भारतीय संविधान में उल्लिखित निर्देशक तत्वों और मूल अधिकारों के महत्त्व
प्रश्न: निर्देशक तत्वों को मूल अधिकारों की तुलना में भी अधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि वे कल्याण की दिशा में एक सकारात्मक प्रेरणा प्रदान करते हैं। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भूमिका में, भारतीय संविधान में उल्लिखित निर्देशक तत्वों और मूल अधिकारों के महत्त्व के संबंध में संक्षेप में लिखिए।
- निर्देशक तत्वों के महत्त्व का समर्थन करने वाले तर्कों और प्रमाणों को सूचीबद्ध कीजिए।
- इसके अतिरिक्त, लोकतंत्र में मूल अधिकारों की भूमिका को उजागर करने हेतु उन्हें सूचीबद्ध कीजिए।
- निष्कर्ष में निर्देशक तत्वों और मूल अधिकारों, दोनों के बीच संतुलन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर
ग्रेनविल ऑस्टिन के शब्दों में, ‘निर्देशक तत्व (DPS) और मूल अधिकार (FRs) भारतीय संविधान की अंतरात्मा हैं।’ जहाँ FRs नागरिकों के लिए एक सम्मानित जीवन सुनिश्चित करने हेतु न्यूनतम मूलभूत अधिकार सुनिश्चित करते हैं, वहीं DPS को देश के शासन के लिए आधारभूत तत्व माना जाता है, क्योंकि इनका उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।
1973 के केशवानन्द भारती मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्देशक तत्वों के महत्व पर प्रकाश डाला था यथा :
- इनमें संविधान का मूल दर्शन सम्मिलित है, जिसे सरकारी नीतियों और कानूनों में परिलक्षित होना चाहिए।
- मूल अधिकारों के विपरीत, ये सिद्धांत राज्य की शक्तियों को सीमित नहीं करते।
- यह समाज के लगभग प्रत्येक वर्ग को कवर करता है, उदाहरण के लिए बच्चे, महिलाएं, वृद्ध, विकलांग, अनुसूचित जाति और अनूसूचित जनजाति तथा इस प्रकार यह एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायता करता है।
- यह शासन के उन क्षेत्रों की सूची प्रदान करता है, जिन पर विचार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए नि:शुल्क विधिक सहायता, श्रमिक भागीदारी, समान कार्य के लिए समान वेतन, पर्यावरण सरंक्षण और समान नागरिक संहिता।
हालाँकि, मूल अधिकारों की भूमिका भी निर्णायक होती है, क्योंकि वे:
- व्यक्तियों के समग्र विकास के लिए आवश्यक हैं।
- ये लोगों की स्वतंत्रता और अधिकारों को राज्य या अन्य व्यक्तियों के अतिक्रमण से सुरक्षा प्रदान करते हैं।
- कार्यपालिका और विधायिका पर सीमायें आरोपित करते हैं।
- सरकार की निरंकुशता या तानाशाही पर अंकुश लगाते हैं।
- यह विधि के शासन की स्थापना में सहायक हैं।
हालाँकि, 1980 के मिनर्वा मिल्स के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी एक की तुलना में दुसरे की निरपेक्ष (पूर्ण) श्रेष्ठता भारतीय संविधान के सामंजस्य को विचलित करती है। इसलिए, संविधान की प्रस्तावना में निहित न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बंधुता के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु दोनों के बीच संतुलन आवश्यक है।
Read More
- ‘न्याय में देरी ,न्याय का वंचन है (justice delayed is justice denied)’ : न्यायिक विलम्ब को कम करने हेतु उपाय
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243A में वर्णित ग्राम सभाओं के महत्व का परीक्षण
- व्हिसलब्लोअर सुरक्षा कानून : प्रावधान का महत्व और कमी
- विधायिका की स्वतंत्रता की रक्षा हेतु संविधान में उल्लिखित प्रावधान : विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध किये जाने के कारण तथा विभिन्न समितियों की अनुशंसा
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35A के महत्व और उससे संबद्ध विवाद