आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System)

सरकार द्वारा आपराधिक न्याय प्रणाली (CJS) में सुधारों से संबंधित मलिमथ समिति की रिपोर्ट पर पुनर्विचार की आवश्यकता पर विचार किया जा रहा है।

इस समिति से संबंधित तथ्य

  • वर्ष 2000 में सरकार द्वारा मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार संबंधी सुझाव देने के लिए केरल और कर्नाटक के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी.एस. मलिमथ की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया।
  • यह प्रथम अवसर था जब सरकार द्वारा देश में मौजूद समग्र आपराधिक न्याय प्रणाली की संपूर्ण और व्यापक समीक्षा हेतु ऐसी समिति का गठन किया गया।
  • समिति ने वर्ष 2003 में अपनी 158 अनुशंसाएं प्रस्तुत कीं।
  • हालांकि, इसकी अनुशंसाओं पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी।

आपराधिक न्याय प्रणाली (CJS)

  • आपराधिक न्याय प्रणाली से आशय सरकार की उन संस्थाओं से है जो कानून का प्रवर्तन करने, आपराधिक मामलों पर निर्णय देने
    और आपराधिक आचरण में सुधार करने हेतु कार्यरत हैं।
  • इसके तीन घटक पुलिस, न्यायालय और कारागार हैं। ये एक एकीकृत लक्ष्य की प्राप्ति हेतु परस्पर सम्बद्ध, परस्पर निर्भर और
    प्रयासरत हैं।
  • भारतीय आपराधिक विधि के अंतर्गत भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के कुछ भागों सहित भारतीय दंड संहिता (IPC) 1860 एवं दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) 1973 सम्मिलित हैं। इसके साथ ही बड़ी संख्या में मौजूद विशेष और स्थानीय कानून, विभिन्न
    अन्य असामाजिक गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं।

CJS की समीक्षा की आवश्यकता

  • IPC और CrPC को अपनाये जाने के बाद से देश में अपराधों की प्रकृति और स्थितियों में अनेक परिवर्तन हुए हैं।
  • देश में होने वाले तथा दर्ज किए गए अपराधों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिनका भार स्पष्ट रूप से पुलिस पर है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार प्रति वर्ष की गयी लगभग 60 प्रतिशत गिरफ्तारियाँ अनावश्यक और अनुचित होती हैं, जिसका मुख्य कारण जमानती न्याय एवं कारावास संबंधी न्याय प्रणाली है।
  • वर्तमान न्यायिक प्रणाली आपराधिक मामलों के लंबित होने एवं दोषसिद्धि की दर अत्यधिक कम होने जैसी समस्याओं का सामना कर रही है। इससे न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता में कमी आती है।
  • आपराधिक न्याय प्रणाली के व्यापक उद्देश्यों को कहीं भी संहिताबद्ध नहीं किया गया है। हालांकि इन्हें संविधान और न्यायिक निर्णयों सहित विभिन्न विधियों के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है।
  • इस प्रकार इन सभी तत्वों के कारण न्यायिक प्रणाली की क्षमता में कमी हुई है। यह न केवल इस प्रणाली के औचित्य के लिए गंभीर चुनौती है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
  • अन्य मुद्दों में, जांच और अभियोजन के मध्य समन्वय की कमी, गवाह की अपर्याप्त सुरक्षा, पीड़ितों के अधिकारों के प्रति असंवेदनशीलता आदि शामिल हैं।

रिपोर्ट की कुछ महत्वपूर्ण अनुसंशाएं

  • जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों से इन्क्विज़िटोरीअल सिस्टम को ग्रहण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, यदि आवश्यक हो तो न्यायालयों को किसी भी व्यक्ति को समन करने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए, चाहे वह जाँच हेतु साक्षी के तौर पर सूचीबद्ध हो या न हो।
  • चुप रहने का अधिकार (राइट टू साइलेंस)- संविधान के अनुच्छेद 20(3) में सुधार किया जा सकता है। अनुच्छेद 20(3), स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए विवश करने से अभियुक्त की रक्षा करता है। इस सन्दर्भ में न्यायालय को अभियुक्त से जानकारी प्राप्त करने और यदि वह उत्तर देने से मना करे तो उसके विरुद्ध प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने की स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
  • अभियुक्त के अधिकार- संहिता की एक सूची सभी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रस्तुत की जानी चाहिए ताकि अभियुक्त अपने अधिकारों के साथ-साथ यह भी जान सकें कि उनका कैसे प्रयोग किया जाये और उन अधिकारों के हनन की स्थिति में किससे संपर्क किया जाए।

अपराध पीड़ित को न्याय –

  • गंभीर अपराधों से संबंधित मामलों में पीड़ित को कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति और पर्याप्त क्षतिपूर्ति प्रदान की जानी चाहिए।
  • गंभीर अपराधों के मामलों में पीड़ित की मृत्यु हो जाने पर कानूनी प्रतिनिधि को स्वयं को एक पक्षकार के रूप में प्रस्तुत करने
    का अधिकार हो।
  • राज्य को पीड़ित का पक्ष रखने के लिए उसकी रूचि के अनुरूप अधिवक्ता उपलब्ध करवाना चाहिए। साथ ही यदि पीड़ित
    उसका शुल्क देने में सक्षम नहीं है तो उसे राज्य द्वारा वहन किया जाना चाहिए।
  • सभी गंभीर अपराधों में पीड़ित को क्षतिपूर्ति राज्य का दायित्व है, चाहे अपराधी को गिरफ्तार किया गया हो या नहीं या चाहे
    आरोपी दोषी हो या निर्दोष।
  • पीड़ित क्षतिपूर्ति कानून के अंतर्गत एक पीड़ित क्षतिपूर्ति कोष बनाया जा सकता है और संगठित अपराधों में जब्त संपत्ति को | कोष का एक भाग बनाया जा सकता है।

