्य के प्रति आकृष्ट होता है, परंतु उसके चित्त में शांति नहीं है।’ गर्जन भरे स्वर में राष्ट्रीयता का गान करने वाले कवि का एक स्वर यह भी है, ध्यान से सुनने योग्य :

दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब

बड़े साँझ आल्हा गाता है,

पहला स्वर उसकी राधा को

घर से यहाँ खींच लाता है।

चोरी-चोरी खड़ी नीम की छाया में छिपकर सुनती है,

‘हुई न क्यों’ मैं कड़ी गीत की विधना, यों मन में गुनती है।

वह गाता, पर किसी वेग से

फूल रहा इसका अंतर है।

गीत अगीत, कौन सुंदर है?

‘कवि’ शीर्षक रचना की ये पंक्तियाँ दिनकर जी के कवि-व्यक्तित्व के एक और पक्ष की ओर संकेत करती हैं :

कवि! तुम अनंग बनकर आये फूलों के मृदु शर-चाप लिये,

चिर-दुखी विश्व के लिए प्रेम का एक और संताप लिये।

सीखी-जगत ने जलन, प्रेम पर जब से कलि होना सीखा,

फूलों ने बाहर हँसी और भीतर-भीतर रोना सीखा।

‘द्वन्द्व गीत’, में सौंदर्य के प्रति आकर्षण और कर्तव्य की पुकार के बीच द्वंद्व मुखर हुआ है :

यात्री हूँ अति दूर देश का, पलभर यहाँ ठहर जाऊँ,

थका हुआ हूँ, सुंदरता के साथ बैठ मन बहलाऊँ।

‘एक चूंट बस और’ हाय रे ममता छोड़ चलूँ कैसे?

दूर देश जाना है, लेकिन, यह सुख रोज़ कहां पाऊँ?

कविता क्या करे? क्या वह राष्ट्रवाद और स्वाधीनता का संदेशवहन करे या आनंद के भावों की अभिव्यक्ति करे? ‘हुंकार’ में संकलित कविता ‘हाहाकार’ में ‘उन कविताओं के प्रति ईष्या व्यक्त की है, जो धरती की हलचल से दूर हैं और रचयिता स्वप्न की मायापुरी में विहार कर रहे हैं।’

मेरी भी यह चाह विलासिनि

-सुंदरता को सीस झुकाऊँ।

जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो,

उधर वसन्तानिल बन जाऊँ

सौंदर्य और प्रेम की भावनाओं की यह अभिव्यक्ति दिनकर जी के मूल स्वभाव के अनुकूल थी। उन्होंने लिखा भी है कि आगे चलकर यही धारा ‘उर्वशी’ नामक उनके प्रसिद्ध काव्य में ज़ोरों से फूटी। ‘उर्वशी ‘ 1953 ई0 से 1961 ई0 के बीच लिखी गई। इस रचना के लिए इन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। कई लोगों को इसके प्रकाशन से झटका भी लगा क्योंकि सहज, कठिन स्वर में राष्ट्रीयता और साम्यवाद का गान करने वाला, ‘विपथगा’ जैसी कविता का रचयिता सौंदर्य, प्रेम और काम की अनुभूतियों को व्यक्त करे — यह उनके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। दिनकर जी की प्रचलित और स्वीकृत छवि के अनुरूप ‘उर्वशी’ काव्य न था। संभवत: उन्हें भी इसका अंदाज़ था। इसलिए जहाँ भी मौका मिला, उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘उर्वशी’ के बीज उनकी बिलकुल आरंभिक कविताओं में भी मिल जाएँगे। ‘उर्वशी’ में भी ‘कुरुक्षेत्र’ की तरह एक मिथकीय आख्यान को लेकर उसकी पुनर्रचना की गई है। कथा में कोई बहुत फेर-बदल नहीं है। संक्षेप में मूल मिथकीय आख्यान को याद कर लेना उचित होगा : पुरूरवा चंद्रवंशी राजकुल का प्रवर्तक था। उर्वशी स्वर्गलोक की अप्सरा। मित्र और वरूण देवताओं के शाप के कारण उसे पृथ्वी पर उतरना पड़ा। पृथ्वी पर उतरते हुए उसे पुरूरवा ने देखा और उस पर आसक्त हो गया, बाद में उर्वशी भी उसके सौंदर्य तथा सच्चाई, भक्ति और उदारता जैसे गुणों के कारण उस पर मुग्ध हो गई। दोनों पति-पत्नी बन गए।

बहुत दिनों तक सुख से रहने के बाद, एक पुत्र जन्म देकर उर्वशी स्वर्ग चली गई। पुरूरवा उसके वियोग में पागल सा हो गया। उर्वशी इससे प्रसन्न और द्रवित होकर फिर धरती पर लौटी और एक और पुत्र को जन्म दिया। इस तरह उनके पाँच पुत्र हुए। बार-बार वह स्वर्ग चली जाती थी। लेकिन पुरूरवा तो उसे जीवन संगिनी बनाना चाहता था। गंधों के निर्देशानुसार उसने यज्ञ किया और उसका मनोरथ पूरा हुआ। प्रसिद्ध रचना — विक्रमोर्वशीयम्’ तथा ऋग्वेद के आधार पर ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भिन्न-भिन्न रूप में यह कथा दी गई है।

दिनकर जी ने ‘विक्रमोर्वशीयम्’ और रवींद्रनाथ ठाकुर. की रचना ‘उर्वशी’ पढ़ी थी। मूलत: यह प्रेम और कामाकर्षण की कथा है। आगे चलकर श्री अरविन्द की उर्वशी पढ़ने पर उन्हें इसका एक आध्यात्मिक पक्ष भी दिखलाई पड़ा। इसी कारण ‘उर्वशी’ इनमें से किसी का भी दुहराव नहीं है। ‘उर्वशी’ में भी लगातार एक द्वन्द्व चलता रहता है। पुरूरवा पूछता है :

रूप की आराधना का मार्ग

आलिंगन नहीं, तो और क्या है?

