मराठा राज्य व्यवस्था

यह इकाई में अठारहवीं शताब्दी के मध्य में भारतीय राजनैतिक व्यवस्था को समझाने का एक प्रयास है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप –

  • मराठा राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप संबंधी कुछ मतों का उल्लेख कर सकेंगे। ।
  • अठारहवीं शताब्दी में मराठा राज्य संघ और उसके विस्तार पर प्रकाश डाल सकेगे।
  • मराठों द्वारा स्थापित राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना का वर्णन कर सकेंगे और इस प्रकार मराठों को “लुटेरा” कहे जाने के परम्परागत मत में सुधार ला सकेगे,
  • क्षेत्र विशेष की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को रेखांकित कर सकेंगे।
  • मुगल सामाज्य, अन्य क्षेत्रीय शक्तियों और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ मराठों के संबंध को निरूपित कर सकेंगे।

सत्रहवीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी दक्कन में छोटे मराठा राज्य का गठन हुआ। यह क्षेत्र कालांतर में मराठा राज्य का केन्द्र बिन्दु बना और अठारहवी शताब्दी में तथाकथित दूसरे बड़े मराठा स्वराज्य (संग्नम् राज्य) का विस्तार उत्तर, पूर्व और दक्षिण दिशाओं में हुआ। दक्कन से मुगालों की वापसी के बाद मराठों ने अपने सैनिक नेताओं या सरदारों के नेतृत्व में मिला-जुला संघ या राज्य संघ स्थापित और विकसित किया। आरंभ में इन सरदारों ने अपने को राजस्व वसूली तक सीमित रखा पर एक बार पैर जमा लेने के बाद उन्होंने इस पर वंशानुगत अधिकार जमा लिया। इस इकाई में पश्चिमी दक्कन में मराठा राज्य की स्थापना, उसकी नयी और शक्तिशाली राजनीतिक व्यवस्था पर प्रकाश डाला जा रहा है।

मराठा राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप पर इतिहासकारों का मत

सामाज्यवादी इतिहास लेखन अठारहवीं शताब्दी के मराठा राज्य को अव्यवस्था और अराजकता का पर्याय मानता है। दूसरी तरफ राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के तहत माहुत से मराठी इतिहास लेखक मराठा राज्य को हिन्दू साम्राज्य की पुनर्स्थापना का अंतिम प्रयास मानते है। बरफान हबीब का मानना है कि मराठों का उदय वस्तुत: मुगल साम्राज्य के शासक वर्ग (मनसबदारों और जमींदारों के खिलाफ जमीदारों के विद्रोह का प्रतिफल था। वे मराठा राज्य के निर्माण में जमींदार वाले संदर्भ पर विशेष जोर देते है। सतीश चन्द्र का मानना है कि मुगलों की जमींदारी व्यवस्था आय और व्यय के संतुलन को कायम रखने में असफल हुई और इस संकट का लाभ उठाकर मराठों ने क्षेत्रीय स्वतंत्रता स्थापित करने का सफल प्रयत्न किया।

सी. ए. बेली तीन लड़ाकू राज्यों (मराठा, सिक्ख और जाट) का उल्लेख करते हुए बताते है कि पाह मारतीब-मुस्लिम कुलीन तंत्र के खिलाफ एक लोकप्रिय या कृषक विद्रोह था। उनके अनुसार मराठों ने साधारण कृषको और चरवाहों की जाति से शक्ति अर्जित की, पर प्रशासन के उच्च पदों पर मराठा माहमणों का वर्चस्व रहने के कारण मराठा राज्य को “माहमण” राज्य के रूप में देखा गया। तीर्थ स्थलों और पवित्र पशुओं की रक्षा करना इसकी उल्लेखनीय जिम्मेदारी थी। इस प्रक्रिया के तहत राजनीतिक मनमुटाव और फूट का लाम उठाया जाता था और सीधी सैनिक कार्यवाई के बदले दबाब तथा समझौते का सहारा लिया जाता था।