पुलिस जांच-

जांच की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग और राज्य सुरक्षा आयोग का गठन किया जा सकता है। संगठित अपराधों से निपटने हेतु विशेषीकृत दस्तों का गठन और आपराधिक आंकड़ों का अनुरक्षण करने के लिए प्रत्येक जिले में एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक को नियुक्त किया जाना चाहिए।

न्यायालय और न्यायाधीश-

यह भारतीय न्यायिक प्रणाली में और अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता को निर्दिष्ट करती है।

  • साथ ही, उच्चतर न्यायालयों में पृथक आपराधिक विभाग होना चाहिए जो ऐसे न्यायाधीशों से गठित हो जो आपराधिक
    कानूनों के विशेषज्ञ हों।
  • राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाना चाहिए और न्यायाधीशों के महाभियोग की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए
    अनुच्छेद 124 में संशोधन किया जाना चाहिए।
  • गवाह की सुरक्षा समिति ने एक सुदृढ़ गवाह सुरक्षा तंत्र के प्रावधान पर बल दिया है। इसने कहा है कि यदि क़ानूनी पूछताछ के
    दौरान गवाह को परेशान किया जाता है तो न्यायाधीश द्वारा आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए।
  • महिलाओं के विरुद्ध अपराध- महिलाओं के विरुद्ध अपराध के संदर्भ में इसने विभिन्न परिवर्तनों की अनुशंसा की है। उदाहरण के लिए- यह अनुच्छेद 498A (दहेज उत्पीड़न) को जमानती और प्रशमनीय (compoundable) अपराध बनाने का समर्थन करती है।
  • संगठित अपराध और आतंकवाद- यद्यपि कानून एवं व्यवस्था एक राज्य सूची का विषय है, तथापि संगठित अपराध, संघीय अपराध और आतंकवाद से निपटने हेतु एक केंद्रीय कानून लागू किया जाना चाहिए।
  • आवधिक समीक्षा- आपराधिक न्याय प्रणाली की कार्यपद्धति की समय-समय पर समीक्षा हेतु प्रेजिडेंशल कमीशन (Presidential
    Commission) की नियुक्ति की जानी चाहिए।

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं

  1. न्यायिक सुधार (ऊपर इस टॉपिक को कवर किया गया है)
  2. पुलिस सुधार ( मेन्स 365 के सुरक्षा सम्बन्धी नोट्स में कवर किया जाएगा)
  3. जेल सुधार (जैसी कि नीचे चर्चा की गई है)

भारत में गवाहों का संरक्षण (Witness Protection in India)

हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट ने CBI से गवाहों को प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के बारे में सवाल किया क्योंकि उनमें से अधिकांश अपने बयानों से मुकर गए थे।

भारत में गवाहों की सुरक्षा के लिए प्रावधान

भारत में गवाहों की सुरक्षा के लिए कोई पृथक कानून नहीं है। इन प्रावधानों का विभिन्न कानूनों में उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त, गवाहों या उनके संबंधियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ये कानून प्रभावी नहीं हैं। इनमें से कुछ क़ानून निम्नलिखित हैं –

  • साक्ष्य अधिनियम की धारा 151 और 152
  • राष्ट्रीय जांच एजेंसी अधिनियम, 2008 की धारा 17

मॉडल उदाहरण:दिल्ली गवाह सुरक्षा योजना (Delhi Witness Protection Scheme)

  • दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (DSLSA) द्वारा जोखिमों के आकलन के बाद प्रत्येक मामले में सुरक्षा संबंधी आदेश दिए जाते हैं।
  • गवाह सुरक्षा संबंधी आदेश के समग्र कार्यान्वयन के लिए पुलिस आयुक्त उत्तरदायी होते हैं।
  • सुरक्षा उपायों में सशस्त्र पुलिस संरक्षण, गवाहों के घर के आसपास नियमित गश्त, क्लोज़्ड-सर्किट टेलीविज़न कैमरे लगाना और गवाहों का स्थानांतरण आदि शामिल हो सकते हैं।

गवाहों की सुरक्षा का महत्व

  • गवाह, न्याय व्यवस्था की आंख और कान होते हैं। जब किसी अपराध से संबंधित गवाह को धमकी दी जाती है, उसकी हत्या की जाती है या उसका उत्पीड़न किया जाता है, तब केवल गवाह को धमकी ही नहीं मिलती अपितु किसी नागरिक के स्वतंत्र एवं उचित ट्रायल के मौलिक अधिकार का भी हनन होता है।
  • न्याय प्रशासन का मुख्य स्तंभ न्यायालय में बिना किसी पक्षपात या भय के तथा बिना किसी धमकी या प्रलोभन के अपनी गवाही देने वाले गवाहों के अस्तित्व पर निर्भर होता है। यदि गवाह अपनी गवाही किसी भय या धमकी अथवा पक्षपात या प्रलोभन के वशीभूत होकर देता है, तो इससे न केवल न्याय प्रशासन की नींव कमज़ोर होती है बल्कि इसका अस्तित्व भी समाप्त हो सकता है।
  • देश में दोषसिद्धि में होने वाले विलम्ब का यह सबसे बड़ा कारण रहा है। उदाहरणस्वरुप, गंभीर अपराधों से संबंधित पीड़ित और गवाह विशेष रूप से तब संकट की स्थिति में होते हैं जब दोषी व्यक्ति शक्तिशाली, प्रभावशाली या समृद्ध वर्ग से संबंधित हो और पीड़ित या गवाह सामाजिक या आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग से संबंध रखता हो।

