भारत में लंबित वादों के परिदृश्य : फास्ट ट्रैक कोर्ट को स्थापित करने की कार्यप्रणाली की आलोचनात्मक विवेचना

प्रश्न: न्यायालयों में लंबित वादों को कम करने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट को स्थापित करने की कार्यप्रणाली की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में लंबित वादों के परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए उत्तर आरंभ कीजिए।
  • संक्षिप्त चर्चा कीजिए कि फास्ट ट्रैक कोर्ट लंबित वादों को कम करने में किस प्रकार सहायता कर सकते हैं।
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट्स से संबंधित चिंताओं को संक्षेप में रेखांकित कीजिए।
  • उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर

उच्चतम न्यायालय ने हुसैन आरा खातून बनाम गृह सचिव बिहार (1980) वाद में यह ऐतिहासिक निर्णय दिया है कि त्वरित सुनवाई संविधान के अनुच्छेद 21 (जो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्रत्याभूत करता है) के तहत एक मौलिक अधिकार है। 2019 तक देश के विभिन्न न्यायालयों में लगभग 3.3 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 50,000 उच्चतम न्यायालय में लंबित हैं। इस समस्या से निपटने के लिए, दीर्घ समय से लंबित वादों के निपटान में तेजी लाने के लिए वर्ष 2000 में फास्ट ट्रैक कोर्ट प्रणाली की स्थापना की गई थी।

11वें वित्त आयोग ने भी विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेश पर देश में 1734 फास्ट ट्रैक कोर्ट्स (FTCs) निर्मित करने की अनुशंसा की थी। FTCs को संबंधित उच्च न्यायालयों के परामर्श से राज्य सरकारों द्वारा स्थापित किया जाना था। देश के प्रत्येक जिले में औसतन पाँच FTCs स्थापित किए जाने थे। स्थापित किये गए FTCs के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति तदर्थ आधार पर की गई थी। उनका चयन संबंधित राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा किया गया था। वर्ष 2012 में उच्चतम न्यायालय ने स्थापित FTCs को 2011 के पश्चात् वित्त प्रदान न करने के केंद्र सरकार के निर्णय का समर्थन किया। यह निर्णय दिया गया कि राज्य सरकारों को यह तय करने की स्वतंत्रता है कि वे इस योजना को जारी रखना चाहते हैं या नहीं। हालाँकि, यदि वे इस योजना को जारी रखने का निर्णय लेते हैं तो FTCs को एक स्थायी प्रणाली बनाना होगा। अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, असम जैसे कुछ राज्यों में FTCs की स्थापना की प्रक्रिया जारी है।

फास्ट ट्रैक कोर्ट भारतीय न्यायपालिका द्वारा सामना की जाने वाली विभिन्न समस्याओं से निपटने में सहायता कर सकते हैं। इन समस्याओं में लंबित वादों की विशाल संख्या, जेलों में कैदियों की अत्यधिक संख्या आदि शामिल हैं। बेस्ट बेकरी केस, जेसिका लाल मर्डर केस, 26/11 मुंबई का मामला कुछ उल्लेखनीय फास्ट ट्रैक वाद हैं। हालाँकि, स्थापना के बाद से लगभग 39 लाख मामले FTCs में स्थानांतरित किए गए थे, जिनमें से 6.5 लाख मामले अभी भी उनके पास लंबित हैं। इससे FTCs की कार्यप्रणाली संदेहास्पद हो गई है।

लंबित वादों को निपटाने में जितना FTCs न्यायालयों के बोझ को साझा कर सकते हैं, उतना ही यह स्वीकार करने की भी आवश्यकता है कि वादों के लंबित होने हेतु कई कारण उत्तरदायी हैं जिनसे निपटने के लिए FTCs की स्थापना करने जैसे उपाय के साथ-साथ अन्य उपायों को भी अपनाया जाना चाहिए। ये कारण निम्नलिखित हैं:

