पर्यावरणवाद : पश्चिम और भारत

प्रश्न: पश्चिम के विपरीत, जहां वैज्ञानिकों ने आधुनिक पर्यावरणवाद को जन्म दिया, भारत में यह ग्रामीण समुदायों के विरोध प्रदर्शनों से आरम्भ हुआ। भारत के पर्यावरणीय आन्दोलनों के प्रकाश में इस कथन का परीक्षण कीजिए। 

दृष्टिकोण

  • पश्चिम में पर्यावरणवाद के उद्भव पर संक्षेप में चर्चा कीजिए।
  • वर्णन कीजिए कि किस प्रकार भारत में पर्यावरणवाद का नेतृत्व ग्रामीण समुदायों द्वारा किया गया।
  • पर्यावरणीय मुद्दों के सन्दर्भ में अन्य लोगों के योगदान को रेखांकित कीजिए।

उत्तर

पश्चिम में आधुनिक पर्यावरणवाद का उद्भव वायु प्रदूषण, वनों का विनाश, झील एवं समुद्री प्रदूषण, सीवेज ट्रीटमेंट, आधुनिक युद्ध उपकरणों का हानिकारक प्रभाव, एटॉल का विनाश आदि घटनाओं के परिणामस्वरूप हुआ था। हालांकि ये सभी मुद्दे लोगों से संबंधित थे, किन्तु इनकी गंभीरता को वैज्ञानिकों द्वारा रेखांकित किया गया। बाद में, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) ने पर्यावरणीय मुद्दों पर बल देने हेतु वैज्ञानिक अध्ययनों का उपयोग किया। इस प्रकार, यह वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित था जिस पर शहरी-बौद्धिक छाप मौजूद थी।

हालांकि, भारत में पर्यावरणवाद ग्रामीण समुदायों के अस्तित्व सम्बन्धी संकट का परिणाम था:

  • सार्वजनिक वनों का विनाश- उत्तराखंड में किसानों ने लकड़हारों द्वारा किए जाने वाले वनों के विनाश (मुख्यतः व्यवसायिक उपयोग हेतु) पर रोक लगा दी। इन वनों पर किसान अपनी आजीविका और दैनिक आवश्यकताओं के लिए निर्भर थे। इसने चिपको आंदोलन को जन्म दिया और भारतीय पर्यावरणीय आंदोलन को विस्तार प्रदान किया।
  • 1970 के दशक के दौरान यह विरोध क्रमशः पुनर्निर्माण, बंजर पहाड़ी ढलानों के पुनर्वनीकरण तथा बायोगैस संयंत्रों और सूक्ष्म जल विद्युत परियोजनाओं जैसे नवीकरणीय स्रोतों को बढ़ावा देने की ओर उन्मुख हुआ। 1970 और 1980 के दशक में स्थानीय समुदायों और उद्योगों के मध्य प्राकृतिक संसाधनों के लिए असमान प्रतिस्पर्धा- इन दशकों में, वनों, मछली और चरागाह; बड़े बांधों के निर्माण (उदाहरण के लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन); अनियंत्रित खनन आदि के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों से सम्बंधित संघर्ष जारी रहे। इस कारण कई विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें संसाधनों के बेहतर और अधिक संधारणीय उपयोग की मांग उठाई गयी।

यद्यपि इसे किसानों द्वारा प्रारंभ किया गया था, लेकिन शीघ्र ही शहरी लोग, पत्रकार, वैज्ञानिक और समाज वैज्ञानिक इससे जुड़ गए।

सरकार ने भी विभिन्न पर्यावरणीय कानूनों के अधिनियमन, पर्यावरण विभाग की स्थापना और प्रमुख संस्थानों में पर्यावरण पाठ्यक्रमों की शुरुआत के माध्यम से पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति अपनी संवेदनशीलता व्यक्त की है। यहां तक कि न्यायपालिका ने भी 1980 से ‘पर्यावरणीय सक्रियतावाद’ के माध्यम से पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों को बढ़ावा दिया है।

वर्तमान में यह पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर वैश्विक ध्यान एवं सार्वजनिक जागरूकता में वृद्धि के कारण जनचेतना में समाविष्ट हो चुका है। इसके साथ ही यह नीति निर्माण के एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में भी स्थापित हो गया है, यद्यपि अभी भी नीतियों के असंतुलित कार्यान्वयन के कारण असामान्यताएं विद्यमान हैं।

इसलिए, भारत में पर्यावरणवाद सुख-सुविधा से नहीं बल्कि उत्तरजीविता से प्रेरित था। ग्रामीण समुदायों के नेतृत्व में प्रारंभ इस आन्दोलन को अंततः सभी क्षेत्रों/वर्गों के व्यक्तियों द्वारा समर्थन से एक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया गया।

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