गवाह संरक्षण विधेयक 2015 (Witness Protection Bill 2015) –

प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य गवाहों का संरक्षण सुनिश्चित करना

  • गवाह संरक्षण कार्यक्रम का निर्माण करने और उसके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु राष्ट्रीय गवाह संरक्षण परिषद और राज्य गवाह संरक्षण परिषद का गठन करना।
  • कार्यक्रम में प्रवेश दिए जाने के पश्चात गवाह (जिसे यहाँ “संरक्षित” कहा गया है) से पूछताछ करने एवं उसे संरक्षण प्रदान करने के संबंध में ट्रायल कोर्ट हेतु एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए “गवाह संरक्षण प्रकोष्ठ का गठन करना।
  • गवाहों की पहचान सुरक्षित रखने के लिए रक्षोपाय उपलब्ध कराना।
  • यह सुनिश्चित करना कि मूल न्यायिक क्षेत्राधिकार से स्थानांतरित वादों (Cases) के गवाह स्वतंत्र रूप से अपनी गवाही दे सकें।
  • कोई व्यक्ति जिसने इन प्रावधानों का उल्लंघन किया हो और झूठी गवाही दी हो उसके लिए कठोर दंड का उपबंध करना।

 गवाहों की सुरक्षा से संबंधित चुनौतियां

  • न्यायिक क्षेत्राधिकार में अतिव्यापन (Overlap)- पुलिस और लोक व्यवस्था संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य का
    विषय है, जबकि आपराधिक कानून और आपराधिक प्रक्रिया समवर्ती सूची का विषय हैं। अतः न्यायिक क्षेत्राधिकार में अतिव्यापन के कारण गवाहों के लिए एक सुदृढ़ संरक्षण नीति की समस्या विद्यमान है।
  • स्वतंत्रता और जवाबदेहिता के अभाव जैसे पुलिस विभाग से संबंधित कई मुद्दों ने गवाहों को सुरक्षा प्रदान करने की उनकी क्षमता को प्रभावित किया है। पुलिस बल की संख्या काफी कम है। एक लाख आबादी में मात्र 136 पुलिसकर्मी ही हैं। विकसित देशों के मानकों की तुलना में यह अनुपात काफी कम है।
  • गवाहों की सुरक्षा और अभियुक्तों के अधिकारों में संतुलन स्थापित करना – कई मामलों में गवाहों की गुमनामी उनकी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन अपराध प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) की धारा 327 ने खुली सुनवाई के महत्त्व को भी निर्धारित किया है। खुली सुनवाई के तहत आरोपी के लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उसके खिलाफ कौन गवाही दे रहा है। यह प्रक्रिया मुख्यतः उन्हें इस तरह की गवाही के खिलाफ खुद को सुरक्षित करने के लिए होती है।
  • प्रशासन में भ्रष्टाचार- दूसरी बड़ी समस्या यह है कि प्रशासन और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं। गवाह संरक्षण कार्यक्रम अप्रभावी पर्यवेक्षण के कारण सुचारु ढंग से कार्यान्वित नहीं किया जा सकेगा।
  • व्हिसलब्लोवर के संरक्षण से संबंधित मुद्दा: ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब न्यायालय की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही गवाह की पहचान सार्वजानिक रूप से प्रकट हो गयी जिससे उनके जीवन का संकट उत्पन्न हो गया। यह इस तथ्य से देखा जा सकता है कि विगत तीन वर्षों (2015-2017) में भारत में 15 से अधिक व्हिसलब्लोवर की हत्या कर दी गई है।
  • वित्तपोषण: गवाह संरक्षण कार्यक्रम में अत्यधिक व्यय होने की संभावना है जिसका भुगतान राज्यों द्वारा किया जाएगा। वित्तीय अभाव गवाहों की संरक्षण में विलम्ब का कारण बन सकता है, विशेष रूप से उस समय जब CCTV एवं अन्य अवसंरचनाओं की
    स्थापना की आवश्यकता हो।

भारत में विभिन्न आयोगों के दृष्टिकोण

इस मुद्दे को विगत काल में विभिन्न समितियों और आयोगों द्वारा संबोधित किया गया है। उदाहरण के लिए

  • विधि आयोग ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों में गवाहों के संरक्षण के लिए कई सिफारिशें की हैं, जैसे कि गवाहों की पहचान को सुरक्षित | रखना बनाम अभियुक्त के अधिकार।
  • न्यायमूर्ति मलिमथ समिति ने संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों के कानूनों की तर्ज पर गवाह संरक्षण कानून बनाने की
    सिफारिश की है।
  • सरकार द्वारा गवाह संरक्षण विधेयक 2015 भी प्रस्तुत किया गया, हालांकि इसे अभी तक पारित नहीं किया जा सका है।

निष्कर्ष

गवाह संरक्षण कानून के विकास का प्रथम चरण यह होगा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि गवाहों की सुरक्षा राज्य का कर्तव्य है। धमकी के कारण गवाहों के अपने बयानों से मुकरने की समस्या से निपटने के लिए भारत द्वारा निम्नलिखित कदम उठाए जाने की आवश्यकता है:

  • गवाहों को ट्रायल के पहले, उसके दौरान और उसके बाद सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। देश भर में गवाहों के संरक्षण हेतु दिल्ली
    मॉडल के समान एक मॉडल विकसित किया जाना चाहिए।
  • भारत को गवाहों के संरक्षण हेतु प्रभावी विधान बनाने की आवश्यकता है, जिसमें पुलिस, सरकार तथा न्यायपालिका को सम्मिलित किया जाना चाहिए सरकार द्वारा आवश्यक अधिनियमों को लागू किया जाना चाहिए, कानूनी पहलुओं की पड़ताल न्यायपालिका द्वारा की जानी चाहिए और पुलिस द्वारा इसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।