स्नेह का सौंदर्य को उपहार

रस-चुंबन नहीं, तो और क्या है?

उर्वशी’ में पुरुष और स्त्री के बीच प्राकृतिक आकर्षण, काम-भावना के कारण उत्पन्न प्रेम और फिर इस प्रेम के विस्तार को मापने की कोशिश की गई है। इस संबंध में स्वंय कवि ने जो कुछ कहा है, वह हमारे लिए उपयोगी हो सकता है : ‘उर्वशी की रचना का समय वह है जब ललित कला उपयोगी कला से बहुत दूर हो गई है। इसलिए आज संतानोत्पत्ति काम का ध्येय नहीं रहा। काम का उपयोगी पक्ष गौण, उसका ललित पक्ष ही प्रधान है।” काम का ललित पक्ष क्या है? प्रेम। फिर प्रेम क्या है? ‘प्रेम संतानोत्पादन के साथ-साथ आनंद का उत्कर्ष भी है, वह शारीरिक होने के साथ-साथ रहस्यवादी अनुभूति भी है।’ प्रेम का यह दूसरा पक्ष कवि को अपनी ओर खींचता है। उनके अनुसार ‘एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन संपर्क अध्यात्म की भूमिका बन सकता है, यह उर्वशी काव्य का गुणीभूत व्यंग्य है।”

‘उर्वशी ‘ प्रेम-काव्य है या नहीं? यह प्रेम शारीरिक आकर्षण से आगे कहां तक जाता है? दिनकर जी स्पष्ट करते हैं, ‘उर्वशी … प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करने के लिए लिखी गयी है। … उर्वशी धर्म नहीं, प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है।’ इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उर्वशी में प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष का निषेध किया गया है। पुरूरवा की उक्ति

फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को।

कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है।

रेंगने लगते सहस्त्रों साँप सोने के रूधिर में,

चेतना रस की लहर में डूब जाती है।

रूप के सौंदर्य, प्रेम और श्रृंगार की अनुभूतियों की खुली अभिव्यक्ति उर्वशी’ में मिलती है। ‘उर्वशी’ के प्रकाशन के बाद इसे लेकर भारी साहित्यिक विवाद हुआ। इस विवाद में सारे महत्वपूर्ण लेखकों ने भाग लिया। भगवतशरण उपाध्ययजी ने ‘उर्वशी’ की कड़ी आलोचना की : इसके कथा-स्रोतों की छानबीन करते हुए चोरी का माल सिद्ध किया, भाषा का मज़ाक उड़ाया और छंदों और असंगत बिंब-विधान आदि की चर्चा की। मुक्तिबोध को इसमें स्वाभाविकता की जगह शब्दजाल और आडंबर दिखलाई पड़ा। उनका आरोप है कि ‘उर्वशी’ एक कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। ऊपर हमने देखा है कि ‘उर्वशी’ की रचना में लगे लंबे समय (1953-1961) में दिनकर जी किस द्वन्द्व से गुज़र रहे थे। इस द्वन्द्व को बिलकुल दूसरा रूप देते हुए मुक्तिबोध का मानना यह है कि दरअसल कवि ‘कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं, साथ ही इस गतिविधि को सांस्कृतिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं।’ यही कारण है कि जहाँ भारतभूषण अग्रवाल को ‘उर्वशी’ में ‘ओज का विलक्षण सम्मिश्रण’ मिलता है, वहीं मुक्तिबोध का विचार है कि इसमें ‘भाषा भी समारोहपूर्वक चलती है बृहत आयोजन के साथ; इसलिए उसकी प्रदीर्घ पंक्तियों में सांस्कृतिक ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का निनाद है, और बहुत से स्थानों पर अर्थ की वायवीय शून्यताएँ हैं।’ डॉ. नामवर सिंह ने इस पूरे विवाद में मुक्तिबोध की दिशा को ठीक बताया है। पर हमें ‘उर्वशी’ पढ़ते हुए हमेशा ही दिनकर जी की उसके पहले की रचनाओं को ध्यान में रखना चाहिए। ऐसा करने पर हम पाते हैं कि दिनकर जी प्रत्येक घटना या मनोभाव अथवा अनुभूति के सांस्कृतिक पक्ष को हमेशा से ध्यान में रखते रहे हैं। वह जबर्दस्ती आरोपित नहीं है। दूसरे, उर्वशी के कवि पर यह आरोप असंगत और अन्यायपूर्ण है कि वह ‘कामात्मक मनोरति ‘ में डूबना-उतरना चाहता है। ‘उर्वशी’ की भाषा दिनकर जी के दीई कवि-जीवन के दौरान विकसित हुई उनकी अपनी विशिष्ट काव्य-भाषा है, जिसके आधार पर उन्हें उनके समकालीन अन्य कवियों से अलग पहचाना जा सकता है।

