न्यायालय की अवमानना : संवैधानिक एवं विधिक प्रावधानों का उल्लेख

प्रश्न: हालांकि न्यायालय की अवमानना के लिए दण्डित करने की शक्ति न्याय के प्रशासन को निन्दा से बचाने के लिए बहुत ही आवश्यक उपकरण है, लेकिन समय आ गया है कि इस पर पुनर्विचार किया जाए। आलोचनात्मक विश्लेष्ण कीजिए।

दृष्टिकोण

  • न्यायालय की अवमानना को परिभाषित कीजिए और संवैधानिक एवं विधिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
  • न्यायालय की अवमानना के प्रावधानों को बनाए रखने के पक्ष में तर्क दीजिए।
  • इस सन्दर्भ में न्यायालय की अवमानना से सम्बंधित वर्तमान प्रावधानों से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 129, 142 और 215 एवं न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत उच्चतर न्यायालयों को अपनी अवमानना हेतु दंड देने की शक्ति प्राप्त होती है। इस शक्ति को अनुच्छेद 19 (2) द्वारा भी सुनिश्चित किया गया है। अवमानना के प्रावधान का उद्देश्य न्याय के प्रशासन को निन्दा से बचाना और न्यायिक आदेशों के अनुपालन को सुनिश्चित करना है।

1971 का अधिनियम नागरिक और आपराधिक अवमानना को परिभाषित करता है। नागरिक अवमानना तब होती है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर न्यायालय के किसी आदेश का उल्लंघन करता है; जबकि आपराधिक अवमानना न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करने या न्यायालय की अवहेलना करने अथवा उसके प्राधिकार को अवनत करने से सम्बंधित होती है। इस प्रकार यह न्यायालयों को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल अधिकार को प्रतिबंधित करने हेतु व्यापक शक्तियां प्रदान करती है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां न्यायपालिका की निष्पक्ष आलोचना ने अवमानना संबंधी कार्यवाही का संकट उत्पन्न किया है। इस प्रकार इसने वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को अवरोधित किया है। अतः आपराधिक अवमानना के प्रावधानों में पुनर्विचार की आवश्यकता है।

न्यायालय की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति की प्रासंगिकता

  • न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखने और विधि के शासन को सुनिश्चित करने के लिए, न्यायपालिका के पास इसके आदेशों के अनुपालन न किये जाने की स्थिति में दंड देने की शक्ति का होना आवश्यक है।
  • यह शक्ति विधि के समक्ष समता को लागू करती है तथा न्यायालय के आदेशों का बलपूर्वक अनुपालन करवाने हेतु, समृद्ध और शक्तिशाली व्यक्तियों के विरुद्ध एक उपकरण के रूप में कार्य करती है।
  • विधि आयोग की 274वीं रिपोर्ट के अनुसार 1971 के विधान में किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। किसी विधि की अनुपस्थिति में भी न्यायालयों के पास संविधान के तहत अपनी अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति विद्यमान है। वास्तव में यह अधिनियम एक प्रक्रिया को निर्धारित करके, अवमानना शक्तियों के प्रबंधन में न्यायालयों की विस्तृत प्राधिकारिता को सीमित करता है।
  • न्यायपालिका की विश्वसनीयता और दक्षता को बनाए रखने के लिए भी इसकी आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति कर्णन के अपमानपूर्ण व्यवहार के लिए उनके विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही की।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा मीडिया और लोगों के विचारों से इसकी कार्यप्रणाली की सुरक्षा हेतु इसकी आवश्यकता है।

पुनर्विचार के लिए तर्क

  • यह वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है।
  • लोकतंत्र में न्यायिक जवाबदेहिता भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए एक कार्यरत न्यायाधीश के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने को न्यायालय की अवमानना की श्रेणी में रखना इसकी जवाबदेहिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
  • न्यायालय को कलंकित करने जैसे आधार (जिन पर अवमानना कार्यवाही आरम्भ की जा सकती है) अस्पष्ट हैं जिनका सरलता से दुरूपयोग किया जा सकता है।
  • ब्रिटेन में भी ‘न्यायालय को कलंकित करने” को आपराधिक अवमानना के आधार के रूप में प्रयोग करना; 2013 में समाप्त कर दिया गया है।

‘न्यायालय की अवमानना का कानून, राजद्रोह जैसे अन्य कानूनों के समान हमारे औपनिवेशिक अतीत का अवशेष है, जो सार्वजनिक समीक्षा को कम करने के लिए अधिनियमित किया गया है। आलोचना के प्रति परिपक्व दृष्टिकोण न्यायपालिका में सार्वजनिक विश्वास को बढ़ाएगा। अतः दुरुपयोग किये जा सकने वाले व्यापक प्रावधानों को परिशोधित करने के लिए इन कानूनों की जांच की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, यह सावधानी बरतनी चाहिए कि अधिनियम की कठोरता कम करने से भारत में न्यायिक व्यवस्था के स्वतंत्र कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप न हो।

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