भारत में बहुलता का संक्षिप्त विवरण : बहुलता के कुछ नकारात्मक परिणाम
प्रश्न: भारत जैसे एक बहुलवादी समाज में, बहुलता की प्रशंसा करने एवं संस्कृतियों व मूल्यों की अंतर्निहित एकता का दिग्दर्शन करने में शिक्षा को व्यक्ति की सहायता करनी चाहिए। उदाहरण सहित वर्तमान संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारत में बहुलता का संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर आरंभ कीजिए।
- फिर संक्षेप में इस प्रकार की बहुलता के कुछ नकारात्मक परिणामों को स्पष्ट कीजिए।
- संक्षेप में चर्चा कीजिए कि कैसे शिक्षा बहुलता की सराहना करने और संस्कृतियों एवं मूल्यों की अंतर्निहित एकता देखने में व्यक्ति की सहायता कर सकती है।
- अंत में यह बताते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए कि इस सन्दर्भ में वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या किया जाना चाहिए।
उत्तर
भारत को सदा से विश्व में सर्वाधिक विविधतापूर्ण स्थानों में से एक के रूप में जाना जाता रहा है। इसकी बहुलता कई आयामों को समेटे हुए है, जिनमें परिधान शैली से लेकर पूजा-पाठ की रस्मों और हजारों वर्षों से आबाद देशज जनजातियों से लेकर भिन्न संस्कृतियों तथा अनेक बोलियों एवं भाषाओं वाले अधिवासियों का निरंतर अंतर्वाह शामिल हैं। इस निरंतर गतिमान प्रक्रिया ने वास्तव में भारत को विश्व की सर्वाधिक संभव विविधता वाला मेल्टिंग पॉट बना दिया है। भारतीय समाज में इस बहुलता का शांतिपूर्ण और संसक्त अस्तित्व सच्चे मूल्यों और नैतिक आधार को प्रतिबिंबित करता है, जिस पर भारतीय समाज फल-फूल रहा है।
विविधतापूर्ण समाज स्वाभाविक रूप से सहिष्णुता के आधार पर फलता-फूलता है, क्योंकि यह केवल सहिष्णुता नहीं है, बल्कि स्वीकार्यता भी है, जिसने इसे विविधतापूर्ण समाज का रूप दिया है। तथापि विविधतापूर्ण समाजों में भी, परिवर्तन का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति तथा सभी समूहों के बीच स्वयं का वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा विद्यमान होती है। ये प्रवृत्तियाँ और इच्छाएं ही अलगाव की भावना उत्पन्न करने, संगठन बनाने और वर्चस्व स्थापित करने के उद्देश्य से विविधता के विभिन्न पहलुओं का दुरुपयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं। भेदभाव के लिए सांप्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रीय, नस्लीय आदि पहचानों का उपयोग किए जाने पर समाज का सामाजिक ताना-बाना टूट जाता है।
इस संदर्भ में, शिक्षा बहुलता की सराहना करने और विभाजनकारी एजेंडा का सामना करने हेतु समाज को बेहतर तरीके से तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
शिक्षा मनुष्य के विकास और चरित्र-निर्माण को आकार देती है एवं व्यक्ति को तर्कसंगत रूप से स्थितियों की व्याख्या करने में सक्षम बनाती है। यह शांतिपूर्ण अस्तित्व के सामाजिक मानदंडों के रूप में व्यक्ति की समानता, अन्य व्यक्तियों के अधिकारों, भ्रातृत्व के मूल्यों की सराहना करने में सहायता कर सकती है।
शिक्षण संस्थानों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के शिक्षण, महान नेताओं और दार्शनिकों के जीवन से प्राप्त सीखों के समावेश से छात्र-छात्राएं समाज में विद्यमान भेदों के प्रति स्वीकार्यता आत्मसात करने में सक्षम हो सकते हैं। सुशिक्षित और जागरूक विद्यार्थी (जो एक दिन भारत के उत्तरदायी नागरिक बनेंगे) इस विविधता को समझने की बेहतर स्थिति में होंगे एवं संस्कृतियों और मूल्यों को महत्व देने तथा भारत में बहुलता की सराहना करने के लिए सामाजिक रूप से संवेदनशील होंगे।
हालाँकि, इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि शिक्षा की भूमिका सीमित है और यह समाज में व्याप्त सभी बीमारियों की रामबाण औषधि नहीं है। केवल साक्षर होना या स्कूल/कॉलेज में पढ़ना इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि व्यक्ति सहिष्णु और सहनशील हो जाएगा। इसकी भूमिका किसी व्यक्ति को तार्किक चिंतन वाला प्राणी बना सकने वाले साधनों को उपलब्ध कराने तक सीमित होती है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इनका उपयोग कैसे करता है। इस संबंध में बाह्य प्रभाव और अनुभव अधिक महत्वपूर्ण हैं।
जब हम यह कहते हैं कि लोगों में समानता, सहिष्णुता, समावेशिता आदि मूल्यों का विकास ही शिक्षा है, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि ऐसे केवल कुछ ही मामले हैं जिनमें शिक्षा इस प्रकार का परिणाम उत्पन्न करती है। फिर भी ये लोग ही हैं जो दूसरों पर प्रभाव डालने की क्षमता रखते हैं और उन्हें ऐसे मूल्यों के महत्व की अनुभूति कराते हैं। यह ऐसे नेतृत्वकर्ताओं का निर्माण करती है जो समाज के लिए नैतिक, समावेशी लक्ष्य निर्धारित करते हैं और क्षुद्र लाभों के लिए उसे बांटते नहीं हैं। मूल्य-आधारित दृष्टिकोण को शैक्षणिक प्रणाली और साथ ही शिक्षक शिक्षा प्रणाली का मुख्य आधार होना चाहिए। नैतिक मूल्यों और नीतिशास्त्र पर केंद्रित शिक्षा प्रणाली संबंधी गांधीजी के स्वप्न को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में समाविष्ट किए जाने की आवश्यकता है।
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