नैतिक विचारक महात्मा गाँधी तथा विवेकानन्द
प्रश्न: नीचे नैतिक विचारकों / दार्शनिकों के दो उद्धरण दिए गए हैं। इनमें से प्रत्येक के लिए स्पष्ट कीजिए कि, वर्तमान संदर्भ में आपके लिए इनका क्या महत्व है।
(a)“मौन तब कायरता बन जाता है जब परिस्थिति की मांग पूरा सच बता देने और उसी अनुसार कार्य करने की होती है” – महात्मा गांधी।
(b)“हमें न केवल अन्य लोगों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, अपितु उन्हें सकारात्मक रूप से स्वीकार भी करना चाहिए”- स्वामी विवेकानंद।
दृष्टिकोण
- परिचय में नैतिक विचारकों महात्मा गाँधी तथा विवेकानन्द दोनों के प्रयोजनों को स्पष्ट कीजिए।
- कथनों से संबंधित मूल्यों पर चर्चा कीजिए।
- उन प्रासंगिक संदर्भो की चर्चा कीजिए जिसमें इन मूल्यों को लागू किया जा सके।
- इन कथनों के महत्व पर बल देते हुए निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
महात्मा गाँधी, सार्वजनिक जीवन में सत्य, ईमानदारी तथा साहस जैसे उच्च सिद्धांतों को बनाए रखते हुए नैतिक राजनीति के सबसे बड़े समर्थकों में से एक थे। एक सार्वजनिक व्यक्ति के रूप में वे इन सिद्धांतों का पालन भी करते थे।
वे जीवन के सभी क्षेत्रों में सत्यवादी बनने हेतु मजबूत आत्म शक्ति और साहस में विश्वास करते थे। परन्तु सत्य बोलने में समर्थ होने के लिए एक व्यक्ति को आत्मा की शक्ति की आवश्यकता होती है।
गांधीजी विश्वास करते थे कि एक सत्य के अन्वेषक को मौन रहना पड़ता है। जानबूझकर या अनजाने में सत्य को दबाने या संशोधित करने हेतु अतिशयोक्ति की ओर प्रवणता मनुष्य की प्राकृतिक दुर्बलता है तथा इसे परास्त करने हेतु मौन रहना अनिवार्य है।
हालांकि, गांधीजी यह भी विश्वास करते थे कि मौन रहना तब कायरता बन जाता है जब यह केवल उत्पीड़क की सहायता करे न कि पीड़ित की। वे कहते हैं कि व्यक्ति को साहस पैदा करने की आवश्यकता है, यह एक गुण है जिसके लिए जीवित रहा जा सकता है या मृत्यु का वरण किया जा सकता है। एक व्यक्ति को सत्य के साथ दृढ़ रहना चाहिए तथा आत्मा की शुद्धता के बल के साथ इसकी रक्षा करनी चाहिए, इससे प्रतिद्वंद्वी की आत्मा भी प्रभावित होती है। विभिन्न अवसरों पर अत्याचारी ब्रिटिश साम्राज्य और साथ ही साथ अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में प्रयोग की गई विधि को उन्होंने “सत्याग्रह” कहा है।
दिया गया उद्धरण वर्तमान संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है जो निम्नलिखित से स्पष्ट है:
- भ्रष्टाचार के विरुद्ध डटे रहने का साहस- वर्तमान में, सार्वजनिक जीवन भ्रष्ट एवं मलिन हो गया है और जब व्यवस्था स्वयं जीर्णशीर्ण हो गई हो तो बुराई के विरुद्ध डटे रहने तथा ईमानदारी व सत्य के मार्ग पर चलने हेतु अत्यधिक साहस की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, भ्रष्टाचार को उजागर करना या व्हिसल ब्लोइंग (whistleblowing)।
- सार्वजनिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने हेतु प्रतिबद्धता: सूचना का अधिकार जैसे विभिन्न प्रावधान एवं नीतिगत उपकरण पारदर्शिता सुनिश्चित करने हेतु प्रभाव में लाए गए हैं, परन्तु यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि लोक सेवक पूर्णतया पारदर्शी होने की प्रतिबद्धता व्यक्त नहीं करते। यदि व्यवस्था में पारदर्शिता लाना है तो सत्य की मुखर रूप से रक्षा करनी होगी।
- जागरुकता में वृद्धि: उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक आन्दोलन #मी टू (#MeToo) ने इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि यौन दुर्व्यवहार के पीड़ितों को पूरे सत्य को प्रकट करना चाहिए जिससे लोगों को इस बात का अहसास हो सके कि समस्या कितनी बड़ी और गंभीर है।
यदि लोकतंत्र की वास्तविक भावना की सुरक्षा हेतु स्वतंत्रता संग्राम के सिद्धांतों और मूल्यों को व्यवहार का अंग बनाना है तो मौन या उत्साहहीन प्रयास एक विकल्प कभी नहीं हो सकता। एकमात्र उत्तर केवल सत्य बोलना तथा साहसपूर्ण रूप से कार्य करना है।
