राष्ट्रपति की अध्यादेश निर्माण की शक्ति : अध्यादेश के दुरुपयोग के विरुद्ध विभिन्न संवैधानिक सुरक्षा उपाय
प्रश्न: अध्यादेश के माध्यम से विधि-निर्माण की असाधारण शक्ति का प्रयोग संसद की विधायी शक्ति के एक विकल्प के रूप में नहीं किया जा सकता है। टिप्पणी कीजिए। इस संदर्भ में, अध्यादेश प्रख्यापित करने की शक्ति के दुरूपयोग के विरुद्ध संवैधानिक रक्षोपायों पर प्रकाश डालिए।
दृष्टिकोण
- राष्ट्रपति की अध्यादेश निर्माण की शक्ति का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- विधि के विकल्प के रूप में अध्यादेश के उपयोग के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा कीजिए।
- अध्यादेशों के दुरुपयोग के विरुद्ध विभिन्न संवैधानिक सुरक्षा उपायों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को अध्यादेश निर्माण की शक्ति प्रदान करता है। अध्यादेश निर्माण की शक्ति की परिधि संसद की विधायी शक्तियों के साथ सह-विस्तृत हैं। इस प्रकार, यह उन विषयों पर जारी किया जा सकता है जिन पर संसद विधि निर्माण सकती है और यह संसद के एक अधिनियम के समान संवैधानिक सीमाओं के अधीन होता है। यह कार्यपालिका को ऐसी स्थिति से निपटने की शक्ति प्रदान करता है, जिसके समाधान हेतु साधारण विधि निर्माण प्रक्रिया का उपयोग नहीं (विधायिका के सत्र में न होने के कारण) किया जा सकता है।
अध्यादेश के माध्यम से विधि निर्माण की यह असाधारण शक्ति विधायन के लिए एक विकल्प के रूप में उपयोग नहीं की जा सकती है क्योंकि:
- राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश के माध्यम से तत्काल कार्रवाई को अनिवार्य बनाने वाले कारण असद्भावी हो सकते हैं।
- अध्यादेश के निर्माण में संसदीय जांच की उपेक्षा की जाती है और महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर राष्ट्रव्यापी प्रचार को रोकता है।
- यह विधायी सर्वोच्चता के सिद्धांत से असंगत है।
अनुच्छेद 123 के दुरुपयोग के विरुद्ध संवैधानिक रक्षापायों द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि:
- इस शक्ति का प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा उसकी मंत्रिपरिषद के परामर्श पर किया जाना चाहिए, न कि अपने व्यक्तिगत निर्णय द्वारा।
- यह केवल राष्ट्रपति के लिए उस परिस्थिति में उपलब्ध है जब संसद के दोनों या दोनों में से किसी एक सदन सत्र में नहीं होता है।
- संसद की पुनः बैठक होने पर अध्यादेश को उसके समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए और यदि संसद द्वारा इसे पहले निरनुमोदित नहीं किया जाता है तो संसद की पुनः बैठक के 6 सप्ताह पश्चात् इसका प्रभाव समाप्त हो जाएगा।
इसके अतिरिक्त, उच्चतम न्यायालय ने 1989-91 के मध्य बिहार में जारी और पुनःप्रख्यापित अध्यादेशों की वैधता पर याचिकाओं के एक समूह पर अपने निर्णय में कहा है कि विधायिका के अनुमोदन के बिना अध्यादेश को पुनःप्रख्यापित करना संवैधानिक रूप से अननुज्ञेय है और यह लोकतांत्रिक विधायी प्रक्रियाओं की समाप्ति है क्योंकि विधायी निकाय से परे जाने के प्रयास का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इसमें आगे स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है। कूपर वाद में, उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि को न्यायालय में असद्भाव के आधार पर चुनौती दी जा सकती
इन रक्षापायों के अतिरिक्त, संसदीय सत्रों में सरकार से लोक सभा में एक वक्तव्य देने की अपेक्षा करना भी एक प्रगतिशील उपाय है। इसके तहत उन परिस्थितियों का वर्णन किया जाता है जिसमें अध्यादेश को प्रतिस्थापित करने हेतु तत्काल कानून की आवश्यकता पर बल दिया जाता है।
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