विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया के मध्य विभेद को दर्शाते हुए अनुच्छेद 21 का संक्षिप्त विवरण
प्रश्न: ‘विधि की सम्यक प्रक्रिया’ वाक्यांश के अनुच्छेद 21 में सम्मिलित नहीं होने के बावजूद, समय के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रक्रियात्मक विधि के अनुसार’ एवं ‘सारवान विधि के अनुसार सम्यक प्रक्रिया’ के सिद्धांतों को भारतीय संवैधानिक विधि में अपना लिया है। टिप्पणी कीजिए।
दृष्टिकोण
- विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया के मध्य विभेद को दर्शाते हुए अनुच्छेद 21 का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- तत्पश्चात्, भारतीय संविधान में सम्यक प्रक्रिया न सम्मिलित किए जाने के कारण बताइए।
- यह तथ्य स्थापित करने के लिए विभिन्न निर्णयों का उल्लेख कीजिए कि कालांतर में भारत की न्यायपालिका ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के ऊपर सम्यक प्रक्रिया के सिद्धांत के प्रति अपनी समनुरूपता स्थापित की है।
उत्तर
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 यह प्रावधान करता है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा।” विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया एक सकारात्मक विधि की अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि सही प्रक्रिया का पालन किए जाने पर विधायिका द्वारा विधिवत अधिनियमित विधि वैध होगी।
जैसा कि अमेरिकी संविधान में समाविष्ट है, सम्यक प्रक्रिया परीक्षण करती है कि क्या कोई विधि उचित और न्यायसंगत है या गैर-स्वेच्छाचारी है , इस प्रकार यह निष्पक्ष उपचार सुनिश्चित करती है।
सारवान विधि के अनुसार सम्यक प्रक्रिया सरकार को मूल संवैधानिक स्वतंत्रताओं का अतिक्रमण करने से रोकती है। इसके विपरीत, ‘प्रक्रियात्मक विधि के अनुसार’ उन प्रक्रियात्मक सीमाओं को संदर्भित करती है, जिसके अंतर्गत कोई विधि प्रशासित,
लागू या प्रवर्तित की जाती है। इस प्रकार, प्रक्रियात्मक विधि के अनुसार लोगों को पहले उन्हें सूचना और सुनवाई का अवसर दिए बिना सरकार को कानूनी रूप से संरक्षित हितों के स्वेच्छाचारी तरीके से वंचित करने से रोकती है।
भारतीय संविधान ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का समावेश करके संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के स्वस्थ समन्वय को अपनाता है। हालांकि भारतीय संविधान निर्माताओं की मौलिक पसंद के बावजूद, “सम्यक प्रक्रिया” को समानता के अधिकार के माध्यम से 1970 के दशक के अंत में भारतीय संवैधानिक व्याख्या में पश्च द्वार से प्रवेश मिला।
मेनका गांधी वाद से पूर्व तक सर्वोच्च न्यायालय में अभिभावी विचार यह था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने वाली स्वेच्छाचारी विधि निर्माण के विरूद्ध संविधान में कोई प्रत्याभूति नहीं है। इस वाद ने ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य के बहुमत के निर्णय को उलट दिया। जहां बहुमत के निर्णय ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की संकीर्ण व्याख्या को अपनाया था।
इसके विपरीत मेनका गांधी वाद में यह दृष्टिकोण ग्रहण किया गया कि:
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आने वाली विधि को अनुच्छेद 19 की अपेक्षाओं को भी संतुष्ट करना होगा।
- एक बार जब किसी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने वाली विधि की वैधता का निर्धारण करने के लिए औचित्य की कसौटी तय कर दी जाती है, तब इसका अर्थ यह होता है कि ऐसी विधियां यदि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं तो वे अमान्य होंगी।
न्यायालयों ने न्यायिक निर्णय की प्रक्रिया के दौरान इंगित किया कि “सम्यक प्रक्रिया” भारतीय संवैधानिक विधि का सशक्त अंग बन गई है जो हाल ही में सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य जैसे निर्णयों में परिलक्षित होती है, जहां अन्वेषणात्मक नारकोपरीक्षण की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी, जिसमें इसे केवल ‘व्यक्ति’ की सहमति से अनुमत किया गया था। अनुच्छेद 21 की व्यापकता के अंतर्गत, खाप पंचायत, हिरासत में मृत्यु, मृत्यु का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि जैसे मुद्दों पर न्यायपालिका के दृष्टिकोण ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर ‘सम्यक प्रक्रिया’ को सर्वोच्चता दी है।
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