इस प्रकार फितना एक राजनीतिक क्रियाविधि थी, जिसका उपयोग क्षेत्र विस्तार, सदीकरण और अंतत: मराठा शक्ति को संस्थागत रूप देने के लिए किया जाता था फितना के सही राजनैतिक समीकरण के लिए जनता का सहयोग और स्वीकति भी आवश्यक समझी गयी। यह विजय प्राप्त करने के साथ-साथ कृषि प्रोतों पर अधिकार स्थापित करने के लिए भी जरूरी था।

17वीं शताब्दी के उत्तराद में फितना द्वारा ही मराठों ने मुगल सामाज्य के विस्तृत इलाकों पर कब्जा जमाया। उन्होंने मुगलों के खिलाफ विभिन्न वक्कनी सुल्तानों से गठबंधन किया। अंतः, विक का मानना है कि मराठा संप्रभुता के उदय को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के रूप में देखने की अपेक्षा उसकी जड़ मुगल साम्राज्य के विस्तार में ही खोजी जानी चाहिए। मराठा स्वराज्य एक प्रकार की जमीदारी थी और मराठों ने वस्तुत: कभी भी जमींदार की भूमिका से अपने को अलग नहीं किया।

फैक पर्लिन राज्य और राज्य निर्माण की अवधारणा को विशाल और दीर्घकालीन अन्तरराजनीतिक, उपमहाद्वीपीय और अन्तर-राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखना चाहते हैं। इसके कई कारण है। राज्य का विकास लंबे समय में हुआ था, जिसमें विभिन्न शासनकाल और शताब्दियों  से 19वीं शताब्दी) शामिल थी। इसके अलावा औद्योगिकीकरण के पूर्व यूरोप और भारत की स्थिति में हो रहे परिवर्तनों को तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए।

मराठा राज्य संघ

अठारवीं शताब्दी के दूसरे दशक में दक्कन और मध्य भारत में बाजीराव पेशवा प्रथम का आगमन शाक्ति मुगलों के आधिपत्य को लगभग समाप्त कर चुकी थी। इसके बावजूद 1180 के दशक की संधियों में मुगल और मराठों के बीच) मुगल बादशाह की वरीयता स्वीकार की जाती रही। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि चौध वसूली के लिए औपचारिक रूप से मुगल बादशाह की अनुशंसा ली जाती रही, वस्तुतः यह मराठा संप्रभुता की स्थापना की पूर्वपीठिका थी ।

राजा और पेशवा

1719 ई. में बालाजी देशमुख को दिल्ली दरबार से चौथ और सरदेशमुशी का फरमान प्राप्त हुआ। मराठा राजा को सम्पूर्ण दक्कन औरंगाबाद, मेरार, बीदर) और कर्नाटक का सरदेशमुख बना दिया गया।

1719 ई. में बालाजी विश्वनाथ ने साह और उसके सरदार के बीच चोथ की वसुली और सरदेशमुख का विभाजन कर दिया। इस वसूली का एक निश्चित अंश (सरदेशमुखी- चौथ का 34%) राजा के कोष में जमा होता था। इस प्रकार राजा अपने वित्तीय संस्थानों के लिए काफी हद तक सरदारों पर निर्भरशील था।

आरम्भ में पेशवा केवल मुखिया प्रधान या प्रधानमन्त्री होता था और उसका पद वंशानुगत नहीं था। पर 1720ई. में बालाजी विश्वनाथ का पत्र बाजीराव पेशवा बना। इसी समय से यह पद वंशानुगत हो गया। 1740 में बालाजी बाजीराव (नाना साहब) पेशवा बना। 1749 में साह के निधन तक वह सतारा के राजा के अधीन बा। इसके बाद उसने वस्तुत: राजा की संप्रभु शाक्ति अपने हाथों में समेट ली। पेशवा और उनके सरदार काफी लंबे समय से मराठा राज्य के विस्तार में प्रमुख भूमिका निभाते चले गा रहे थे। 1740 के दशक में मराठों ने मालवा, गुजरात, बुंदेलखंड, उत्तर में अहौक, रावस्थान दोआम, अवध, मिहार और उड़ीसा पर अपना अधिकार जमा लिया। गांडे बिक का मानना है कि ये सारी जीतें फितना (निमंत्रण पर आक्रमण) के तहत ही सम्पन्न हुई । इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि 1740 के दशक के दौरान उत्तर में मराठा संप्रभुता की स्थापना निर्णायक रूप में नहीं हो सकी थी और दक्षिण में मी इसकी स्थिति क्षणभंगुर और सीमित थी।

