राज्य के नीति-निदेशक तत्व (DPSP) : गैर-न्यायोचित होने की आलोचना

प्रश्न: राज्य के नीति-निदेशक तत्व, यद्यपि न्यायालय द्वारा क़ानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं है, फिर भी इन्हें ‘संविधान की अंतरात्मा’और देश के शासन का आधार माना जाता है टिप्पणी कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • राज्य के नीति-निदेशक तत्व (DPSP) के पीछे तर्क तथा इसके गैर-न्यायोचित होने की आलोचना का संक्षेप में परिचय दीजिए। 
  • उन प्रावधानों को सूचीबद्ध कीजिए जो की इन्हें सुशासन हेत् ‘आधार’ बनाते हैं।
  • उन कानूनों को सूचीबद्ध कीजिए जिन्होंने अपनी प्रासंगिकता को चिह्नांकित करने हेतु राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का प्रयोग किया।

उत्तरः

राज्य के नीति-निदेशक तत्व (अनुच्छेद 36-51) भारतीय संविधान की ‘अनूठी विशेषताएं’ हैं। ये नागरिकों के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को बढ़ावा देते हैं। ये ‘संविधान की अंतरात्मा’ के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि ये संविधान निर्माताओं द्वारा सुशासन हेतु भावी विधि निर्माताओं तथा प्रशासकों को प्रस्तुत की गई अनुशसाएं हैं। हालांकि स्वतंत्रता के पश्चात वित्तीय संसाधनों और राज्य की कार्यान्वयन क्षमता के अभाव के कारण राज्य के नीति-निदेशक तत्वों (DPSP) को गैर-न्यायोचित बनाया गया था।

अनुच्छेद 37 में कहा गया है कि राज्य नीति के निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये – 

  • कल्याणकारी राज्य के आदर्श को बढ़ावा देते हैं ताकि प्रस्तावना में उल्लिखित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांतों को प्राप्त किया जा सके।
  • मौलिक अधिकारों (राजनीतिक अधिकार) के पूरक के रूप में हैं क्योंकि ये इन अधिकारों का लाभ प्राप्त करने के लिए एक अनुकूल परिवेश का निर्माण करते हैं।
  • संविधान में उल्लिखित सामाजिक-आर्थिक न्याय की पूर्ति हेतु कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका के लिए एक प्रकाशस्तम्भ के रूप में कार्य करते हैं।
  • सरकार के किसी भी कार्य का मूल्यांकन करने हेतु नागरिकों के लिए लिटमस परीक्षण के रूप में कार्य करते हैं।

शासन में इनका महत्व निम्नलिखित कानूनों द्वारा स्पष्ट होता है जिन्हे इनमें से कुछ सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए अधिनियमित किया गया था-

  • निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार (अनुच्छेद 39 क)- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987। 
  • ग्राम पंचायतों का गठन (अनुच्छेद 40)- 72वें और 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा विकेंद्रीकरण।
  • कार्य तथा लोक सहायता प्राप्त करने का अधिकार (अनुच्छेद 41)- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, वृद्धावस्था और विकलांगता पेंशन इत्यादि।
  • कार्य की न्यायसंगत एवं मानवोचित दशाएं (अनुच्छेद 42)- मातृत्व लाभ अधिनियम।
  • प्रारंभिक शैशवास्था की देखरेख एवं शिक्षा (अनुच्छेद 45)- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, शिक्षा का अधिकार।
  • पिछड़े वर्गों के हितों की अभिवृद्धि (अनुच्छेद 46)- सकारात्मक कार्रवाई की नीति, अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए राष्ट्रीय आयोग (अनुच्छेद 338 एवं 338 क)।
  • कार्यपालिका का न्यायपालिका से पृथक्करण (अनुच्छेद 50)- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973।

न्यायपालिका ने कुछ मौलिक अधिकारों पर अनुच्छेद 39 (ख) तथा (ग) की प्राथमिकता को मान्यता प्रदान की है। हालांकि DPSP गैर-न्यायोचित होते हैं परन्तु लोकप्रिय मत पर निर्भर रहने वाली सरकार नीति निर्माण के दौरान DPSP की उपेक्षा नहीं कर सकती है तथा वह मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए, जागरूक लोक मत (और न्यायिक कार्यवाही नहीं) ही इन सिद्धांतों को पूर्ण करने की कुंजी है।

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