दिनकर की काव्य दृष्टि का विकास

दिनकर जी की प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यक्तियों में छुई-मुई पन नहीं है। उनमें छायावादी कविता वाली नज़ाकत भी नहीं है। ऐसी कविताओं में भी वक्तृत्व गुण मिल जाता है। दरअसल उनके अंदर की बेचैनी और छटपटाहट ही उनकी काव्य-भाषा के स्वरूप को भी निर्धारित कर रही थी। हम लोग थोड़ा आगे चलकर इस भाषा और शैली पर विचार करेंगे। उसके पहले यह देख लेना ज़रूरी है कि उनकी प्रदीर्घ काव्य-धारा क्या एक ही दिशा में प्रवाहित है या उसमें अंदर ही अंदर अनेक धाराएं हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और अन्य आलोचकों के हवाले से देखा जा सकता है कि दिनकर जी को ‘समाज-व्यक्ति ‘ का कवि मान लिया गया। यह मत भी जैसे सर्वमान्य हो गया कि वे ‘वैयक्तिकता का प्रत्याख्यान’ लेकर सामने आए। इसलिए स्वच्छंद धारा के होते हुए उनमें उस वैयक्तिक चेतना से अलगाव देखा गया जो रोमांटिक कविता की विशेषता हुआ करती है। दिक्कत यह है कि देशभक्ति, राष्ट्रीयता, साम्यवादी आदर्शों से प्रेरित उद्घोषणात्मक, ओजस्वी वक्तृता से पूर्ण कविताओं और गीतों के भीषण स्वर के पीछे दिनकर जी के निजी व्यक्तित्व की वेदना के स्वर को सुनने का धैर्य प्राय : नहीं दिखलाया गया है। ‘रसवन्ती’ नामक संग्रह में ही संकलित कविता ‘शेष गान’ में उनकी यह पीड़ा प्रकट हुई है:

इन गीतों में रश्मि अरूण है,

बाल ऊर्मि, दिनमान तरूण है,

बँधे अमित अपरूप रूप,

गीतों में स्वंय समा न सका मैं।

आगे चलकर उनका अपना निजी स्वर और प्रखर होता है। ‘युग का चारण’ और ‘वैतालिक ‘ आदि कहकर इसे फिर भी नजरअंदाज किया गया, लेकिन हारे को नाम’ में तो जैसे व्यक्ति दिनकर ही अपनी वेदना निवेदित करते मिलते हैं। उनकी इस वैयक्तिक चेतना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति को पहचानने से पहले यह जानना भी ज़रूरी है कि कविता और कला के बारे में उनके क्या विचार हैं। अपने एक निबंध में उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत किया है : ‘पिछले दो हज़ार वर्षों का भारतीय साहित्य कवि के व्यक्तित्व को खोता आया है। …वैयक्तिकता की स्वाधीनता को छोड़कर वह ‘टाइप’ रचना की पराधीनता को स्वीकार करता आया है।’ उनका मानना है कि इस पराधीनता को अस्वीकार करके अपने लिए नवीन राह बनाने की चेष्टा वैयक्तिक स्वाधीनता का परिणाम है। इसके साथ आगे चलकर उनका यह मत भी बना कि कविता या कोई भी कला उपयोगिता के संकीर्ण दायरे में बाँध कर नहीं रखी जा सकती।

इस बात को लेकर भी, यानी कला की उपयोगिता और स्वतंत्रता के प्रश्न पर भी उनमें लगातार द्वंद्व चलता रहा है : ‘… जीवन भर मैं इस विचिकित्सा में पड़ा रहा हूँ कि कविता का वास्तविक प्रयोजन क्या है। वह मनुष्य को जगाने, सुधारने और उन्नत बनाने के लिए है या उसका काम आदमी को रिझाना और उसे प्रसन्न करना है?’ आगे वे बताते हैं कि ‘मेरी दृढ धारणा है कि कविता व्यक्ति द्वारा सम्पादित सामाजिक कार्य है और शुद्ध कविता भी समाज के लिए ही लिखी जाती है।’ कविता दरअसल मनुष्य के सौंदर्यबोध को समृद्ध करने का काम करती है। यह सौंदर्यबोध मनुष्य को इसके लिए प्रेरित कर सकता है कि वह अपने आस-पास के समाज को और सुंदर बनाए। लेकिन कई बार ऊपर से वह उपयोगी नहीं भी मालूम पड़ सकता है। इस संबंध में दिनकर जी का विचार है : ‘सौंदर्यबोध नैतिकता और उपयोग के वृत्त के भीतर हो सकता है और उसके बाहर भी जा सकता है।

सौंदर्यबोधात्मक आनंद एक ऐसे संतोष की स्थिति है, जिसका कोई भी निश्चित लक्ष्य नहीं होता, जो एक प्रकार से तटस्य और प्रयोजनहीन होता है। एमर्सन ने कहा था कि मैं सभी चीज़ों के भीतर हलचल मचा दूंगा, किंतु पक्ष मैं किसी का भी नहीं लूंगा।’ दिनकर जी की कविता के बारे में ठीक यही बात नहीं कही जा सकती है। पक्ष वह लेती है, व्यक्ति की स्वाधीनता का, पीड़ित और दलित जनता का, वह विरोध में खड़ी होती है अत्याचार और शोषण के, विदेशी गुलामी के, पूंजीवाद के। लेकिन एकाधिक बार वे कविता की, बतौर कला, स्वतंत्र भूमिका पर जोर देते भी पाए जाते हैं। ‘स्वप्न और सत्य’ नामक उनकी कविता को पढ़ने से मालूम होता है कि वे स्थूल उपयोगितावाद के दायरे से बाहर निकलकर कविता का आनंद उठाने की वकालत करते हैं :

तबीयत चाहती है, बात कुछ तुमको सुनाऊँ

मगर, तुम कौन हो पंक्ति मेरी पढ़ रहे हो?