कारागारों में क्षमता से अधिक कैदी  (Overcrowding of Prisons)

उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) से  कारागारों में कैदियों की अधिसंख्या के संबंध में विवरण और आंकड़े उपलब्ध कराने के लिए कहा है।

अन्य संबंधित तथ्य

  • उच्चतम न्यायालय देशभर की जेलों में अमानवीय परिस्थितियों से संबंधित मामलों की सुनवाई कर रहा है।
  • उच्चतम न्यायालय, विचाराधीन कैदियों की समीक्षा समितियों के मानक परिचालन प्रक्रिया से संबंधित मुद्दों पर तथा
    खुली जेलों पर राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से प्राप्त प्रतिक्रियाओं पर भी सुनवाई करने के लिए सहमत हुआ है।
  •  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की प्रिज़न स्टेटिस्टिक्स इंडिया 2015 रिपोर्ट के अनुसार, भारत की जेलों में उनकी धारण क्षमता से अधिक के धारण अनुपात के कारण अत्यधिक भीड़ विद्यमान है।
  • जबकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश की 149 जेलों में उनकी  क्षमता से 100 फीसदी से अधिक कैदी हैं और इनमें से आठ जेलों में । उनकी क्षमता से 500 फीसदी से भी अधिक कैदी हैं।

 अत्यधिक भीड़ के कारण

  •  विचाराधीन कैदियों की संख्या – भारत की जेलों में 67% कैदी  विचाराधीन हैं जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों, जैसे- UK में 11%, US में 20% और फ्रांस में 29% से बहुत अधिक हैं।
  • कुल कैदियों में 95.8% (4,00,855) पुरुष और 4.2% (17,681) महिलाएँ हैं।
  • न्यायपालिका में लंबित मामले- देश के विभिन्न न्यायालयों में 3.1 करोड़ मामले (2016) लंबित हैं, अतः किसी भी प्रभावी प्रणालीगत हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में जेलों की अत्यधिक भीड़ यथावत बनी रहेगी।
  • जेलों की अपर्याप्त क्षमता- अधिकांश भारतीय जेलें औपनिवेशिक काल की हैं। इन जेलों में निरंतर सुधार करने की आवश्यकता है।
    और उनमें से कई जेलें दीर्घावधि के लिए आवास योग्य नहीं हैं।
  • कानूनी प्रतिनिधियों तक सीमित पहुँच- जेलों में रहने वाले अधिकांश कैदी अपने अधिकारों से अनभिज्ञ हैं और वे क़ानूनी सहायता वहन नहीं कर सकते हैं। जेल परिसर में वकीलों से संवाद की सीमित पहुँच के कारण कैदियों की स्वयं को निर्दोष साबित करने की क्षमता में रूकावट आती है।
  • जमानत लेने में समस्याएं- निर्धन और हाशिए पर स्थित लोगों के लिए जमानत पाना कठिन होता है जिससे उनके पास जेल में रहने और न्यायालय के अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं रहता है।
  • अनावश्यक गिरफ्तारी- 60 प्रतिशत से अधिक गिरफ्तारियाँ अनावश्यक थीं और इस प्रकार की गिरफ्तारियों का जेल खर्च में
    42.3% का योगदान था।

कारागार से संबंधित अन्य मुद्दे

  • स्वास्थ्य और स्वच्छता की उपेक्षा करना और अपर्याप्त भोजन एवं अपर्याप्त वस्त्र प्रदान करना
  • निर्भया वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) घटना के कारण नए नियमों के पश्चात् अनुसंधान की जटिल प्रक्रिया लागू की गई है।
  • कैदियों की रिहाई के बाद उनकी निगरानी और रचनात्मक रूप से उन्हें संलग्न करने की कोई नीति विद्यमान नहीं है। यह समाज में उनके पुनर्समायोजन में बाधा उत्पन्न करती है।
  • जेल प्रबंधन राज्य सूची का विषय है। अतः विभिन्न राज्यों के बीच जेल नियमावली में अत्यधिक भिन्नताएं हैं।

मुद्दे से संबंधित वर्तमान घटनाक्रम

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में स्वतः संज्ञान लेते हुए सभी उच्च न्यायालयों से उन कैदियों की पहचान करने के लिए याचिका दायर करने का निर्देश दिया, जिनकी मृत्यु 2012 के पश्चात् अप्राकृतिक रूप से हुई और साथ ही यह निर्देश दिया कि उन्हें उचित क्षतिपूर्ति प्रदान की जाए।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को कैदियों के लिए (विशेष रूप से प्रथम बार अपराध करने वालों के लिए) परामर्शदाताओं और सहायकों की नियुक्ति करने हेतु निर्देश दिया है।
  • इसने सभी राज्यों को कैदियों की चिकित्सा सहायता की उपलब्धता का अध्ययन करने और जहां भी आवश्यक हो वहां उपचारात्मक कदम उठाने का निर्देश दिया।
  • इसने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को राज्य सरकारों के संबंधित अधिकारी के साथ चर्चा करने और चाइल्ड केयर संस्थानों में अप्राकृतिक रूप से मरने वाले बच्चों की संख्या (यदि कोई हो) को सूचीबद्ध करने हेतु प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए निर्देश दिया है। इन चाइल्ड केयर संस्थानों में बच्चों को तब हिरासत में रखा जाता है जब वे कानूनी आधार पर किसी विवाद संलिप्त होते हैं अथवा उन्हें देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

विचाराधीन कैदी समीक्षा समितियां (Under Trial Review Committees: UTRCs)

