नगरीय क्षेत्रों की परिभाषा : शहरी क्षेत्र का गठन करने वाले तत्वों के संबंध में स्पष्टता की कमी

प्रश्न: शहरी क्षेत्र का गठन करने वाले तत्वों के संबंध में स्पष्टता की कमी भारत में अनियोजित विकास प्रतिरूप को प्रोत्साहित करती है। चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • शहरी क्षेत्रों को किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है तथा इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले मुद्दों के संबंध में संक्षिप्त चर्चा करते हए उत्तर आरंभ कीजिए।
  • शहरी क्षेत्रों की परिभाषा में स्पष्टता की कमी से उत्पन्न मुद्दों पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
  • जहां भी आवश्यक हो उचित आंकड़ों का समावेशन कीजिए।
  • आगे की राह प्रदान करते हुए निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर

भारत में अन्य स्थानों के समान शहरी क्षेत्रों की परिभाषा एक प्रमुख समस्या है। एक शहरी अथवा नगरीय क्षेत्र का गठन के लिए विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न मापदंड अपनाए जाते हैं। नगरपालिका से संबद्ध विभिन्न मापदंडों जैसे जनसंख्या, जनसंख्या घनत्व, अधिवास आदि के एक व्यापक श्रृंखला विद्यमान है।

नगरीय क्षेत्रों की परिभाषा में स्पष्टता का अभाव 

  • राज्य सरकार की परिभाषा- चूँकि, नगरीय विकास राज्य सूची का विषय है, इसलिए राज्य सरकार निश्चित मानदंडों के आधार पर एक क्षेत्र को “नगर” घोषित करने हेतु अधिकृत है। हालाँकि, नगर के रूप शासित होने वाली बस्तियों हेतु किसी भी निर्धारित दिशा-निर्देशों की अनुपस्थिति के कारण राज्य सरकार का निर्णय स्वेच्छाचारी हो सकता है। इस प्रकार, सभी राज्यों में मानदंड और मापदंड भिन्न-भिन्न होते हैं।
  • जनांकिकीय परिभाषा- केंद्र सरकार (रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा निरुपित) निम्नलिखित मानदंडों के आधार पर एक क्षेत्र को “नगर” के रूप में घोषित करती है यदि:
  • इसका एक नगरीय स्थानीय शासन (अर्थात् राज्य सरकार अधिसूचित सांविधिक कस्बे) हो और
  • कोई भी स्थान जो निम्नलिखित तीन मानदंडों को पूरा करता है यथा — 5,000 तक की न्यूनतम जनसंख्या, – मुख्य कार्यशील पुरुष जनसंख्या का कम से कम 75% गैर-कृषि कार्यों में संलग्न हो तथा- न्यूनतम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर (1,000 व्यक्ति प्रति वर्ग मील) का जनसंख्या घनत्व हो।
  • इस परिभाषा को वर्ष 1961 में अपनाया गया तथा अल्प संशोधनों के साथ वर्तमान में भी प्रचलित है।
  • इसलिए राज्य सरकारों द्वारा अनुसरण की गई पद्धति के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या का भाग लगभग 27% (जनगणना 2011 के अनुसार) है। हालाँकि, जनांकिकीय परिभाषा के अनुसार यह भाग बढ़कर 31% तक हो जाता है।
  • यद्यपि, राज्य सरकार जनगणना कार्यालय द्वारा घोषित जनगणना कस्बों को “नगर” के रूप में स्वीकार नहीं करती। सांविधिक कस्बों से पृथक ऐसे जनगणना कस्बों को राज्य सरकार द्वारा “गाँव” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है तथा ये ग्रामीण स्थानीय शासन/पंचायतों द्वारा शासित होते हैं।
  • इसके अतिरिक्त, विश्व बैंक के अग्लोमरेशन इंडेक्स के अनुसार नगरीय सकेन्द्रण के स्वेच्छाचारी अनुरूप वर्ष 2010 में नगरीय विशेषता से युक्त क्षेत्रों में निवास करने वाली भारत की जनसंख्या का भाग 55.3% था, जो प्रच्छन्न नगरीकरण को दर्शाता है।
  • राज्य/केन्द्रीय सरकारी अभिकरणों द्वारा किए गए मापन में इन पद्धति-विषयक (methodological) विभेदों के कारण देश में हो रहे नगरीकरण का महत्वपूर्ण अनुपात असूचित रह गया है तथा नगरीय विशेषताओं को प्रदर्शित करने वाले अनेक अधिवासों को ग्रामीण बस्ती के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

दोषपूर्ण वर्गीकरण के परिणाम

  • संसाधनों का दोषपूर्ण आबंटन : एक अनुमान के अनुसार, केंद्र सरकार के वित्तीयन का 80% से अधिक भाग ग्रामीण विकास हेतु व्यय किया जाता है। यह यथा-स्थिति में परिवर्तन विशेष रूप से ग्रामीण राजनीतिज्ञों के लिए प्रोत्साहनों को कम करता है।
  • सेवाओं के व्यवस्थापन में विभेद: भारत में नगरीय प्रशासन को संवैधानिक रूप से नगरों में अग्निशमन विभाग, सीवर लाइनों, मुख्य मार्गीय सड़कों और भवन संहिताओं जैसी सुविधाओं की व्यवस्था करना आवश्यक होता है जबकि ये सुविधाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय निकायों द्वारा उपलब्ध नहीं करवाई जाती। इससे नगरीय क्षेत्रों में मूलभूत सेवाओं का व्यवस्थापन कठिन हो जाता है।
  • अधिकार-क्षेत्र का अतिव्यापन: कभी-कभी एकल इकाई गतिशीलता, सार्वजनिक वस्तुओं अथवा नगरपालिका सेवाओं पर समन्वय हेतु बिना किसी व्यवस्था के ग्रामीण और नगरीय अधिकार-क्षेत्रों की बहुलता द्वारा शासित होती है।
  • अपर्याप्त विधि प्रयोज्यता: नियोजित वृद्धि और विकास सुनिश्चित करने हेतु नियमों एवं विनियमों, उप-नियमों का निर्माण, विकास नियंत्रण और करारोपण ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवर्तनीय नहीं हैं।

ये सभी विनियमन और नियोजन के अभाव द्वारा चिन्हित अव्यवस्थित एवं विश्रृंखल विकास को प्रोत्साहित करते हैं। भौतिक रूपांतरण के प्रबंधन में ग्रामीण अभिकरणों के अपर्याप्त अनुभव के परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों में अव्यवस्थित परिस्थितियों का सृजन होता है।

इस प्रकार, एक क्षेत्र को “नगर” के रूप में घोषित करने में राज्य सरकारों द्वारा अनुसरण किए गए मानदंडों में वृद्धि करते हुए तथा बढ़ते दबाव से निपटने हेतु बेहतर सुसज्जित प्रणालियों के साथ “नगरों” में तीव्र रूपांतरित होने वाले ग्रामीण क्षेत्रों के प्रशासनिक दर्जे में परिवर्तन के द्वारा भारत में नगरीकरण के बेहतर आकलन के माध्यम से इस शासकीय अभाव के समाधान की आवश्यकता होती है। हालांकि, परिभाषा में लोचशीलता को बनाए रखने की आवश्यकता होती है जिसे आवश्यकतानुसार विस्तारित किया जा सकता है।

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