नागपुर के भोसले

परसोजी भोसले पूना जिला के एक गांव के मुखिया परिवार का वंशज था। उसने पहली बार उत्तर-पूर्व में पेशवा से स्वतंत्र होकर चौथ वसूलना शुरू किया। 1707 में जब साडू मुगल दरबार से वापस आया, तो वह सबसे पहले उपस्थित होने वाले सरदारों में से एकया। साहू ने उसके बेरार अभियान को मान्यता दी और बालाजी विश्वनाथ ने भी बेरार, गोडवाना और कटक पर उसके स्वतंत्र अधिकार को मंजूरी दे दी। 1743 ई. में साहू ने बिहार, उड़ीसा, बरार और अवध प्रांत की चौथ की वसूली का जिम्मा और सरदेशमुखी रघुजी मोसले को सौंप दिया। 1755 में रघुजी की मृत्यु के बाद पेशवा ने मोसले की शक्ति पर अंकुश लगाया और सर अजाम को तीन हिस्सों में बांटकर उन्हें काफी हद तक कमजोर बना दिया।

बड़ौदा के गायकवाड़

18वीं शताब्दी के दौरान जिन मराठा सरदारों ने मुगलों के गुजरात प्रति पर आक्रमण का नेतृत्व किया, उनमें प्रमुख थे-बाद, पवार और दामादे। दामादे गायकवाड़ों के सेनापत्ति घे, 1730 के आसपास उनकी शक्ति में वृद्धि हुई।

1727 ई. में गुजरात के मुगल सुमेवार ने साह को पुरे गुजरात के भू-राजस्व के 10% की सरदेशमुखी और गुजरात के दक्षिण की चौव वसूली का अधिकार दिया। इसके बदले में साहू को उस प्रांत की लुटेरों से रक्षा करनी थी।

साहु की मौत के बाद, 1749 में पेशवा ने गुजरात की चौथ और सरदेशमुखी अपने और दामादे के बीच बाट लिया। 1751 ई. में गायकवाडों ने दामादों की जगह समाली और 1752 में बडौदा को अपनी राजधानी बनाया। नागपुर के मोसले की तरह गायकवाड़ शासक सरजंजामबार की हैसियत से काम करते रहे। ये इंतजामकार मात्र थे राजा नहीं।

इंदौर के होल्कर

मध्य प्रदेश हिन्दुस्तान और दक्कन का राजनीतिक और वाणिज्यिक संधि-स्थल था, इस इलाके पर 1699 से ही मराठों का आक्रमण होता जा रहा था। 1716 में पहली बार नर्मदा के पास मराठा चौकी स्थापित हुई और उसके तुरंत बाद चौथ का दावा किया गया। 1738 में बरोहा सराय की जीत के बाद पेशवा को मालया उप-राज्यपाल बनाया गया। इस समय तक (1730 के दशक में ही) पेशवा ने चोय की वसूली और सरदेशमुखी अपने और सिंघिया, होकर और पवार के बीच बाट ली थी। पेशवा का मालवा के पूर्वी हिस्से पर अधिकार था जबकि पश्चिमी हिस्से के वंशगत सर अंजाम होकर, सिंघिया और पवार थे।

सिधिया और गायकवाड़ की तरह होल्कर भी ग्रामीण वतनदार का वंशज या। 1733 में उन्हें इंदौर का भार सौंपा गया, जिसे उन्होंने अपने राज्य या दौलत के कप में विकसित किया। हालांकि तकनीकी तौर पर यह एक सर अंधाम ही रहा। अपने उत्कर्ष के दिनों में भी होल्कर पेशवा केति वफादार रहे। 1788 और 1793 के बीच होल्का और सिपिया के बीच लगातार झड़पे होतो रहीं। राज्य विस्तार की दृष्टि से होल्कर सिंधिया से काफी पीछे था।