कला के पारखी हो? चाँदनी के चाहने वाले?

हवा की साँस में जो दर्द है, उसको समझते हो?

आगे की कुछ और पंक्तियाँ देखने लायक है :

बुलाते हैं इशारों से कभी वे स्वप्न तुमको भी,

हमारे हाथ से दो इंच जो आगे बने रहते? ।

कविता को निष्प्रयोजन आंनद की इस अवस्था तक उठा ले जाना ही कवि का उद्देश्य लगता है। दिनकर जी की काव्य-दृष्टि, इस प्रकार, बहुत सरल नहीं है। वे यह ज़रूर कहते हैं कि ‘बड़ी कविता जो इस भूमि को सुंदर बनाती है लेकिन बार-बार सुंदर बनाने के उसके अपने विशिष्ट ढंग को महत्व  पर जोर देते हैं। यही कारण है कि हिंदी कविता के विकास पर लिखते समय वे ऐसे साहित्यिक आंदोलनों को तो महत्व देते हैं जिनके बारे में उन्हें यह संदेह नहीं है कि वे पूर्णतया साहित्यिक हैं, लेकिन ‘प्रगतिवाद’ जैसे महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन को वे साहित्यिकता से रहित मानकर उसे पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं दे पाते। “हिंदी कविता पर अशक्तता का दोष’ शीर्षक अपने निबंध में वे प्रगतिवादी आंदोलन के वैचारिक पक्ष से सहमति जतलाते हैं : हमारे समय में कविता का जो रूप निखर रहा है, वास्तविकता उसकी जान होगी। … धरती पर एक नये प्रकार के मनुष्य का जन्म हो रहा है और हम लोग उसके युग के जीव हैं।  हमारी आँखें उसी मनुष्य पर केंद्रित रहनी चाहिएँ।’ सामाजिक आंदोलनों और बदलती राजनीति का कविता पर भी असर पड़ता है, उनके चलते उसकी विष्यवस्तु बदलती है, कहने का ढंग भी बदल जाता है। इतना कुछ मानते हुए भी वे यह कहते हैं कि कवि या कलाकार को इसके लिए स्वतंत्र छोड़ा जाना चाहिए कि वह इन परिवर्तनों का स्वंय अनुभव करे और स्वंय ही यह तय भी करे कि उसे इनकी रोशनी में अपने लेखन को किधर लिए जाना है।

वे स्वीकार करते हैं कि ‘समय की सहानुभूति का प्रवाह सर्वहारा की ओर है और इस धारा के विपरीत तैरना कुछकुछ अप्राकृतिक-सा लगता है।’ फिर भी उनकी दृढ़ मान्यता है कि यदि कवि को ‘जानबूझकर … आंदोलन, कानून और संघों के द्वारा किसी वाद विशेष की उपासना के लिए लाचार किया जाए तो यह उसके साथ और समग्र साहित्य के साथ सरासर अन्याय है।’ दिनकर जी के काव्य विकास को अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि 1937 में संगठित रूप से प्रगतिवादी आंदोलन के शुरू होने के काफी पहले ही वे उन सामाजिक आदर्शों के प्रति आकर्षण व्यक्त कर रहे थे, जिनकी वकालत मार्क्सवादी या प्रगतिवादी करते थे। ‘कविता की पुकार’ में यह पक्षधरता बहुत स्पष्ट है :

विद्युत छोड़ दीप सानूंगी, महल छोड़ तृण-प्रवेश,

तुम गाँवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लूँ वेश।

‘दिल्ली’ शीर्षक कविता में भी उनकी तड़प का कारण लुका-छिपा नहीं है :

हाय! छिनी भूखों की रोटी

छिना नग्न का अर्द्ध वसन है,

मज़दूरों के कौर छिने हैं,

जिन पर उनका लगा दसन है।

और

आहे उठीं दीन कृषकों की,

मज़दूरों की तड़प, पुकारें,

अरी! गरीबों के लोहू पर

खड़ी हुई तेरी दीवारें।

अपने इस स्वर के कारण ही दिनकर जी प्रगतिवादियों द्वारा बहुत सराहे गए। लेकिन जब 1939 में ‘रसवंती’ और ‘वंद्वगीत’ नामक उनके संग्रह प्रकाशित हुए, तो प्रगतिवादियों ने देखा कि इनमें तो भिन्न मनोदशाओं की कविताएँ हैं। इससे उनको गहरी निराशा हुई, ‘…मानों, कोई योद्धा तलवार फेंक कर केलि-कुंज में जा बैठा हो।’ प्रगतिवादियों के ऐसे रवैये से दिनकर जी ने नतीजा निकाला कि उनकी दृष्टि साहित्यिक या कलात्मक नहीं है और वे राजनीतिक या दलवादी आग्रहों पर कविता को नापते जोखते हैं। संभवतः इसी कारण उन्होंने ‘चक्रवाल’ की भूमिका में प्रगतिवाद के बारे में बड़ी कड़ी राय व्यक्त की, ‘प्रगतिवाद …मुख्यतः, साहित्येतर आंदोलन था जो साहित्य के भीतर केवल राजनीतिक उपयोग के लिए साहित्यिकों का शोषण करने आया था।

