आचरण का सुनहरा नियम पारस्परिक सहिष्णुता है: महात्मा गांधी।

प्रश्न: नीचे उद्धरण दिए गए हैं। इनमें से प्रत्येक का वर्तमान सन्दर्भ में आपके लिए क्या महत्व है, स्पष्ट कीजिए।

यह जानते हुए कि हम सब एक जैसा नहीं सोचेंगे और हम सदैव सत्य को खंडों में और विभिन्न दृष्टिकोणों से देखेंगे, आचरण का सुनहरा नियम पारस्परिक सहिष्णुता है। महात्मा गांधी।

दृष्टिकोण

  • दिए गए कथन के अर्थ को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए। 
  • वर्तमान समय के संदर्भ में दिए गए कथन की प्रासंगिकता स्पष्ट कीजिए।
  • निष्कर्ष के साथ उत्तर समाप्त कीजिए।

उत्तर

सामान्यतः व्यक्ति का व्यवहार उसके स्वयं के तर्क पर आधारित होता है और व्यक्ति का तर्क उसके मूल्यों, विश्वासों, अनुभवों इत्यादि पर आधारित होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में विभिन्न मूल्यों, विश्वासों और अनुभवों से प्रेरित होता है। इस प्रकार, लोग अपने अनुसार सही विधि से, किंतु भिन्न रूप में कार्य करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोग मानते हैं कि उनके द्वारा अपनायी गई विधि सही है। हालांकि अन्यों के साथ उनके मत और कार्यवाही में सदैव भिन्नता होती है, साथ ही इन अन्य लोगों की विधि भी उनके अनुसार सही होती है। बुनियादी मानव व्यवहार और मानव मन की सीमा को स्वीकार करते हुए महात्मा गांधी द्वारा वर्णित किया गया कि- ‘क्योंकि हम सदैव एक जैसा नहीं सोचते, अतः आचरण की सर्वोतम विधि भिन्न या विपरीत विचारों को सहिष्णुता से स्वीकार करते हुए कार्य करना है।

विविध मूल्यों, संस्कृति और सामाजिक मानदंडों वाले समाज में, समान मुद्दे पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होना स्वाभाविक है। ऐसे विविधतापूर्ण समाज में शांति के लिए सहिष्णुता आवश्यक है। एक व्यक्ति का आचरण विविधतापूर्ण विचारों, विचारधाराओं और संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता और सहानुभूति द्वारा निर्देशित होना चाहिए, साथ ही उसके द्वारा प्रेम, अहिंसा और मानवाधिकार जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को भी महत्व दिया जाना चाहिए। विविधता के प्रति कठोर और नकारात्मक व्यवहार इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि सत्य खंडित होता है और इस प्रकार व्यापक दृष्टिकोण को प्राप्त करने में विफल हो जाता है।

यद्यपि अन्तःकरण नैतिक आचरण हेतु श्रेष्ठ मार्गदर्शक होता है, लेकिन यह सभी के लिए समान नहीं है और इसलिए स्वयं के आचरण को दूसरों पर थोपना उनके अन्तःकरण की स्वतंत्रता का उल्लंघन करना है। जैन दर्शन के ‘स्यादवाद’- ‘सत्य की सापेक्षता सिद्धांत’ में भी इस दृष्टिकोण पर बल दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति को एक अनुदार दृष्टिकोण तक सीमित नहीं होना चाहिए ,क्योंकि इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।

समकालीन समय में, यह उद्धरण विश्व द्वारा सामना किये जा रहे विभाजनकारी मुद्दों जैसे क्षेत्र, धर्म, संपत्ति, रंग, इत्यादि के सन्दर्भ में एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है। असहिष्णुता सम्बन्धी दृष्टिकोण विचारों की अभिव्यक्ति के दायरे को प्रतिबंधित करता है। विविधतापूर्ण विचार परिचर्चा को समृद्ध करते हैं तथा ये नवाचार, प्रगति और समावेशी विकास के स्रोत  हैं।

सहिष्णुता के प्रति बौद्धिक आधार सम्मान, जिज्ञासा एवं संदेह और तर्कसंगतता से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, यह (बौद्धिक आधार) सहिष्णुता और स्वीकृति के मध्य विभेद हेतु भी आवश्यक होता है। विविधतापूर्ण विचारों को प्रोत्साहित किया जाना  चाहिए किंतु उनकी स्वीकृति केवल उनके भिन्न होने पर आधारित नहीं होनी चाहिए। स्वीकृति ऐसी बहस और विमर्श पर आधारित होनी चाहिए जिससे सभी को अन्य के ‘सत्य’ का ज्ञान प्राप्त हो सके और वे अधिक जागरुक और तर्कसंगत बन सके। हालांकि बहस में सक्रिय भागीदारी के लिए, सहिष्णुता पुनः आचरण का एक आवश्यक पहलू बन जाती है। इस प्रकार सहिष्णुता एक मूलभूत एवं सुनहरा नियम है।

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