ग्वालियर के सिंधिया

18वीं शताब्दी के अंतिम दाई दशकों के पहले तक ग्वालियर पर सिंघिया वंश का अधिकार नहीं था। इस परिवार ने मालवा में शक्ति अर्जित की  और मुख्यालय उज्जैन था। सिधिमा मी पेशवा के अधीन सर अंजामदार थे। 1761 के पानीपत के युद्ध में अपने पिता की सेना के सर्वनाश के बाद महादजी सिंघिया माग खड़ा हुआ और उसने मालवा पर अपना अधिकार पुनस्र्थापित किया। मल्हार राव होल्कर की मृत्यु के बाद वह हिंदुस्तान का वास्तविक संप्रभु शासक बन गया।

संस्थागत विकास

मुगल कभी भी सही ढंग से महाराष्ट्र पर अधिकार नहीं जमा सके थे। महाराष्ट्र की परंपरागत प्रशासनिक और सम्पत्ति व्यवस्था अपाप गति से 18 वीं शताब्दी तक कायम रही।

प्रशासनिक संरचना

मराठा राज्य को मोटे तौर पर अनियंत्रित और निमंत्रित इलाकों में बाँटा जा सकता है। अनियंत्रित इलाकों के अधीन राज्य का वह हिस्सा आता था, जो जमीदारों, स्वायत्त और प्रर्दस्वायत्त सरदारों के अधीन था। ये सरकार आंतरिक प्रशासन के मामले में स्वायत्त थे। राजा इस इलाके से नजराना वसूल किया करता था पर भू-राजस्व की तरह नियंत्रित इलाके में) इनकी राशि निश्चित नहीं थी। सरदार की शक्ति से नजराने की राशि तय होती थी। मजबूत सरदार कम नाज़राना दिया करते थे, जबकि कमजोर सरदारों को अधिक भुगतान करना पड़ता धा।

नियंत्रित इलाकों या प्रत्यक्ष प्रशासन वाले इलाकों में राजस्व निर्धारण, प्रबन्धन और लेखा की समुचित व्यवस्था थी। यह इलाके वतनदारों  को सौंप दिए गये थे। देशमुख देशपांडे के अधीन 10 से लेकर 100 गाँव होते थे। वतनदार व्यवस्था के अंतर्गत अधिकार किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, बल्कि कुल या परिवार को सौंपे जाते थे। वतनदारों का भूमि की उपज पर सामूहिक हिस्सा होता था, इसके अतिरिक्त उन्हें कुछ अधिकार प्राप्त थे, जैसे खेतिहरों से बतौर पेतन बकाया वसूली तथा सरकार की राजस्व मुक्त भूमि में हिस्सा। वतन के हिस्सों के बंटवारे में जमीन का बंटवारा नहीं होता था, बल्कि उपज का बटवारा होता था।

किसी भी वंशानुगत संपरा को बेचने का अधिकार मान्य था। ऋषीय, वित्तीय या प्रशासनिक संकट के दौरान यह नियंत्रण ढीला किया जा सकता था और माजस्व वसूली में जमीदारों को थोड़े समय के लिए स्वतंत्रता दी जा सकती थी। जोतबार दो तरह के होते थे।

  • पहली श्रेणी के जोतदार को मिरसदार कहते थे। ये स्थायी जोतदार होते थे, जिनके पास बंशानुगत मिस्कियत होती थी।
  • दूसरी श्रेणी के जोतदारों को उपरिस कहते थे। ये अस्थायी जोतदार होते थे। दक्षिण महाराष्ट्र और गुजरात की जोतदारी व्यवस्था और भी जटिल थी।

18वीं शताब्दी में मी अधिकांश नियंत्रित इलाकों में परंपरागत रूप से चले आ रहे निर्धारण मानदंड ही कायम रहे। पेशवा के अधीन तरवा राजस्व निर्धारण का आधार था। यह प्रत्येक गाँव के लिए एक स्थायी निर्धारण-मानदंड था।

