लोकतंत्र में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की अवधारणा

प्रश्न: लोकतंत्र में ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की अवधारणा के महत्व को स्पष्ट कीजिए। भारत द्वारा इस सिद्धांत का कठोर अर्थों में अनुपालन न किए जाने के क्या कारण हो सकते हैं?

दृष्टिकोण:

  • शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत की अवधारणा को संक्षेप में समझाइए।
  • चर्चा कीजिए कि भारत द्वारा इस सिद्धांत का कठोर अर्थों में अनुपालन न किए जाने के क्या कारण हो सकते हैं।
  • शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विचार अरस्तू द्वारा व्यक्त किया गया था, किन्तु लॉक और मॉण्टेस्क्यू के लेखन ने इसे एक आधार प्रदान किया। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के मध्य अंतर करने का आधुनिक प्रयास इसी विचार पर आधारित है।

इस सिद्धांत के अनुसार राज्य के तीन अंगों अर्थात् कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मध्य शक्तियों का स्पष्ट विभाजन होना चाहिए, जो इस प्रकार है:

  • एक ही व्यक्ति को सरकार के तीन अंगों में से एक से अधिक का भाग नहीं होना चाहिए। उदाहरण के लिए, मंत्रियों को संसद का भाग नहीं होना चाहिए।
  • सरकार के एक अंग को सरकार के किसी अन्य अंग के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए।
  • सरकार के एक अंग द्वारा किसी अन्य अंग को सौंपे गए कार्यों का संचालन नहीं किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ- मंत्रियों को किसी भी प्रकार की विधायी शक्तियां प्रदान नहीं की जानी चाहिए।

लोकतंत्र में इसका महत्व:

  • यह सुनिश्चित करता है कि शक्ति किसी एक व्यक्ति के नियंत्रण या लोगों के समूह में केंद्रित नहीं होनी चाहिए।
  • यह अधिकारियों की इच्छाशक्ति और विचारों की अपेक्षा विधि के शासन को सुनिश्चित करता है।
  • यह एक स्वतंत्र न्यायपालिका और एक निष्पक्ष सरकार तथा लोगों के लिए युक्तिसंगत न्याय सुनिश्चित करता है।
  • यह व्यवस्था में जाँच और संतुलन सुनिश्चित करता है।

भारत में, शक्ति पृथक्करण भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओं में से एक है। अनुच्छेद 50 न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का दायित्व राज्य पर आरोपित करता है। हालाँकि, कार्यात्मक और कार्मिक संबंधी अधिव्यापन किया जा सकता है, जैसे:

  • कार्यपालिका, विधायिका का भाग है और यह निम्न सदन के प्रति उत्तरदायी होती है।
  • न्यायपालिका किसी विधान या कार्यपालिका कार्रवाई को शून्य या असंवैधानिक घोषित कर सकती है। 
  • न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका द्वारा भूमिका निभाई जाती है।
  • विधायिका न्यायिक कार्य भी कर सकती है, उदाहरण के लिए यदि राष्ट्रपति पर महाभियोग की कार्यवाही की जानी है तो संसद के दोनों सदनों द्वारा सक्रिय सहभागी भूमिका निभाई जाती है।

यह दर्शाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की भांति शक्ति पृथक्करण की एक कठोर प्रक्रिया को अपनाने की अपेक्षा भारत ने पर्याप्त जाँच और संतुलन के साथ शक्ति पृथक्करण की एक अद्वितीय व्यवस्था को अपनाया है। इसमें निहित कारण निम्नलिखित हैं:

  • भारतीय संविधान केंद्र में स्थिरता लाने के बजाय उत्तरदायित्व निर्धारण (pro-responsibility) का प्रयास करता है। एक गैर-संसदीय कार्यपालिका विधायिका के प्रति कम उत्तरदायी होती है। इस प्रकार, वर्तमान व्यवस्था एक अधिक उत्तरदायी सरकार को सुनिश्चित करती है।
  • संविधान में सरकार के विभिन्न अंगों के कार्यों को सावधानीपूर्वक विभेदित किया गया है और कोई भी अंग दूसरे की शक्ति का दुरुपयोग नहीं कर सकता है।

वास्तविक अर्थ में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत अत्यंत कठोर है और इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियों पर पर्याप्त मात्रा में जांच और संतुलन सुनिश्चित कर इसे अधिक नम्य बनाया है।

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