सरकारी मुकदमों की अधिकता (Excessive Government Litigations)
सरकारी मुकदमों से निपटने में आने वाली चुनौतियां:
- सरकारी मुकदमें असमानता पर आधारित होते हैं क्योंकि इनमें मुकदमा सीमित संसाधनों से युक्त एक व्यक्ति या इकाई और असीमित संसाधनों से युक्त एक विशाल सरकारी मशीनरी के मध्य होता है।
- पर्याप्त एवं विश्वसनीय आँकड़ों का अभाव: 126वें भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट के पश्चात्, मुकदमों की लागत या मुकदमों से सम्बंधित व्यापक आंकड़ों (मुकदमों की संख्या, श्रेणियों तथा सरकारी विभागीय पक्ष के विषय में) का वास्तविक आकलन प्राप्त नहीं हुआ है।
- नौकरशाही की जोखिम न लेने की प्रवृत्ति: केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के भय के कारण ये जोखिमपूर्ण निर्णय लेने का भार न्यायपालिका पर डाल देती है।
झूठे मुकदमों के प्रभाव
- निवेशकों के आत्मविश्वास को क्षति: आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार देश में आर्थिक गतिविधियां उच्च विचाराधीनता (pendency) एवं कानूनी व्यवस्था में विलंब के कारण प्रभावित हो रही हैं। न्यायालयों में आर्थिक मुकदमों (कंपनी के मुकदमों, मध्यस्थता मुकदमों तथा कराधान के मुकदमों) में विलंबता के कारण परियोजनाओं में देरी, कानूनी लागत, विवादास्पद कर राजस्व और निवेश की कमी में वृद्धि हुई है।
- न्यायालयों के भार में वृद्धि होती है और भारी संख्या में दायर मुकदमों के कारण अन्य वादियों (Litigants) को उनके मुकदमों की सुनवाई में विलम्ब होने के कारण क्षति पहुँचती है। परियोजना लागत में वृद्धि: विद्युत, सड़कों एवं रेलवे
- परियोजनाओं में विलंब होने के कारण परियोजना लागत में लगभग 60% की वृद्धि हुई है।
- मुकदमों पर निर्णय लेने में विलंब सरकार की प्रशासनिक प्रक्रियाओं को मंद कर देता है।
- बहुमूल्य संसाधनों का डायवर्जन: विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत हालिया विवरण के अनुसार, सार्वजानिक क्षेत्र उपक्रमों (PSUs) एवं अन्य स्वायत्त निकायों सहित सरकार देश के विभिन्न न्यायालयों में लंबित 3.14 करोड़ अदालती मामलों के “46%” मुकदमों में पक्षकार है। यह स्थिति सरकार को देश के सबसे बड़े वादी के रूप में स्थापित करता है। इन वादों के संचालन में करदाताओं द्वारा दिए गए कर के एक बड़े भाग का उपयोग किया जाता है।
- ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस को प्रभावित करता है: विश्व बैंक द्वारा जारी ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट में भारत को सरकारी एजेंसियों (नियामकों) के व्यवहार के कारण भारी क्षति उठानी पड़ती है। ये आदेश जारी कर (यहां तक कि समाप्त हो चुके विवादों में भी) मुकदमेबाजी को बढ़ावा देते हैं। भारत की समग्र रैंकिंग में सुधार के बावजूद, इसे अनुबंधों को लागू करने के संदर्भ में अत्यधिक निम्न रैंकिंग प्राप्त हुई है।
राष्ट्रीय मुकदमा नीति, 2010 की प्रमुख विशेषताएं
- बाध्यकारी वादी के रूप में सरकार की भूमिका में कमी करना आवश्यक है।
- न्यायालय को निर्णय करने दें” के सहज दृष्टिकोण की निश्चित तौर पर आलोचना की जानी चाहिए और उसका त्याग किया जाना चाहिए।
- न्यायाधिकरण के निर्णयों को दी जाने वाली चुनौती, नियमित प्रवृत्ति के स्थान पर केवल अपवादस्वरूप होनी चाहिए।
- केवल सेवा मामलों के आधार पर कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए क्योंकि प्रशासनिक न्यायाधिकरण का निर्णय अनेक कर्मचारियों को प्रभावित करता है।