फिर भी हिंदी कविता में प्रगतिवादी आंदोलन के सीमित योगदान को वे स्वीकार करते हैं, “प्रगतिवाद का केवल इतना महत्व है कि उसने सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित साहित्य को प्रोत्साहन और मान दिया तथा उन लोगों को भी मस्तक उठा कर चलने की उसने प्रेरणा दी जो अपनी रचनाओं के भीतर सामाजिक और सोद्देश्य होने के कारण शुद्ध कलावादियों, आनंदवादियों और सौंदर्यवादियों के सामने मन ही मन अपने को ईषत् हीन समझते थे।’ स्वंय दिनकर जी ने छायावादी संस्कारों के प्रभाव में लिखना शुरू किया था, भले ही आगे चलकर वे इनसे संघर्ष करें। 1943 में ‘तार सप्तक’ का प्रकाशन हुआ। इनकी कविताओं में छायावाद तो दूर, दिनकर-जैसे छायावादोत्तर कवियों से भी काफी भिन्नता दिखलाई पड़ी। दिनकर जी ने इस नवीन काव्य-प्रवृत्ति का स्वागत किया : ‘ये उन सभी कविताओं से भिन्न हैं जिन्हें देखने और सुनने के हम अब तक आदी रहे हैं। (इनका कवि) कविता के प्रचलित रूप एंव उसके प्रति जनता की सहज धारणाओं की उपेक्षा करता है। (इसमें) एक प्रकार की वैयक्तिकता व्यंजित होती है जो पाठकों को चिढ़ानेवाली है। लेकिन इस कविता से बिदकने की जगह वे यह कहकर इसका आदर करते हैं कि “इनमें उस चेतना का प्रतिबिम्ब है जो जीवन की विरूपताओं पर विचार करनेवाले असंतोषी मनुष्य में उत्पन्न होती हैं।

संस्कारवश वे इन कविताओं की प्रशंसा नहीं कर पाते, लेकिन उन्हें ऐसा लगता है कि ‘इनके भीतर से हिंदी कविता कोई नया कदम उठा रही है।’ 1943 के आसपास ही उन्होंने टी.एस. इलियट की कविताएँ पढ़ीं। इन्होंने कविता संबंधी उनकी सारी बनी हुई धारणाओं की नींव हिला दी। उन्होंने लिखा है, “अरे! इलियट की कविताएँ हम लोगों की कविताओं यानी मेरे गुरू रवीन्द्रनाथ और इक़बाल की कविताओं से कितनी भिन्न हैं। वे मेरी शांति भंग करने में समर्थ थीं, मेरे मन को वे अक्सर उस दिशा में भेज देती थीं, जिस दिशा में कोई क्षितिज नहीं था, न कोई किताब खुलकर बंद होती थी।” आगे उन्होंने श्री अरविंद के एक लेख में पढ़ा कि भविष्य की कविता मंत्र के समान छोटी और वैसी ही प्रभावशालिनी होगी। दिनकर जी ने महसूस किया कि इलियट की कविता में आगामी कविता का पूर्वाभास मिलता है। इलियट जैसे कवियों की खंडित वैयक्तिक चेतना ने उनका ध्यान आकर्षित किया। समझना कठिन है कि ‘विपथगा’, ‘दिल्ली’ और ‘बापू’जैसे कविताओं के रचियता / दिनकर के स्वभाव से इस नए प्रकार की वैयक्तिक परक काव्य चेतना का क्या मेल हो सकता है। लेकिन आगे चलकर. उन्होंने खुद ऐसी कविताएँ लिखीं जो उनकी आरंभिक कविताओं से, या उनके लोकप्रिय कवि रूप से नितांत भिन्न दिखाई देतीं थीं।

समय और समाज दिनकर जी पर खूब असर डालता था। लेकिन यह प्रभाव बड़े सरल ढंग से उन पर कभी नहीं पड़ा। ‘कुरुक्षेत्र’ जैसा काव्य लिखने के बाद उन्होंने ‘रश्मिरथी’ की रचना की और कर्ण को नायक के रूप में चुना। इसकी प्रेरणा उन्हें इस सवाल से मिली थी कि “कुमारी माता के गर्भ से उत्पन्न संतान को समाज में गुणोपयुक्त स्थान मिलना चाहिए या नहीं।” ‘रश्मिरथी’ को ध्यान से पढ़ने पर भी पता लगता है कि सामाजिक आचार-विचार और आग्रहों के बीच व्यक्ति के महत्व को स्थापित करने का आग्रह इस काव्य के पीछे काम कर रहा है।

व्यक्ति के निजीपन को, उसकी अपनी सत्ता के महत्व को समाज के हित के खिलाफ नहीं, तो कम से कम उसके सामने स्थापित करने का संघर्ष दिनकर-काव्य में अंतर्धारा की तरह प्रवहमान है। जैसा पहले कहा जा चुका है, दिनकर का यह स्वर तब पहचाना गया जब उनका संग्रह ‘हारे को हरिनाम ‘ प्रकाशित हुआ। इसे उन्होंने अपनी विनयपत्रिका कहकर पुकारा है। अपनी इन कविताओं को वे पुरानी कविताओं से भिन्न बताते हैं। उनकी एक कविता का शीर्षक ही है, ‘पुरानी और नयी कविताएँ।’ वे लिखते हैं कि उनके दोस्तों को उनकी पहले की कविताएँ ही पसंद हैं क्योंकि :