1750 के दशक के अंत और 1760 के दशक के दौरान कमल (या समापन) बंदोबस्त लागू किया गया। इसने तरवा बंदोबस्त के परक का काम किया और इसके अधीन नयी जोती गयी भूमि भी शामिल कर ली गई। भूमि की उर्वरता के निधारण और वर्गीकरण पर आधारित था और उपज में राजा का 1/6 हिस्सा होता था।

एकबार ग्रामीण कर निर्धारण (तंखा या कमाल) का आंतरिक वितरण तय हो जाने पर, बाकी कार्य पाटिल (गाँव का मुखिया) या पूरे गाँव के जिम्मे छोड़ दिया जाता था। नियमित मूराजस्व के अतिरिक्त सरकार कई अन्य कर लगाती थी (गाँव के खर्च के मद में) जिसका लेखा-जोखा गाँव और जिला पदाधिकारी को कम विस्तार या ममलतवार करते थे।

अठारहवीं शताब्दी के दौरान, दक्कन, दक्षिणी मराठा ग्रामीण इलाको, गुजरात, मध्य भारत और नागपुर में सालाना बंदोमस्त का रिवाज था। 1790 और 1810 के दशक में, जब पेशवा को सेना के खर्च और अंग्रेजों को भुगतान करने के  लिए अधिक धन की जरूरत पड़ने लगी तो राजस्व में बढ़ोत्तरी की गयी और सरकार की मांग महाराष्ट्र में एक चौथाई से ज्यादा राजस्व का भुगतान नगदी नहीं किया जाता था। अधिकतर, इस राजस्व कोबडी विनिमय-पत्र) के माध्यम से गांव से जिला और जिले से पूना भेज दिया जाता था।

सैद्धांतिक तौर पर उत्तरी सरगंजाम राज्यों (होल्कर, सिधिया, ग्वालियर और मोसले) की प्रशासनिक व्यवस्था पेशवा की प्रशासनिक व्यवस्था का प्रतिरूप थी। इन राज्यों में केषल दीवान और पर्यवेक्षक पदाधिकारी अतिरिक्त होता था, जिसकी नियुक्ति पूना से होती थी।

दीर्घकालिक प्रवृत्तियाँ

14वीं-15वी शताम्बी से पूरे उत्तर और पश्चिमी वक्कन मध्य प्रांतों, गुजरात और राजस्थान में कुछ घरानों ने पदों और अधिकारों पर कब्जा करके तेजी से शक्ति अर्जित की और अपने प्रभाव को बढ़ाते हुए राच्यों का निर्माण किया। 17वीं शताम्दी के महाराष्ट्र के बडे घरानों मसलन मोसले ने प्रशासनिक ढांचे में परिवर्तन किया। वित्तीय और सैन्य क्षेत्रों में भी बदलाव आया। नये सिरे से भूमि सर्वेक्षण किया गया। नागद राजस्व की वसूली होने लगी, लेखा-जोखा का नया ढंग विकसित हुआ।

राज्य की केंद्रीकृत शक्तियों और स्थानीय किसानों के संगठनों के बीच तनाव की स्थिति बनी रहती थी। राज्य की मांग को विरोध करने के लिए अक्सर वतनदार समाएं (गोता) बुलाई जाती थी। 17वीं शताब्दी में ये समाएं लोकप्रिय प्रतिरोध का केन्द्र थीं। 18वीं शताब्दी में क्षेत्रीय और ग्रामीण मुख्यिाओं की सत्ता और शक्ति क्षीण हुई और नयी प्रशासनिक व्यवस्था सामने आयी।

ऊपर जिन घरानों का जिक्र किया गया है उनकी आर्थिक शक्ति भूमि, श्रम और पूंजी के नियंत्रण पर आधारित थी। यही माध्यम शाही दरबार और स्थानीय किसान को जोड़ने का कार्य करता था।