- यह मुकदमों में कमी करने हेतु राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर निगरानी तंत्र की स्थापना तथा प्रत्येक विभाग में “सक्रिय रूप से” याचिकाओं की निगरानी करने एवं मुकदमों को ट्रैक करने के लिए “नोडल अधिकारी” की नियुक्ति की भी अनुशंसा करती है।
हालांकि, नीति निम्नलिखित कारणों से सफल नहीं हो पाईः
- अस्पष्टता,
- अलंकारिक तथा कठिन भाषा,
- पर्याप्त आंकड़ों का अभाव,
- किसी भी मापनीय परिणाम अथवा कार्यान्वयन तंत्र की अनुपस्थिति ,
- किसी भी प्रकार के प्रभावी मूल्यांकन का अभाव, इत्यादि।
लंबित मामलों की संख्या में कमी हेतु उठाए गए कदम:
- वर्ष 1989 में, लोक उद्यम विभाग द्वारा “स्थायी मध्यस्थता तंत्र” की स्थापना की गई थी। इसके आधार पर, इसने उद्यमों को निर्देश जारी करते हुए कहा की सभी वाणिज्यिक विवाद (आयकर, सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क पर विवादों, जिनमें आगे चलकर रेलवे संबंधी विवाद भी शामिल हो गए, को छोड़कर) मध्यस्थता द्वारा सुलझाए जाएंगे और यह विवाद समाधान तंत्र सभी संविदात्मक एवं निविदा समझौतों का एक भाग होगा।
- “औसत लंबित अवधि को 15 वर्ष से कम करके 3 वर्ष करने हेतु नेशनल लीगल मिशन” के एक भाग के रूप में“राष्ट्रीय मुकदमा नीति 2010” को अपनाना। यह सरकार को एक कुशल एवं उत्तरदायी वादी के रूप में परिवर्तित करने में सहायक हो सकता है। सभी राज्यों ने राष्ट्रीय मुकदमा नीति 2010 के अनुरूप राज्य मुकदमा नीतियों को तैयार किया है।
- लीगल इनफॉर्मेशन मैनेजमेंट एंड ब्रीफिंग सिस्टम (LIMBS) नामक एक आंतरिक पोर्टल को 2015 में गठित किया गया था। इसका उद्देश्य उन मुकदमों की निगरानी करना है जिनमें सरकार भी एक पक्षकार है। 11 जून 2018 तक, LIMBS द्वारा एकत्रित आंकडे 2.4 लाख ‘लाइव’ मुकदमों को दर्शाते हैं।
- अप्रैल 2017 में, विधि मंत्री ने न्यायालय से लंबित मुकदमों की संख्या में कमी करने एवं योजना को मिशन मोड पर कार्यान्वित करने हेतु ‘एक्शन प्लान फॉर स्पेशल एरियर्स क्लीयरेंस ड्राइव्स’ को तैयार करने के लिए प्रत्येक मंत्रालय/विभाग के साथ वार्ता आयोजित की।
- सरकार ने सितंबर 2015 में सरकारी विभागों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों तथा अन्य सरकारी निकायों के मध्य मुकदमों को न्यायालय से बाहर निपटाने हेतु राष्ट्रीय मुकदमा नीति का प्रस्ताव रखा था। हालांकि, इस संबंध में अभी तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है।
- हाल ही में, मुकदमों की संख्या को कम करने के लिए सरकार ने यह प्रस्तावित किया है कि कर विवादों के संबंध में विभिन्न फोरम में अपील दायर करने हेतु मौद्रिक सीमा को कम से कम दोगुना कर दिया जाएगा।
आगे की राह
राष्ट्रीय मुकदमा नीति
राष्ट्रीय मुकदमा नीति को संशोधित करने की आवश्यकता है:
- इसे विवाद के सभी तीन चरणों से संबंधित होना चाहिए, जैसे- मुकदमा दायर करने से पूर्व, मुकदमे के दौरान और मुकदमे के पश्चात् का चरण।
- नीति में ऐसे सुस्पष्ट उद्देश्यों को निर्धारित किया जाना चाहिए जिनका आकलन किया जा सके। मुकदमे दर्ज करने के लिए न्यूनतम मानकों को सूचीबद्ध किया जाना चाहिए।
- विभिन्न पदाधिकारियों की भूमिका का आकलन किया जाना चाहिए और निष्पक्ष जवाबदेही तंत्र की स्थापना की जानी चाहिए।
- नीति के उल्लंघन के परिणामों का स्पष्ट रूप से प्रावधान किया जाना चाहिए, साथ ही एक आवधिक प्रभाव मूल्यांकन कार्यक्रम को भी शामिल करना चाहिए।
- प्रत्येक विभाग में संयुक्त सचिव स्तर पर मामलों की स्थिति की नियमित निगरानी करने हेतु एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जानी चाहिए, ताकि विवादों के प्रभावी समाधान को समन्वित किया जा सके।
