अभियोजन से पूर्व स्वीकृति (Prior Sanction To Prosecute)

राजस्थान सरकार द्वारा आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) विधेयक, 2017 प्रस्तुत किया गया। जिसके तहत न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट तथा लोक सेवकों को पूर्व स्वीकृति के बिना जांच से उन्मुक्ति प्रदान की गयी है। पूर्व स्वीकृति की अवधारणा से सम्बंधित विवाद पूर्व स्वीकृति लोक सेवकों को उनके द्वारा किए गए सार्वजनिक कार्य के लिए विधिक उत्पीड़न से संरक्षण प्रदान करने हेतु अनिवार्य है। हालांकि यहाँ विवाद का विषय यह है कि पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता अन्वेषण प्रारंभ करने से पूर्व होनी चाहिए अथवा न्यायालय में मुकदमा दर्ज करने से पूर्व? ।

सरकार का पक्ष

  • पूर्व स्वीकृति ईमानदार अधिकारियों पर किसी के हितों के लिए लगाए गए दुर्भावनापूर्ण आरोपों से संरक्षण प्रदान कर नीतिगत जड़ता (Policy Paralysis) की परिस्थिति से भी सुरक्षा प्रदान करेगी।

उच्चतम न्यायालय का पक्ष: पूर्व स्वीकृति के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विचार परस्पर-विरोधी रहे हैं

  • 2013 के एम.के.अय्यप्पा वाद तथा 2016 के नारायण स्वामी वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि CrPC की धारा | 156(3) के तहत भी पूर्वानुमति के बिना अन्वेषण का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
  •  जबकि कुछ अन्य वादों में उच्चतम न्यायालय ने विपरीत विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि अन्वेषण हेतु पूर्व स्वीकृति निष्पक्ष
    एवं कुशल अन्वेषण में व्यवधान उत्पन्न करती है।

वर्तमान वैधानिक स्थिति

  • वर्तमान में CrPC के तहत न्यायालय में मुकदमा दर्ज करने के लिए पूर्व स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक
    है।
  • भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 19 भी रिश्वत लेने या आपराधिक कदाचार जैसे अपराधों में लोक सेवकों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करने के लिए पूर्व स्वीकृति को आवश्यक बनाती है।

अन्य समान कानून

  • इससे पूर्व, महाराष्ट्र के द्वारा निर्मित विधान के तहत भी अन्वेषण के लिए पूर्व स्वीकृति संबंधी प्रावधान शामिल किए गए हैं। हालांकि इस मामले में स्वीकृति को 3 माह के भीतर दिया जाना चाहिए तथा यह दोषी लोक सेवकों के नामों को भी प्रकाशित करने से प्रतिबंधित नहीं करता है।

भारत में सिविल सेवकों को प्रदत्त संरक्षण

  • संवैधानिक संरक्षण
  • अनुच्छेद 310 प्रावधान करता है कि संघ की सिविल सेवाओं तथा अखिल भारतीय सेवाओं के सभी सदस्य कोई सिविल
    पद राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त धारण करते हैं। इसी प्रकार राज्य लोक सेवाओं के सभी सदस्य उस राज्य के राज्यपाल के
    प्रसादपर्यन्त पद धारण करते हैं।
  • अनुच्छेद 311- यह लोक सेवकों को पदच्युत करने, पद से हटाए जाने या रैंक में अवनत करने की स्थिति से संरक्षण प्रदान करता है।
  • भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम: भारतीय दंड संहिता (IPC) अधिनियम की धारा 19 सरकार द्वारा पूर्व स्वीकृति लेने की स्थिति को छोड़कर, सामान्यतः न्यायालय को एक लोक सेवक द्वारा किए गए किसी अपराध को संज्ञान में लेने से प्रतिबंधित करती है।
  •  यह सीमा न्यायालय द्वारा विचारण (ट्रायल) के प्रयोजन हेतु मामले को संज्ञान में लेने के विरुद्ध है।

भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक, 2016

  • आधिकारिक कृत्यों का निर्वहन करते हुए लोक सेवकों द्वारा लिए गए निर्णयों या अनुशंसाओं पर भ्रष्टाचार के संबंध में
    शिकायतों का अन्वेषण लोकपाल या लोकायुक्तों की पूर्व स्वीकृति के बिना (मामले के अनुसार) नहीं किया जाएगा।
  •  पूर्व स्वीकृति को सेवानिवृत्त अधिकारियों तक विस्तारित किया जाएगा।

अनुच्छेद-311 पर ‘होता समिति’

  • संविधान के अनुच्छेद 311 को संशोधित करने की अनुशंसा की।
  • एक भ्रष्ट अधिकारी को सेवा से तत्काल हटाने का प्रावधान करना;
  • सामान्य जनता के मध्य यह विश्वास उत्पन्न किया जाना चाहिए कि लोक सेवा के सदस्यों/लोक सेवा का पद धारण करने वाले
    व्यक्तियों के भ्रष्ट आचरण को सहन नहीं किया जाएगा;
  •  इस प्रकार अपदस्थ किये गए अधिकारी के लिए भी सुनवाई के माध्यम से न्याय सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

आगे की राह

  • दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम की धारा 6 A का सत्यापन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि पूर्व स्वीकृति का प्रावधान भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के उद्देश्य को नष्ट करने के साथ-साथ स्वतंत्र अन्वेषण प्रक्रिया को भी बाधित करता है।  इसके अतिरिक्त यह, भ्रष्ट अधिकारियों को सचेत करता है तथा अनुच्छेद 14 के मूल भाव का उल्लंघन करता है। अतः उपर्युक्त निर्णय को अन्वेषण के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यकताओं की संवैधानिकता का निर्धारण करने के लिए कसौटी माना जाना चाहिए।
  •  इसके अतिरिक्त सार्वजनिक कार्यालयों के उच्च विभागों में भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए लोकपाल अधिनियम को कार्यान्वित
    करने की आवश्यकता है।

Second ARC ने अपनी चौथी रिपोर्ट ‘शासन में नैतिकता’

द्वितीय प्रशासनिक आयोग (2nd ARC) ने अपनी चौथी रिपोर्ट ‘शासन में नैतिकता’ (Probity in Governance) में उल्लिखित
किया है कि

  •  संविधान के तहत एक सिविल सेवक के अधिकार लोक हित की समग्र आवश्यकता तथा राज्य के संविदात्मक अधिकार के अधीन होने चाहिए।
  •  अंततः लोक सेवक राज्य का एक एजेंट है तथा वह सर्वोच्च नहीं हो सकता है। उसका मौलिक कर्तव्य है कि वह समग्रता, निष्ठा,
    ईमानदारी, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व के साथ राज्य की सेवा करें।
  •  अतः इसने संविधान के अनुच्छेद 310 तथा अनुच्छेद 311 को निरस्त करने की अनुशंसा की है।
  •  इसने भर्ती एवं सेवा और यहाँ तक कि बर्खास्तगी, निष्कासन अथवा रैंक में कटौती के संबंध में सभी पहलुओं को सम्मिलित
    करने के लिए अनुच्छेद 309 के तहत उपयुक्त और व्यापक कानून के निर्माण मांग की है।

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