(b)“हमें न केवल अन्य लोगों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए, अपितु उन्हें सकारात्मक रूप से स्वीकार भी करना चाहिए”- स्वामी विवेकानंद।
ऊपर वर्णित शब्द स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्व धर्म संसद में बोले गए थे, जहां उन्होंने अमेरिका के लोगों को अपने भाइयों और बहनों के रूप में संबोधित किया था। यह धर्म, राष्ट्रीयता, जाति इत्यादि पर ध्यान दिए बिना प्रत्येक के प्रति स्वीकार्यता का एक सामान्य विचार प्रदर्शित करता है।
उद्धरण में अंतर्निहित मूल्य:
1. वसुधैव कुटुम्बकम : ‘पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने’ की अवधारणा भारतीय संस्कृति में निहित है। हमें अपने लोगों के बीच व्याप्त मतभेदों को स्वयं ही सुलझाना चाहिए और उन्हें मानवता के अंग के रूप में स्वीकृत करना चाहिए।
2. बहुसंस्कृतिवाद – अपनाना, न कि सहन करना: बहुसंस्कृतिवाद से तात्पर्य मुख्य रूप से अन्य संस्कृतियों में रुचि रखना, आबादी के सभी पक्षों में मौजूद विविधता का सम्मान करना और समस्त विश्व के साथ एकता एवं अखंडता को बनाए रखना है। सहिष्णुता एक नकारात्मक शब्द है, किसी विविध समाज में रहने का सकारात्मक पहलू उसमें व्याप्त अंतरों को आत्मसात करना, उनका सम्मान करना और उन्हें स्वीकार करना है। यही समाज को वास्तव में बहुसांस्कृतिक बनाता है।
3. सभी धर्म एक ही ईश्वर की प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं – वर्तमान समय में यह आवश्यक है कि विद्यालय से लेकर समाज के प्रत्येक स्तर तक नियमित रूप से अंतर-धार्मिक संवादों का आयोजन किया जाए। इससे सभी मतों में अन्तर्निहित ऐक्य की भावना से सम्बंधित उस सत्य से सबका परिचय कराया जा सके जिसे रामकृष्ण मानते थे तथा जिसकी वह शिक्षा देते थे। भारत एक ‘सभ्यता राज्य’ है न कि यूरोपीय सन्दर्भ वाला मात्र एक ‘राष्ट्र राज्य’ तथा भारत की स्थापना एक गतिशील बहुसंस्कृतिवाद पर हुई है। स्वामी विवेकानंद ने अलग-अलग धर्मों के उद्देश्यों को मूल रूप से अलग नहीं पाया। विभिन्न धर्मों के उद्देश्यों और सिद्धांतों के कारण वे एक दूसरे के साथ सामंजस्य में हैं। धर्म के अनुयायियों को इस सामंजस्य को समझना चाहिए तथा राष्ट्रीय और सामाजिक परिवेश में भाईचारे से रहना चाहिए।
अन्य कारकों के साथ-साथ जाति, धर्म व नृजातीयता के आधार पर विभाजित विश्व में विवेकानंद द्वारा दिए गए ये व्याख्यान अत्यंत प्रासंगिक हैं।
- धर्म और राजनीति के आपसी घालमेल से बचना– राजनीतिक हितों के लिए धर्म का दुरुपयोग करने से कहीं न कहीं, धर्म के वास्तविक उद्देश्य यथा शांति, सद्भाव और जीवन के उच्च उद्देश्य अपने मार्ग से भटक रहे हैं।
- धर्म के नाम पर घृणा और हिंसा को रोकना – ऐसे अनेक असामाजिक तत्व हैं जो धर्म के नाम पर घृणा उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। कई बार यह विभिन्न समुदायों में दंगों और तनाव का कारण बनता है। परिणामस्वरूप, कमजोर वर्गों और व्यापक रूप से समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- एकजुट और विविधतापूर्ण राष्ट्र की सुरक्षा के लिए- एक राष्ट्र के रूप में भारत विविधतापूर्ण होने के साथ ही एकजुट भी है। यह एकता केवल तभी संरक्षित की जा सकती है जब पूरा समाज एक-दूसरे को स्वीकार करे और एक साथ आगे बढ़े।
वर्तमान संदर्भ में धार्मिक स्वीकार्यता के संबंध में स्वामी विवेकानंद की शिक्षा अत्यधिक प्रासंगिक है। उनके शब्द न केवल एक धार्मिक भिक्षु द्वारा समाज को वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की शिक्षा देने के रूप में प्रासंगिक हैं बल्कि उनकी शिक्षा एक विविधतापूर्ण और एकजुट राष्ट्र का विचार देने के संदर्भ में भी अत्यधिक क्रांतिकारी है।
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