मॉर्ले-मिंटो सुधार : राष्ट्रवादियों एवं आंदोलन पर अधिनियम के प्रभाव का मूल्यांकन

प्रश्न: मॉर्ले-मिंटो सुधारों का वास्तविक उद्देश्य सांप्रदायिकता के विकास को प्रोत्साहित करके भारतीयों के मध्य राष्ट्रवादी खेमों की एकता को खंडित करना था। इस संदर्भ में, चर्चा कीजिए कि यह सुधार अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में कहां तक सफल रहा।

दृष्टिकोण:

  • परिचय में स्पष्ट कीजिए कि यह अधिनियम झूठे वादों का पुलिंदा था।
  • तत्पश्चात यह रेखांकित कीजिए कि किस प्रकार भारतीयों के मध्य विभाजन के लिए सांप्रदायिकता और संविधान के वादे का उपयोग एक उपकरण के रूप में किया गया था।
  • राष्ट्रवादियों एवं आंदोलन पर अधिनियम के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।

उत्तरः

मॉर्ले-मिंटो सुधार (जिसे 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम भी कहा जाता है) झूठे वादों का पुलिंदा था क्योंकि इससे प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में कोई लोकतांत्रिक परिवर्तन नहीं हुआ। इससे उदारवादियों को अत्यधिक निराशा हुई।

वास्तविक उद्देश्य 

  • वास्तव में इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीयों को धार्मिक आधारों पर विभाजित करना और राष्ट्रवादी भावनाओं एवं आंदोलन को कमजोर करना था।
  • इन सुधारों द्वारा पृथक निर्वाचक-मंडल की व्यवस्था आरंभ की गयी जिसके अंतर्गत केवल मुस्लिम ही विशेष रूप से उनके लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मतदान कर सकते थे।
  • यह इस धारणा को प्रोत्साहित करने हेतु किया गया था कि हिंदुओं और मुसलमानों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हित साझा नहीं बल्कि पृथक थे।
  • इसके अतिरिक्त, मॉर्ले और मिंटो ने उस समय इस अधिनियम को निर्मित एवं लागू किया, जब भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व नरमपंथियों से गरमपंथियों के हाथों में स्थानांतरित हो रहा था।
  • उनका उद्देश्य गरमपंथियों के साथ गठबंधन तोड़ने के लिए नरमपंथियों को प्रेरित करने हेतु उनके प्रति तुष्टिकरण की नीति को अपनाना तथा उन्हें पुरस्कृत करना था। इसके साथ ही उनका उद्देश्य मुस्लिमों को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से अलग करने हेतु उन्हें प्रलोभन देना था। इस प्रकार वे गरमपंथियों के आधार और संगठन को सरलता से समाप्त करना चाहते

प्रभाव

  • हालांकि इस अधिनियम में भारत में संसदीय या प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की मांगों को अस्वीकृत कर दिया गया था तथापि गोखले जैसे नरमपंथियों ने सुधारों का विरोध नहीं किया। बल्कि उन्होंने सुधारों के कार्यान्वयन के लिए अनुकूल परिवेश के निर्माण का प्रयास किया।
  • हालांकि वे अधिनियम के प्रावधानों, विशेष रूप से पृथक निर्वाचक-मंडल से संबंधित प्रावधानों से निराश थे किन्तु फिर भी उन्होंने असंतोष को प्रकट नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि कोई भी आलोचना भारत में गरमपंथी आंदोलन का मार्ग प्रशस्त करेगी।
  • इस प्रकार, कांग्रेस के सूरत विभाजन के पश्चात ब्रिटिश शासक, पहले की अपेक्षा तीन गुना अधिक कठोर नीतियों को लागू करके बहिष्कार एवं स्वदेशी आंदोलन को नियंत्रित करने में सफल रहे। इन नीतियों में संवैधानिक रियायतों और आधिकारिक संरक्षण की योजना के अंतर्गत नरमपंथियों को एकजुट करना तथा पृथक निर्वाचक-मंडल एवं अखिल भारतीय मुस्लिम लीग को संरक्षण प्रदान कर मुस्लिमों को प्रसन्न करना और गरमपंथियों का बलपूर्वक दमन करना सम्मिलित हैं।
  • इस प्रकार, इस अधिनियम ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक अक्रिय चरण उत्पन्न किया जिसे 1915 में महात्मा गांधी के आगमन के बाद ही पुनः सक्रिय किया जा सका।
  • इसके अतिरिक्त पृथक निर्वाचक-मंडल की व्यवस्था उन सर्वाधिक विध्वंसक निर्णयों में से एक थी जिनमें भविष्य के विभाजित और रक्त-रंजित भारत के आरंभिक बीज छिपे हुए थे।

Read More

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.