  • इन समितियों में जिला न्यायाधीश, पुलिस अधीक्षक और जिलाधिकारी शामिल होते हैं।
  • ये प्रत्येक जिले में स्थापित की गयी हैं। यह ऐसे विचाराधीन कैदियों और अपराधियों की रिहाई की विवेचना और अनुशंसा करती हैं।
    जो अपनी सजा पूरी कर चुके हैं अथवा जमानत या क्षमा प्राप्ति के कारण रिहा होने के योग्य हैं।

जेलों में अत्यधिक भीड़ का प्रभाव

  • गरिमापूर्ण और बुनियादी जीवन निर्वाह स्थितियों का उल्लंघन UN स्टैण्डर्ड मिनिमम रूल्स फॉर द ट्रीटमेंट ऑफ़ प्रिज़नर्स के विरुद्ध | हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि जेल आवास में “मिनिमम फ्लोर स्पेस’, प्रकाश, ऊष्मा और वायु-संचार” का ध्यान रखना चाहिए।
  • लोगों के मूल अधिकारों और मानवाधिकारों का उल्लंघन- यह उच्चतम न्यायालय की उस ऐतिहासिक व्यवस्था का उल्लंघन है।
    जिसके तहत माना गया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में कैदियों के जीवन और स्वतंत्रता के उनके मूल अधिकार के भाग के रूप में निष्पक्ष और शीघ्र सुनवाई का अधिकार निहित है।
  • निगरानी में कठिनाई- जेलों में 4,19,623 कैदियों की देखभाल करने के लिए 53,009 अधिकारी हैं। अर्थात् आठ कैदियों पर एक अधिकारी उपलब्ध है। इससे अप्रभावी निगरानी की समस्या उत्पन्न होती है।
  • कैदियों के बीच टकराव- अत्यधिक भीड़ के परिणामस्वरूप जेलों के अन्दर अनियंत्रित हिंसा और अन्य आपराधिक गतिविधियां सामने आती हैं।
  • अपराधियों के सुधार पर सीमित ध्यान- जेलों की कार्य प्रणाली भी व्यवस्था-उन्मुख हो जाती है। जिससे वहां सुधारात्मक सुविधाओं और सुधारों पर सीमित ध्यान दिया जाता है।
  • सामाजिक कलंक- कई कैदी अपना पारिवारिक परिवेश, सामुदायिक संबंध और आजीविका खो देते हैं। इसके अतिरिक्त, जेल की अवधि उन्हें व्यक्तिगत रूप से और समुदाय के सदस्य के तौर पर सामाजिक कलंक बना देती है।

जेल नियमावली (2016)

इसका उद्देश्य देश भर में जेलों के प्रशासन और कैदियों के प्रबंधन को प्रशासित करने वाले कानूनों, नियमों और विनियमों में आधारभूत एकरूपता लाना है। नियमावली के प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं

  • निःशुल्क विधिक सहायता तक पहुंच
  • महिला कैदियों के लिए अतिरिक्त प्रावधान
  • मृत्युदंड प्राप्त कैदियों के अधिकार
  • जेलों का आधुनिकीकरण और कंप्यूटरीकरण
  • रिहाई पश्चात् देखभाल सेवाओं पर फोकस
  • महिला कैदियों के बच्चों के लिए प्रावधान
  • संगठनात्मक एकरूपता और जेल के सुधारक कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना
  • जेलों का निरीक्षण आदि

सुधारात्मक उपाय

  • जेल नियमावली 2016 का अनुपालन करने की आवश्यकता है।
  • उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार सरकार द्वारा खुली जेलों का परीक्षण और क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।
  • प्रभावी निगरानी के लिए जेल निरीक्षकों को नियमित रूप से जेलों का दौरा करना चाहिए, कैदियों की शिकायतों को सुनना,
    विद्यमान समस्याओं की पहचान और उनके समाधान हेतु उपाय प्रस्तुत करना चाहिए।
  • UTR समितियों में जेल अधीक्षकों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों को शामिल करके UTRCs में सुधार करना चाहिए। इसके साथ ही UTR समितियों की कार्यप्रणाली में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए इसकी कार्य पद्धति हेतु एक मानक परिचालन प्रक्रिया (SOP) को भी तैयार किया जाना चाहिए।
  • एकरूपता: गैर सरकारी संगठन (NGO) और जेल प्रशासन के साथ केंद्र सरकार को सम्पूर्ण देश में एक समान जेल नियमावली हेतु पर्याप्त कदम उठाने चाहिए।

विधि आयोग की निम्नलिखित अनुशंसाएं हैं। जैसे-

  • विचाराधीन कैदी जो किए गए अपराध के लिए अधिकतम सात वर्ष तक की सजा का एक तिहाई भाग पूरा कर चुके हैं, उन्हें
    जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए। सात वर्ष से अधिक की कैद वाले दंडनीय अपराधों के लिए मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे
    कैदियों को जमानत दी जानी चाहिए यदि वे अपनी सजा का आधा भाग पूरा कर चुके हों।।
  • विचारधीन कैदियों की जमानत पर शीघ्र रिहाई पर बल देने के साथ अपराध प्रक्रिया संहिता के जमानत प्रावधानों में संशोधन
    करना। (268वीं रिपोर्ट 2017)
  • यातना विरोधी कानून के मसौदे के आधार पर व्यापक यातना विरोधी कानून का निर्माण करना चाहिए (273वीं रिपोर्ट द्वारा
    सुझाव)।

कारागार सुधार एवं सुधारात्मक प्रशासन पर राष्ट्रीय नीति प्रारूप, 2007 की अनुशंसाएं

