क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर राजकोषीय असंतुलन पर व्यापक चर्चा

प्रश्न: भारत में केंद्र से राज्यों को राजकोषीय अंतरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस संदर्भ में, सामान्य और विशिष्ट प्रयोजन वाले राजकोषीय अंतरणों के औचित्य की व्याख्या कीजिए। साथ ही, विशिष्ट प्रयोजन वाले अंतरण की अभिकल्पना और कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालिए।

दृष्टिकोण

  • संविधान द्वारा कर शक्तियों और व्यय उत्तरदायित्वों को सौंपे जाने से उत्पन्न होने वाले क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर राजकोषीय असंतुलन पर व्यापक रूप से चर्चा कीजिए।
  • राजकोषीय अंतरों के माध्यम से इन असंतुलनों को दूर करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
  • सामान्य और विशिष्ट प्रयोजन वाले राजकोषीय अंतरणों के पीछे निहित औचित्य पर चर्चा कीजिए।
  • विशिष्ट प्रयोजने वाले अंतरणों की रूपरेखा और कार्यान्वयन संबंधी मुद्दों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष में कुछ उपाय सुझाइये।

उत्तर

भारत में, राज्य सरकारों की राजस्व क्षमता और व्यय संबंधी आवश्यकताओं के मध्य असंतुलन है। सबसे व्यापक आधार वाले कर (उदाहरण के लिए आयकर, निगम कर आदि) केंद्र सरकार के नियंत्रण में हैं। वहीं राज्य सरकारों पर अधिकांश आर्थिक और सामाजिक सेवाओं (उदाहरण के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा आदि) का उत्तरदायित्व है, जबकि इन सबको उपलब्ध कराने के लिए राजस्व स्रोतों की कमी है।

इसके अतिरिक्त, कर आधार के आकार में भिन्नताएं, राजस्व बढ़ाने की क्षमता के संदर्भ में राज्यों के बीच व्यापक अंतर पैदा करती हैं। कुछ राज्य (उदाहरण के लिए पहाड़ी राज्य) सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करने की उच्च प्रति इकाई लागत की समस्या का सामना करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, उपलब्ध करवाई जाने वाली सार्वजनिक सेवाओं के मानकों में अंतर देखने को मिलता है। इस प्रकार के राजकोषीय असंतुलनों को दूर करने के लिए, केन्द्र द्वारा राज्यों की ओर होने वाले अंतर-सरकारी अंतरणों की प्रणाली विद्यमान है। ये अन्तरण ‘बिना शर्त सामान्य प्रयोजन वाले’ या विशिष्ट प्रयोजन वाले अन्तरण’ का रूप ग्रहण कर सकते

सामान्य प्रयोजन वाले अंतरण: सामान्य प्रयोजन वाले अंतरणों का औचित्य सभी राज्यों को तुलनात्मक कर दरों पर सार्वजनिक सेवाओं का तुलनात्मक स्तर प्रदान करने में सक्षम बनाना है। चूंकि, यहाँ बल राज्यों को सक्षम बनाने पर है, इसलिए अंतरणों का बिना शर्त होना आवश्यक है।

विशिष्ट प्रयोजन वाले अन्तरण: ये अंतरण सेवाओं का न्यूनतम मानक सुनिश्चित करने पर केंद्रित हैं। इस प्रकार, ये सशर्त प्रकृति के हैं और निर्दिष्ट सेवाओं के संबंध में न्यूनतम मानदंड प्राप्त करने के लिए राज्यों का व्यय स्तर बराबरी पर लाना चाहते हैं।

विशिष्ट प्रयोजन वाले अन्तरण रूपरेखा और कार्यान्वयन के संदर्भ में कई सीमाओं का सामना करते है

  • योजनाओं की बहुलता: कई सारी योजनाओं तथा प्रत्येक योजना के अंतर्गत, वित्तपोषित की जाने वाली व अलग-अलग उद्देश्यों से युक्त अनेक उप-योजनाओं के फलस्वरूप, संसाधनों को एक-साथ बहुत सारे कार्यों में झोंक दिया जाता है। इसका सेवा के स्तर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
  • सेवा स्तर और अन्तरणों के बीच कोई सम्पर्क नहीं: ये वृद्धिशील होने की प्रवृत्ति तो प्रदर्शित करते हैं किंतु सेवा स्तर के परिणामों से संबद्ध नहीं होते। इस प्रकार, अंतरणों की रूपरेखा ऐसी नहीं होती जिससे सेवाओं का न्यूनतम मानक सुनिश्चित करने का मूल उद्देश्य प्राप्त किया जा सके।
  • एकसमान मिलान अनुपात (यूनिफार्म मैचिंग रेशियो): सभी राज्यों में एकसमान मिलान अनुपात के चलते कम आय वाले राज्यों के लिए उन्हें आवंटित अनुदानों का पूरी तरह से उपयोग करना कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, केरल, जो शिक्षा के क्षेत्र में सबसे उन्नत राज्यों में से एक है, बराबर मिलान धनराशि का योगदान( matching contribution) करके अधिक अनुदान प्राप्त कर लेता है, जबकि बिहार, जो शैक्षिक रूप से सबसे पिछड़ा राज्य है, बराबर मिलान धनराशि का योगदान न कर पाने के चलते पर्याप्त अनुदान नहीं प्राप्त कर पाता।
  • स्वीकृत और अनुदानित धनराशि के मध्य विसंगति: स्वीकूत आवंटन और दिए गए वास्तविक अनुदान के बीच काफी अंतर होता है। इससे योजनाएं लागू करने में अनिश्चितता उत्पन्न होती है।
  • अकुशलता और सूक्ष्मप्रबंधन: एक ही योजना के भीतर विभिन्न हस्तक्षेपों (interventions) के अंतर्गत अनुदान प्राप्त करने की आवश्यकता का परिणाम यह होता था कि इसके प्राप्तकर्ता को इस फंड के प्रयोग, सूक्ष्म प्रबंधन, नौकरशाही के प्रसार तथा अकुशलता में लचीलेपन की कमी आदि का सामना करना पड़ता है।

अतः, चौदहवें वित्त आयोग ने अनुशंसा की है कि अन्तरणों की संख्या कम की जानी चाहिए और प्रत्येक योजना के लिए रुपरेखा और कार्यान्वयन तंत्र का निर्धारण संघ और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों तथा इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से मिलकर बनी समिति द्वारा किया जाना चाहिए।

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