समाज और अर्थव्यवस्था

खेतिहर समाज

18वीं शताब्दी तक आते-आते मराठा ग्रामीण राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी। इसका मतलब यह हुआ कि कृषीय बस्तियों और जनसंख्या में भी विस्तार आ चुका था। पूना के आसपास का इलाका असिंचित था और यहाँ जनसंख्या भी अपेक्षाकत विरल थी। तत्कालीन तकनीकी विकास को ध्यान में रखें तो यह इलाका 16वीं शताब्दी के मध्य में अपने विकास के छोर पर था। इसी से पता चलता है कि क्यों मराठे दक्षिण में तंजोर, गुजरात और उत्तर में गंगा की घाटी जैसे स्थायी खेतिहर इलाकों पर कब्जा जमाने का प्रयत्न करते थे। करों में हो रही वृद्धि और अन्य जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ाने पर मी जोर दिया गया।

इस क्षेत्र में मराठा शासकों ने दो कदम उठाए। सबसे पहले उन्होंने रियायती निर्धारण (दस्तवा, करों की माफी और कजों को सुनियोजित किया। इससे नयी भूमि पर खेती समवहो सकी। दूसरे कदम के तहत कृषि संसाधनों के विकास के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। गया। उदाहरण के तौर पर, शिवाजी के शासनकाल में पुराने बांध की मरम्मत और नये बांध के निर्माण के लिए गांव के मुखिया को इनाम में भूमि दी गयी थी ।

इतिहासकार फुकुजावा ने बताया है कि मराठा शासकों के इन उपायों राज्य द्वारा कृषि का विस्तार राजस्व व्यवस्था आदि) के कारण कृषकों के बीच एक प्रकार की आर्थिक विषमता का जन्म हुआ। उन्होंने बताया है कि लोगों के पास 18 एकड़ से लेकर 108 एकड़ तक जामीन थीं। उनके अनुसार 1790 से 1803 के मीच छोटे जोत पूरी तरह लुप्त हो गये। दूसरी ओर बड़े भूमिपतियों की संख्या में वृद्धि हुई।

18वीं शताब्दी तक आते-आते जनसंख्या, करापान और खाद्यान्न की कीमत में वृद्धि होने से कृषकों के शोषण में वृद्धि हुई। इस तथ्य के अनेक प्रमाण उपलब्ध है कि मंत्रियों देशमुखो और सरजाम प्राप्त सैनिक अधिकारियों, व्यापारियों, महाजनों जैसे गैर उत्पादक वर्ग का कृषि पर प्रमुत्व बढ़ता गया। इनमें से कई एक ही साथ कई भूमिकाएं निभाते थे। इस प्रकार देहाती इलाकों में शने:-शने: सामाजिक विषमता बढ़ती गई। ग्रामीण स्रोत पर नियंत्रण रखने के तीन तरीके थे-कर, इनाम मूमि और बंशानुगत पद्ध।

नगदी व्यवस्था

हम जिस काल का अध्ययन कर रहे है उसमें दक्षिणी दक्कन, बंगाल, बिहार और गुजरात के तर्ज पर महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था में मुद्रा के निर्माण और नगदी फसलों के उत्पादन में वृद्धि हुई और बाजारों से इनका संबंध स्थापित हुआ।

17वी-18 वीं शताब्दी में शहरी और देहाती इलाकों में कर्ज वेने वाली संस्थाएं कार्यरत थी। ये संस्थाएं कर्ज से लदे कुलीन वर्ग और किसानों को ऋण देने के साथ-साथ, रोजाना के आर्थिक कार्यकलापों में भी हिस्सा लेती थी। 18वीं शताब्दी के दौरान पश्चिमी दक्षकन में तांबे और कौड़ियों का आयात सक्रिय और विकसित नगदी स्थानीय बाजारी केन्द्रों की मौजूदगी की और पश्चिमी दक्कन के ग्रामीण बाजारों में ही नगदी का आदान-प्रदान नहीं होता था, बल्कि खेतिहर मजदूरों की रोजाना और मासिक मजदूरी, हस्तशिल्प उत्पादन और घरेलू कार्यो के लिए भी नगद मुगतान किया जाता था।