  • रिहाई के पश्चात् देखभाल और पुनर्वास सेवाओं तथा कैदियों को विधिक सहायता प्रदान करने के लिए अधिकारी की नियुक्ति
    का प्रावधान करना चाहिए।
  • इसके अतिरिक्त इसमें एक अनुसंधान और विकास शाखा की स्थापना की तथा कैदियों के पुनर्वास के लिए कार्यरत गैर-सरकारी
    संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करने की परिकल्पना की गई है।
  • अपेक्षाकृत छोटे अपराधों के दोषी अपराधियों के लिए कारावास हेतु समुदाय-आधारित विकल्प।
  • कारागार सुधारों पर अखिल भारतीय समिति (न्यायमूर्ति मुल्ला समिति) ने भारत में जेलों के आधुनिकीकरण के लिए एक राष्ट्रीय
    कारागार आयोग की स्थापना करने का सुझाव दिया था। जेलों में विचारधीन कैदियों की संख्या को कम किया जाना चाहिए और
    उन्हें दोषी कैदियों से अलग रखा जाना चाहिए।

अन्य उपाय

  • सुधार पर ध्यान केंद्रित करना – ‘सुधार’ रणनीति का मुख्य उद्देश्य अपराधियों के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन प्रेरित करना होना चाहिए। इस उद्देश्य से उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने, जेल से मुक्ति के पश्चात् उन्हें अर्थपूर्ण ढंग से नियोजित करने, सामान्य अपराधियों के लिए खुली जेल प्रणाली आदि के प्रयास किये जाने चाहिए।
  • बेहतर निगरानी हेतु जेल पर्यवेक्षक को नियमित रूप से जेलों का दौरा करना चाहिए तथा कैदियों की शिकायतों को सुनना, संबंधित मुद्दों की पहचान करना, और समाधान की तलाश करना चाहिए। निगरानी में सुधार के लिए 2015 में उच्चतम न्यायालय द्वारा देश के सभी जेलों में CCTV कैमरे लगाने का आदेश दिया गया।
  • मनोवैज्ञानिक: कैदियों द्वारा हिरासत के दौरान उनके द्वारा भोगे गए कटु अनुभवों से निपटने के लिए उन्हें परामर्श प्रदान करना
    महत्वपूर्ण है।
  • मामलों का पंजीकरण और रिपोर्टिंग: प्राथमिकी दर्ज करना और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को जेल के अंदर होने
    वाली मौतों के सभी मामलों के 24 घंटों के भीतर रिपोर्ट करना और दोषी जेल अधिकारियों को दंड देना।
  • स्वतंत्र जांच: जेल के अंदर यातना के मामलों की समय पर और प्रभावी जांच एवं पीड़ितों के पुनर्वास तथा मुआवजे के लिए एक स्वतंत्र तंत्र स्थापित करना क्योंकि पुलिस द्वारा की जाने वाली जांच पक्षपातपूर्ण हो सकती है।
  • जमानत संबंधी कानूनों में सुधार करना: जिससे जमानत केवल अमीर और समृद्ध लोगों को ही नहीं बल्कि सभी लोगों को मिल सके। •
  • व्यापक यातना विरोधी कानून – उच्चतम न्यायालय तक ने सरकार को एक व्यापक यातना विरोधी कानून पारित करने पर विचार
    करने के लिए कहा है।

खुली जेल (Open Prisons)

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को खुली जेलों की स्थापना के संबंध में विचार करने हेतु राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के जेल अधिकारियों की एक बैठक आयोजित करने का निर्देश दिया है।

खुली जेल का अर्थ

खुली जेल को न्यूनतम-सुरक्षायुक्त जेल, ओपन कैंप तथा बिना सलाखों वाली जेल के रूप में भी जाना जाता है। इसमें चार प्रकार से खुलापन होता है:

  •  कैदियों के लिए खुलापन, अर्थात कैदी दिन के समय बाहर जा सकते हैं, किन्तु शाम को निर्धारित समय से पूर्व वापस आना अनिवार्य
  • सुरक्षा में खुलापन, अर्थात यहाँ भागने से रोकने हेतु प्रयुक्त सावधानियों, जैसे दीवारें, सलाखें, ताले और सशस्त्र सुरक्षाकर्मी आदि का अभाव रहता है।
  • संगठन में खुलापन अर्थात इसकी कार्यप्रणाली कैदी के आत्म-उत्तरदायित्व, आत्म-अनुशासन और आत्मविश्वास की भावना पर आधारित है।
  • जनता के लिए खुलापन, अर्थात लोग जेल में जा सकते हैं और कैदियों से मिल सकते हैं।

भारत में खुली जेलों की स्थिति

  • भारत में, पहली खुली जेल 1905 में बंबई प्रेसीडेंसी में तथा स्वतंत्रता के बाद उत्तर प्रदेश में स्थापित की गई थी।
  • भारत में जेलें, जेल अधिनियम, 1900 द्वारा प्रशासित होती हैं। ‘जेल’ राज्य सूची का विषय होने के कारण विभिन्न राज्यों द्वारा
    स्वयं के लिए जेल नियमों को भी अधिनियमित किया गया है।
  • वर्तमान में 17 राज्यों में लगभग 69 खुली जेलें क्रियाशील हैं जहाँ 6000 कैदियों को रखा जा सकता है। इनमें राजस्थान में 29 ऐसे जेल हैं जो किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सर्वाधिक हैं। हाल ही में सिर्फ महिलाओं के लिए प्रथम खुली जेल पुणे, महाराष्ट्र में
    स्थापित की गयी

खुली जेलों से संबंधित सिफारिशें

  • अखिल भारतीय जेल सुधार समिति, 1980 ने सरकार से राजस्थान के सांगानेर ओपन कैंप की तर्ज पर प्रत्येक राज्य और UT में
    खुली जेलों को स्थापित तथा विकसित करने की सिफारिश की थी।
  • यूनाइटेड नेशन्स स्टैण्डर्ड मिनिमम रूल्स फॉर द ट्रीटमेंट ऑफ़ प्रिजनर्स (नेल्सन मंडेला नियम) द्वारा रेखांकित किया गया है कि खुली जेलों में सावधानीपूर्वक चयनित कैदियों के पुनर्वास के लिए अनुकूल परिस्थितियां उपलब्ध कराई जाएँ।

खुली जेलों के लिए पात्र कौन हैं?

