1939 से 1941 के बीच – द्वितीय विश्वयुद्ध और व्यक्तिगत सत्याग्रह

इस इकाई में आपको 1939-1941 के दौरान आज़ादी की लड़ाई की मुख्य राजनीतिक धाराओं से परिचित कराने का प्रयास किया गया है। इसके बाद हम भारत छोड़ो आंदोलन और स्वतंत्रता के संघर्ष में आज़ाद हिंद फौज की चर्चा करेंगे। हम यहां उस घटनाक्रम की चर्चा करेंगे जिसने अन्ततः भारत छोड़ो आंदोलन शरू करवाया।

कांग्रेस इस आंदोलन को चलाने और संगठित करने की योजना तैयार भी नहीं कर पायी थी कि सरकार ने इसे आगे न बढ़ने देने के लिए अपना दमन चक्र शुरू कर दिया। लेकिन सरकार की सारी गणना गलत साबित हुई। क्योंकि लोगों ने, कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद, अपना काम खुद करने का निर्णय लिया और अंग्रेज़ सरकार को उन्होंने इस तरह से चुनौती देना शुरू किया जिसकी तुलना एक सीमा तक 1857 के संघर्ष से की जा सकती है। नये नेता स्थानीय स्तरों पर उभर कर आये। उनकी भूमिका गांधीवादी संघर्ष से भिन्न थी।

अहिंसा का सिद्धांत इस दौर में निदेशक सिद्धांत नहीं रहा। सरकारी सम्पत्ति पर व्यापक हमले होने लगे। हालांकि सरकार इस आंदोलन को कुचलने में सक्षम थी, परंतु इसकी तीव्रता ने स्पष्ट कर दिया था कि अंग्रेज़ भारत पर अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सकेंगे। यह सच्चाई सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज और उसकी कार्रवाई से भी सामने आ रही थी। भारतीय अंग्रेज़ सरकार का सशस्त्र विरोध करने में केवल सक्षम ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने ऐसा किया भी, और आज़ाद हिंद सरकार का गठन भी किया।

आपको 1939 से 1941 के बीच की अवधि में हुई घटनाओं के क्रमिक विकास और उन  परिस्थितियों के बारे में जानने में रुचि होगी जो अन्ततः भारत छोड़ो आन्दोलन का कारण बनीं।

द्वितीय विश्वयुद्ध युद्ध के प्रति दृष्टिकोण

विश्वयुद्ध के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण  आमतौर पर निम्न श्रेणियों में दर्शाया जा सकता है –

चूंकि ब्रिटेन संकट में था भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। यह काम निम्न तरह से किया जा सकता था :

  • युद्ध के लिए भारतीय संसाधनों को जुटाने के ब्रिटिश प्रयासों का विरोध करके।
  • अंग्रेजों के विरुद्ध मज़बूत आंदोलन खड़ा करके। इस विचार के प्रतिपादकों की मुख्य चिंता भारत की आज़ादी प्राप्त करने से थी, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति से कछ लेना-देना नहीं था।

भारत को ब्रिटेन की समस्याओं से लाभ नहीं उठाना चाहिए। उसे ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में बिना शर्त सहयोग करना चाहिए:

  • जो इस विचार के समर्थक थे, वे सोचते थे कि यद्ध के समाप्त होने के बाद ब्रिटेन अपने प्रति भारत की सेवाओं को देखते हुए उसके प्रति नम्र रुख अपनायेगा और उसे समुचित रूप से पुरस्कृत करेगा।

युद्ध में ब्रिटेन की मदद

  • बहुत से भारतीय ऐसे थे जो फासीवाद (फासिज़्म) को मानवजाति के लिए बड़ा खतरा मानते थे और युद्ध में ब्रिटेन की मदद करना चाहते थे।
  • लेकिन यह मदद सर्शत थी। ये शर्त थी भविष्य में भारत की स्वतंत्रता और उस समय के लिए भारतीयों की एक अंतरिम सरकार।

तटस्थ रवैया

  • भारतीयों के कुछ वर्ग ऐसे भी थे जिनका दृष्टिकोण युद्ध की बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा। और ऐसे वर्ग भी थे जिन्होंने तटस्थ रवैया अपनाया।

इस परिस्थिति में कांग्रेस ने क्या किया?