खोटे बाजारी शहरों, महत्वपूर्ण सरदारों के रिहायशी मकानों और बड़े नगरों में भी बड़े और छोटे टकमाल देखने को मिलते थे। वस्तुत: 18वीं शताब्दी के उत्तराई में प्रचलित ग्रामीण नगदी व्यवस्थाओं की सूचना बड़े पैमाने पर मिलती है। महाराष्ट्र में किसानों, खेतिहर मजदूरो, शिल्पियों और सैनिकों द्वारा नगद और वस्तु में कर्ज लेने के मरपूर प्रमाण उपलब्ध है। कर्ज लेने और उसे लौटाने से संबंधित लिखित दस्तावेज भी उपलब्ध हुए हैं। इससे पता चलता है कि साधारण व्यक्ति भी इस व्यवस्था से पूरी तरहं परिचित था।

अन्य राज्यों के साथ मराठा के संबंध

बंगाल

1740 ई. में नादिरशाह के आक्रमण और अलीवी खां की मत्यु के शोध भाव बंगाल, बिहार और उड़ीसा के मुगल प्रांत के नवाब ने अपने प्रतिवादियों के खिलाफ पेशवा से मदद मांगी। प्रतिवेदी दल को रघुजी भोसले का समर्थन प्राप्त था। इस सहायता के बदले 1743 में इस इलाके का चौथ पेशवा को सौंप दिया गया। हालांकि बाद में रघुजी भोसले की अपील पर साहु ने मंगाल, बिहार और उड़ीसा का चौथ और सरदेशमुखी रघुजी भोसले को सौंप दिया। 1751 की संधि के तहत नवाब ने नागपुर के मोसले को मंगाल, बिहार और उड़ीसा के चौथ के रूप में 12 लाख रूपया देना स्वीकार किया।

हैदराबाद

दक्कन के वायसराय के रूप में 1715 से 1717 तक निजाम ने दक्कन में मराठों के चौथ और सरदेशमुखी के दाये का लगातार विरोध किया और दोनों पक्षों में बराबर संघर्ष होता रहा। 1720 के आसपास उसने कृषि और राजस्व पदाधिकारियों को मराठों द्वारा वसूली को रोकने के लिए प्रोत्साहित किया। 1724 में उसने पेशवा को इस वसूली की अनुमति दे दी। इसके एवज में पेशवा को निजाम के विरोधियों से उसकी रक्षा करनी थी। 1725-26 में मराठों द्वारा कर्नाटक पर आक्रमण करने के बाद यह संधि टूट गयी। अत: निजाम ने दक्कन सूर्य की राजस्व वसूली का जिम्मा कोल्हापुर के सांमाजी को सौप दिया। 1728 में पेश या ने पालखेड में निजामा को हरा दिया. इसके बाद ही निजाम कोल्हापुर से संबंध समाप्त करने के लिए तैयार हुआ।

1752 में पुना और हैदराबाद के बीच का संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पा, इस समय गोदावरी और ताप्ती के बीच बरार के पश्चिमी हिस्से पर मराठों ने कब्जा जमा लिया।

मैसूर

मराठों ने अपना क्षेत्र तुंगभद्र तक फैला लिया था और मैसुर के हैदर अली और टीपू सुल्तान से उनका बराबर संघर्ष होता रहता था। उन्होंने 1726 ई. में मैसूर से नजराना भी वसूल किया चा। 1764-65 और 1769-72 में पेशवा ने हैदरअली के खिलाफ सफल अभियान किया और 1772 की संधि के अनुसार दर के हाथ से तुंगभद्र का दक्षिणी क्षेत्र निकल गया। 1776 के बाद, हैदरअली ने मराठा राज्य के कृष्णा-तुंगभद्र दोआब इलाके पर आक्रमण किया। 1780 में जाकर ही अंग्रेजों के खिलाफ मैसूर और मराठों के बीच अल्पकालीन संधि हुई।