पुरानी कविताओं में रस है, उमंग है,

जीवन की राह वहाँ सीधी, बे-कटीली है।

सरिताएँ जितनी हैं, फूलों की छाँव में है,

सागर में नीलिमा है, चंचल तरंग है।

पुरुष बड़े ही पुरज़ोर हैं

या तो बड़े कोमल हैं अथवा कठोर हैं।

क्रोध में कभी जो नर-नाहर ये बोलते हैं,

भूमि काँपती है, कोल-कमठ होते,

दिग्गज दहाड़ते, समस्त्र शैल डोलते हैं

लेकिन नई कविताओं में मामला जटिल हो गया है। कविता मात्र भावोच्छवास नहीं रह गई है।

कविता न गर्जन, न सूक्ति है।

वीर का न घोष, न तो वाणी खरचिंतकों की,

कविता न पूर्ति है, न माँग है।

अर्थ नहीं, काव्य शब्द-योग है

अर्थ को दबाने से ही शब्द बड़ा होता है

निश्चित-अनिश्चित का संगम जहाँ है सूक्ष्म,

कविता का सदम निरावलंब खड़ा होता है।

समय बदल रहा था। मनुष्य बदल रहा था। कविता भी बदल रही थी। दिनकर जी अपने संस्कारों से लड़ रहे थे, खुद को भी बदलने का संघर्ष कर रहे थे : ‘मुझे यह महसूस हो रहा है कि हम जिस युग में जी रहे हैं उसका संगीत टूट गया है। जैसे छंदों में काव्य-रचना करने का मैं अभ्यासी था, वे अधूरे लगने लगे हैं। मेरा अनुमान है कि जो छंद संगीत को अपील करते हैं, उनके द्वारा वर्तमान युग का टूटा हुआ संगीत पकड़ा नहीं जा सकता। यदि कविता की भूमि में अभी और रहना है तो अब गर्जमान छंदों से काम नहीं चलेगा।” वे शुरू से ही छंदोबद्ध कविताएँ लिख रहे थे। छंदोबद्ध ही नहीं, गेय भी। इसके साथ ही उनकी कविता में वक्तृत्व का गुण है! वक्तृत्वता में जो एक ओजपूर्ण प्रवाह होता है, जो श्रोता के. सोचने-समझने की शक्ति पर छा जाता है और उसे बहा ले जाता है, उसके गुण से युक्त होकर दिनकर जी की कविताएँ भी पाठक को आंदोलित कर देतीं थीं। पर बाद में उन्होंने महसूस किया कि “छंदों के महत्व का एक कारण यह भी है कि कविता को अधिकांश जनता अब तक मनोरंजन का साधन मानती रही है।’ छंदोबद्ध कविताओं का एक सहारा तुकें थीं। पर उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि तुक भावों की अभिव्यक्ति में बाधा डालती हैं। भविष्य की कविता के बारे में बात करते हुए वे कहते हैं कि काव्य का संगीत से संबंध अभी चल रहा है, वह गलत संबंध है। उन्नत देशों में कविता और संगीत, ये दो कलाएँ अब परस्पर बहुत दूर हो गई हैं।’

दिनकर जी के कविता संबंधी विचारों के इस विकास को समझना इसलिए ज़रूरी है कि इससे उनकी कविता के उस पक्ष पर प्रकाश पड़ता है, जिसे प्राय: नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। दिनकर जी की बाद की कविताओं में एक मोड़ दिखलाई पडता है। जैसे वे समाज के कोलाहल से अपने मन की ओर मुड़ रहे हैं :

भागने जबसे लगा हूँ कीर्ति के कोलाहलों से,

हूक उठती है, अरे, मैं तो प्रवासी था।

अब बहुत दिन बाद अपने देश वापस जा रहा हूँ।

उनका यह स्वर उनके पाठकों को अलग-सा लगा

आजकल ये बहुत भाते हैं –

रात का एकांत, ये सुनसान सड़कें

फूल, फूलों की हवा, आकाश, बादल, चाँदनी।

और संध्या के समय मैदान के दूर्वादलों

देर तक लेटे हुए गिनना सितारों का।

इस समय वे जीवन की जटिलता को पहचानने का आग्रह भी करते हैं :

अगर मैं कोई आम खाता हूँ

तो क्या, उसमें केवल आम ही होता है ?

मुझे तो आम खाते समय कई चीजों का ध्यान होता है।

आम के रस में वसंत की हवा,

सूरज की गर्मी और धरती का रस

इन सबका भान होता है।

‘हारे को हरिनाम’ तक आते-आते उनका स्वर अत्यंत परिपक्व, प्रौढ़ हो चुका था। इसीलिए वे ‘संतुलित समाज’ नामक कविता में लिख पाते हैं :

दुनिया केवल उन्हीं को न पूजे,

जिन्होंने जीत हासिल की है।

वह ज़रा हमदर्दी से देखे, ।

जिन्होंने ज़िंदगी की बाजी हारी हो।

असफलता के प्रति भी सहानुभूति के इस भाव में एक निजी स्पर्श है। यह पता लगता है ‘अंतिम पुरुषार्थ’ शीर्षक कविता से : .