- सेवा संबंधी सभी मामलों में मध्यस्थता को विवाद निपटान के प्राथमिक विकल्प के रूप में अपनाने हेतु वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। सभी समझौतों में अनिवार्य रूप से मध्यस्थता या वार्ता के संदर्भ को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में दिए गए सुझावों को अपनाया जा सकता है:
- सरकार तथा न्यायपालिका के मध्य एक समन्वयात्मक कार्यवाही – केंद्र एवं राज्य सरकारों के मध्य लंबवत सहकारी संघवाद के पूरक के रूप में, शक्तियों का क्षैतिज सहकारी पृथक्करण “कानून के विलंब” का समाधान करेगा और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देगा।
- उच्च न्यायालयों पर भार कम करने के लिए निचली अदालतों की न्यायिक क्षमता का सुदृढ़ीकरण किया जाना चाहिए। सरकार को न्यायपालिका पर किये जाने वाले सरकारी व्यय में वृद्धि, न्यायालयों के मुकदमा प्रबंधन व उनकी स्वचालन प्रणाली में सुधार तथा साथ ही विषय विशिष्ट बेंचों का गठन करना चाहिए।
- कर विभागों को अपनी अपीलों की संख्या को सीमित करना चाहिए, क्योंकि न्यायपालिका के सभी तीन स्तरों (अपीलीय
न्यायाधिकरणों, उच्च न्यायालयों, और सर्वोच्च न्यायालय) पर उनकी सफलता दर 30% से भी कम है। - न्यायालयों द्वारा स्थगित(stayed) मुकदमों को प्राथमिकता देने पर विचार किया जा सकता है। साथ ही, सरकारी मूलभूत अवसंरचनात्मक परियोजनाओं से सम्बद्ध ऐसे मामलों, जिनमें अस्थायी आदेश के द्वारा निर्णय दिया जाना संभव है, में निश्चित समय सीमा लागू की जा सकती है।
अन्य कदम
- प्रत्येक मुकदमा प्रवण विभाग हेतु विशिष्ट समाधान की पहचान की जानी चाहिए: उदाहरणार्थ प्रत्येक विभाग के अंतर्गत सेवा संबंधी विवादों के निपटान हेतु सुदृढ़ आंतरिक विवाद समाधान तंत्र की स्थापना से कर्मचारियों के मध्य विश्वास में वृद्धि होगी।
- अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरणों को न्यायिक रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए या अर्द्ध-न्यायिक कार्यों के निर्वहन हेतु न्यायिक अधिकारियों की एक अलग वर्ग को नियुक्त किया जाना चाहिए।
- विवादों से निपटने के लिए नौकरशाही को पर्याप्त रूप से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- भारतीय विधि आयोग (LCI) की 100वीं रिपोर्ट की एक मुख्य अनुशंसा के अनुसार प्रत्येक राज्य में सरकारी मुकदमों के प्रबंधन एवं नियंत्रण हेतु ‘लिटिगेशन ओम्बड्समैन’ की स्थापना की जानी चाहिए। इसी प्रकार, LCI की 126वीं रिपोर्ट में सरकारी विभागों के अंतर्गत एक शिकायत निवारण तंत्र के गठन की अनुशंसा की गयी है जो विशेषतः सरकारी नियोक्ताओं तथा उनके कर्मचारियों के मध्य के विवादों का प्रबंधन करेगा।
- चरणबद्ध ऑनलाइन विवाद निपटान प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। इस व्यवस्था को उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय द्वारा ईकॉमर्स से संबंधित विवादों के निपटान हेतु पायलट आधार पर अपनाया गया है। मंत्रालय द्वारा ई-कॉमर्स से संबंधित उपभोक्ता विवादों में मध्यस्थता सेवाओं के लिए ‘एनीटाइम एनीव्हेयर डिस्प्यूट रिजॉल्यूशन’ के उद्देश्य के साथ एक ऑनलाइन उपभोक्ता मध्यस्थता केंद्र (OCMC) की स्थापना की गयी है।
- नियामकों द्वारा दायर सभी लंबित अपीलों का व्यापक रूप से 100% ऑडिट कर यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि उनमें से किन्हें वापस लिया जाए। यह शुरुआत करने का एक बेहतर तरीका होगा।