राजस्थान

इस इलाके में मराठों ने नियमित प्रत्यक्ष प्रशासन स्थापित नहीं किया। हालांकि 18 वीं शताब्बी के तीसरे-चौये दशक के दौरान मराठों ने राजपूत राज्यों, खासकर बूंदी, जयपुर और मारवाड़ के आदरूनी कलह में कमी-कमी हस्तक्षेप किया। 1735में बाजीराव के राजस्थान जाने के पूर्व केवल छोटे राज्य मराठोंको चौथ देते ये पर अब उदयपुर और मेवाड़ ने मी चौथ देना स्वीकार किया। पानीपत के युद्ध के बाद मराठों की बिगड़ी स्थिति के कारण यह कुछ दिनों तक स्थगित रहा, पर पुन: होल्कर और उसकी मत्यु के बाद सिपिया, पेशवा और बादशाह के प्रतिनिधि के रूप में नौथ की वसूली करते रहे।

मुगल शासक

जब 1752 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने लाहौर और मुल्तान पर कम्जा जमा लिया, तब . मुगल मादशाह ने मराठों से रक्षा के लिए मदद मांगी। 1752 ई. में बादशाह में एक संधि के सहत मल्हार राव होल्कर और जयप्पा सिपिया को पंजाब और सिंघ और दोआन के चोय के साथ-साथ अजमेर और आगरा की सुबेदारी देने का वादा किया। इसके एवज में होल्कर और सिंघिया को बाहरी दुश्मनों और षडयंत्रकारियों से मुगल बादशाह की रक्षा करनी थी। पर 1761 के पानीपत के युद्ध में मराठे अहमदशाह अब्दाली के सामने टिक नाही पाये और उनकी पराजय हुई। पंजाम और राजस्थान उनके कब्जे में नहीं रहा।

1784 में शाहआलम ने दिल्ली और आगरा की प्रशासन व्यवस्था में परिवर्तन किया और मासिक मता लेकर दिल्ली और आगरा का मार सिंधिया पर सौप दिया। पेशवा को रिजेट (Regent) और सिंघिया को डिपुटी रिजेंट (Deputy Regent) की उपाधि प्रदान की गई। इसी बीच रोहिल्ला सरदार गुलाम कादिर खाँ ने शाहबालम को अपदस्थ कर दिया, पर शीघ्र ही सिंधिया ने रोहिल्ला सरदार को निकाल बाहर किया और पुन: शाह आलम ने सिंधिया को उपाधि वापस कर दी।

इस उपलब्धि से सिंधिया को कोई खास शक्ति नहीं मिली; क्योंकि अधिकांश मुगल सरदार बादशाह के नियंत्रण में नहीं थे। अत:, सिपिया ने राजपूतों पर अपना दबाव बढ़ाना शुरू किया।

ईस्ट इंडिया कम्पनी

1739 में मराठों ने पुर्तगालियों से बेसिन छीन लिया। इसके बाद कम्पनी की बम्बई शाखा ने बंगाल की किलेबंदी करने का निश्चय किया। उन्होंने साह के साथ संधि की, जिसके तहत मराठा राज्य में अंग्रेजों को मुक्त व्यापार करने की छूट मिल गयी। मराठा राज्य संघ (पेशवा और बरार और सत्तारा के राजा) के विभिन्न गुटों और पेशवा परिवार की अन्दरूनी लड़ाई का फायदा कम्पनी ने उठाया और वा मराठा राज्य के मामले में हस्तक्षेप करने लगी। कम्पनी के षडयंत्र और उनकी सरजामबारों के पतन के कारणों और घटनाओं पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

सारांश

इस इकाई में हमने निम्नलिखित मुद्दों पर विचार-विमर्श किया:

  • मराठा राज्य व्यवस्था पर नवीन इतिहास लेखन
  • मराठा राज्य संघ का उदय और इसके राज्य का विस्तार, जो मुगल शासन के दांचे में विकसित हुआ।
  • मराठा राज्य के संस्थानों का विकास। इस बात का भी संकेत किया गया कि इतिहासकार मराठा राज्य की संपति और प्रशासन संबंधी प्रक्रिया को एक बृहद पैमाने पर देखने की कोशिश कर रहे है जिसकी शुरुवात 15वीं शताब्दी से हो रही थी। वे इस विकास को मराठा राज्य काल की अवधि तक ही सीमित नहीं रख रहे है।
  • खेतिहर समाज की प्रकृति और नगदीकरण की प्रक्रिया।
  • क्षेत्रीय शक्तियों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ मराठों का संबंध।

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