व्यावहारिक रूप से पूर्व वर्णित सभी दृष्टिकोण कांग्रेस के भीतर ही मौजूद थे और इन सबके होते एक निश्चित कार्यनीति अपनाना जटिल काम था। इस हालत में कांग्रेस ने युद्ध में ब्रिटेन को पूरा सहयोग देने का प्रस्ताव रखा बशर्ते केन्द्र में एक उत्तरदायी किस्म की सरकार तुरंत गठित कर दी जाए।

जहां तक भविष्य का सवाल था, कांग्रेस ने एक संविधान सभा के गठन की मांग की, जो स्वतंत्र भारत का संविधान तैयार कर सके। इस तरह यह स्पष्ट है कि जो वर्ग इस समय अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन खड़ा करने के पक्ष में था, उसे गांधीवादी नेतृत्व ने महत्व नहीं दिया। गांधीजी ने अंग्रेज़ों से सवाल किया, “क्या ग्रेट ब्रिटेन अनिच्छुक भारत को युद्ध में घसीटना चाहेगा या सच्चे लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने इच्छक साथी का सहयोग पसंद करेगा?” गांधीजी ने कहा कांग्रेस के समर्थन का मतलब होगा कि उससे इंग्लैंड और फ्रांस दोनों का मनोबल बढ़ जायेगा।

हालांकि बांधी जी ने कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सशर्त सहयोग के प्रस्ताव का समर्थन किया, मगर वे स्वयं इसके पक्ष में नहीं थे जैसा कि उन्होंने बाद में कहा, “मुझे अफ़सोस था कि अपने इस विचार में कि ब्रिटिश को जो भी सहयोग दिया जाए वह बिना शर्त दिया । जाना चाहिए, मैं अकेला पड़ गया था। गांधीजी अपनी निजी हैसियत से, प्रथम विश्वयद्ध के दौरान अंग्रेजों के प्रति अपने रुख को बार-बार सामने ला रहे थे, यानी वे सहयोग की बात दोहरा रहे थे परंतु अब परिस्थितियां बदल चुकी थी और अब निजी विचारों से ऊपर उठने का समय था।

गांधीजी ने महसूस किया कि उनकी चुप्पी का दूरगामी अर्थ भारत और इंग्लैंड दोनों के लिए ही हानिकर सिद्ध हो सकता था। अतः उन्होंने कहा :

“अगर अंग्रेज़ सभी की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं, तो उनके प्रतिनिधियों को स्पष्ट शब्दों में यह बात कहनी चाहिए कि युद्ध के लक्ष्य में भारत की स्वतंत्रता अनिवार्य रूप से शामिल है। इस स्वतंत्रता का मसौदा केवल भारतीयों द्वारा, और सिर्फ उन्हीं के द्वारा ही तय किया जा सकता है।”

सरकार ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई?

दरअसल अंग्रेज़ न तो तत्काल कोई छूट देने की स्थिति में थे और न भविष्य के लिए कोई वादा करने की स्थिति में वे, केवल डॉमिनियन स्टेटस देने की सरसरी बातचीत कर रहे थे। अंग्रेज़ सरकार के विरोध को रोकने और युद्ध की कार्रवाई में भारतीय संसाधनों के दोहन के लिए भारत रक्षा कानून (डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स) लागू कर दिए गए।

व्यक्तिगत सत्याग्रह

नागरिक अवज्ञा शुरू करने के मामले में कांग्रेस के दो मत थे। गांधीजी महसूस करते थे कि वातावरण नागरिक अवज्ञा के अनुकूल नहीं था क्योंकि कांग्रेस के अंदर मतभेद और। अनुशासनहीनता की स्थिति बनी हुई थी। जो लोग नागरिक अवज्ञा की वकालत कर रहे थे वे गांधीजी को यह विश्वास दिलाना चाह रहे थे कि एक बार आंदोलन शुरू हो जाए तो मतभेद समाप्त हो जाएंगे और सभी इसकी सफलता के लिए काम करने लगेंगे। परंतु गांधीजी इस तर्क से सहमत नहीं थे।

कांग्रेसी समाजवादी और अखिल भारतीय किसान सभा तुरंत आंदोलन शुरू करने के पक्ष में थे। एन.जी. रंगा ने तो यह सुझाव भी दिया कि किसान सभा को कांग्रेस से सबंध तोड़ लेने चाहिए और एक स्वतंत्र आंदोलन शुरू कर देना चाहिए। लेकिन किसी तरह पी. सुंदरैया ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और इसी तरह के वातावरण में मार्च 1940 में मौलाना आज़ाद के नेतृत्व में रामगढ़ का अधिवेशन हुआ।

मौलाना ने कहा :

“भारत नाजीवाद और फासीवाद की सम्भावनाओं को सहन नहीं कर सकता, परंतु वह इससे भी ज़्यादा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उकता गया है”

रामगढ़ कांग्रेस ने लोगों का आह्वान किया कि वे गांधीजी के नेतृत्व में शुरू होने वाले  सत्याग्रह में भाग लेने के लिए स्वयं को तैयार करें। लेकिन समाजवादी, साम्यवादी, किसान सभा और फ़ारवर्ड ब्लाक से संबंधित लोग इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उन्होंने रामगढ़ में एक समझौता-विरोधी सम्मेलन बुलाया। और सुभाषचंद्र बोस ने लोगों से आग्रह किया  कि वे साम्राज्यवाद से समझौते का विरोध करें और कार्रवाई के लिए तैयार रहें। अगस्त 1940 में वाइसरॉय ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें निम्न बातें शामिल थीं :

