परिषदों में प्रवेश के संबंध में स्वराज पार्टी की सफलतायें और सीमायें

प्रश्न: परिषदों में प्रवेश के लिए स्वराजियों द्वारा दिए गए तर्क क्या थे और कांग्रेस के भीतर अन्य लोगों द्वारा इस कदम का विरोध क्यों किया जा रहा था? इस संदर्भ में, परिषदों में प्रवेश के संबंध में स्वराज पार्टी की सफलताओं और सीमाओं पर प्रकाश डालिए।

दृष्टिकोण

  • व्याख्या कीजिए कि स्वराजवादी कौन थे।
  • परिषदों में उनके प्रवेश के कारणों के साथ-साथ इस कदम के विरोध का भी उल्लेख कीजिए।
  • परिषदों में उनके कार्यों के संबंध में स्वराज पार्टी की सफलताओं और सीमाओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर

1923 में, कांग्रेस के भीतर एक समूह द्वारा ‘स्वराज पार्टी’ का गठन किया गया था। इसके सदस्यों जैसे सी.आर. दास, मोतीलाल नेहरू और अन्य को ‘स्वराजवादी’ नाम दिया गया। यह असहयोग आंदोलन को आकस्मिक रूप से वापस लेने से उत्पन्न हुई निराशा की भावना का परिणाम था।

गया अधिवेशन (1922) में, आगामी आम चुनावों में कांग्रेस की भागीदारी को लेकर मतभेद परिलक्षित हुए। इसके सदस्य परिवर्तनवादी और परिवर्तनविरोधी के रूप में विभाजित हो गए। परिवर्तनवादी (स्वराजवादी) परिषद में प्रवेश करने के पक्ष में थे, ताकि:

  • विधायिका के भीतर असहयोग के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया जाए।
  • परिषदों के भीतर गतिरोध उत्पन्न कर विधायी सुधारों को प्रस्तुत किया जाए और सरकार को सुधारों को स्वीकार करने हेतु बाध्य किया जाए।
  • विधायी कार्य की वास्तविक प्रकृति को प्रकट करके लोगों के उत्साह को जागृत किया जाए।

राजेंद्र प्रसाद और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे परिवर्तनविरोधी नेताओं ने परिषद में प्रवेश का विरोध किया था क्योंकि:

  •  वे ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग के गांधीवादी तरीकों में विश्वास करते थे।
  • इन्होंने गाँवों तथा गरीब लोगों के मध्य सूत की कताई, आत्मसंयम और जमीनी स्तर के कार्यों से संबंधित रचनात्मक कार्यक्रम पर बल दिया।
  • इन्होंने लोगों को एक नए दौर के जन आंदोलन के लिए तैयार करने का उद्देश्य रखा।

अंततः सूरत विभाजन की पुनरावृत्ति से बचने के लिए कांग्रेस के भीतर स्वराज पार्टी का गठन किया गया। इसको निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त हुईं:

  • असहयोग आंदोलन के बाद के वर्षों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करने हेतु वैकल्पिक रणनीति प्रदान की।
  • निर्वाचन संबंधी सफलता,1. केंद्रीय विधान सभा के निर्वाचन में 101 में से 42 सीटों पर विजय प्राप्त की। 2.केंद्रीय प्रांतों में बहुमत प्राप्त हुआ तथा बंगाल में सबसे बड़ी पार्टी बनी।
  • 1919 के अधिनियम द्वारा प्रांतीय स्तर पर आरंभ किए गए द्वैध शासन की कमियों को उजागर किया और इसकी समीक्षा करने हेतु मुडीमैन समिति की नियुक्ति के लिए सरकार पर दबाव बनाया गया।

सरकार को कई मुद्दों पर पराजित किया और पाँच प्रमुख समस्याओं को उठाया:

  • स्व-शासन हेतु संवैधानिक सुधार
  • नागरिक स्वतंत्रताएं
  • राजनीतिक कैदियों की रिहाई
  • मृत्युदंड कानूनों का निरसन
  • स्वदेशी उद्योगों का विकास

बड़ी संख्या में नगर पालिकाओं और अन्य स्थानीय निकायों में प्रवेश किया।

सीमाएं:

  • विधायिका में अपने कार्य और विधायिका के बाहर व्यापक स्तर पर राजनीतिक कार्य के मध्य समन्वय स्थापित करने में विफल रहे।
  • इनके कुछ विधायी सदस्यों द्वारा संसदीय-भत्तों और पद स्थिति तथा संरक्षण का अनुलाभ प्राप्त किया गया।
  • प्रकट रूप से सरकार के साथ सहयोग किया। -1925 में, विट्ठलभाई पटेल ने केंद्रीय विधान सभा के अध्यक्ष (स्पीकर) पद को स्वीकार किया। -1925 में मोती लाल नेहरू सेना के भारतीयकरण हेतु गठित स्कीन समिति (Skeen Committee) के सदस्य बने।
  • प्रतिक्रियावादी समूह के गठन और स्वराजवादियों के विरुद्ध उग्र सांप्रदायिक अभियान ने स्वराज पार्टी को अत्यधिक कमजोर कर दिया।

अंततः लाहौर कांग्रेस प्रस्तावों तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत के परिणामस्वरूप स्वराजवादियों द्वारा विधायिका का त्याग कर दिया गया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि एक ऐसे समय राजनीतिक शून्य को में भरना था, जब राष्ट्रीय आंदोलन पुनः सशक्त हो रहा था।

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