प्राण में जब क्लान्ति,

जीवन में थकन जब व्यापती है,

स्वप्न सारे टूट कर उडीन हो जाते

रूख के पत्ते यथा पतझड़ में।

स्वप्न मेंरे भी चतुर्दिक टूटकर उड़ने लगे हैं,

और मैं दुबली भुजाओं पर उठाये

व्योम का विस्तार एकाकी खड़ा हूँ।

यह थकान या निराशा उनकी कविता का स्वर बदलती है पर उनकी जिजीविषा का स्वर कमज़ोर नहीं पड़ा। उन्हें व्यक्तिगत जीवन में खाई चोट, अपमान आदि के बाद भी जीवन का स्रोत दिखलाई देता

अभी जीवित है स्रोत सुधा का।

कमी नहीं अब भी करूणा की वायु की।

धन्यवाद! मैं, सचमुच, नहीं मरूँगा।

जब तक मेरे लिए कहीं भी करूणा का लवलेश है।

जब तक मेरे लिए सुधा का बिंदु कहीं भी शेष है,

मरण-कोट पर जीवन की ध्वजा उड़ाकर

मैं मृत्युंजयकवि प्रकाश की जय का गान करूँगा।

कविता को समाज की वेदना की अभिव्यक्ति के पद से अपदस्थ करने का कोई इरादा उनका न था :

जब तक जियू,

वीणा सुर में बोलती रहे।

वह मेरा ही नहीं, सबका दर्द खोलती रहे।

ताप सबको महसूस हो,

मगर आग नहीं मिले।

कविता में कवि कहाँ छिपा है,

इसका सुराग नहीं मिले।

‘कला’ शीर्षक इस कविता में कविता का अपना आदर्श बताकर वे कहते हैं कि यही कलाकार की सच्ची स्थिति है। और इसे मैंने आज तक निभाया था। लेकिन उन्हें इस बात का दुख रहा कि प्रायः उनके अपने, नितांत निजी स्वर को सुना नहीं गया। इस दुख को इन पंक्तियों में सुना जा सकता है :

लोग समझते रहे कि

मैं देश का दर्द गाता हूँ।

मगर दर्द मैंने

अपना ही गाया था!

‘हारे को हरिनाम’ या उसके पहले प्रकाशित संग्रह ‘आत्मा की आँखे’ पढ़कर प्राय: यह नतीजा निकाल लिया जाता है कि अपने जीवन के आखिरी दौर में वे निराश हो गए थे, इसलिए रहस्यवाद और आध्यात्मिकता की ओर चले गए। दिनकर जी नास्तिक कभी न थे। इसलिए इन संग्रहों की कविताओं को देखकर यह कहना कि वे अपने पहले के विश्वासों से हिल गए थे, उचित न होगा।

सारांश

रामधारी सिंह दिनकर का रचनाकालीसवीं सदी के तीसरे दशक से शुरू होकर आटवें दशक तक फैला हुआ है। आधुनिक भारत के लिए यह बड़ा महत्वपूर्ण काल है। तीसरे दशक से पाँचवें दशक के बीच अंग्रेजी हुकूमत को भारत से उखाड़ फेंकने का आंदोलन अपनी निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था। एक तरफ, महात्मा गांधी अखिल भारतीय स्तर पर जन-नायक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अहिंसा, सत्याग्रह और असहयोग के उनके तरीके राजनीतिक अस्त्र तो थे ही, वे एक व्यापक सांस्कृतिक बदलाव की माँग कर रहे थे। उन्नीसवीं सदी में देश के विभिन्न हिस्सों में जो पुरानी रूढ़ियों, कुरीतियों, अंधविश्वास के खिलाफ सुधार आंदोलन चल रहे थे, महात्मा गांधी ने उन सबको स्वाधीनता संग्राम का अंग बना दिया। स्वाधीनता का संग्राम अब समाज के संभ्रांत, अतिशिक्षित समुदाय का मामला नहीं रह गया। निहत्था, निरक्षर, निरीह से निरीह साधारण भारतीय जन अब उसकी धुरी बन गया। इसने पूरे देश में जबर्दस्त उत्साह की लहर पैदा की।

इसके समानांतर साम्यवादी आदर्शों से सुधारवाद से असंतुष्ट और क्रांति में विश्वास रखने वाले विचार भी तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे थे। हिंदी साहित्य और हिंदी कविता पर इसका प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। द्विवेदी युग के बाद छायावाद ने इस नए स्वतंत्र मनुष्य के व्यक्तित्व को पहचाना। लेकिन उस जमाने की बेचैनी, छटपटाहट की उग्रता को अभिव्यक्त किया स्वच्छंद राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के कवियों ने, जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी अग्रणीय थे। इनका असर लेकर छायावाद के परवर्ती काल में उत्तर छायावादी या छायावादोत्तरी प्रवृत्ति के कुछ सशक्त कवि उभरे, जिनमें बच्चन, भगवती चरण वर्मा और दिनकर प्रमुख हैं। मस्ती, फक्कड़पन, बेपरवाही इनके लक्षण थे। पर दिनकर के स्वर की विशिष्टता को अलग से लक्ष्य किया गया। उनकी कविताओं में मस्ती तो थी, पर साथ ही एक गंभीर समाजोन्मुखता थी, क्रांति का आह्वान था, शोषण और अत्याचार पर टिकी समाज-व्यवस्था का विरोध था।