  • गवर्नर जनरल की परिषद् का विस्तार जिसमें भारतीयों का प्रतिनिधित्व हो।
  • युद्ध सलाहकार परिषद की स्थापना।

इस प्रस्ताव में उसने मुस्लिम लीग और अन्य अल्पसंख्यकों से वादा किया कि अंग्रेज़ सरकार भारत में ऐसे संविधान या सरकार पर कभी भी सहमत नहीं होगी जिसे उनका समर्थन प्राप्त न हो। (यहां हमें याद रखना चाहिए कि 1940 के अपने लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लोग पाकिस्तान की मांग रख चुकी थी) कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि :

  • इसमें राष्ट्रीय सरकार के लिए कोई सुझाव नहीं था,
  • इसमें मुस्लिम लीग जैसी कांग्रेस-विरोधी ताकतों को बढ़ावा दिया गया था।

सरकार योजना-बद्ध तरीकों से निवारक नज़रबंदी के तहत कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर रही थी-विशेष रूप से उन्हें जो समाजवादी या वामपंथी रुझान वाले थे। । सभी स्थानीय नेताओं पर निगरानी रखी जा रही थी। जब कि बहुत से मज़दूर नेताओं और युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया था।

जब गांधीजी को पक्का भरोसा हो गया कि अंग्रेज भारत में अपनी नीति में कोई सधार नहीं करेंगे (गांधीजी ने सितम्बर 1940 में शिमला में वाइसरॉय के साथ लम्बी-लम्बी बैठकें की) तो उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करने का फैसला किया।

आंदोलन को व्यक्तिगत भागीदारी तक सीमित रखने का कारण

आंदोलन को व्यक्तिगत भागीदारी तक सीमित रखने का कारण यह था कि गांधीजी और कांग्रेस दोनों में से कोई भी वह नहीं चाहता था कि युद्ध के प्रयासों में बाधा डाली जाए, जबकि जन आंदोलन में ऐसा होना सम्भव नहीं था। यहां तक कि व्यक्तिगत सत्याग्रह का लक्ष्य भी सीमित था यानी इए ब्रिटिश दावे को झुठलाना कि भारत पूरे मन से युद्ध की कार्रवाई में साथ दे रहा है।

17 अक्टूबर 1940 को आचार्य विनोबा भावे ने वर्धा के निकट एक गांव पवनार में युद्ध विरोधी भाषण देकर इस सत्याग्रह का उद्घाटन किया। इस काम के लिए गांधीजी ने भावे को निजी तौर पर चुना था। उनके दो अन्य नामजद लोग वल्लभभाई और नेहरू सत्याग्रह शुरू करने से पहले ही गिरफ्तार कर लिए गए। नवम्बर 1940 और फरवरी 1941 के मध्य बहुत से प्रमुख कांग्रेसजन जेल गए, लेकिन भागीदारी की सीमित प्रकृति और गांधी जी द्वारा कांग्रेसियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण यह आंदोलन अधिक कुछ हासिल नहीं कर सका। कुछ मामलों में कांग्रेसी भी बहुत ज़्यादा उत्सुक नहीं थे। उदाहरण के लिए बिहार में, सत्याग्रह के लिए चुने गए बहुत से कांग्रेसी अपने उन पदों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे जो वे नगरपालिकाओं में हासिल किए हुए थे।

उन्होंने या तो गिरफ्तारी देने से स्पष्ट इंकार कर दिया या फिर गिरफ्तारी देने के मामले में बहुत सख्ती दिखाई (स्टीपन हैनिनगम की पुस्तक (“पीजेंटस मूवमेंट इन कॉलोनिअल इंडिया)। दिसम्बर 1941 में कांग्रेस कार्यसमिति ने आंदोलन को स्थगित करने का फैसला किया। इस समय तक युद्ध ने एक नया मोड़ ले लिया था। ब्रिटेन की हार पर हार हो रही थी और जापानी फौजें दक्षिण-पूर्व एशिया को रौंद चुकी थीं। सोवियत संघ पर नाज़ियों का हमला हो चुका था और ब्रिटेन पर सोवियत संघ, अमरीका तथा चीन यह दवाब डाल रहे थे कि वह अपनी भारतीय नीति पर पुनर्विचार करें। सरकार ने अनेक राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। जापान के हाथों रंगून के पतन के बाद अंग्रेज़ सरकार ने क्रिप्स कमीशन भारत भेजने का निर्णय किया।

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