  • प्रत्येक राज्य का कानून कैदियों को खुली जेल में रखने के संदर्भ में आवश्यक पात्रता मानदंड को परिभाषित करता है, किन्तु इस सन्दर्भ में कैदी को एक अपराधी होना चाहिए न कि विचाराधीन (under trial)।
  • जिन अपराधियों द्वारा अपनी सजा की अवधि के दौरान अच्छे आचरण का प्रदर्शन किया गया है और वे शारीरिक एवं मानसिक रूप से कार्य करने में सक्षम हैं, उन्हें शेष अवधि के लिए खुली जेल में भेजा जा सकता है। हालांकि बलात्कारी, आतंकवादियों और दोबारा अपराध करने वाले अपराधियों को यह व्यवस्था उपलब्ध नहीं हो सकती।

खुली जेलों का प्रभाव

  • अत्यधिक भीड़ को कम करना: दिसंबर 2014 तक जेलों में ऑक्यूपेंसी रेट (अधिभोग दर) लगभग 117.4% रही। अतः खुली जेल
    इस समस्या के निराकरण में सहायक होगी।
  • पुनर्वास संबंधी दृष्टिकोण: खुली जेल कैदियों के लिए उनके अच्छे आचरण का पुरस्कार होता है और यह उन्हें आत्मनिर्भरता का प्रशिक्षण देता है। इससे दंडात्मकता से पुनर्वास की ओर बढ़ने में सहायता प्राप्त होगी।
  • आर्थिक लाभ: ये बांध, सड़क निर्माण आदि जैसे सार्वजनिक कार्यों के लिए विश्वसनीय स्थायी श्रम प्रदान कर सकते हैं। साथ ही साथ इससे कैदियों को आय की भी प्राप्ति होती है।
  • मनोवैज्ञानिक लाभ: इन जेलों में प्रदत्त स्वतंत्रता और खुलापन, दीर्घकालिक कैदियों में कुंठा या निराशा को रोकने और आशा का संचार करने में सहायक होगा। इसके अतिरिक्त यह कैदियों में सकारात्मक आत्मसम्मान की भावना को बढाकर, असुरक्षा की भावना और अपराध बोध को कम करता है। इस प्रकार इससे व्यक्तिगत समस्याओं का बेहतर समायोजन संभव होगा और इसके अन्य
    कैदियों एवं अधिकारियों के प्रति अधिक सहयोगी रवैया अपनाने की प्रवृति विकसित होगी।
  • कौशल प्रशिक्षण: यहाँ कैदियों को कृषि, उद्योग या किसी अन्य व्यावसायिक क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है ताकि वे जेल
    से स्वतंत्र होने पर उपयुक्त रोजगार प्राप्त कर सकें।
  • जेल से स्वतंत्र होने के लिए उपयुक्तता: खुली ज़ेल, अपनी सजा की अवधि समाप्त होने से पूर्व अपराधियों को स्वतंत्र करने की
    उपयुक्तता की जाँच करने में सहायक होंगी।
  • पारंपरिक जेल प्रणाली की तुलना में इसकी निर्माण और परिचालन लागत कम होती है, क्योंकि इनका निर्माण और रख-रखाव
    करना अपेक्षाकृत सरल होता है।

सुझाव

सभी राज्यों में खुली जेलों में अपराधियों के लिए प्रवेश, रियायत और सुविधाएं प्रदान करने के लिए सामान्य नियम तैयार किए जाने चाहिए।

  • अधीक्षक द्वारा खुली जेलों में भेजे जाने वाले कैदियों की सूची तैयार करने में पक्षपात, दबाव और भ्रष्टाचार से संबंधित गतिविधियों
    पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए।
  • कुछ प्रकार के अपराधियों को सीधे खुली जेलों में भेजने के लिए अदालतों को अधिकार प्रदान करना।

यातना निरोधक कानून का प्रस्ताव (Anti Torture Legislation)

पृष्ठभूमि

  • यद्यपि भारत द्वारा यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर पर 1997 में ही हस्ताक्षर कर दिए गये थे, लेकिन अभी तक इसकी पुष्टि
    नहीं की गयी है। भारत विश्व के उन नौ देशों में शामिल है, जिनके द्वारा अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की गयी है।
  • यातना विरोधी कानून को अपनाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रबल समर्थन के बावजूद, यातना निरोधक विधेयक
    2010 के समाप्त हो जाने बाद से सरकार द्वारा इस प्रकार के कानून की उपेक्षा की गयी है।
  • इसके प्रमुख कारण हैं- ऐसे कानूनों के लिए राज्यों के बीच सहमति का अभाव है (क्योंकि पुलिस एवं लोक व्यवस्था राज्य के विषय
    हैं)। दूसरा प्रमुख कारण यह है कि, हिरासत में यातनाओं के मामलों से निपटने के लिए IPC और CrPC में पर्याप्त प्रावधान हैं।
  • हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि, ‘हिरासत के दौरान दी जाने वाली
    यातना, राज्य द्वारा प्रयुक्त “मानवीय गरिमा को अपमानित करने वाला एक उपकरण है।’
  • इसके बाद इस मुद्दे को विधि आयोग को भेजा गया। विधि आयोग ने अपनी 273वीं रिपोर्ट में, यातना निरोधक विधेयक, 2017 की
    सिफारिश की है।

यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर (UNCAT)

यह एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार पहल है। इसका उद्देश्य विश्व भर में यातना और क्रूर, अमानवीय, अपमानजनक व्यवहार या सजा को समाप्त करना है। यह कन्वेंशन 1987 से लागू है।

मुख्य प्रावधान:

  • किसी ऐसे राज्य में व्यक्ति के निर्वासन/प्रत्यर्पण का निषेध करना, जहाँ उन्हें यातना का सामना करना पड़ सकता है।
  • जिन मामलों में कथित उत्पीड़क को प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकता, उन मामलों की सुनवाई के लिए सार्वभौम न्यायाधिकार (Universal Jurisdiction) की स्थापना की जानी चाहिए।
  • यातना के लिए आपराधिक दायित्व: सभी देशों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि सभी प्रकार की यातनाएं उनके आपराधिक कानून के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में सूचीबद्ध हों।
  • विधि प्रवर्तन, नागरिक व सैन्य तथा सार्वजनिक पदाधिकारियों आदि को यातना की रोकथाम के सम्बन्ध में शिक्षा और सूचनाएं प्रदान करना।
  • यातना से पीड़ितों या आरोपों की त्वरित जांच के लिए प्रक्रियाएं होनी चाहिए। न्यायालयों को उन साक्ष्यों के उपयोग को प्रतिबंधित
    करना चाहिए जिनको यातना के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है।
  • पीड़ितों और गवाहों के लिए संरक्षण, मुआवजा और पुनर्वास तथा प्रभावी उपचार प्रणाली प्रदान करना।

यातना निरोधक कानून की आवश्यकता

  • मानवाधिकारों के उल्लंघन, अल्पसंख्यक अधिकारों, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में AFSPA के उपयोग, निर्दोषों को यातना देने के लिए पुलिस द्वारा आतंक-रोधी कानूनों के दुरुपयोग तथा व्यवसाय से संबंधी मानवाधिकारों के संदर्भ में, इस प्रकार का कानून महत्वपूर्ण है।
  • इसके अतिरिक्त, IPC हिरासत के दौरान दी जाने वाली यातनाओं के विभिन्न पहलुओं को विशेष और व्यापक रूप से संबोधित नहीं करता है। साथ ही IPC हिरासत के दौरान हुई हिंसा की बढ़ती घटनाओं से निपटने के लिए अपर्याप्त है।
  • NHRC ने स्पष्ट किया है कि, हालांकि पुलिस को हिरासत के दौरान हुई मौत की रिपोर्ट करना अनिवार्य है लेकिन मौजूदा प्रावधानों के तहत हिरासत के दौरान हुई हिंसा की रिपोर्ट करना आवश्यक नहीं होता है।
  • यातना निरोधक कानून के अभाव में प्रत्यर्पण सुनिश्चित करने में कठिनाई होती है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भय है कि आरोपी व्यक्तियों को भारत में यातना का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए डेनमार्क ने भारत में “यातना या अन्य अमानवीय व्यवहार” के जोखिम के कारण पुरुलिया शस्त्र मामले में किम डेवी के प्रत्यर्पण से मना कर दिया था।
  • यह कानून भारत की जीवंत लोकतांत्रिक परंपरा तथा अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा के मौलिक अधिकार) को मजबूत करने में
    सहायता प्रदान करेगा।

यातना निरोधक विधेयक, 2017

  • यातना की विस्तृत परिभाषा शारीरिक चोट तक ही सीमित नहीं है अपितु इसके अंतर्गत जानबूझकर या अनजाने में किसी भी शारीरिक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक चोट पहुँचाने का प्रयास करना भी सम्मिलित है।
  • राज्य के एजेंट के लिए संप्रभु प्रतिरक्षण नहीं- राज्य को अपने एजेंटों के द्वारा लोगों को चोट पहुँचाए जाने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी क्योंकि संप्रभु प्रतिरक्षण का सिद्धांत (principle of sovereign immunity) संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रत्यादिष्ट (override) नहीं कर सकता।
  • यातना देने वाले सरकारी अधिकारियों के लिए यातना हेतु सजा का प्रावधान।

विधि आयोग की अन्य महत्वपूर्ण अनुशंसाएँ

  • अपराध का अनुमान: IPC में एक नई धारा 114B को शामिल किया जाना चाहिए, जिसके तहत यदि कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत
    में घायल अवस्था में पाया जाता है, तो यह माना जाएगा कि उसे पुलिस द्वारा चोट पहुंचाई गयी है। किसी मुकदमे में विचाराधीन कैदी को लगी चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण का दायित्व पुलिस पर होना चाहिए।
  • मुआवजा और पुनर्वास: IPC की धारा 357B में संशोधन करके, पीड़ितों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, चिकित्सीय उपचार और पुनर्वास व्यय को ध्यान में रखते हुए “न्यायसंगत मुआवजा” प्रदान किया जाना चाहिए। मुआवजे और साक्ष्यों के दायित्व सम्बन्धी प्रावधानों को समायोजित करने के लिए CrPC और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का भी संशोधन किया जाना चाहिए।
  • पीड़ितों, शिकायतकर्ताओं और गवाहों को संरक्षण: यातना के पीड़ितों, शिकायतकर्ताओं और गवाहों को संभावित खतरों, हिंसा या
    अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करने के लिए प्रभावी तंत्र को लागू किया जाना चाहिए।

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