प्रखर राष्ट्रवादी तेवर के कारण दिनकर जी युवकों में खासे लोकप्रिय हुए। पर उनकी राष्ट्रवादिता में धर्म की मिलावट नहीं है। वह भारतीय संस्कृति की सामासिकता को महत्व देती है। उनका राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद भी नहीं है। उसमें दूसरों को दलित करके खुद को प्रतिष्ठित करने की चाह नहीं है। उनकी आक्रामक राष्ट्रीयता भारत पर हुए चीनी हमले के दौरान उभरी! ‘कुरुक्षेत्र में उग्र चोट खाए हुए राष्ट्र के क्रोध का विकट स्वर सुनाई पड़ता है। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सामाजिक बनावट, जाति व्यवस्था आदि को लेकर जो मंथन चल रहा था, उस ‘रश्मिरथी’ का नायक कर्ण है और उसकी केंद्रीय समस्या यह है कि कुमारी माता के गर्भ से उत्पन्न संतान को समाज में गुण के अनुसार स्थान मिलना चाहिए या नहीं।

दिनकर जी राष्ट्रवादी स्वर की कविताओं के साथ भिन्न प्रकार की कविताएँ भी लिख रहे थे। ‘रसवंती और ‘द्वंद्वगीत’ में इस प्रकार की कविताएँ सम्मिलित हैं। प्रेम और श्रृंगार के प्रति आकर्षण उनमें शुरू से ही देखा जा सकता है। लेकिन उनके उच्च, धनगर्जन-भरे राष्ट्रवादी स्वर के नीचे यह दब सा जाता रहा है। प्रेम, सौंदर्य और श्रृंगार के प्रति आकर्षण का परिपाक आगे चलकर उनके प्रसिद्ध काव्य ‘उर्वशी’ में दिखलाई पड़ता है। लेकिन यह एक पुरुषकवि द्वारा नारी को मात्र भोग्य या श्रृंगार की सामग्री समझकर नहीं लिखा गया। इसमें आध्यात्मिकता का भी स्पर्श है, प्रेम भावना और सहज काम-वासना के बीच भी द्वंद्व चलता है। क्या काम से मनुष्य को मुक्ति मिलती है? ऐसे प्रश्न दिनकर जी की इस प्रकार की कविताओं में उठाए गए हैं।

आरंभ से ही दिनकर जी की कविताओं को बहिर्मुखी स्वभाव का माना गया। पर स्वंय उन पर बदलती हुई साहित्यिक विचारधाराओं का प्रभाव पड़ रहा था। 1943 के आसपास वे टी.एस. इलियट की कविताओं के संपर्क में आए। इन कविताओं ने उन पर गहरा असर डाला। द्विवेदीयुगीन और छायावादी काव्य-संस्कारों से निकलकर वे औद्योगिक, आधुनिक सभ्यता की खंडित मानवीय चेतना के द्वंद्व से परिचित हुए। आगे चलकर इस प्रभाव ने उनकी काव्य-रचना पर असर डाला। पर उनका स्वर प्रमुखतः वही रहा जो पहले था। पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके स्वर में पाई जाने वाली निश्चयात्मकता कम होती गई और वे मानवीय स्वभाव की जटिलता को समझने और उसे अभिव्यक्त करने में लगे। देशभक्ति और राष्ट्रवाद के उद्घोष के बीच उनकी अपनी वेदनाएँ दब सी गई थीं। पहले निराशा, असफलता को जैसे उनके यहाँ कोई जगह नहीं है। पर ‘आत्मा की आँखे’ और ‘हारे को हरिनाम’ में उनका यह निजी स्वर उभरता है। इनमें छंट भी टूटते हैं, गेयता भी पीछे चली जाती है।

दिनकर जी ने छायावादी संस्कारों के साथ लिखना शुरू किया था। उन्होंने स्वंय लिखा है कि छायावाद के रोष से बचना मुश्किल था। पर उनके काव्य-आदर्श हिंदी से बाहर के कवि थे – उर्दू के इक़बाल और बंगला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर । इन दोनों ने दिनकर की काव्य-दृष्टि के निर्माण और विकास में गहरा योगदान किया। वैचारिक स्तर पर एक ओर वे कार्ल मार्क्स के साम्यवादी सिद्धांत से प्रभावित थे, वहीं दूसरी ओर महात्मा गांधी की करूणा से भरा हुआ मानवता वाद भी उन्हें आकर्षित करता था। इन प्रभावों के बीच उनका कवि व्यक्तित्व निर्मित हुआ। कविता में उन्होंने हमेंशा इसका ध्यान रखा कि पाठकों को परेशानी न हो। इसलिए सुस्पष्टता को कविता के सबसे बड़े कलात्मक गुणों के रूप में देखा। छंदो का विरोध उनके समक्ष आरंभ हो गया था। निराला ने इसमें उदाहरण उपस्थित किया था। पर दिनकर जी का लक्ष्य था पंत के सपने को मैथिलीशरण गुप्त की सफाई से लिखना। इसलिए मुक्त छंद के प्रभूत्व के बाद भी वे आसानी से लोगों की जुबान पर चढ़ने वाली, गेयता के गुणों से युक्त कविता लिखते रहे। सुस्पष्टता के प्रति आग्रह अंत तक बना रहा।

लेकिन 1943 के आस-पास टी.एस. इलियट को पढ़ने के बाद और हिंदी में प्रयोगवादी काव्य आंदोलन को समीप से देखने पर उन्होंने अपनी कविता संबंधी धारणाओं में और परिवर्तन किया। प्रौढ़ कविता का लक्षण उनके अनुसार यह होगा कि वह संगीत से बिलकुल स्वतंत्र होगी। गेयता उसकी पूर्व शर्त न होगी। वे प्रयोगवादी ढंग की कविताएँ तो नहीं लिख रहे थे, लेकिन कविता में सब कुछ साफ-साफ आए — इस पर उनका आग्रह पहले जैसा नहीं रह गया था।

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