  • निचली अदालत के स्तर पर कोर्ट रूम, न्यायाधीशों, अधीनस्थों और सहायक कर्मचारियों का गंभीर अभाव।
  • विभिन्न स्तरों पर रिक्त पद: उच्च न्यायालयों में 41% और अधीनस्थ न्यायालयों में 22% रिक्तियां विद्यमान हैं।
  • प्राय:अदालतों में सुनवाई को अति सरलता से और निरंतर स्थगित कर दिया जाता है। यह वाद की औसत सुनवाई की संख्या में वृद्धि करता है, जिससे विलंब होता है। पेशेवर वाद प्रबंधन प्रणाली मौजूद नहीं है।
  • सरकार सबसे बड़ी वादी है और यह अनिर्णीत वादों की अत्यधिक संख्या हेतु उत्तरदायी है। साथ ही, ट्रैफ़िक चालान जैसे अनेक बेहद छोटे मामले भी हैं जो लंबित वादों के एक बड़े हिस्से का निर्माण करते हैं।

FTCs इन मुद्दों को संबोधित करने हेतु एकमात्र उपाय नहीं हैं। निश्चित रूप से वे न्यायालयों के बोझ को साझा कर सकते हैं, परन्तु उनकी कार्यप्रणाली में भी सुधार किए जाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में, फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की कार्यप्रणाली में बाधक मुद्दे निम्नलिखित हैं:

  • फास्ट ट्रैक न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या: न्यायालयों के साथ-साथ FTCs में न्यायाधीशों की वर्तमान संख्या लंबित वादों को निपटाने के लिए अपर्याप्त है।
  • अवसंरचना का अभाव: ये न्यायालय भिन्न-भिन्न सुविधाओं के साथ पृथक रूप से स्थापित नहीं किये गए थे, बल्कि प्रायः किसी मौजूदा न्यायालय में ही स्थापित किये गए थे। इससे उनकी प्रभावशीलता सीमित हो गई है। कुछ FTCs के पास पीड़ितों की वीडियो और ऑडियो रिकॉर्डिंग करने के लिए आवश्यक उपकरण नहीं हैं।
  • वित्तीय मुद्दे: वर्ष 2011 के बाद से यह राज्यों की इच्छा का विषय है कि वे स्वयं की निधि के साथ FTCs की निरंतरता को बनाए रखते हैं अथवा नहीं। इससे FTCs वित्तीयन हेतु राज्यों पर आश्रित हो गए हैं। कुछ राज्य FTCs की निरंतर सहायता कर रहे हैं, जबकि कुछ इनकी उपेक्षा कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने इन्हें बंद करने का निर्णय लिया है।
  • कार्यभार में वृद्धि: विगत वर्षों के दौरान FTCs को आवंटित वादों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिसके कारण इन न्यायालयों के कार्यभार में बढ़ोतरी हुई है। इससे निर्णय प्रक्रिया धीमी हो गई है और निर्णयों की गुणवत्ता का भी ह्रास होने लगा है।
  • अनुसरण की जाने वाली प्रक्रियाओं में भी कोई अंतर नहीं है: FTCs वादों के निपटान के लिए किसी विशेष और त्वरित प्रक्रिया का पालन नहीं करते हैं, परिणामतः इनमें भी नियमित न्यायालयों की ही भांति वादों के निपटान में सामान्य विलंब होता है।
  • शीघ्रतापूर्वक सुनवाई से न्याय की संभावित निष्फलता की आशंका बढ़ जाती है: भारत के विधि आयोग ने विरोधाभास प्रकट किया है कि: “न्याय में विलंब न्याय से वंचित करना है और साथ ही जल्दबाजी में प्रदत्त न्याय, न्याय को दफन करना  है।

राज्य सरकारों को FTCs की स्थापना के लिए संवेदनशील बनाना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि न्यायिक संरचनाओं को तर्कसंगत बनाने, क्षमता निर्माण और FTCs की अवसंरचना में सुधार करने आदि के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए। वस्तुतः समग्र प्रणाली के उत्पादक रूप से कार्य करने हेतु यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि इसके विभिन्न घटक कुशलतापूर्वक और बिना किसी बाधा के कार्य करते रहें।

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